परिवार में समन्वय का अभाव ही दुःख का कारण है

स्तुता मया वरदा वेदमाता-७

अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।

जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम्।।

मन्त्र कहता है परिवार में समन्वय का अभाव ही दुःख का कारण है। परिवार विविधता की दृष्टि से अपूर्व इकाई है। इसमें पति-पत्नी समान युवा होने पर भी स्त्री-पुरुष के भेद से नितान्त भिन्न हैं। बच्चे और बूढ़े एक-दूसरे आयुवर्ग से नितान्त भिन्न होते हैं। माता-पिता और बालक सम्बन्ध से सबसे निकट होने पर भी योग्यता सामर्थ्य से शून्य और शिखर का अन्तर रखते हैं। इन सबको मिलाकर एक इकाई बनती है जिसे हम परिवार के रूप में जानते हैं।

अधिक समय तक एक साथ समय बिताने वाली इस इकाई में विविधता के कारण समस्याओं की अधिकता तथा विविधता होना स्वाभाविक है। परिवार में विविधता एक-दूसरे के पूरक हैं। पूरक होना एक-दूसरे को एक-दूसरे की आवश्यकता बताता है। परिवार के सदस्य एक-दूसरे को इसीलिए चाहते हैं क्योंकि उनका कार्य परस्पर सहयोग से चलता है। इस सहयोग को व्यवस्थित करने के उपाय को व्रत नाम दिया गया है। व्रत शब्द  से सभी व्यक्ति परिचित होते हैं परन्तु रूढ़िगत अर्थ ही सबके काम में आता है। व्रत से हम समझते हैं ऐसी प्रतिज्ञा जिसके पालन करने का कोई मनुष्य संकल्प करता है। कोई किसी वस्तु के त्याग का संकल्प करता है, कोई किसी वस्तु के स्वीकार करने की इच्छा करता है। व्रत व्यापक शब्द है, इसका अर्थ है चयन करके स्वीकार करना।

ब्रह्मचारी को व्रती कहते हैं, उसने बहुत सारे संकल्प लिये होते हैं

जब बालक को यज्ञोपवीत धारण कराते हैं तो व्रत का मन्त्र बोलकर आहुति दिलवाते हैं। अग्ने व्रतपते, चन्द्र व्रतपते, सूर्य व्रतपते, वायो व्रतपते और व्रतानां व्रतपते। व्रतों का पालन करने वाले पदार्थों का उदाहरण दिया गया है। संसार में अग्नि व्रतपति है, सूर्य-चन्द्र-वायु सभी तो व्रतपति हैं, व्रतों के स्वामी हैं। यहाँ व्रतपति कहने से नियमों के स्वामित्व का बोध होता है। ये नियम विवशता नहीं हैं, स्वीकृत हैं इनका पालन करना इनका स्वभाव है। स्वभाव बन गये नियम खण्डित नहीं होते। परमेश्वर को इस प्रसंग में व्रतानां व्रतपते कहा है अर्थात् संसार में जितने भी व्रत हो सकते हैं उन सब व्रतों का वह स्वामी है। जितने नियम उसके अपने हैं उतने नियम तो किसी ने भी नहीं धारण कर रखे हैं। इसी कारण वह समस्त संसार को नियम में चलाने का सामर्थ्य रखता है। परमेश्वर नित्य है, इसलिए उसके नियम भी नित्य हैं, परमेश्वर सर्वत्र है, इस कारण उसके नियम ज्ञानपूर्ण हैं, उसके नियमों में कहीं त्रुटि नहीं होती। वह सर्वशक्तिमान् है अतः उसके नियमों में पालन कराने का सामर्थ्य भी है।

व्रत चलने के लिए अनिवार्य है- जिस मार्ग पर आप चलना चाहते हैं, चलने की इच्छा करते हैं, तब आप अपने विचारों का विश्लेषण करके निर्णय की ओर ले चलते हैं। तब पहली स्थिति बनती है और आपका विचार संकल्प का रूप लेता है। जब भली प्रकार विचार करके निश्चय करते हैं, तब यह संकल्पित विचार स्थायी बन जाता है। यह विचार के स्थायी करने की घोषणा का नाम व्रत हो जाता है।

