‘सर्वव्यापक कर्मों का साक्षी परमात्मा मुनष्य को बुरे काम करने पर रोकता क्यों नहीं?’ -मनमोहन कुमार आर्य,

ओ३म्

ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरुप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, जीवों के प्रत्येक कर्म का साक्षी व फल प्रदाता है। जीवात्मा सत्य व चेतन, सूक्ष्म, एकदेशी, अल्पज्ञ, अनादि,  अविनाशी, नित्य, अजर, अमर आदि गुणों वाली सत्ता व पदार्थ है। जीवात्मा को पूर्वजन्म के अभुक्त कर्मों, पाप-पुण्य वा प्रारब्ध के आधार पर भिन्न भिन्न योनियों में से किसी एक योनि में जन्म प्राप्त होता है। मनुष्य योनि में जन्म लेने वाले बालक व युवा-वृद्ध आदि समय के साथ शैशव अवस्था को पाकर बाल अवस्था और फिर किशोरावस्था में प्रवेश करते हैं और उसके बाद युवा हो जाते है। मृत्यु पर्यन्त मनुष्य की शारीरिक अवस्थायें बदलती रहती हैं। हम अनेक मनुष्यों को कभी अच्छे व कभी बुरे कर्म करते हुए देखते हैं तो हमारे व अन्यों के मन में प्रश्न उठता है कि सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान और सभी जीवों के कर्मों का साक्षी ईश्वर इन पाप व बुरे कर्म करने वालों को बुरा काम करने से रोकता क्यों नहीं है? अनेक अल्पज्ञानी मनुष्य तो इसी कारण से नास्तिक बन जाते हैं। विषय कुछ कठिन है परन्तु जीव की स्वतन्त्रता के सिद्धान्त के आधार पर इस व ऐसे प्रश्नों का समाधान भी वैदिक धर्मियों के पास उपलब्ध है। वह समाधान क्या है? इस पर विचार करते हैं।

 

जीवात्मा कर्म करने में स्वतन्त्र है और अपने किये हुए कर्म के फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र वा पराधीन है। यहां हमें जीव को कर्म करने की स्वतन्त्रता के सिद्धान्त को समझना है। यदि यह समझ लिया तो समस्या का समाधान हो जायेगा। एक उदाहरण पर विचार करते हैं। हमारे देश में अनेक सरकारी अधिकारी काम करते हैं। उन्हें काम करने के नियम बता दिये जाते हैं और उन्हें उसके अन्तर्गत काम करने की स्वतन्त्रता होती है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध नियम बने हुए हैं। भ्रष्टाचार दण्डनीय अपराध होता है। प्रत्येक अधिकारी जानता है कि यदि उसने भ्रष्टाचार किया तो वह दण्डित किया जायेगा। इस पर भी वह लोभवश भ्रष्टाचार कर बैठता है। वह सोचता है कि किसी को पता नहीं चलेगा, वह धनवान बन जायेगा और सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करेगा। वह प्रथम बार छुप कर भ्रष्टाचार करता है और बच जाता है। अब उसे इस अनुचित आचरण का  संस्कार पड़ जाता है जो उसे पुनः बुरे कामों को करने की प्रेरणा करता है। वह अब बार बार अनुचित काम वा भ्रष्टाचार करता है। कभी न कभी वह फंस जाता है। उसके भ्रष्टाचार के प्रमाण उपलब्ध हो जाते हैं और उसे न केवल काम से हटा दिया जाता है अपितु जेल की सजा का दण्ड भी मिलता है। यहां हम देखते हैं कि भ्रष्टाचार के आरोप में उसे तब दण्ड मिलता है जब वह अपराध कर लेता है और जांच के बाद उसका अपराध सिद्ध हो जाता है। उसे कर्मं करने की स्वतन्त्रता थी इसलिये उसे बीच में रोका नहीं गया। दण्ड विधान के डर से वह बुरा काम नहीं करेगा, इसकी उससे अपेक्षा की जाती है। जब उसका अपराध पूरा हो गया और उच्चाधिकारियों को इसकी जानकारी मिली तो उसे जांच कराकर उसके अपराध के अनुसार दण्ड दिया गया। दण्ड मिलने पर उसको पश्चाताप होता है। जीवात्मा के साथ भी कुछ इसी प्रकार व्यवहार ईश्वर करता है। जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है, अतः ईश्वर उसको अपराध न करने की प्रेरणा, उसके मन में भय-शंका-लज्जा आदि उत्पन्न कर, करता तो है परन्तु जीव की स्वतन्त्रता के कारण उसे बलपूर्वक रोकता नहीं है। यदि वह मनुष्य को बुरे काम करने से बलपूर्वक रोके तो फिर यह जीव की स्वतन्त्रता में बाधा होगी। हमने कई बार गलती करने, यथा नशा करने व बुरे लोगो की संगति करने आदि मामलों में माता-पिता द्वारा अपने बच्चों को डांटे जाने पर बच्चों को यह कहते हुए सुना है कि यह जिन्दगी उनकी है, वह जो चाहें सो करें। इस पर कुछ माता-पिता तो मौन हो जाते हैं और कुछ उत्तर देते हैं परन्तु फिर भी माता-पिता की सलाह को मानना व न मानना उनकी सन्तानों के अपने अधिकार व वश में है। यहां माता पिता को दण्ड देने का अधिकार नहीं है परन्तु माता-पिता जानते हैं कि सन्तान के बुरे कर्मों का परिणाम व फल भविष्य में बुरा ही होना है। यह कर्म-फल सिद्धान्त है और बुरे कर्म का यथासमय दुःखरूपी बुरा फल मिलना ही ईश्वरी नियम है। अच्छे काम करने से मनुष्य की उन्नति होती है, वह सुखी होता है और अशुभ कर्म करने से अवनति होकर दुःख पाता है। ईश्वर जीवात्मा को बुरे काम न करने की प्रेरणा तो देता है परन्तु बलपूर्वक रोकता नहीं है क्योंकि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है। हां, जीव को भविष्य में अपने किए हुए बुरे कर्म का दुःख रूपी फल अवश्य मिलता है। जीव को बुरे कर्मों को करते समय व कर्म करने से पूर्व ही रोकना व कर्म की समाप्ती पर भी दण्ड न देकर बहुत बाद में दण्ड देना, इसका कारण बहुत लोगों की समझ में नहीं आता और इस अनभिज्ञता के कारण कई बार शिक्षित व अशिक्षित लोग कर्म संबंधी गलत निर्णय कर बैठते हैं।

 

यहां एक समस्या यह भी आती है कई लोग बुरे कर्म करते हैं और सुखी देखे जाते हैं और म्त्यु तक भी उनके बुरे कर्मों का फल उनको मिलता हुआ नहीं देखा जाता। इसका क्या कारण है? इसका कारण जो समझ में आता है वह यह है कि जीव अनादि व अमर है और अनन्त काल तक उसका जन्म व मरण होता रहेगा। एक जन्म के बचे हुए कर्मों को वह आगामी जन्म में व उसके बाद के जन्मों में भी भोग सकता है। हमें यह जो जन्म मिला है इसकी जाति, आुय व भोग हमारे प्रारब्ध अर्थात् पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार निर्धारित व निश्चित हुए हैं। इसका प्रमाण योगदर्शन में महर्षि पतंजलि ने दिया है और बताया है कि मनुष्य के पूर्वजन्म के कर्मों वा प्रारब्ध के अनुसार ही जीवात्मा के भावी जन्म के जाति, आयु व भोग निर्धारित होते हैं। मनुष्य वा किसी भी प्राणी पूर्ण आयु को जीवन का भोग काल कह सकते हैं और जिन कर्मों का भोग करना है वह भी पूर्वजन्म के कर्मों पर ही अधिकांशतः आधारित है। इस जन्म के क्रियमाण कर्मों से इतर कर्म अभी पके नहीं, अतः उनके पकने पर ही फल मिलेगा। कर्म के पके बिना ही बीच में सभी क्रियमाण व अन्य संचित होने वाले आदि कर्मो के फल दे देना ईश्वर की न्याय व्यवस्था में सम्मिलित नहीं है। कुछ क्रियमाण कर्मों का फल मिलता है और कुछ कर्म संचित खाते में चले जाते हैं। यदि इस जन्म में संचित श्रेणी के कर्मों का फल पहले दे दिया जायेगा तो पिछले कर्म तो बचे ही रहेंगे। न्याय यही कहता है कि पहले पुराना कर्मों का ऋण चुकता हो फिर नया चुकता किया जाये। यह बात जहां बुरे कर्मों पर लागू होती है वहीं नये शुभ कर्मों पर भी लागू होती है। हम ईश्वरोपासना, यज्ञादि एवं माता-पिता-आचार्यो व पात्रों की सेवा व सत्कार करते हैं। इन कर्मों का फल हमें साथ-साथ नहीं मिलता। इसी तरह से सभी बुरे कर्मों का भी नहीं मिलता। जिन व कुछ क्रियमाण कर्मों का फल मिल जाता है उनसे अतिरिक्त बचे हुए कर्म संचित कर्म बन जाते हैं जिनका फल बाद में, परजन्म व जन्मों में मिलता है, ऐसा वैदिक साहित्य सहित विचार व चिन्तन करने पर ज्ञात होता है और यह उचित ही है। वेद ने तो मनुष्य को आगाह व सावधान किया ही हुआ है कि, हे मनुष्य! तू वेद विहित कर्मों को करते हुए सौ वर्ष व अधिक आयु पर्यन्त सुखपूर्वक जीवित रहने की इच्छा करे। इससे अच्छा अन्य कोई मार्ग नहीं है। अतः निष्कर्ष यही निकलता है कि जिस प्रारब्ध व जिन कर्मों के आधार पर हमारा जन्म हुआ, जाति मिली, आयु निश्चित हुई व भोग निर्धारित हैं, इस जन्म में पहले उनका ही हमें भोग करना होगा और इस जन्म के कर्मों का फल, क्रियमाण के अतिरिक्त, इस जन्म के बाद परजन्मों में मिलेगा। अतः कर्म फल सिद्धान्त व ईश्वर के विधान को समझना व विश्वास करना ही सच्ची आस्तिकता व मनुष्य के लिए श्रेयस्कर है। बुरा व्यक्ति इस जन्म में अपने पूर्व कर्मों के कारण सुखी है। पाप कर्मों को करके भी उसे सुख मिल रहा है परन्तु जब इसका फल ईश्वर देगा तो उसे दुःख की स्थिति से ही गुजरना होगा। यह स्थिति इस जन्म व अगले जन्मों में निश्चित रूप से प्राप्त होगी।

 

हम समझते हैं कि जो लोग बुरा काम करते हैं और उसकी सफलता में प्रसन्न होते हैं वह अज्ञानी ही कहे जायेंगे क्योंकि उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं। अर्थात् मनुष्य को अपने किये हुए सभी कर्मों के सुख-दुःख रूपी फल अवश्यमेव भोगने होंगे। इन्हीं शब्दों के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘ईश्वर व जीवात्मा विषयक यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति का सरल उपाय’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