संकल्प व्रत बन जाता है, वह अपने नियम पर, अपने मार्ग पर चल पड़ता है। यह व्रत है। यह व्रत उसे नियम पर चलने का अधिकार देता है, उसे दीक्षा कहा गया है। दीक्षित होने का अर्थ है, उस व्रत के साथ उसे सब पहचानते हैं। वह पहचान उसे चलने का, आवश्यक वस्तु को प्राप्त करने का अधिकार देता है। यह यात्रा जब प्रयोजन की पूर्णता तक जाती है तब उस पूर्णता को, सफलता को दक्षिणा कहा जाता है। यह सफलता का आधार है। व्रत अर्थात् व्रत पर चलकर ही सफलता की पूर्णता तक पहुँचा जा सकता है। व्रत की मनुष्य को पूरे जीवन में आवश्यकता रहती है। मनुष्य का जीवन निरर्थक नहीं है, सप्रयोजन है, यदि प्रयोजन जीवन में है तो उसको प्राप्त करने का उपाय भी होना चाहिए, इसलिए व्रत की आवश्यकता होती है।

जैसे बालक के, छात्र के जीवन में व्रत की आवश्यकता है, उसी प्रकार गृहस्थ के जीवन में भी व्रत की आवश्यकता होती है। इसी कारण विवाह संस्कार में वर-वधु एक दूसरे के हृदय पर हाथ रखकर व्रतों के पालन करने का संकल्प लेते हैं, इतना ही नहीं वे अपने व्रतों का पालन भी करते हैं, वे अपने साथी के व्रत से भी परिचित होते हैं तभी तो कहते हैं- मैं तुम्हारे व्रतों को अपने हृदय में धारण करता हूँ। व्रत को समझ लें तो जीवन को चलाना और समझना सरल हो जायेगा।

देश व जाति के लिये जो जिए….. कृतिशील आर्य सेनानी – स्वामी स्वात्मानन्द – डॉ. नयनकुमार आचार्य

कीर्तिर्यस्य स जीवति-अपार धैर्य के साथ जिनका संघर्षमय जीवन समाज, देश व जाति के लिए व्यतीत हुआ हो, ऐसी आत्माएँ धन्य होती हैं। शरीर से वे इस संसार में न रहते हुए भी उनकी अमर कीर्ति गाथाएँ युगों-युगों तक आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्तम्भ बन जाती हैं। आर्य जगत् दक्षिण भारत के देशभक्तों से भलीभाँति परिचित हैं हैदराबाद स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास को अपने अनोखे शौर्य व बलिदान से अमरता प्रदान करने वाले कई नरवीरों की गाथाएँ भले ही ज्ञात हैं, लेकिन प्रखर धैर्यधुरन्धर आर्य सेनानी, ऋषिभक्त स्वामी स्वात्मानन्द जी (रामचन्द्र जी मन्त्री-बिदरकर) के क्रान्तिकारी जीवन व साहस भरे कार्यों से शायद सभी परिचित नहीं होंगें। पद, प्रतिष्ठा व प्रसिद्धी से कोसों दूर रहकर श्री स्वामी जी ने मातृभूमि की रक्षा व आर्य समाज के प्रचार कार्य हेतु जो अनोखे कार्य किये हैं, वे निश्चय ही प्रेरणाप्रद हैं। हैदराबाद स्वतन्त्रताकालीन महाराष्ट्र का लातूर शहर व परिसर ऐसा ही क्रान्तकारी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र रहा है। यहाँ की पुरानी आर्यसमाज (गाँधी चौक) इस समय ८० वें वर्ष में पर्दापण कर रही है। इसी आर्य समाज के एक समय के बहुत ही क्रियाशील मन्त्री वह महान देशभक्त, स्वाधीनता सेनानी श्री रामचन्द्र जी बिदरकर जो क्रान्तिकारी जीवन के कार्यों के कारण तथा बाद में संन्यास दीक्षा लेकर स्वामी स्वात्मानन्द जी के नाम से सर्वत्र विख्यात हुए।

आरम्भिक जीवन– श्री स्वामी जी का जन्म सन् १९०४ में कर्नाटक के बीदर शहर में एक साधारण परिवार में हुआ। माता चन्द्रभागा बाई तथा पिता श्री तुकाराम डोईजोडे ये दोनों धार्मिक, सहिष्णु, स्नेहील स्वभाव के थे। इस दम्पति की रामचन्द्र, लक्ष्मण, पुण्डलिक एवं रत्नाबाई (सोनवे) ये चार संन्तानें हुई। इन सभी में बड़े होने के कारण रामचन्द्र जी पर परिवार की जिम्मेदारियाँ आ पड़ी। युवावस्था में सन् १९३० को वे अपने भाई व परिवार को लेकर लातूर आये। वैसे तो पहले से ही इनका कपड़ा सिलाई (दर्जी) का पारम्परिक व्यवसाय था। शायद बीदर में इस व्यवसाय में प्रगति नहीं हुई होगी, इस कारण उन्हें लातूर आना पड़ा। यहाँ के कपड़ा लाईन में उनका यह सिलाई काम बहुत ही उत्तम रीति से चलता था। उनकी दुकान में लगभग ३५ सिलाई मशीनें थी। बढ़िया काम की वजह से शहर में उनकी प्रतिष्ठित दर्जी के रूप में ख्याति हुई।

 

आर्यसमाज व स्वतन्त्रता संग्राम – लातूर के कई दर्जी (भावसार) लोगों पर आर्यसमाज के विचारों का प्रभाव रहा है। इस कारण रामचन्द्र जी भी इसी विचारधारा की ओर आकृष्ट हुए। वैदिक विचारों का इन पर ऐसा रंग जमा कि देखते ही देखते वे पक्के आर्यसमाजी बन गये। उस समय हैदराबाद स्वतन्त्रता आन्दोलन में आर्यसमाज की सक्रिय भूमिका थी। रामचन्द्र जी में भी क्षात्रवृत्ति  कूट-कूटकर भरी थी, तब वे चुप-चाप थोड़े ही बैठते। अतः बडे उत्साह से इस आन्दोलन में सम्मिलित हुए और  इस आन्दोलन का नेतृत्व भी किया। ऊँचा पूरा कद, बलिष्ट शरीर और धैर्य-वीरता होने से किसी प्रकार का अन्याय सहन करना, यह उनके बस का नहीं था। इन्हीं कारणों से निजाम के विरुद्ध चलाये गये आन्दोलन में वे जोश के साथ कूद पड़े।

उनकी निराली धाक– इस परिसर में आज भी उनका नाम बड़े गौरव के साथ लिया जाता है। हैदराबाद स्वतन्त्रता संग्राम में आपने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। अनोखी धैर्यवृत्ति व शौर्यगुणों के कारण उनकी रजाकरों में एक प्रकार की निराली धाक थी। निजाम की पुलिस भी उनके अतुल बल के कारण सदैव भयभीत रहती थी। क्रान्तिकारों में वे दबंग के रूप में पहचाने जाते थे। अतः लोग इनसे बहुत डरते थे। वे मृत्यु को अपने हाथ में लेकर चलने वाले शूरता की शान, व वीर सैनिक थे। देशभक्ति का उत्साह इनके रग-रग में भरा हुआ था। अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध लड़ना वे अपना परमधर्म समझते थे, किन्तु व्यर्थ ही किसी को कभी कष्ट नहीं दिया। अपूर्व साहस के साथ रजाकारों के अत्याचारों का जमकर मुकाबला किया और कितनों को मौत के घाट उतार दिया। ‘मन्त्री जी’ का नाम सुनते ही प्रतिपक्षियों में आतंक सा छाया रहता था। लातूर तथा परिसर के गाँवों में उनके क्रान्तिकारी जीवन व सहासपूर्ण कार्यों की चर्चा होती रहती थी। बार्शी (जि. सोलापूर) इस ग्राम के समीप ही स्थापित चिंचोली कै म्प के वे प्रमुख थे। श्री स्वामी जी, जहाँ अन्य नागरिकों को देशकार्य के लिए प्रेरित करतें, वहीं कई धनवान् व्यापारियों को राष्ट्रकार्यों के लिए आर्थिक सहयोग हेतु आग्रह भी करते। उनके आवाह्न पर जनता अपना धनमाल व जेवरादि सम्पत्ति  देशकार्य हेतु उन्हें प्रदान करते। एक बार लगभग ५० किलो सोना जमा हुआ, तब स्वामी जी ने यह सारा धन शासन के प्रतिनिधि (जिलाधीश) को सुपूर्द किया। यदि कोई व्यापारी स्वार्थवश सहयोग करने में हिचकिचाता, तो उसे वे समझाते और मातृभूमि की सेवा का महत्वबताकर सत्कर्म में प्रवृत्त  करते। फिर भी कोई इस बात को न मानें, तो वे उसे अच्छा ही सबक सिखाते। एक बार ऐसा ही हुआ। लातूर का एक सधन व्यापारी समझाने बुझाने पर भी आर्थिक सहयोग के लिए तैयार नहीं हुआ, तब उसे लातूर के समीपस्थ हरंगुल नामक गाँव में कड़े रूप में दंडित किया। इतना होने पर वह तुरन्त सहयोग के लिए तैयार हुआ।