ईश्वर के सत्य स्वरूप का ज्ञान विद्वानों के उपदेशों को सुनकर अथवा वेद वा वैदिक साहित्य के अध्ययन से प्राप्त होता है। पूर्ण नहीं अपितु कुछ मात्रा में यह ज्ञान वैदिक धर्मी माता-पिताओं की सन्तानों को भी परम्परा व संगति से प्राप्त हो जाता है। आजकल के धार्मिक कथाकारों के उपदेशों व प्रवचनों पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होता है कि वह ईश्वर व जीवात्मा के सत्य व शुद्ध स्वरुप का यथार्थ वर्णन नहीं करते अपितु अपने अपने मत व आस्थाओं के अनुसार प्रचार करते हैं। उन्हें यह भी ध्यान रहता है कि उन्हें अपने अज्ञानी भक्तों को गुरू व महापुरुष के रूप में स्थापित करना है। उनके भक्तों से संगति करने पर मनोवैज्ञानिक आधार पर ज्ञात होता है कि उन्हें कुछ ऐसी शिक्षा दी गई है कि उनके गुरु-महाराज ही सबसे अधिक ज्ञानी हैं। अन्य गुरुओं की बात सुनना व उनकी विशेषताओं को जानने का वह प्रयास ही नहीं करते हैं। इसे ज्ञान घोटाला या बौद्धिक पतन ही कह सकते हैं। ज्ञानी तो कोई भी मनुष्य हो सकता है। ज्ञानी बनने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य सत्य ज्ञान की प्राप्ति का संकल्प धारण किये हुए हो और वह केवल एक पुरूष व गुरु से ही अपने आपको न बांधे अपितु उसे जहां से जो भी अच्छी बात पता चले, उसे प्राप्त कर उसके आगे और अनुसंधान व अध्ययन कर उसे परिपक्व व समृद्ध करे। हम यह भी अनुभव करते हैं कि सभी धार्मिक कथाकारों को अपनी अपनी मान्यताओं का एक पुस्तक अवश्य लिखना चाहिये जैसा कि महर्षि दयानन्द ने स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश एवं आर्योद्देश्यरत्नमाला नाम से दो लघु पुस्तकें लिखी हैं। आज भी यह पुस्तकें मात्र एक या दो रूपये में मिल जाती हैं। इन पुस्तकों में धर्म के सभी सिद्धान्तों को बहुत ही संक्षिप्त रूप से परिभाषित किया गया है। इसको पढ़कर जब अन्य मतों के आचार्यों व उनके अनुयायियों को सिद्धान्तों व आचरणों को देखते हैं तो हमें यह ज्ञात होता है कि वह सभी अज्ञान व भ्रान्तियों से भरे हुए हैं। एक ही विषय में दो सत्य व दो सिद्धान्त जो परस्पर विरोधी हों, सम्भव नहीं हैं। हां, सिद्धान्तों की व्याख्या करने पर शब्दों में अन्तर आ सकता है परन्तु भाव समान ही रहते हैं। विज्ञान का अध्ययन करने पर हम जान पाते हैं कि संसार के सभी वैज्ञानिकों का एक ही विषय पर एक ही सिद्धान्त है। सारी दुनियों में वैज्ञानिक सिद्धान्त एक समान है। इसे देखकर क्या यह विदित नहीं होता कि मनुष्यों के धार्मिक आचरण व उपासना के सिद्धान्त भी एक ही होने चाहियें। हमें तो वेद वैदिक साहित्य पढ़कर यही उपयुक्त प्रतीत होता है कि संसार के सारे मनुष्य एक ही परमात्मा की सन्तानें हैं जो अपने अपने पूर्व जन्मों के प्रारब्ध के अनुसार सुखदुःख रूपी भोग भोगने के लिए ईश्वर द्वारा उत्पन्न किये गये हैं। इनकी उत्पत्ति का कारण सत्य का ग्रहण करना असत्य का त्याग करना है। यह कार्य इनको शिक्षित कर ही किया जा सकता है। उपदेश व पुस्तकों का अध्ययन भी शिक्षा का एक प्रकार है। यदि मनुष्य को सत्य उपदेशक और सत्य पुस्तकें प्राप्त हो जाये तो उसे अपना जीवनयापन व सत्य सिद्धान्तों पर आधारित धर्म कर्म करने में सुविधा होती है, हमें भी हुई है, और इससे सामाजिक व वैश्विक सुख व शान्ति स्थापित किये जा सकते हैं।

 

उपदेश, प्रवचन, व्याख्यान आदि शिक्षा ज्ञान प्राप्ति का मुख्य सरलतम मार्ग है। इसके लिए सत्य उपदेशक ज्ञानी पुरुष की आवश्यकता होती है जो निष्पक्ष, स्वार्थ रहित, ईश्वर भक्त, वेदभक्त, देशभक्त, समाजसेवी, मुमुक्षु, परोपकारी, सेवाभावी, दानीस्वभाववाला, एक ईश्वरोपासक, दम्भ अहंकार से रहित, धन सम्पत्ति से दूर रहने वाला, अपरिग्रही, सुखसुविधाओं का न्यूनतम मात्रा में सेवन करने वाला, पुरुषार्थी, तपस्वी स्वभाव वाला होने के साथ वेद वैदिक साहित्य से पूर्णतया परिचित उसका यथार्थ ज्ञान रखने वाला हो। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि वह संसार के सभी मनुष्यों के रंग रूपादि के पक्षपात से रहित होकर सबको एक परमात्मा की सन्तान समझे। यदि ऐसा नहीं होगा तो न तो वह सच्चा ज्ञानी हो सकता है और न ही वह उसका प्रचार कर सकता है। आजकल के धार्मिक प्रचारक प्रायः व्यासायिक प्रवृत्ति के देखे जाते हैं जिनके पास प्रभूत धन व सम्पत्ति है और जो सुखी व ठाट-बाट का जीवन बिताया करते हैं, अतः उनमें सच्चा ज्ञानी धार्मिक गुरु होने की पात्रता नहीं है। उनका जीवन ऐसा है कि महाभारत काल तक के हमारे सभी ऋषियों व तपस्वियों ने ऐसा जीवन नहीं बिताया जो आजकल के धार्मिक प्रचारकों से कहीं अधिक ज्ञानी व विद्वान थे तथा योग व समाधि तक को जिन्होंने अपने ज्ञान व पुरुषार्थ से सिद्ध किया हुआ था। अतः हमें लगता है कि आजकल के सभी भक्तों को अपने धर्म प्रचारकों व गुरुओं की परीक्षा लेनी चाहिये कि वह कहां तक सदगुरु की भूमिका में हैं अथवा नहीं। इसका सरलतम उपाय यह है कि सभी धार्मिक भक्त व श्रद्धालु मनुष्य महर्षि दयानन्द का जीवन चरित पढ़े और उनके बाद हुए सच्चे धार्मिक विद्वानों व उपदेशकों जिनमें से कुछ के नाम हैं, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ, स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती, पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, स्वामी स्वतन्त्रतानन्द, स्वामी सर्वानन्द सरस्वती, पं. भगवद्दत्त, पं. रामनाथ वेदालंकार, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, स्वामी अमर स्वामी सरस्वती, पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय, स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती आदि के जीवन चरितों का अध्ययन कर व इनसे आजकल के धार्मिक गुरुओं की जीवनचर्याओं व उनकी शिक्षाओं से तुलना कर सत्य को ग्रहण करें। हमें लगता है कि शायद कोई भी आधुनिक गुरु इन महापुरुषों के जीवन चरित के अनुरुप नहीं मिलेगा। यदि इन पूर्व हुए महापुरूषों के जीवन चरित व इनके ग्रन्थों वा उपदेशों का अध्ययन कर लिया जाये तो फिर किसी को धार्मिक गुरु बनाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। वह पाठक व अध्येता स्वयं ही गुरु बन जायेगा और उसे ईश्वर व जीवात्मा का सत्यस्वरुप ही नहीं अपितु इनकी प्राप्ति का सत्य व सरलतम मार्ग भी ज्ञात हो जायेगा और इससे उनका जीवन सफल हो सकेगा। हां, इसके साथ-साथ योग की शिक्षा के लिए किसी योगाभ्यासी गुरु की शरण लेकर उससे ध्यान की विधि सीखी जा सकती है जिससे की वह ईश्वर का ध्यान कर समाधि अवस्था को प्राप्त होकर अपने जीवन को अधिकतम सुख व परमानन्द की अवस्था में पहुंचा सके।

 

उपदेशक के बाद ईश्वर व जीवात्मा विषयक सत्य ज्ञान की प्राप्ति का उपाय सत्य ज्ञान पर आधारित पुस्तकें हैं। इस श्रेणी में बहुत सी पुस्तकें हो सकती है। महर्षि दयानन्दकृत सत्यार्थप्रकाश इन सभी पुस्तकों में प्रमुख एक पुस्तक है। इसके बारे में देश व विश्व में भ्रान्तियां विद्यमान हैं जिन्हें वेदेतर धर्मियों ने अपने अज्ञान व स्वार्थ के कारण फैलाया है। निष्पक्ष भाव से विचार करने पर लगता है कि संसार के जितने मत-मतान्तर हैं वहां ईश्वर व जीवात्मा का सत्य व शुद्ध स्वरूप उपलब्ध न होने तथा इसी कारण से उपयुक्त उपासना पद्धति न होने के अभाव में उनके अनुयायी अधिकांश व सभी मनुष्य धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के लाभ से वंचित रहते हैं और उनका यह मनुष्य जन्म व्यर्थ व भावी जन्मों में अवनति एवं दुःख के रूप में ही परिणत होता है। इसके लिए केवल एक ही उपाय है कि सभी मतों के विद्वान अपने धार्मिक आग्रहों का त्याग कर सच्ची जिज्ञासा से ईश्वर व जीवात्मा के सत्य स्वरूप व सत्य व्यवहार व आचरण को जाने और ईश्वर की इच्छा व अपेक्षा के अनुरूप ही अपना जीवन बनायें। यही मनुष्य का कर्तव्य व धर्म हैं। वैदिक धर्म इसी धर्म का मूर्त रूप है जिसका प्रचार महर्षि दयानन्द जी ने किया। उनके समकालीन व परवर्ती लोगों ने अपने-अपने अज्ञान पर आधारित परम्परागत व रूढि़गत विचारों के कारण उनका बहिष्कार ही किया। परम्परा व रूढि़यों के कारण मनुष्य पर जो प्रभाव देखा जाता है वह यही होता है कि मनुष्य अपनी मिथ्या मान्यताओं के विरुद्ध सत्य मान्यताओं पर विचार भी करना नहीं चाहता व उनकी उपेक्षा ही करता है। इस पर यदि उसके सबसे निकट परिवारजन व तथाकथित धर्मगुरू आदि उसे सत्परामर्श न दें तो फिर उससे सत्य को ग्रहण कराना और असत्य को छुड़वाना असम्भव कार्य हो जाता है। यही हमें वर्तमान समय में हो रहा अनुभव होता है।

 

लेख को विराम देने से पूर्व हमें यह बताना है कि धर्म का सम्बन्ध मनुष्य की आत्मा की उन्नति से है। आत्मा की उन्नति मनुष्य की धन-सम्पत्ति व शारीरिक स्वास्थ्य की उन्नति से सर्वथा पृथक है। आत्मा की उन्नति का तात्पर्य मनुष्यों के श्रेष्ठ आचरणों व ईश्वर की सरलतम व कारगर विधि से उपासना करने से है  जिससे उपासना से होने वालो लाभों का प्रभाव मनुष्य के स्वभाव व आचरण में परिलक्षित हो। इसका तात्पर्य है कि मनुष्य सत्यवादी व सत्याचारी बने। मिथ्याचार का सर्वथा त्याग कर दे जिसमें रिश्वत, भ्रष्टाचार, दूसरे के अधिकारों का हनन, अन्याय व शोषण आदि कार्य व आचरण सम्मिलित हैं। इसके विपरीत धार्मिक मनुष्य वह होता है जो श्रेष्ठाचार करते हुए स्वात्मोन्नति सहित देश, समाज सहित प्राणी मात्र की उन्नति व विकास में सहयोगी होता है। इसके लिए सच्चे महापुरूष महर्षि दयानन्द जी आदि के जीवन से प्रेरणा लेते हुए वेद, उपनिषद, दर्शन, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका व योग आदि का अध्ययन व उसका जीवन में आचरण करना ही सर्वांगीण मनुष्योन्नति का कारण है। आजकल यह सभी ग्रन्थ हिन्दी में भाष्य व अनुवाद सहित उपलब्ध हैं जिनसे लाभ उठाया जा सकता है। हम आशा करते हैं कि पाठक लेख में प्रस्तुत विचारों से सहमत होंगे।

 

 –मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

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‘ईश्वर मनुष्यों सहित सभी प्राणियों का सदा सर्वदा का साथी और रक्षक है’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