निष्काम कर्मयोगी – श्री स्वामी जी एक ऐसे सच्चे देशभक्त थे, जिन्होंने ‘न मे कर्मफले स्पृहा’ इस सूक्ति के अनुसार भाव से माँ भारती की सेवा की। स्वतन्त्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लेने पर भी कभी अपने कामों की चर्चा तक नहीं की। यहाँ तक कि स्वाधीनता सैनिक की पेन्शन लेने से भी इन्कार किया। बाद में आर्यजनों व सहयोगी मित्रों के बहुत समझाने पर वे मान गये। उनसे पूछने पर कि ‘आपने देश व समाज के लिए इतना बड़ा काम किया है, तो पेन्शन क्यों नहीं लेते?’ तब वे कहते-‘मैंने कर्तव्य भावना से देश का काम किया है। माता की रक्षा करना, पुत्र का दायित्व होता है, मैंने पैसों के लिए कोई काम नहीं किया है?’ जब देश के गृहमन्त्री बूटासिंह जी थे, तब उन्हें दिल्ली आमन्त्रित किया गया। स्वामी जी के साथ मन्त्री महोदय ने चर्चा की। उनके क्रान्तिकारी कार्यों की गाथा सुनकर पेन्शन का फॉर्म भरने का आग्रह किया। बहुत विनती करने पर वे इसके लिये राजी हो गये, तब पेन्शन मजूंर हुई। वहीं पर स्वतन्त्रता सेनानी का प्रशस्ति पत्र देकर स्वामी जी का गौरव भी किया गया। इस कार्य के लिए स्वामी जी ने खुद आगे होकर पहल नहीं की, बल्कि भारत सरकार ने खुद आगे होकर  सम्मानित किया।

आगे चलकर स्वामी जी महाराष्ट्र शासन की ओर से स्वाधीनता सैनिक गौरव समिति के विभागीय अध्यक्ष भी बनें। वे देश के लिए प्रामाणिक वृत्ति  से कार्य करने वाले अनेकों स्वाधीनता सैनिकों को प्रमाण पत्र देने व पेन्शन मंजूर करने हेतु शासन को सिफारिशें की। इनके प्रयासों से सही मायने में  देश के लिए कार्य करने वाले उन राष्ट्रभक्तों को योग्य न्याय मिला, जो सदैव प्रसिद्धी से पराङ्मुख रहते थे।

आर्यसमाज का प्रसार कार्य– देशसेवा के साथ ही स्वामी जी का वैदिक धर्म प्रचार कार्य में भी काफी योगदान रहा है। आर्यसमाज (गाँधी चौक) लातूर के वे लगभग २२ वर्ष मन्त्री रहे। उनके कार्यकाल में इस समाज की गतिविधियाँ प्रगतिपथ पर थी। आर्य विचारों के प्रसार हेतु वे सतत प्रयत्नशील थे। प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला वार्षिक उत्सव आर्य जनता के लिए वैचारिक ऊर्जासंवर्धन का स्वर्णिम अवसर माना जाता था। सभा सम्मेलनों पर आमन्त्रित उद्भट वैदिक विद्वानों को सुनने के लिए शहर व देहातों के जिज्ञासु श्रोतागण हजारों की संख्या में आते रहते थे। आज भी वह परम्परा जारी है। सन् १९५६ में स्वामी जी के मन्त्रित्वकाल में विभागीय आर्य महासम्मेलन सफलता के साथ सम्पन्न हुआ, जिसके प्रभाव से अनेकों लोग आर्यसमाज की ओर आकृष्ट हुए। इस सम्मेलन में महात्मा आनन्द स्वामी सहित अन्य विद्वान् मनीषी पधारे थे। संस्था के पदाधिकारी भी उनकी आज्ञा में रहकर कार्य करते थे।

बाद में १९७४ में उन्हीं के निर्देशन में त्रिदिवसीय मराठवाड़ा स्तरीय आर्य महासम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें पूर्व प्रधानमन्त्री अटलबिहारी बाजपेयी, डॉ. सत्यप्रकाश, पूर्व सांसद ओमप्रकाश त्यागी, शिवकुमार शास्त्री आदि विद्वान् वक्ताओं को आमन्त्रित किया गया था। आर्य समाज को लोकोपयोगी बनाने में स्वामी जी अग्रणी रहे। दशहरे के पावन पर्व पर नगर में भव्य विजय-यात्रा (जुलूस) निकालने का श्रेय स्वामी जी को जाता है। आज भी नगरवासी बडे धूमधाम से प्रतिवर्ष यह दशहरा जुलूस निकालते हैं।

देववाणी के प्रचारक– लातूर में देववाणी संस्कृत भाषा के प्रचार हेतु स्वामी जी ने काफी प्रयास किये। संस्कृत अध्ययन केन्द्र चलाकर संस्कृत को जन-जन तक पहुँचाया। यद्यपि राज्य में शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी माने जाने वाले इस शहर में सम्प्रति पुराने व नये मिलाकर गुरुकुलीय स्नातकों की संख्या लगभग ६० से अधिक है। इन्हीं स्नातकों को प्रेरणा देकर स्वामी जी ने उनके माध्यम से संस्कृत का प्रचार कराया। स्वयं संस्कृत सीख न सके, लेकिन समाज में इस भाषा को बीजारोपित करने में स्वामी जी की अहम भूमिका रही है। भारतीय विद्या भवन की परीक्षाओं का केन्द्र भी उन्होंने चलाया। परीक्षाओं के आयोजन हेतु शहर से निधि संकलित कर छात्रों की व्यवस्था करते। साथ ही बच्चों को शुभगुणों से संस्कारित करने हेतु शिशु विहार केन्द्र भी संचालित किया। इस कार्य में नगर के प्रसिद्ध व्यापारी व वेद तथा संस्कृत के अध्येता श्री सेठ बलदवा जी का उन्हें विशेष सहयोग मिलता रहा। जब कभी धन की आवश्यकता पड़ती, तब स्वामी जी बलदवा जी के पास चले जाते और उनसे प्राप्त धनराशि द्वारा संस्कृत प्रचार, पुरस्कार वा अन्य वेदप्रचार आदि कार्य करवाते। स्थानीय ज्ञानेश्वर विद्यालय में संस्कृत प्रचार कार्य हेतु उनका सदैव आना-जाना रहता था। वहाँ के संस्कृत अध्यापक महानुभावपन्थी श्री शास्त्री जी  से उनके घनिष्ठ सम्बन्ध रहे।

प्रसिद्ध भाषाविद् प्रो. श्री ओमप्रकाश जी होलीकर बताते हैं कि ‘लातूर नगरी में आज संस्कृत का जो विशाल स्वरूप दिखाई दे रहा है, उसके मूल में स्वामी जी की तपस्या व पीठिका रही है। संस्कृत के प्रसार हेतु काम करने वाले इतने समर्पित व्यक्ति को मैंने पहली बार देखा है।’

 