तर्क और युक्ति के आधार से यह सिद्ध किया जा सकता है कि इस संसार का रचयिता और पालक ईश्वर है। जो लोग इस विचार से सहमत न हों, उनका यह दायित्व बनता है कि वह इसका प्रतिवाद वा वैकल्पिक उत्तर युक्ति व तर्क पूर्वक दें। हमारा अनुमान है कि इसका अन्य कोई उत्तर नहीं हो सकता। कहने के लिए तो तथाकथित बुद्धिजीवी व कुछ वैज्ञानिक कह दिया करते हैं कि यह संसार अपने आप बना है और स्वतः ही चल रहा है। ईश्वर नाम की कोई चेतन व सर्वव्यापक पृथक सत्ता इसको नहीं चली रही है। उनको जब इस मिथ्या सिद्धान्त को सिद्ध करने के लिए कहा जाता है तो वह इसे सिद्ध नहीं कर पाते और मौन धारण कर लेते हैं। मौन रहने का अर्थ ही है कि यह उनका कपोल कल्पित विचार है जो किसी ठोस कारण व प्रमाण पर आधारित नहीं है। हम जानते हैं कि संसार में मुख्यतः दो प्रकार के पदार्थ, तत्व या सत्तायें हैं। पहली चेतन सत्ता है व दूसरी जड़। प्रकृति जड़ है और ईश्वर व जीव चेतन हैं। जड़ प्रकृति से किसी सार्थक व सप्रयोजन रचना के लिए किसी बुद्धियुक्त चेतन सत्ता की आवश्यकता होती है। यदि रचना करनेवाली चेतन सत्ता नहीं है तो रचना व कार्य नहीं हो सकता। हम अपने रसोई घर का उदाहरण ले सकते हैं। घर में रोटी बनाने का सभी सामान है। परन्तु रोटी तभी बनेगी जब एक चेतन सत्ता अर्थात् रोटी बनाने का जानकार उन सब वस्तुओं का सदुपयोग कर विधि के अनुसार रोटी का निर्माण करें। इसी प्रकार सत्व, रज व तम गुणों वाली सूक्ष्म प्रकृति एक जड़ तत्व है जो रोटी के समान ही इस कार्य सृष्टि का उपादान कारण है। यदि चेतन निमित्त कारण नहीं होगा तो सृष्टि की रचना नहीं हो सकती। यह ब्रह्माण्ड किसी एकदेशी, अल्प ज्ञानी व अल्प सत्ता के द्वारा नहीं रचा जा सकता। इसकी रचना के लिए एक सर्वदेशी वा सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सृष्टि रचना का ज्ञान रखने वाली सत्ता की आवश्यकता है। इन सभी गुणों से पूर्ण सत्ता को ईश्वर कहते हैं। इस सत्ता का प्रमाण समाधि में इसका प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार होने पर मिलता है। महर्षि दयानन्द सहित उनके पूर्ववर्त्ती अनेक ऋषि व योगी ध्यान व समाधि द्वारा ईश्वर का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार कर चुके हैं। आज भी अनेक योगी ध्यान की साधना करते हैं और उनमें से कुछ ईश्वर का साक्षात्कार करने में सफल भी होते हैं। यदि किसी वैज्ञानिक, नास्तविक व हठी स्वभाव के व्यक्ति को यह बात अस्वीकार्य लगे तो उसे योगदर्शन के अनुसार ध्यान व समाधि का अभ्यास करना चाहिये और यौगिक जीवन के अनुसार सभी यम व नियमों का पूर्ण पालन करना चाहिये तो उनकी शंका दूर हो जायेगी। सृष्टि की रचना विषयक वैदिक विचार व सिद्धान्तों को जानने के लिए सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सबसे सरल व सुलभ ग्रन्थ हैं। इनकी सहायता से भी सृष्टि की रचना में ईश्वर की भूमिका व उसके निमित्त कारण होने को भलीभांति जाना जा सकता है।

 

इस लेख में हम चर्चा कर रहे हैं कि ईश्वर सभी प्राणियों का रक्षक है। जब हम अपने अस्तित्व पर विचार करते हैं तो हमें यह ज्ञात होता है कि हमारा जन्म यद्यपि माता-पिता से हुआ अवश्य है परन्तु सन्तान के शरीर की रचना व उसमें जीवात्मा का प्रवेश माता-पिता नहीं कराते। यह कार्य कौन करता है, उसी को ईश्वर कहते हैं। हम स्वयं भी पिता है और हम यह अच्छी तरह से जानते हैं कि पिता अपनी सन्तान के भौतिक शरीर का निर्माता व उसमें आत्मा का प्रवेश कराने वाली सत्ता नहीं है। यदि ईश्वर ने यह कार्य किया है, यह सत्य सिद्ध है, तो वह अवश्य ही हमारी रक्षा भी करेगा। इसका प्रमाण यह है कि प्रत्येक रचनाकार अपनी सभी रचनाओं की स्वयं ही रचना करता है। अतः इस सृष्टि व इसके प्राणियों की रचना ईश्वर से होने के कारण इनकी रचना का दायित्व ईश्वर पर ही है जो कि सर्वशक्तिमान होने से यह कार्य सुगमता से करने में पूर्ण समर्थ है। हम देखते हैं कि माता-पिता अपनी सन्तान को जन्म देते हैं और उसकी यथासम्भव रक्षा भी करते हैं। आचार्य अपने शिष्य को ज्ञान देता है और शिष्य पर किसी भी प्रकार की आपत्ति आने पर आचार्य उसकी सभी प्रकार से रक्षा करता है। ईश्वर ने हमें उत्पन्न किया वा हमें इस संसार में भेजा है, तो रक्षा का दायित्व भी उसी के ऊपर है। ईश्वर ने ही हमारे प्राणों के लिए स्वास्थ्यप्रद वायु को बनाया और उसे पूरी पृथिवी पर उपलब्ध कराया है। इसी प्रकार उसने हमारी आंखों को देखने में सहायता के लिए सूर्य का निर्माण किया जो न केवल हमारे आंखों को सार्थक करता है वहीं अनेकानेक हितकारी प्रयोजनों को भी सिद्ध करता है। इसी प्रकार जल शरीर की आवश्यकता है। ईश्वर ने ही जल की रचना कर उसे उपलब्ध कराया है और उसके शरीर में प्रवेश के लिए मुखान्द्रिय की रचना की है। यह सब कार्य ईश्वर ने हमारे शरीर व हमारी रक्षा के लिए ही किये हैं। यदि विचार को जारी रखा जाये तो यह सिद्ध होता है कि ईश्वर अनेकानेक प्रकार से हमारी रक्षा करता है। यदा-कदा अपथ्य के कारण हम रोगी हो जाते हैं, तब ऐसे समय में हमारे शरीर की आन्तरिक शक्तियां रोग को ठीक करने में लग जाती हैं। यदि हम रोगकाल में अन्न का भोजन त्याग दें और गोदुग्ध व कुछ फलों या तरकारियों की तरी वा प्रव पदार्थ का ही प्रयोग करें तो हम ठीक हो जाते हैं। बड़े रोगों से बचाव के लिए ईश्वर ने ओषधियां भी बना कर उपलब्ध कराई हुईं है जिनका ज्ञान हमें वेदों से होता है। इसके साथ हि वेदों के साक्षात्दर्शा चरक, सुश्रुत व धन्तन्तरी आदि ऋषियों ने वेदों के आधार व अपने विवेक से आयुर्वेद के ग्रन्थों को हमें उपलब्ध कराया है जो हमें निरोग रखने में सहायक हैं जिससे हमारी रक्षा होती है।

 

जाको राखे साइयां मार सके कोए, बाल बांका कर सके जो जग बैरी होय। यह पंक्तियां हमने जीवन में अनेक बार सुनी हैं। इन पंक्तियों के शब्द पूरी तरह सत्य प्रतीत होते हैं। हमारे अपने अनुभव भी इससे पूरी तरह से मिलते जुलते हैं। अनेक अवसरों पर हमारे प्राणों की रक्षा किसी दैवीय सत्ता द्वारा हुई है। यह सर्वव्यापक ईश्वर द्वारा ही की जाती है। ऐसी घटनायें घटती रहती हैं जहां मनुष्य मौत के मुंह से भी बाहर सुरक्षित निकल आता है। महर्षि दयानन्द जी के जीवन की रक्षा भी अनेक बार हुई जब वह विपत्तियों में थे। विपत्तियों में मनुष्यों की रक्षा को ईश्वर की कृपा और उनके अपने-अपने प्रारब्ध को ही माना जा सकता है। कर्म-फल सिद्धान्त के अनुसार यह विषय जटिल है जिसे इसे मनुष्य पूरी तरह जान व समझ नहीं पाता। ईश्वर न्यायकारी है और उसके ही नियमों के अनुसार जीवन में अनेक विपरीत अवसरों पर मनुष्यों की रक्षा होती प्रत्यक्ष देखी जाती है। हम भी एक बार अपने दो पहिये के वाहन सहित एक खड़ी बस के पीछे से बस के दोनों पहियों के बीच से होते हुए अगले पहियों के पास जाकर रूके थे। कुछ ही क्षण बाद जब हमें अपने जीवित होने का अहसास हुआ तो वह बस स्टार्ट होकर चल पड़ी क्योंकि बस के चालक व उसके यात्रियों को दुर्घटना का ज्ञान नहीं हो सका था। हमने स्वयं को और अपनी दोपहिया गाड़ी को बचाने का प्रयास किया और बस हमारे ऊपर से निकल गई। हजारों की भीड़ ने यह दृश्य देखा तो उन्हें यह चमत्कार ही लगा। उस घटना में बिना किसी प्रकार की हानि के सुरक्षित बचना हमें ईश्वर की रक्षा व कृपा के अतिरिक्त अन्य कुछ लगता नहीं है।

 

वेदों में तो ईश्वर को जीवात्मा का सनातन साथी, मित्र, बन्धु, सखा, रक्षक, माता, पिता, आचार्य आदि कहा गया है। उसकी रक्षा से ही हम हर क्षण जीवित व सुखी होते हैं। वेद मन्त्र कहता है कि यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम अर्थात् उस ईश्वर का आश्रय ही मोक्ष सुखदायक है और उसको न मानना अर्थात् भक्ति न करना ही मृत्यु आदि दुःखों का हेतु है। अतः हमें उस सुखस्वरूप सकल ज्ञान के देने हारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्मा और अन्तःकरण से भक्ति करनी चाहिये। ईश्वर के विषय में वेद के यह शब्द पूर्ण सत्य हैं। इस पर विश्वास करने व इस भावना के अनुससार जीवन व्यतीत करने से लाभ ही होगा, हानि किेंचित नहीं होगी। यदि इसको न मानकर जीवन व्यतीत करेंगे तो हमें भारी हानि उठानी पड़ सकती है। किसी को भय मुक्त करना भी रक्षा की ही एक विधा है। यजुर्वेद के 36/22 मन्त्र में यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु। शन्नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः।। कहकर सर्वव्यापक ईश्वर स्वयं ही अपने स्तोता वा उपासक को न केवल मनुष्यों व पशुओं से ही अपितु उसे सभी स्थानों पर भयमुक्त करने का विधान कर रहे हैं। इस प्रसंग में एक महत्वपूर्ण बात यह जानने योग्य है कि ईश्वर सदा सर्वदा जीवात्मा के साथ रहता है। वह अनादि काल से जीवात्मा का हर पल और हर क्षण का साथी है और अनन्त काल तक रहेगा। वह सर्वशक्तिमान है, अतः उससे अधिक अच्छी हमारी पूर्ण रक्षा और कोई नहीं कर सकता। ईश्वर जीवात्मा का साथ कभी नहीं छोड़ता, वह सदा से हमारा साथी व मित्र है व सदा रहेगा। यह जानकर हमें अभय व निश्चिन्त होकर उसकी स्तुति व उपासना करनी चाहिये और जीवन को सुखपूर्वक व्यतीत करना चाहिये। इन्हीं शब्दों के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

फोनः09412985121

संरक्षण औचित्य का, आरक्षण का नहीं: – डॉ. धर्मवीर

 

आरक्षण के औचित्य और अनौचित्य को लेकर समय-समय पर विचार होता रहता है। विगत दिनों दो मुय व्यक्तियों की टिप्पणियाँ चर्चित रहीं, इनमें प्रथम- राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत की टिप्पणी का अपना महत्त्व है। जब बिहार विधानसभा के चुनाव चल रहे थे, तब संघ चालक की टिप्पणी ने बिहार में भाजपा को और मोदी को जो लाभ पहुँचाया, उसे पार्टी और सरकार दोनों बहुत समय तक याद रखेंगे। तब सर संघ चालक ने कहा था- आरक्षण की निरन्तरता पर विचार होना चाहिये। लालू और नीतीश को ऐसा हथियार मिला कि पूरे चुनाव में इसे खूब चलाया, इतना चलाया कि लोगों ने बिहार में भाजपा की हार का इसे बड़ा कारण बताया। उस चुनाव के समय इस प्रकार की टिप्पणी अनावश्यक थी, परन्तु कुछ वक्तव्यों  एवं घटनाओं का मूल्य घटित होने के पश्चात् पता लगता है। घटते समय या पूर्व उसका अनुमान लगाना बहुत कठिन होता है और जो लोग घटित बातों के परिणाम का अनुमान लगा सकते हैं, वे इस प्रकार की घटनाओं को घटित ही नहीं होने देते।

अभी 17 दिसबर को एक समेलन में ‘सामाजिक समावेश’ के सन्दर्भ में बोलते हुए अपने पुराने विचारों के विपरीत, उन्होंने कहा, ‘‘आरक्षण प्रणाली को खत्म करने का सवाल ही नहीं उठता। यह व्यवस्था भारतीय समाज में भेदभाव मौजूद रहने की स्थिति तक बनी रहनी चाहिए। सामाजिक समावेश की शुरूआत खुद से कर उसे दूसरे परिवार और फिर समाज तक बढ़ानी चाहिए। इस सामाजिक विविधता को बरकरार रखते हुए अंजाम दिया जाना चाहिए। इसके अलावा हिन्दुत्व के पीछे की भावनाओं, मूल्यों और दर्शनों का अनुसरण करना चाहिए।’’ समाचार पत्र आगे लिखता है- ‘‘सामाजिक समरसता एवं अखण्डता के बारे में संघ प्रमुख ने कहा कि कोई भी धर्म, सप्रदाय, समाज-सुधारक या सन्त मानव समुदाय के बीच भेदभाव का समर्थन नहीं कर सकता।’’ (दैनिक जागरण कोलकाता, 18 दिसबर)

इसमें पहली टिप्पणी अवसर के विपरीत थी तो दूसरी सिद्धान्त के विपरीत। दूसरी टिप्पणी में आगे कहा गया है कि आरक्षण तब तक चलता रहना चाहिए जब तक आरक्षण प्राप्त लोग स्वयं ही इसको समाप्त करने की माँग न करें। पं. नेहरू ने भी हिन्दी को तब तक राष्ट्रभाषा न बनाने की बात कही थी, जब तक एक भी प्रदेश उसका विरोध करेगा। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति ऐसे कथन का कहीं से भी समर्थन नहीं कर सकता। संघ प्रमुख की प्रथम टिप्पणी समयोचित नहीं तो दूसरी टिप्पणी सिद्धान्त के विपरीत और समाज के लिए लाभदायक नहीं है। ऐसी परिस्थिति पर लोक में कहावत है- किसी ने कहा कि मेरे पिता ने दूसरी शादी कर ली। लोगों ने कहा- बुरा किया। कुछ दिनों बाद जब लोगों ने बुरा माना तो उसने फिर बताया- मेरे पिता ने दूसरी शादी छोड़ दी, तो लोगों ने कहा- यह उससे भी बुरा किया।

यह देश पिछले पाँच हजार साल से आरक्षण से ही पीड़ित है। यहाँ जन्म आरक्षित है, यहाँ कर्म आरक्षित है, यहाँ ज्ञान आरक्षित है, यहाँ अधिकार आरक्षित हैं, यहाँ साधन-सपत्ति आरक्षित है, यहाँ तो सभी कुछ आरक्षित है। इस आरक्षण के कारण ही यह देश दास बना। हजार साल तक दासता की बेड़ियों से निकला भी तो दूसरे आरक्षण के रूप में दासता का पट्टा गले में डालकर। मोहन भागवत कहते हैं- आरक्षण प्रणाली खत्म करने का सवाल ही नहीं उठता। यहाँ तो जिन्होंने हजारों साल से आरक्षण का ठेका ले रखा था, उनकी दुकानें उठ रही हैं। यह नया आरक्षण ऐसी कौन-सी चीज है, जिसे खत्म करने का सवाल नहीं उठता? खत्म करने का सवाल तो पहले वक्तव्य में आपने ही उठा दिया, फिर दूसरा क्यों नहीं उठायेगा।

लोग कहते हैं- आरक्षण से समाज में समानता बढ़ेगी। पहले के आरक्षण से समाज में समानता नहीं आई, तो इसमें कौन रामबाण नुस्खा लगा है, जो समाज में समानता उत्पन्न कर देगा? आरक्षण अयोग्यता का और स्वार्थ का है। जिस दिन ब्राह्मण ने आरक्षण किया था, तब भी उसने सारे अधिकार जन्म के आधार पर अपने लिये आरक्षित कर लिये थे। जब ब्राह्मण के आरक्षण से समाज या देश का भला नहीं हुआ, तब दलित के आरक्षण से समाज का भला कैसे हो जायेगा? ब्राह्मण या सवर्ण व्यक्ति जन्म के आधार पर अपने पद, पैसे, सुरक्षा के अधिकार समाज में प्राप्त करता था, तब उसने समाज में किसके साथ न्याय किया था? संघ प्रमुख किस दर्शन, सप्रदाय और समाज सुधारक की बात कर रहे हैं? उनमें आचार्य शंकर तो आते ही होंगे और यदि आते हैं तो आरक्षण के विषय में शंकराचार्य के विचारों से भी मोहन भागवत परिचित होंगे ही। शंकराचार्य जो समस्त संसार में अद्वैत के प्रयात आचार्य हैं, जो संसार में ब्रह्म के अतिरिक्त किसी की सत्ता को ही स्वीकार नहीं करते, जिनकी दृष्टि में जड़ पदार्थ, कुत्ता या विद्वान् सभी कुछ ब्रह्म है, जिनमें लिये भेद बुद्धि पाप से कम नहीं है, वे ही शंकराचार्य अपने वेदान्त-दर्शन के भाष्य में वेदाध्ययन के अधिकार में स्त्री और शूद्र को वेद सुनने पर कान में सीसा पिघला कर डालने की बात करते हैं। यदि वे मन्त्र बोलें तो उनकी जीभ काट लेने की वकालत करते हैं तथा स्त्री शूद्र के वेद मन्त्र याद करने पर मार देने की बात को स्मृति के प्रमाण रूप में प्रस्तुत करते हैं। (वेदान्त शांकर भाष्य- 1/3/38) इतना ही नहीं, शंकराचार्य अपने दर्शन, गीता, उपनिषद् भाष्यों में श्रुति के नाम पर वेदमन्त्र न देकर केवल उपनिषद् वाक्यों से काम चलाते हैं। क्या यह आरक्षण का परिणाम नहीं है?

जब मनुष्य साधन, सुविधा और अधिकार सहज जन्म के आधार पर पाता है, तो उसे कुछ भी प्राप्त करने के लिये संघर्ष करने की आवश्यकता ही नहीं रहती और जिसको संघर्ष नहीं करना पड़ता, वह कभी योग्य और विद्वान् नहीं बन सकता। ब्राह्मण और तथाकथित द्विजों का यही हुआ। सारा समाज ब्राह्मण गुरुओं के कारण अज्ञानी, आलसी, स्वार्थी बनकर रह गया। दूसरों को मूर्ख रखा तो स्वयं भी मूर्ख बन गये और अपने आप दूसरों के घरों में भोजन बनाकर अपनी सन्तुष्टि करने लगे। क्या यही हाल आज के आरक्षण में नहीं है कि एक बालक अपने परिश्रम और बुद्धि से नबे-पचानवे प्रतिशत अंक पाकर शिक्षा और अवसर से वञ्चित हो जाता है और जन्म के आधार पर दो-पाँच अंक प्राप्त करने वाला, आज बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ प्राप्त कर उच्च पदों का अधिकारी बन बैठता है। अयोग्यता का संरक्षण करने से जहाँ योग्यता का दास होता है, वहाँ अयोग्य व्यक्ति अपनी-अपनी अयोग्यता को छिपाने के लिये व्यर्थ के अहंकार में अपने सहकर्मियों को प्रताड़ित करता है। चिकित्सा, पठन-पाठन और तकनीक के कार्यों में जहाँ आरक्षण के कारण अयोग्य व्यक्ति पहुँच गये हैं, वे सारे अपने उत्तरदायित्व, अपने अधीन योग्य लोगों से करवाते हैं और उन्हें नीचा दिखाने का अवसर नहीं चूकते।

संघ प्रमुख की दूसरी बात का जहाँ तक प्रश्न है, वह भी मिथ्या है, क्योंकि मनुष्य और पशु का मौलिक स्वभाव समान है। दोनों स्वार्थ के प्रति स्वतः प्रेरित होते हैं। न्याय, परोपकार, धर्म, विद्या, विज्ञान विचार के परिणाम हैं। अज्ञानी तो जब भी बात करेगा, स्वार्थ की करेगा, दूसरे की हानि की बात करेगा। उससे किसी आदर्श की अपेक्षा नहीं की जा सकती। यदि आरक्षण- प्राप्त लोगों को तृप्ति होती तो तथाकथित सवर्ण समाज बहुत पहले पिछड़ों और दलितों के अधिकार लौटा चुका होता, परन्तु समाज ने तो ऐसा नहीं किया। समाज में व्यक्ति होते हैं, जो अपनी विचार संवेदनशीलता से अन्याय का विरोध करते हैं, परन्तु समूह का विवेकशील बनना सभव नहीं है। आज जो दलितों के पास आरक्षण अधिकार है, वह सवर्णों की कृपा से तो नहीं है। आज भारत में वयस्क मताधिकार का ये कमाल है कि उनके मत पाने के लिये आप उन्हें आरक्षण देने को बैठे हैं और आज संघ चालक को आरक्षण बनाये रखने की वकालत करनी पड़ रही है, यह प्रजातन्त्र के मताधिकार का सामर्थ्य है। यदि देश में प्रजातन्त्र नहीं होता या दलित मतदाता निर्णायक संया में नहीं होते, तो क्या तब भी आरक्षण चलता रहता?कभी नहीं।

दलितों की बात छोड़ें, मुसलमान और ईसाइयों के भी आरक्षण की माँग की जा रही है। क्या इसके लिये किसी के पास कोई न्यायसंगत आधार है परन्तु राजनेताओं को लगता है कि इनके मतों से हम सत्ता तक पहुँच सकते हैं तो उनके लिये भी आरक्षण की माँग होने लगी। मायावती ने आरक्षण के बल पर सत्ता प्राप्त की, मुलायमसिंह ने भी मुस्लिम-यादव गठजोड़ कर उन्हें आरक्षित कर लिया और सत्ता पर अधिकार कर लिया। दक्षिण में दलित मतों के आधार पर जयललिता सत्ता में है तो बिहार में आरक्षण बचाओं के नेता सत्ता में है। आज आरक्षण राजनैतिक हथियार बन गया। जहाँ सवर्णों के मत खिसकने का भय सताता है, वहाँ सवर्णों के आरक्षण की बात की जाती है।

यह कहना तो उचित ही है कि समाज के अनेक वर्ग लबे समय से पीड़ित और प्रताड़ित किये जाते रहे हैं। जो लोग दलितों के उत्पीड़न की बात करते हैं, वे यह क्यों भूल जाते हैं कि जो ब्राह्मण दलितों को पीड़ित करता रहा है, वह घर की महिला का भी उसी प्रकार शोषण कर रहा है। परपरा से वेद पढ़ने वाले पण्डित की पत्नी को वह आज वेद पढ़ने और वेद सुनने का अधिकार देने के लिये तैयार नहीं। इसके पीछे केवल मनुष्य का स्वार्थ और अज्ञान कारण है। इसको दूर करना आवश्यक है और यह किसी भी प्रकार के सामाजिक आरक्षण से दूर नहीं हो सकता। मूल बात तक हम पहुँचना नहीं चाहते कि जब तक किसी को समान अवसर नहीं मिलते, तब तक वह अपनी योग्यता प्रदर्शित करने में समर्थ नहीं हो सकता, आरक्षण की व्यवस्था समान अवसर की विरोधी और अयोग्य को संरक्षण प्रदान करती है।

संघ प्रमुख का मानना है कि समाज में दलितों-पिछड़ों का बहुत उत्पीड़न हुआ है, अतः उन्हें आरक्षण प्राप्त करने का अधिकार है। यदि न्याय के सिद्धान्त में यह स्वीकार्य हो कि जिसने मेरे पिता को मारा है, उसके पिता को मारने का मुझे अधिकार है, तब यह तर्क उचित है कि जिन सवर्णों के पूर्वजों ने समाज के इन लोगों को प्रताड़ित किया है, वे लोग उन पीड़ित लोगों की सन्तानों का उसी प्रकार उत्पीड़न करें। समाज में हत्या करने के बदले हत्या करने वाले को न्यायालय दण्डित करता है, तो दूसरी ओर हत्यारे को भी फाँसी देता है। दण्ड अपराध करने वाले को मिलता है, अपराध किसी ने किया, बदले में किसी और को दण्डित करे, यह न्यायसंगत नहीं है।