अद्वितीय बलोपासक -बचपन से ही उन्हें व्यायाम से बहुत ही लगाव था। सब काम छोड़कर वे व्यायाम करते । इसलिए उनका शरीर सुडौल व वज्र के समान बन गया था। देश के बालक व युवक शरीरबल के धनी हो, इसीलिए आर्यसमाज में श्रद्धानन्द व्यायाम मन्दिर के नाम से विशाल व्यायामशाला की स्थापना की और आर्ययुवक व्यंकटेश हालिंगे को इसका अध्यक्ष बनाया। स्वामी जी की प्रेरणा से अनेकों युवक इस व्यायामशाला में आते रहे और अपने शरीरधन को संवर्धित करते रहें। मल्लखम्भ विद्या को भी स्वामी जी ने प्रोत्साहन दिया। फलस्वरूप अनेकों बच्चे-बच्चियों ने विभिन्न राष्ट्रीय व प्रान्तीय क्रीडा प्रतियोगिताओं में भाग लेकर पुरस्कार भी प्राप्त किये हैं। व्यायामशाला के अखाड़े में कुस्ती लड़नेवाले अनेकों मल्ल भी स्पर्धाओं में विजयी रहे हैं। अनेकों युवक आर्यवीरदल के राष्ट्रीय शिविरों में प्रशिक्षण प्राप्त करते रहे। व्यायामशाला में जब भी किसी साहित्य की कमी हो, तब स्वामी जी तुरन्त शहर के दानी व्यापारी सेठ के पास पहुँच जाते और उन्हें वे साहित्य दिलवाने हेतु प्रोत्साहन देते और समय पर सभी प्रकार का साहित्य उपल ध भी होता। लातूर शहर में साथ ही समीपस्थ कव्हा नामक ग्राम में भी स्वामी जी ने व्यायामशाला खोलने हेतु पूर्व विधायक श्री पाटील को प्रेरित किया। इस तरह स्वामी स्वात्मानन्द जी आर्य समाज के माध्यम से शारीरिक उन्नति का पथ प्रशस्त करते रहे। आचार्य देवव्रत को आमन्त्रित कर वे प्रतिवर्ष आसन-प्राणायाम शिविर लगवाते, जिसका अनेकों योगप्रेमियों को लाभ मिलता रहा।

 

पारिवारिक जीवन – मन्त्री जी (रामचन्द्र जी) का गृहस्थाश्रम अल्पकालिक ही रहा। श्रीमती अनसूयाबाई उनकी सहधर्मिणी का नाम था। इन्हें कोई सन्तान नहीं हुई। प्लेग की बिमारी के कारण धर्मपत्नी का अकस्मात ही निधन हो गया। भरी जवानी में पत्नी के बिछुड जाने से उन पर गहरा आघात हुआ। फिर भी धैर्य के धनी रामचन्द्र ने पुनर्विवाह का विचार तक नहीं किया। किसी अनाथ बालिका को बचपन में ही गोद लिया और उसका शन्नोदेवी नाम रखा। इस कन्या को शुभसंस्कार, ऊँ ची शिक्षा आदि दिलाकर बड़ी होने पर उसका डोणगाँव के होनहार डॉक्टर युवक दिगम्बर मुले से विवाह कराया। सम्प्रति यह मुले परिवार उदगीर में फलता-फूलता हुआ प्रगतिपथ पर विराजमान है। छोटे दोनों भाई श्री लक्ष्मणराव व पुंडलिकराव भी अपने भ्राताश्री के पदचिह्नों पर चलते रहें। इन्होंने भी हैदराबाद स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लिया और आर्यसमाज के सम्पर्क में आकर वैदिक विचारों से जुड़े रहे। अपने बड़े भाई से प्रेरणा पाकर ही अनुज लक्ष्मणराव बिदरकर ने अपनी कन्याओं को पढ़ाया और उनके अन्तर्जातीय विवाह कराये।

 

उत्तर  भारत का भ्रमण व संन्यास दीक्षा– वैराग्यवृत्ति धारण कर मन्त्री जी स्वाध्याय, चिन्तन, ध्यान-धारणा आदि कार्यों में संलग्न होकर उत्तर  भारत की ओर चल पड़े। दयानन्द मठ, दीनानगर (पंजाब) में कई माह तक साधना करते रहे। वहीं पर आर्यजगत् के वीतराग संन्यासी स्वामी सर्वानन्द जी का शुभ सान्निध्य पाकर उनसे संन्यास दीक्षा ली और स्वामी स्वात्मानन्द जी बन गये। कुछ समय तक वे हिमाचल के चंबा  स्थित मठ में भी रहे। बाद में हरिद्वार के समीपस्थ महाविद्यालय ज्वालापुर में भी कुछ काल तक निवास किया। भोजन व भण्डारविभाग के प्रमुख बनकर आप गुरुकुलीय व्यवस्था में सहयोग देते रहे और ब्रह्मचारियों को राष्ट्रभक्ति व सुसंस्कारों का पाठ पढ़ाते रहे।