हम उस बिन्दु को देखकर भी अनदेखा करना चाहते हैं, जो सारे पाप की जड़ है। वह है-हिन्दू समाज में व्याप्त जन्मना जाति व्यवस्था। पहला आरक्षण बना, जन्मना जाति को आधार मानकर आज भी हम जन्मना जाति को आरक्षण का आधार मान रहे हैं। जब जन्म पर आधारित एक व्यवस्था दोषपूर्ण है तो दूसरी जन्मगत जाति पर आधारित आरक्षण व्यवस्था श्रेष्ठ कैसे हो सकती है? अन्तर इतना है कि पहले समाज सवर्ण को अधिकारी मानता था, अब सरकार दलित को अधिकारी मानती है। हमारे न्याय में एक विचित्रता इस आरक्षण के कारण उत्पन्न हो गई है। एक ओर आरक्षण पाने वाले को अपनी जाति की घोषणा करनी पड़ती है तथा जाति प्रमाण-पत्र प्राप्त करना पड़ता है, वहीं कोई ऐसे व्यक्ति की जाति का उल्लेख करता है तो नियमानुसार दण्ड का भागी बनता है, क्योंकि समाज में जाति-सूचक शदों के साथ आज भी मान-अपमान के भाव जुड़े हुए हैं। एक सवर्ण व्यक्ति दलित को जातिसूचक शदों से पुकार कर मन में बड़ा सन्तोष अनुभव करता है, क्योंकि उसके मन में अपनी जाति के प्रति अहंकार का भाव रहता है।

आरक्षण को लेकर दूसरी घटना है गुजरात की, जहाँ हार्दिक पटेल के नेतृत्व में आरक्षण की माँग को लेकर पटेल समुदाय आन्दोलन कर रहा है। वहाँ न्यायाधीश परदीवाला ने एक दिसबर को हार्दिक पटेल के वाद में टिप्पणी की थी। न्यायाधीश परदीवाला ने व्यवस्था दी कि दो चीजों ने इस देश को तबाह कर दिया है या इस देश की सही दिशा में प्रगति नहीं हुई- पहला आरक्षण व दूसरा भ्रष्टाचार। न्यायाधीश ने इस बात का भी उल्लेख किया कि जब हमारा संविधान बनाया गया तो यह समझा गया कि आरक्षण दस वर्ष की अवधि के लिये रहेगा, पर दुर्भाग्यवश यह आजादी के 65 वर्ष बाद भी जारी है। इस टिप्पणी पर राज्यसभा के सदस्यों द्वारा न्यायाधीश पर महाअभियोग लगाने का नोटिस राज्यसभा के सभापति को दिया गया। न्यायाधीश ने, हो सकता है संविधान के अनुकूल काम न किया हो, परन्तु बात तो सच ही कही थी। आज हमने आरक्षण संविधान में स्वीकार किया है, इसलिये उसका मानना अनिवार्य भी है और कर्त्तव्य भी, परन्तु जब हमें लगा है, संविधान में सुधार की आवश्यकता है तो हमने सुधार किया है। संविधान में जो लिखा है वह एक नागरिक को मान्य है, यह तो ठीक है परन्तु ‘उसको उचित है’, यह स्वीकार करना आवश्यक नहीं है। नियम कानून बहुमत से बनते हैं, सही या गलत होने से नहीं। इसलिये न्यायाधीश का कथन विधि के अनुकूल न हो, यह सभव है, परन्तु सत्य है, इसमें कोई सन्देह नहीं।

अब विचारणीय इतना ही है कि संघ प्रमुख कहते हैं- ‘‘आरक्षण पर विचार करने का प्रश्न ही नहीं उठता’’, परन्तु न्यायाधीश का मानना है कि आज सबसे अधिक विचारणीय प्रश्न ही यह है कि आरक्षण का क्या औचित्य है? प्राचीनाारत के सबन्ध में विचार करते हैं तो जो लोग जाति व्यवस्था को बुरा मानते हैं तो उन्हें यह भी मानना होगा कि यह समाज अच्छा भी रहा होगा, उन्हें यह भी मानना होगा कि यह समाज आज बुरा है। यह तो नहीं हो सकता कि प्रारभ बुराई से हुआ होगा। यदि प्रारभ बुराई से हुआ है तो यह बुराई कभी समाप्त नहीं हो सकती, यदि बुराई बाद में आई तो मौलिक बात अच्छाई है, जिसे फिर भी लाया जा सकता है। वह अच्छाई है कि जाति जन्म से होती है, परन्तु वह है मनुष्य और पशु की जाति, मनुष्यों में स्त्री-पुरुष, पशुओं में घोड़ा, गधा, बैल, ऊँट, जिन्हें बदला नहीं जा सकता। जो जन्म की जाति को अपरिवर्तनीय मानते हैं, उन्हें ऋषि दयानन्द की एक बात याद रखनी चाहिये। एक जन्मना जाति मानने वाले ने ऋषि दयानन्द से पूछा- आप जन्म से जाति मानते हैं या कर्म से? तो स्वामी जी ने उसी से प्रश्न पूछा-तुम कैसा मानते हो? तो उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- हम तो जन्म से जाति मानते हैं। तब स्वामी जी ने उस व्यक्ति से प्रतिप्रश्न किया- यदि कोई जन्म का ब्राह्मण व्यक्ति मुसलमान हो जाये तो उसकी जाति क्या होगी, क्या ब्राह्मण रहेगा? तो पूछने वाला निरुत्तर हो गया। जाति को आपने जन्म से मान रखा है, वह जन्म से होती नहीं है।

जहाँ तक कर्म का प्रश्न है, तो वे अच्छे-बुरे होते हैं और मनुष्य उन्हीं के अनुसार अच्छा-बुरा या यह या वह बनता है। वास्तविकता तो यह है कि कार्य से कोई ऊँचा-नीचा, अच्छा-बुरा नहीं होता। वह नाम उसकी योग्यता का सूचक है और योग्यता अनुसार वह नाम बदल जाता है, इसी का नाम वर्ण व्यवस्था है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति योग्यता के अनुसार अपने को कहीं भी स्थापित कर सकता है। शूद्र को ब्राह्मण बनने का अधिकार है तथा ब्राह्मण को अपने कर्म छोड़ने पर शूद्र बनने की बाध्यता, यही वर्ण व्यवस्था है, जो मनु के शदों में इस प्रकार है जो आरक्षण का विकल्प भी है-

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चेति शूद्रताम्।

क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैयात् तथैव च।।

– डॉ. धर्मवीर

पण्डित ताराचरण से शास्त्रार्थ: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

 

महर्षि का पण्डित ताराचरण से जो शास्त्रार्थ हुआ था, उसकी

चर्चा प्रायः सब जीवन-चरित्रों में थोड़ी-बहुत मिलती है। श्रीयुत

दज़जी भी इसके एक प्रत्यक्षदर्शी थे, अतः यहाँ हम उनके इस

शास्त्रार्थ विषयक विचार पाठकों के लाभ के लिए देते हैं। इस

शास्त्रार्थ का महज़्व इस दृष्टि से विशेष है कि पण्डित श्री ताराचरणजी

काशी के महाराज श्री ईश्वरीनारायणसिंह के विशेष राजपण्डित थे।

पण्डितजी ने भी काशी के 1869 के शास्त्रार्थ में भाग लिया था।

विषय इस शास्त्रार्थ का भी वही था अर्थात् ‘प्रतिमा-पूजन’।

पण्डित ताराचरण अकेले ही तो नहीं थे। साथ भाटपाड़ा (भट्ट

पल्ली) की पण्डित मण्डली भी थी। महर्षि यहाँ भी अकेले ही

थे, जैसे काशी में थे। श्रीदज़ लिखते हैं, ‘‘शास्त्रार्थ बराबर का न

था, कारण ताराचरण तर्करत्न में न तो ऋषि दयानन्द-जैसी

योग्यता तथा विद्वज़ा थी और न ही महर्षि दयानन्द-जैसा वाणी

का बल था। इस शास्त्रार्थ में बाबू भूदेवजी, बाबू श्री अक्षयचन्द

सरकार तथा पादरी लालबिहारी दे सरीखे प्रतिष्ठित महानुभाव उपस्थित

थे।’’

 

पादरी लालबिहारी डे से शास्त्रार्थ : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

हुगली में महर्षि का हुगली कालेज के प्राध्यापक (प्राचार्य भी

रहे) से ईसाईमत विषयक शास्त्रार्थ हुआ। ऋषि के जीवनी लेखकों

ने प्रा0 दे से उनके शास्त्रार्थ का उल्लेख किया है। श्रीदज़ ने

एतद्विषयक जो संस्मरण लिखे हैं, उन्हें हम यहाँ देते हैं।

‘‘अगले चार दिन तक हमारी परीक्षा रही, हम परीक्षा में व्यस्त

रहे, तथापि हम कम-से-कम एक बार ऋषि-दर्शन को जाया करते

थे। एक दिन हमने पण्डितजी (ऋषिजी) के पास रैवरेण्ड लाल

बिहारी दे को जो हुगली कॉलेज में प्राध्यापक थे, देखा। उनके साथ

कुछ और पादरी भी थे। वे पण्डितजी के साथ ईसाईमत की

विशेषताओं पर गर्मागर्म वादविवाद में व्यस्त थे। अल्प-आयु के

होने के कारण हम शास्त्रार्थ की युक्तियों को तो न समझ सके और

न उस शास्त्रार्थ की विशेषताओं व गज़्भीरता को अनुभव कर सके,

परन्तु एक बात का हमें विश्वास था कि श्रोताओं पर पण्डितजी की

अकाट्य युक्तियों एवं चमकते-दमकते तर्कों का जो सर्वथा मौलिक

व सहज स्वाभाविक थे, अत्यन्त उज़म प्रभाव पड़ा। लोग उनकी

वक्तृत्व कला, बाइबल सज़्बन्धी उनके विस्तृत ज्ञान से बड़े प्रभावित

हुए। जब मैं एफ0ए0 में पढ़ता था तो पादरी लालबिहारी दे ने

भी इस तथ्य की पुष्टि की थी।1

 

यह मन गढ़न्त गायत्री!: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज अपने व्याख्यानों  में

अविद्या की चर्चा करते हुए निम्न घटना सुनाया करते थे। रोहतक

जिला के रोहणा ग्राम में एक बड़े कर्मठ आर्यपुरुष हुए हैं। उनका

नाम था मास्टर अमरसिंहजी। वे कुछ समय पटवारी भी रहे। किसी

ने स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज को बताया कि मास्टरजी को एक

ऐसा गायत्री मन्त्र आता है जो वेद के विज़्यात गायत्री मन्त्र से न्यारा

  1. रावण जोगी के भेस में (उर्दू) है। स्वामीजी महाराज गवेषक थे ही। हरियाणा की प्रचार यात्रा

करते हुए जा मिले मास्टर अमरसिंह से।

मास्टरजी से निराला ‘गायत्रीमन्त्र’ पूछा तो मास्टरजी ने बताया

कि उनकी माताजी भूतों से बड़ा डरती थी। माता का संस्कार बच्चे

पर भी पड़ा। बालक को भूतों का भय बड़ा तंग करता था। इस

भयरूपी दुःख से मुक्त होने के लिए बालक अमरसिंह सबसे पूछता

रहता था कि कोई उपाय उसे बताया जाए। किसी ने उसे कहा कि

इस दुःख से बचने का एकमात्र उपाय गायत्रीमन्त्र है। पण्डितों को

यह मन्त्र आता है।

मास्टरजी जब खरखोदा मिडिल स्कूल में पढ़ते थे। वहाँ एक

ब्राह्मण अध्यापक था। बालक ने अपनी व्यथा की कथा अपने

अध्यापक को सुनाकर उनसे गायत्रीमन्त्र बताने की विनय की।

ब्राह्मण अध्यापक ने कहा कि तुम जाट हो, इसलिए तुज़्हें गायत्री

मन्त्र नहीं सिखाया जा सकता। बहुत आग्रह किया तो अध्यापक

ने कहा कि छह मास हमारे घर में हमारी सेवा करो फिर

गायत्री सिखा दूँगा।

बालक ने प्रसन्नतापूर्वक यह शर्त मान ली। छह मास जी

भरकर पण्डितजी की सेवा की। जब छह मास बीत गये तो अमरसिंह

ने गायत्री सिखाने के लिए पण्डितजी से प्रार्थना की। पण्डितजी का

कठोर हृदय अभी भी न पिघला। कुछ समय पश्चात् फिर अनुनयविनय

की। पण्डितजी की धर्मपत्नी ने भी बालक का पक्ष लिया तो

पण्डितजी ने कहा अच्छा पाँच रुपये दक्षिणा दो फिर सिखाएँगे।

बालक निर्धन था। उस युग में पाँच रुपये का मूल्य भी आज

के एक सहस्र से अधिक ही होगा। बालक कुछ झूठ बोलकर कुछ

रूठकर लड़-झगड़कर घर से पाँच रुपये ले-आया। रुपये लेकर

अगले दिन पण्डितजी ने गायत्री की दीक्षा दी।

उनका ‘गायत्रीमन्त्र’ इस प्रकार था-

‘राम कृष्ण बलदेव दामोदर श्रीमाधव मधुसूदरना।

काली-मर्दन कंस-निकन्दन देवकी-नन्दन तव शरना।

ऐते नाम जपे निज मूला जन्म-जन्म के दुःख हरना।’

बहुत समय पश्चात् आर्यपण्डित श्री शज़्भूदज़जी तथा पण्डित

बालमुकन्दजी रोहणा ग्राम में प्रचारार्थ आये तो आपने घोषणा की

कि यदि कोई ब्राह्मण गायत्री सुनाये तो एक रुपया पुरस्कार देंगे,

बनिए को दो, जाट को तीन और अन्य कोई सुनाए तो चार रुपये

देंगे। बालक अमरसिंह उठकर बोला गायत्री तो आती है, परन्तु गुरु

की आज्ञा है किसी को सुनानी नहीं। पण्डित शज़्भूदज़जी ने कहा

सुनादे, जो पाप होगा मुझे ही होगा। बालक ने अपनी ‘गायत्री’ सुना

दी।

बालक को आर्योपदेशक ने चार रुपये दिये और कुछ नहीं

कहा। बालक ने घर जाकर सारी कहानी सुना दी। अमरसिंहजी की

माता ने पण्डितों को भोजन का निमन्त्रण भेजा जो स्वीकार हुआ।

भोजन के पश्चात् चार रुपये में एक और मिलाकर उसने पाँच रुपये

पण्डितों को यह कहकर भेंट किये कि हम जाट हैं। ब्राह्मणों का

दिया नहीं लिया करते। तब आर्यप्रचारकों ने बालक अमरसिंह को

बताया कि जो तू रटे हुए है, वह गायत्री नहीं, हिन्दी का एक दोहा

है। इस मनगढ़न्त गायत्री से अमरसिंह का पिण्ड छूटा। प्रभु की

पावन वाणी का बोध हुआ। सच्चे गायत्रीमन्त्र का अमरसिंहजी ने

जाप आरज़्भ किया। अविद्या का जाल तार-तार हुआ। ऋषि दयानन्द

की कृपा से एक जाट बालक को आगे चलकर वैदिक धर्म का एक

प्रचारक बनने का गौरव प्राप्त हुआ। केरल में भी एक ऐसी घटना

घटी। नरेन्द्रभूषण की पत्नी विवाह होने तक एक ब्राह्मण द्वारा रटाये

जाली गायत्रीमन्त्र का वर्षों पाठ करती रही

मनुष्य जन्म की पृष्ठभूमि, कारण एवं परम उद्देश्य’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

संसार के सभी प्राणियों में मनुष्य श्रेष्ठतम प्राणी है। इसका कारण मनुष्यों में सत्य व असत्य का विवेक कराने वाली बुद्धि होती है जबकि अन्य प्राणियों के पास विवेक कराने वाली बुद्धि नहीं होती। मनुष्य अन्य प्राणियों से कुछ भिन्न एक जाति है जिसमें स्त्री व पुरुष सम्मिलित हैं। आजकल जो जातिसूचक शब्दों का प्रयोग आर्य वा हिन्दू करते हैं, उसे जाति कहना वैदिक परम्पराओं एवं जाति शब्द के अर्थ के विरुद्ध है। जाति का सम्बन्ध प्रसव की समानता से जुड़ा है जिससे सभी मनुष्यों की एक ही जाति सिद्ध होती है क्योंकि संसार के सभी स्त्री व पुरुषों का परस्पर सम्बन्ध होने से मनुष्य सन्तान, पुत्र व पुत्री, का जन्म होता है। इसी प्रकार से पशु जाति है जिसमें गाय, घोड़ा, कुत्ता, बिल्ली, लंगूर, बन्दर आदि अनेक प्रकार की उपजातियां है। इसमें अन्तर्जातीय सन्तानोत्पत्ति नहीं होती अर्थात् गाय व बैल से, कुतिया व कुत्ते, घोडे़ व घोड़ी आदि से ही होती है अन्यथा नहीं। अतः गाय, भैंस, घोड़ा आदि अलग-अलग पशु जाति की उपजातियां हैं। संसार के सभी मनुष्यों में समान रूप से प्रसव सम्भव होने के कारण सम्पूर्ण मनुष्य जाति एक ही जाति है। हां, गुण, कर्म व स्वभाव से इसके ज्ञानी-अज्ञानी, बली-निर्बल, अध्यापक, वैद्य व चिकित्सक, सैनिक, राजा, सेवक आदि भेद हो सकते हैं। यह जातियां नहीं अपितु गुण-कर्मानुसार वर्ण होते हैं। हम इस लेख में मनुष्य जाति की पृष्ठभूमि पर विचार कर रहे हैं। मनुष्य जाति की पृष्ठभूमि में मुख्य कारण एक चेतन तत्व जीवात्मा व ईश्वर की सत्ता का होना है। यह जीवात्मा अविनाशी, अनुत्पन्न, सनातन, नित्य, अनादि सत्ता है जिनकी सृष्टि में संख्या मनुष्य के ज्ञान के अनुसार अनन्त वा असंख्य हैं। इनके अपने-अपने गुण कर्म व स्वभाव हैं। जीवात्मा एकदेशी, अनुत्पन्न, अनादि, अनुत्पन्न, अविनाशी, अमर, नित्य, कर्म-फल के चक्र में फंसा हुआ, कर्म-फल व प्रारब्ध के अनुसार सुख-दुःख रूपी फलों के भोग के लिए ही भिन्न-भिन्न मनुष्य, पशु, पक्षी व अन्य योनियों में जन्म लेने वाला है। यदि ईश्वर जीवात्मा को जन्म न दे तो फिर इसका अस्तित्व होने के बाद भी यह अनुपयोगी होकर रह जाये। इसका स्वभाव (ईश्वरीय प्राकृतिक नियम) ही यह है कि ईश्वर के द्वारा अपने पाप-पुण्य रूपी कर्मों का फल भोगने के लिए इसका जन्म होता है। जन्म लेने में यह ईश्वर के पराधीन है। मनुष्य योनि में जन्म होने पर यह पाप व पुण्य रूपी कर्म करने में सफल होता है। अन्य इतर योनियां केवल भोग योनियां हैं। ईश्वर सर्वव्यापक, निराकार और सर्वान्तर्यामी रूप से जीवात्मा के प्रत्येक कर्म का साक्षी होता है। इन कर्मों का सम्मिलित परिणाम ही इसका भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म होना होता है। एक योनि में जन्म लेने के लिए प्रारब्ध कारण बनता है जिसके आधार पर किसी योनि विशेष में इसकी जाति अर्थात् मनुष्य, पशु व पक्षी आदि सहित आयु व सुख-दुःख रूपी भोग निर्धारित होते हैं जो ईश्वर की व्यवस्था से इसे मिलते रहते हैं। जीवात्मा का सनातन अस्तित्व, एक देशी सूक्ष्म तत्व होना, ज्ञान कर्म इसके स्वभाविक गुण होना और ईश्वर की सभी जीवों के लिए सृष्टि की रचना करने, पालन करने जीवात्माओं को उनके पूर्व जन्मानुसार भिन्नभिन्न योनियों में जन्म देने की सामर्थ्य ही जीवात्मा के मनुष्य अन्य योनियों में जन्म की पृष्ठभूमि और कारण है। इसके विस्तार से अध्ययन के लिए सत्यार्थप्रकाश सहित वेद, उपनिषद और दर्शन आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये।

 

जीवात्मा कर्मानुसार जन्म लेता है यह बात तो सृष्टि में प्राणियों के आचार व व्यवहार को देख कर भी सत्य सिद्ध होती है। अब जानने योग्य प्रश्न यह है कि मनुष्य जन्म का उद्देश्य क्या है? मनुष्य जन्म का मुख्य उद्देश्य दुःखों की निवृति है। हम सभी प्राणियों को कर्म करते हुए देखते हैं। यह सभी प्राणी सुख की प्राप्ति के लिए ही सभी कर्म करते हुए प्रतीत होते हैं। प्रातः काल उठकर भ्रमण, आसन, व्यायाम व प्राणायाम करना स्वास्थ्य के लिए आवश्यक होता है। यह स्वास्थ्य ही सुख का आधार है। यदि स्वास्थ्य अच्छा नहीं होगा तो मनुष्य को दुःख होता है। शरीर आदि व्याधियों से ग्रस्त हो जाता है और शीघ्र मृत्यु का ग्रास बन जाता है। अतः हमारे सभी कर्म मुख्यतः स्वास्थ्य व सुखों की प्राप्ति व भोग सहित दुःखों की निवृति के लिए ही किये जाते हैं फिर भी संसार का कोई मनुष्य यह दावा नहीं करता कि वह पूर्णतया सुखी है। सुख का परिणाम ही दुःख होता है। अधिक भोजन कर लिया तो उदर विकार होने से दुःख शीघ्र या कुछ विलम्ब से सामने आ जाता है। सुख के लिए धनोपार्जन करने में भी जो पुरुषार्थ किया जाता है वह भी कष्टसाध्य ही होता है। अर्जित धन की रक्षा करना भी सबके लिए सम्भव नहीं होता। अनेक प्रकार के दुःख जो धनिक लोगों में धन व सम्पत्ति के कारण होते हैं, समाज में देखने में आते हैं। स्वास्थ्य सम्बन्धी दुःख भी सभी मनुष्यों को समय समय पर आते जाते रहते हैं, जिनसे बचना दुष्कर है। अतः संसार में मनुष्य जन्म लेकर भी कोई व्यक्ति ऐसा देखने में नहीं आता जिसे कोई दुःख हो। सबसे बड़ा और अन्तिम दुःख मृत्यु का होता है। मृत्यु के बाद पुनः जन्म की प्रक्रिया में पिता-माता के शरीर में जाना और वहां दस माह तक शरीर निर्माण की प्रक्रिया में रहने व माता के गर्भ में उलटा लटका रहने सहित मल-मूत्र आदि पदार्थों के सान्निध्य में रहना भी सुख की नहीं दुःख की ही स्थिति है। अतः दुख की निवृत्ति के सभी सांसारिक साधन उपयोगी नहीं हैं। मृत्यु आदि दुःख से बचने के लिए ही महर्षि दयानन्द व भगवान बुद्ध ने अपने सुखी पारिवारिक जीवन का त्याग कर दुःख के स्वरूप को जानने एव उसको दूर करने के उपायों को जानकर उनके पालन हेतु कठोर तप किया। महर्षि दयानन्द इस कार्य में सफल हुए। उन्होंने जो ज्ञान साधन जाने प्राप्त किये और जिनका उन्होंने अपने निजी जीवन में उपयोग प्रयोग अर्थात् आचरण किया, उससे सारे संसार को लाभान्वित किया। वह चाहते तो अपना कल्याण करते और समाधि का असीम आनन्द भोगते परन्तु परोपकार के लिए उन्होंने अपनी सभी उपलब्धियों को सार्वजनिक ही नहीं किया अपितु इसका प्रचार व प्रसार करने में अपने जीवन का एक एक क्षण बिना किसी निजी प्रयोजन व लाभ के व्यतीत किया और अन्त में प्राण भी दे दिए।

 