पुनश्च जन्मभूमि में – कई वर्ष उत्तर  भारत में रहकर स्वामी जी महाराष्ट्र आये। लातूर के समीपस्थ कव्हा नामक ग्राम में छोटासा आश्रम (कुटिया)बनाकर तपस्वी जीवन व्यतीत करने लगे। तब भोजनादि की असुविधा के कारण होने वाली अड़चनों को देखकर आर्यजनों ने उन्हें आर्यसमाज में रहने की विनती की। अतः उनके आग्रह पर वे आर्यसमाज में रहने लगे। यहाँ पर सादगीपूर्ण विरक्त वृत्ति  धारण कर वे पूर्व की भाँति वेदप्रचारादि कार्यों में संलग्न होकर आर्यों को प्रेरणा देते रहे। यज्ञकार्य में उन्हें विशेष रुचि थी। अपनी आर्यसमाज में भव्य यज्ञशाला बनें, यह उनकी तीव्र अभिलाषा थी। इसके लिए वे अपनी ओर से लगभग ५० हजार रूपयों की राशि भी दान में दी। उनके चले जाने के बाद पदाधिकारियों ने एक विशाल यज्ञशाला निर्माण किया है।

 

अनोखी क्षमाशीलता – किसी कवि ने कहा है- क्षमा वीरस्य भूषणम्। अर्थात् क्षमाशीलता वीरपुरुषों का आभूषण होती है। जुलमी रजाकारों के अत्याचारों से लोहा लेने वाले नरवीर स्वात्मानन्द जी में प्रखर शौर्य के साथ ही अनूठी क्षमावृत्ति भी थी। शहर के किसी प्रसिद्ध व्यक्ति द्वारा एक अन्याय हुआ। एक मासूम महिला की असहायता का फायदा उठाकर उसने अत्याचार किया। नाजायज गलत सम्बन्ध स्थापित किया, परिणाम वही हुआ, जो होना था। पेट में पलने वाले बच्चे को अपनाने व उस महिला को आश्रय देने के लिए तैयार नहीं हुआ, तब वह स्त्री स्वामी जी के पास आयी और उसने वह सारी दुःखभरी कहानी सुना दी। उस पीड़ित महिला के वेदना सुनकर स्वामी जी ने उसे आश्वस्त किया। अपने कार्यकर्ताओं  से उस अपराधी व्यक्ति की तलाश कर सामने लाने का आग्रह किया। स्वामी जी के प्रभाव से वह व्यक्ति उनके चरणों में आकर गिरा, उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया व क्षमा मांगी। स्वामी जी ने भी उसे अपूर्व क्षमादान करते हुए छोड़ दिया। उस महिला को किसी अज्ञात सुरक्षित स्थान पर रखकर पिता की भाँति उसकी देखभाल की। पूरा समय बीतने पर जब बच्चा पैदा हुआ, तब उस बच्चे की पालन-व्यवस्था का भार किसी अन्य परिवार पर सौंप दिया और उस महिला को समाज में प्रतिष्ठापूर्वक जीने का अधिकार प्रदान किया। ऐसे थे क्षमा, करुणा व दया के पुजारी श्री स्वामी स्वात्मानन्द जी

 

सभी को पितृतुल्य छत्रछाया – स्वामी जी के त्यागमय, कर्मठ जीवन को देखकर अनेकों लोग उनकी ओर आकृष्ट हो गये। सभी लोगों से उनके मधुर सम्बन्ध थे। उनका क्रान्तिकारी जीवन ही उन्हें यश गौरव दिलाने में पर्याप्त रहा। सर्व श्री स्वा. सै. वासुदेवराव होलीकर, स्वा. सै. शंकरराव जडे, स्वा. सै. निवृत्तिरव  होलीकर, स्वा. सै. चन्द्रशेखर बाजपेयी, पू. उत्ममुनि, हरिशचन्द्र गुरु जी, हरिशचन्द्र पाटील आदि से उनका सदैव विचारविमर्श होता था। धनंजय पाटील, परांडेकर, पाराशर, तेरकर, प्रो. नरदेव गुडे, प्रो. विजय शिंदे, प्रो. मदनसुरे, प्रो. होलीकर, प्रो. दत्तात्रेय  पवार, हालिंगे बंधू, कैप्टन डॉ. भारती जाधव आदियों पर उनका विशेष स्नेहाशीष रहा। श्री महेन्द्रकर सहित अनेकों आर्य परिवार स्वामी जी की श्रद्धाभाव भोजनादि की व्यवस्था करते  थे।स्वामी जी जीवन के अन्त तक आर्यसमाज लातूर में रहे। यहाँ का निवास भवन आज भी स्वामी जी के नाम से पहचाना जाता है। लेखक को भी छात्रावस्था में उनका प्रेमाशीर्वाद मिला व उनकी सेवा का सुअवसर प्राप्त हुआ। वृद्धावस्था में आर्य समाज के पदाधिकारियों, आर्यजनों व परिजनों ने उनकी श्रद्धाभाव से सेवा