महर्षि दयानन्द जी ने जो ज्ञान व विवेक प्राप्त किया वह उनके सभी ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। उसका निष्कर्ष है कि जीवात्मा के दुःखों की पूर्ण की निवृत्ति सद्धर्म के पालन और मोक्ष की प्राप्ति में होती है। सद्धर्म मनुष्यों के सत्य कर्तव्यों को कहते हैं। यह सभी सत्कर्तव्य वेदों व वैदिक साहित्य में उपलब्घ होते हैं जिनका सरलीकरण महर्षि दयानन्द ने अपने वेदभाष्य सहित सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि व आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थों में किया है। इसको संक्षेप में इस प्रकार जाना जा सकता है कि पाप वा असत्य कर्मों का फल दुःख होता है और पुण्य वा सत्य कर्मों का फल सुख होता है। यदि हम सकाम सत्य व पुण्य कर्म भी करेंगे तो भी हमारा एक के बाद दूसरा जन्म होता रहेगा। इसके लिए मनुष्य को वेद विहित सत्य कर्मों को करना है और साथ ही ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना सहित अग्निहोत्रादि कर्म, माता-पिता-आचार्य-गुरू-विद्वान आदि की सेवा व सत्कार एवं सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा का भाव रखते हुए उनके पोषण में सहायक होना है। योग ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना को ही कहते हैं। इसके सिद्ध होने का अर्थ है समाधि में ईश्वर का साक्षात्कार होना। यह ईश्वर साक्षात्कार तभी सम्भव होता है जब जीवात्मा पर अंकित सभी पाप व असत्य कर्मों के संस्कार रूपी मल-विक्षेप-अहंकार नष्ट व दग्ध-बीज हो जाते हैं। यह स्थिति ईश्वर का ध्यान करने, ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभावानुसार अपना आचरण सुधारने वा ईश्वर के गुणों के अनुरूप करने व अपना सारा समय परोपकार व दुखियों की सेवा में लगाने पर ही प्राप्त होती है। समाधि अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार हो जाने पर मनुष्य जन्म मरण के चक्र से छूट जाता है और ईश्वर के निरन्तर आनन्द रूपी सान्निध्य को प्राप्त कर उसमें ही आनन्द को भोगता है। यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य, लक्ष्य वा परम उद्देश्य है। महर्षि दयानन्द इसी मार्ग पर चले और कृतकार्य हुए। हमारे सभी ऋषि-महर्षि-योगी-सन्त भी इसी मार्ग का अवलम्बन अपने-अपने जीवन में करते रहे। यह साधना व कार्य कुछ लोगों के ही करने के लिए नहीं अपितु सभी मनुष्य, स्त्री वा पुरुष इसके अधिकारी व पात्र हैं। कभी न कभी तो हमें इसे अपनाना ही है क्योंकि इसके बिना जीवात्मा की मोक्ष की यात्रा पूरी नहीं होती। वह कर्मफल बन्धन में पड़ा रहता है। यह मोक्ष प्राप्ती ही मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है। यहां यह भी बता दें कि हम सभी मनुष्यों को इससे पूर्व संसार की सभी योनियों में अनेक-अनेक बार जन्म हो चुके हैं। अनेक बार हम मोक्ष में भी गये है और अवधि पूरी होने पर लौटे हैं। वहां से आकर हम फिर कर्म के बन्धनों में फंस कर वर्तमान स्थिति को प्राप्त हुए हैं। यह तथ्य सत्य है जिसे जानकर सद्कर्मों सहित ईश्वर की सच्ची वैदिक विधि से उपासना में जुट जाना चाहिये जिससे कालान्तर में मोक्ष प्राप्त हो सके। अन्य मार्ग मंजिल पर पहुंचाने के स्थान पर लक्ष्य से दूर करते हैं। अतः केवल वैदिक साधनों का ही अवलम्बन करना उचित है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

जिसका जन्म उसकी मृत्यु और जिसकी मृत्यु उसका जन्म होना अटल है’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु ध्रुव अर्थात् अटल है और जिसकी मृत्यु होती है उसका पुनर्जन्म वा जन्म होना भी ध्रुव सत्य है। हम अपने जीवन में यदाकदा अपने परिचितों व अपरिचितों की मृत्यु का समाचार सुनते रहते हैं। जिस व्यक्ति से हमारा सम्पर्क व सम्बन्ध होता है उसकी मृत्यु का समाचार सुनकर हमें दुःख होता है। विगत दो दिन में आर्यसमाज से सम्बन्धित हमारे तीन परिचित बन्धुओं की मृत्यु हुई है। इसके अतिरिक्त हमने जिस विभाग में कार्य किया वहां के तीन सेवानिवृत व्यक्तियों की भी विगत लगभग 11 दिनों में मृत्यु हुई है। शास्त्रों में मृत्यु को अभिनिवेश क्लेश कहा गया है। यह मृत्यु व इसका समाचार सभी के लिए दुःखदायी होता है। इस दुःख में कुछ रहस्य छिपा हुआ हो सकता है। पहला सन्देश तो यह लगता है कि अन्यों की मृत्यु हमें अपने बारे में सोचने का संकेत करती है। यह  बताती है कि एक दिन हमें भी मरना है। यह हमें सावधान करती है कि हम सोच विचार कर भविष्य में होने वाली अपनी मृत्यु का निवारण करें। यही मुख्य सन्देश हमें मृत्यु का प्रतीत होता है।

 

क्या मृत्यु का निवारण हो सकता है? इसका उत्तर यह है कि सदा के लिए तो नहीं अपितु कुछ समय के लिए मृत्यु को कुछ पीछे धकेला जा सकता है। यदि हम अपनी दिनचर्या जिसमें हमारा भोजन, व्यायाम, आसन, प्राणायाम, ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना उपासना सम्मिलित है, उन पर ध्यान दें तो निश्चय ही हम मृत्यु के समय को कुछ आगे बढ़ा सकते हैं। ऐसा करके व साथ हि मृत्यु के बारे में अधिक से अधिक वैदिक विचारों का ज्ञान व रहस्यों को जानकर तथा ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना से हम सामान्य लोगों को होने वाले मृत्यु के भय से अभय ना सही, भय को कुछ कम तो कर ही सकते हैं। अतः मृत्यु की उपेक्षा न करके इसके विषय में यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिये। हमारा विचार है कि यह कठिन कार्य नहीं है। महर्षि दयानन्द ने इस कार्य को सरल कर दिया है। उन्होंने अपने लिए मृत्यु की जिस ओषधि को खोजा था व जिससे वह अभय बने थे, उसे उन्होंने समाज व देश के सभी लोगों के कल्याण के लिए वितरित व प्रचारित किया था।

 

वह ओषधि जानने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि हम शरीर नहीं अपितु एक चेतन सत्ता जीवात्मा हैं। चेतन पदार्थ में ज्ञान व कर्म, यह दो गुण स्वभाविकः होते हैं। ईश्वर भी चेतन सत्ता है, अतः उसमें भी ज्ञान व क्रिया अनादि काल से विद्यमान है। सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी व सूक्ष्मतम होने सहित वह सर्वज्ञ भी है। जीवात्मा एकदेशी व सूक्ष्म सत्ता है परन्तु ईश्वर जीवात्मा से भी सूक्ष्म वा सूक्ष्मतम है। हमारी आत्मा वा जीवात्मा एकदेशी होने से अल्पज्ञ है और ईश्वर सर्वव्यापक होने सर्वज्ञ है। हमें अपनी आत्मा विषयक ज्ञान या तो सीधा ईश्वर से समाधि अवस्था में वा वेदों के अध्ययन से प्राप्त होता है। वेदों का अध्ययन कर हम ईश्वर व आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर अपनी बौद्धिक व आत्मिक उन्नति कर सकते हैं। ईश्वर की बनाई सृष्टि को देखकर व समझकर तथा पदार्थों के गुणों को तर्क की कसौटी पर कस कर भी कुछ कुछ ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। हमने विज्ञान का बहुत अधिक तो नहीं परन्तु कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त किया है। अध्यात्म के ग्रन्थों को भी पढ़ा है। इससे हमें जीवात्मा व ईश्वर के विषय को जानने व समझने में सहायता मिली है। जीवात्मा अनादि, अजन्मा, अनुत्पन्न, अल्पज्ञ, चेतन, सूक्ष्म अणु के समान वा बिन्दूवत, ईश्वर की कृपा से मनुष्य आदि जन्मों को प्राप्त कर कर्म करने में स्वतन्त्र व उसके सुख-दुःख रूपी फलों को भोगने में परतन्त्र है। अशुभ व बुरे कर्म को छोड़कर केवल निष्काम शुभकर्मों को करके जिसमें ईश्वरोपासना सहित अग्निहोत्र, सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय, माता-पिता-आचार्य-विद्वानों-संन्यासी आदि अतिथियों की सेवा-सत्कार सहित परोपकार वा दान आदि कार्य सम्मिलित हैं, मनुष्य कर्म-फल के बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। मोक्ष दुःखों की पूर्णतया वा सर्वथा निवृत्ति, जन्म व मरण से मुक्ति व ईश्वर के सान्निध्य में आनन्द को भोगने की स्थिति को कहते हैं। मोक्ष में मुक्त जीवात्मा सर्वव्यापक व सर्वत्र आनन्द से परिपूर्ण ईश्वर में विचरती है और ईश्वर के आनन्द का भोग करती हैं। यह ऐसा ही है कि किसी योग्यतम व्यक्ति को उसकी इच्छा की सभी वस्तुयें सुलभ कराना। इन बातों को जान लेने पर मनुष्य का मृत्यु का भय कम वा समाप्त प्रायः हो जाता है। मृत्यु के भय की ओषधि सद्ज्ञान ही है जो महर्षि दयानन्द ने प्राप्त किया था और उससे उन्होंने मृत्यु के भय पर विजय प्राप्त की थी। यह समस्त ज्ञान उन्होंने सत्यार्थप्रकाश सहित अपने सभी ग्रन्थों में प्रस्तुत किया है जो सभी के जानने योग्य है।

 

ईश्वरोपासना के सन्दर्भ में महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना से जीवात्मा के  अविद्या-प्रधान काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि मल छंटते वा नष्ट प्रायः होते हैं और जीवात्मा के गुण ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव के अनुरूप होते जाते हैं। जिस प्रकार अग्नि की संगति होने पर शीत का निवारण होता है और जैसे ताप से आतुर पुरूष का ताप जल में स्नान कर दूर होता है उसी प्रकार से ईश्वरोपासना से मनुष्य के बुरे गुण-कर्म-स्वभाव छूट कर ईश्वर के गुणों के अनुरूप होते जाते हैं। इतना ही नहीं अपितु जीवात्मा का बल इतना बढ़ता है कि पहाड़ के समान मृत्यु आदि भयंकर दुःखों को प्राप्त होने पर भी मनुष्य घबराता नहीं है। क्या यह छोटी बात है? अतः मृत्यु के भय से मुक्त होने वा उस पर विजय प्राप्त करने के लिए मनुष्यों को वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय सहित वैदिक विधि से ही ईश्वरोपासना व यज्ञ आदि कार्य करने चाहिये जिनसे इच्छित परिणाम प्राप्त हो सकते हैं।

 

जब हम संसार की आदि से अब तक जन्म लेने व मृत्यु को प्राप्त होने वाले मनुष्यों पर विचार करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि सृष्टि की आदि से अब तक खरबों लोग उत्पन्न हुए व मरे, यहां तक की श्री राम व श्री कृष्ण, हनुमान जी व अर्जुन के समान महावीर व योद्धा तथा कोटिशः ऋषि व मुनि हुए परन्तु कोई भी अपने आप को मृत्यु के पाशों से मुक्त नहीं रख सका, तो यह विदित व सिद्ध हो जाता है कि हम सभी को कुछ समय बाद संसार से निश्चय ही जाना है। मृत्यु होनी है, यह तो जन्म के समय ही निश्चित हो जाता है, बस वर्ष, महीने व दिन की जानकारी हमारे पास नहीं होती। यह आज, अगले क्षण व कालान्तर में कभी भी हो सकती है। काल का निश्चय न होने के कारण ही शास्त्रकारों ने कहा है कि हमें मनुष्य जीवन में जो काम करने हैं उसे शीघ्रतम कर लेना चाहिये। हमारे इन प्राणों का कोई भरोसा नहीं की कब यह साथ छोड़ दें। अनेक कामों में मुख्य काम ईश्वर, आत्मा व संसार को जानना, अपनी आत्मा के मलों को दूर करना व शुभ संस्कारों से आत्मा को उन्नत करना है। जितनी जल्दी यह काम पूरा होगा उतना ही शीघ्र इससे हमारे वर्तमान व भविष्य के जीवन में दुःखों की निवृति व सुख लाभ होगा। अतः लक्ष्य की प्राप्ति में लग जाना ही उचित है।

 

लेख को अधिक विस्तार न देते हुए गीता के दूसरे अध्याय के 22, 23 तथा 27 वें श्लोकों को प्रस्तुत कर रहे हैं जिसमें आत्मा व मृत्यु के सम्बन्ध में अनमोल विचार उपलब्ध हैं। वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।22।।,  ‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। चैनं क्लेदयन्त्यापो शोषयति मारुतः।।23।।, तथाजातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे त्वं शोचितुमर्हसि।।27।। इनका अर्थ है कि मनुष्य जैसे पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्र धारण कर लेता है वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर दूसरे नये शरीर में चली जाती है। शस्त्र इस आत्मा को काट नहीं सकते, अग्नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती अर्थात् प्रत्येक स्थिति में यह आत्मा अपरिवर्तनीय रहती है। पैदा हुए मनुष्य की मृत्यु अवश्य होगी और मरे हुए मनुष्य का जन्म अवश्य ही होगा। इस जन्म मरण रूपी परिवर्तन के प्रवाह का निवारण नहीं हो सकता। अतः जन्म मृत्यु होने पर मनुष्य को हर्ष शोक नहीं करना चाहिये। गीता के इन श्लोकों में जो दर्शन दिया गया है वह जन्म मृत्यु की यथार्थ स्थिति को प्रस्तुत कर रहा है।

 

जीवात्मा व इसके जन्म व मृत्यु विषयक रहस्यों को जानकर मनुष्यों को मृत्यु के दुःख से यथासम्भव निवृत होना चाहिये। मृत्यु, जो कि सत्य है, होनी ही है, जिसे कोई टाल व बदल नहीं सकता, उसको यथार्थ रूप में जानकर शोक व दुःख से मुक्त होना ही किसी विवेकी पुरुष की सफलता है। हम आशा करते हैं कि पाठक लेख में प्रस्तुत आत्मा व मृत्यु विषयक विचारों को पढ़कर लाभान्वित होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘ईश्वर का प्रमाणिक विवरण कहां से प्राप्त हो सकता है?’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

संसार के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं तो सबसे पुराना इतिहास भारत का ही उपलब्ध होता है। भारत का इतिहास 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 115 वर्ष पुराना है। लगभग 5,200 वर्ष पहले कुरुक्षेत्र में महाभारत का युद्ध हुआ था। इससे देश का महाविनाश हुआ। इसमें सैनिक व राजा तो मरे ही, इसके साथ अव्यवस्था के कारण हमारा प्रभूत वैदिक ज्ञान व विज्ञान भी ध्वस्त वा विलुप्त हो गया। यह महाभारत युद्ध की सबसे बड़ी क्षति थी। सौभाग्य से कुछ ऋषि बच गये। उनकी कुछ वर्षों तक, महर्षि जैमिनी तक, परम्परा चली। इसके बाद भी महर्षि दयानन्द की तरह कुछ ऋषि हुए जिन्होंने ग्रन्थों के प्रणयन द्वारा वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा के प्रयास किये। दक्षिणात्य स्वामी शंकराचार्य जी से पूर्व किसी ऐसे ऋषि की जानकारी उपलब्ध नहीं है जिसने महर्षि दयानन्द की भांति, लेखन, उपदेश, शास्त्रार्थ, शंका समाधान आदि द्वारा, वेदों का प्रचार किया हो। शंकाराचार्य जी ने भी वेदान्त, उपनिषद व गीता का अपनी अद्वैतवादी वेदान्त की विचारधारा के अनुसार प्रचार किया। महाभारत के बाद जो ऋषि हुए उन्होंने अष्टाध्यायी, महाभाष्य, निरुक्त जैसे कई ग्रन्थों का निर्माण किया। आयुर्वेद के ग्रन्थ चरक व सुश्रुत भी भारत की प्राचीन सम्पदा हैं। यह उस समय के ग्रन्थ हैं जब यूरोप के देश अस्तित्व में भी नहीं आये थे। इसी प्रकार से भारत में उपनिषद, दर्शन आदि अनेकानेक ग्रन्थों की रचना हुई। मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण, महाभारत ग्रन्थ भी किसी प्रकार से बच गये। मुगलों ने यद्यपि तक्षशिला व नालन्दा आदि के विशाल पुस्तकालयों को अग्नि को समर्पित कर दुर्भावना से नष्ट किया, शायद ही उन्होंने हमारे धर्म ग्रन्थों को नष्ट करने का कहीं कोई अवसर छोड़ा हो, तथापि दैव कृपा से बहुत सा साहित्य सुरक्षित रहा, जिसके लिए हमारे इन ग्रन्थों के रक्षक पण्डित व अन्य सभी बन्धु समस्त आर्य-हिन्दू जनता की कृतज्ञता व धन्यवाद के अधिकारी हैं। यह भी प्रसंग से बाहर जाकर लिख दे कि जिन अपने लोगों ने भारत पर राज्य किया व कर रहे हैं, वह वैदिक साहित्य व इसके यथार्थ महत्व से सर्वथा अनभिज्ञ ही रहे हैं। इनकी रक्षा व प्रचार का जो कार्य राज्य स्तर पर किया जाना चाहिये था, वह नहीं किया गया।

 

वेदों को कण्ठस्थ करने की परम्परा के कारण मानव की सबसे गौरवपूर्ण एवं महनीय बौद्धिक सम्पदा वेद सृष्टि के आरम्भ से अब तक सुरक्षित व अपने मूल रूप में विद्यमान है। इसी प्रकार से खगोल ज्योतिष के भी ग्रन्थ भारत में विद्यमान हैं। हमारे देश व देश से बाहर के पुस्तकालयों में प्राचीन ग्रन्थों की बड़ी संख्या में पाण्डुलिपियां भी विद्यमान हैं जिनकी ओर हमारे सस्कृत के जानकार विद्वानों का ध्यान नहीं है। अभी तक किसी सरकार का इस ओर ध्यान नहीं गया। इन प्राचीन पाण्डुलिपियों के अध्ययन व अनुवाद आदि से जो लाभ मिल सकता था वह नहीं हो पा रहा है। वोटरों को लुभाने की ओर ही सरकारों का मुख्य ध्यान रहता है। यदि यह पाण्डुलिपियां विश्व के किसी अन्य देशों में होती जिनको उनके पूर्वजों ने लिखा होता तो उन्होंने इन सबका अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवाद व मूल्यांकन अवश्य किया होता। भारत अपनी प्राचीन बौद्धि़क धरोहरों व सम्पदा का मूल्यांकन करने व उसका महत्व जानने में शायद कम ही रूचि लेता है। ऐसा लगता है कि हमारे देश के प्रायः सभी बुद्धिजीवी पश्चिम के भौतिकवाद के प्रभाव से ग्रसित हैं, इसी कारण प्राचीन ज्ञान के अध्ययन की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। सौभाग्य से हमारे आर्य विद्वानों पं. भगवद्दत्त, पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं. युधिष्ठिर मीमांसक आदि ने इस दिशा में यथासम्भव कार्य किया।

 

ईश्वर के प्रमाणित ज्ञान के सम्बन्ध में हमारा प्राचीन साहित्य ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण व सहायक है। संसार का सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद है। वेद में ईश्वर सहित जीवात्मा व प्रकृति के यथार्थ ज्ञान पर भी प्रकाश डाला गया है जिसका विस्तार उपनिषदों व दर्शन आदि ग्रन्थों में मिलता है। यह ज्ञान महाभारतकाल के बाद की परिस्थितियों से प्रभावित होकर लुप्त सा हो गया था। उन्नीसवीं शताब्दी में महर्षि दयानन्द (1825-1883) का आविर्भाव हुआ। उन्होंने अपने अपूर्व ब्रह्मचर्य और पुरुषार्थ से वेदों का पूर्ण ज्ञान, जो कि कोई मनुष्य जान सकता है, ग्रहण किया और ईश्वर की प्रेरणा व अपने विवेक से इस कार्य को मानवता का सर्वाधिक कल्याणी जानकर इसका अनेक प्रकार से प्रचार व प्रसार किया। वेद ही एकमात्र ऐसे सर्वप्राचीन प्रमाणिक ग्रन्थ हैं जिसमें ईश्वर का पूर्णतया सत्य यथार्थ स्वरुप वर्णित उपलब्ध है। अन्य मनुष्यकृत ग्रन्थों में से अधिकांश में ईश्वर का जो स्वरुप वर्णित है वह विष सम्पृक्त अन्न के समान त्याज्य हैं।

 

इससे पूर्व कि हम वेदों के ऋषि महर्षि दयानन्द के वेदों पर आधारित ईश्वर विषयक विचार प्रस्तुत करें, हम यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के आठवें मन्त्र पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीषी परिभूः सव्यम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।। इसका अर्थ दयानन्द जी के अनुसार यह है कि हे मनुष्यों ! जो ब्रह्म शीघ्रकारी, सर्वशक्तिमान्, स्थूलसूक्ष्म और कारण शरीर से रहित, छिद्ररहित और ही छेद करने योग्य, नाड़ी आदि के साथ सम्बन्धरूप बन्धन से रहित, अविद्यादि दोषों से रहित होने से सदा पवित्र और जो पापयुक्त पापकारी और पाप में प्रीति करनेवाला कभी नही होता, सब ओर से व्याप्त है, जो सर्वत्र सब जीवों के मनों की वृत्तियों को जाननेवाला, दुष्ट पापियों का तिरस्कार करने वाला और अनादिस्वरूप जिसकी संयोग से उत्पत्ति तथा वियोग से विनाश और जिसका मातापिता द्वारा गर्भवास, जन्म वृद्धि और मरण नहीं होते, वह परमात्मा सनातन अनादिस्वरूप अपनेअपने स्वरूप से उत्पत्ति और विनाशरहित प्रजाओं के लिये यथार्थ भाव से सब पदार्थों को विशेष कर बना कर वेद द्वारा प्रकाश करता है। यही परमेश्वर तुम लोगों का उपासना करने के योग्य है।

 

ईश्वर का पूर्ण विस्तृत सत्यस्वरुप जानने के लिए पाठकों को महर्षि दयानन्दकृत सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, वेदभाष्य, आर्योद्देश्यरत्नमाला आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। इसके साथ सभी उपनिषदें व योगदर्शन भी ईश्वर का सत्यस्वरुप प्रस्तुत करने के साथ उनकी प्राप्ति के उपयों पर भी प्रकाश डालते हैं। ईश्वर का वेदवर्णित सत्यस्वरुप यदि संक्षेप में सरलता से जानना हो तो वह आर्यसमाज के दूसरे नियम, स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश, आर्योद्देश्यरत्नमाला आदि ग्रन्थों से जाना जा सकता है। हम इन तीनों ग्रन्थों के एतदविषयक उद्धरण यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। आर्यसमाज के दूसरे नियम में ईश्वर के स्वरुप का प्रकाश करते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। आर्यामन्तव्यामन्तव्यप्रकाश लघु ग्रन्थ में महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि जिसके ब्रह्म, परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर (कहते हैं) मानता हूं। आर्योद्देश्यरत्नमाला में ग्रन्थकार ने लिखा है कि ‘(ईश्वर) जिसके गुणकर्मस्वभाव और स्वरुप सत्य ही हैं, जो केवल चेतनमात्र वस्तु तथा जो एक, अद्वितीय, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वत्र व्यापक, अनादि और अनन्त, सत्य गुणवाला है, और जिसका स्वभाव अविनाशी, ज्ञानी, आनन्दी, शुद्ध, न्यायकारी, दयालु और अजन्मादि है, जिसका कर्म जगत् की उत्पत्ति, पालन और विनाश करना तथा सब जीवों को पापपुण्य के फल ठीकठीक पहुंचाना है, उसकोईश्वर कहते हैं।

 

संसार के अनेक मत-मतान्तरों में इस वैदिक मत का विरोधी व विपरीत ईश्वर का जो स्वरुप वर्णित किया गया है वह असत्य, अप्रमाणिक व अविद्याजन्य है। महर्षि दयानन्द द्वारा वर्णित उपर्युक्त ईश्वर का स्वरुप वह स्वरुप है जो कि एक सिद्ध योगी को समाधि अवस्था में साक्षात्कार होने पर प्रत्यक्ष अनुभव में आता है। इसी स्वरुप का वेदों व आर्ष वैदिक साहित्य में वर्णन है। तर्क व युक्ति से भी इसकी पुष्टि होती है। ईश्वर के इसी स्वरुप का ध्यान करने से आत्मा के मलों की निवृत्ति होने पर ईश्वर का साक्षात्कार होता है। वैदिक मत के विपरीत पद्धतियों से ईश्वर विषयक पूजा व उपासना से उपासना के मनुष्य जीवन के चरम लक्ष्य ईश्वर के साक्षात्कार की उपलब्धि नहीं होती। इसका निभ्र्रान्त ज्ञान भी वैदिक साहित्य को पढ़कर व अनुमान से जाना जाता है। हमने उपर्युक्त पंक्तियों में ईश्वर का जो वेद पोषित स्वरुप प्रस्तुत किया है वही प्रमाणिक सत्य स्वरुप है। संसार के सभी मनुष्यों को इसी स्वरुप को जानकर, वेदाध्ययन करने व ध्यान आदि साधना करने से ईश्वर की प्राप्ति जीवनकाल में ही हो जाती है। यह समाधि ईश्वर के साक्षात्कार की अवस्था ही स्वर्ग मोक्ष के समान सर्वाधिक सुख आनन्द की स्थिति होती है। इसको प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य है। यदि मानव जीवन में यह स्थिति प्राप्त नहीं की, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी कर लिया जाये, इसकी तुलना में वह सब हेय व निम्न है। उत्कृष्ट मनुष्य जीवन वही है जिसमें आध्यात्म व भौतिकवाद का समन्वय हो। केवल भौतिकवादी जीवन अपंग ही कहा जायेगा। आशा है कि लेख के विचारों से पाठक लाभान्वित होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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