शुश्रुषा की। ऐसे महान तपोनिष्ठ महात्मा ने दि. ७ अगस्त १९९४ को अपनी जीवन यात्रा समाप्त की। ऐसे महान कर्मयोगी, महान देशभक्त को शत् शत् अभिवादन।

– श्रुतिगन्धम्, ब-१३, विद्यानगर,

परली-वैजनाथ जि. बीड (महाराष्ट्र)

कविता – सारे संसार का उपकार करना , सत्यदेव प्रसाद आर्य मरुत,

सारे संसार का उपकार करना

अपना भी उद्धार करना है।

शारीरिक-आत्मिक और सामाजिक

उन्नति करना ही परोपकार करना है।।

सारी सुख-सुविधा और विद्या हमारा कल्याण करती है,

छोड़ देना उन्हें तो अपने आप मरना है।।

हवा हमने सुवासित की,घरों में यज्ञ करने पर,

सुगन्धित घृत जड़ी-बूटी जलाई अग्नि जलने पर।

ऋचायें वेद की गाई हृदय में भावना भर ली।

जगत कल्याण करने की व्यवस्था सार्थक कर ली।

श्रुति की निःसृत वाणी कल्पतरु पुण्य झरना है।।

ज्यों सूरज तप्त करके जल सुखाता और उड़ाता है,

प्रकाशित कर धरा को प्रदूषण को भगाता है।

स्वयं छुप कर हमें विश्राम करने की दे छुट्टी,

अन्न फल फूल दे हम को, गरम कर देता है मुट्ठी।

हमें भी अपने जीवन में सूरज बन उभरना है।।

जगत के सारे पौधों को जो जीवन दे के सरसाता,

पनपता जल उसी में जा, करे पोषण बदल जाता।

मिर्च का स्वाद तीता आम है मीठा और चरपरी इमली,

चतुर्दिक रूप अपना तज कड़क कर बन रही बिजली।

डुबा डुबकी लगा कर जो, उबर कर तैर तरना है।।

– आर्य समाज, नेमदार गंज, नवादा- बिहार।

ऋषि दयानन्द के दृष्टान्त :आचार्य सोमदेव जी

आचार्य सोमदेव जी ने अपने प्रवचन क्रम में मनुस्मृति का स्वाध्याय कराया। मनु के श्लोकों की धर्म, सदाचार, संस्कृति, चरित्र-निर्माण आदि के अनेक दृष्टान्तों के माध्यम से सरल व्याख्या प्रस्तुत की। अपने दार्शनिक प्रसंग में आपने बताया कि सांसारिक मनःस्थिति और आध्यात्मिक मनःस्थिति में अन्तर होता है। जहाँ सांसारिक स्थिति में जो हम चाहते हैं, प्रायः वैसा होता नहीं है, और जो होता है वह प्रायः हमें भाता नहीं है (अच्छा नहीं लगता है) और यदि संसार में कुछ अच्छा भी लगने लगता है तो वह ज्यादा दिन टिक नहीं पाता- अर्थात् संसार में जो चाहते वह होता नहीं, जो होता है वह हमें भाता नहीं, और जो भाता है वह ठहरता नहीं है। इसके विपरीत आध्यात्मिक स्थिति में जो होने वाली स्थिति होती है, व्यक्ति उसी को चाहता है, जो नहीं हो सकती, उसकी इच्छा नहीं करता। होने वाली स्थिति को चाहता है तो वह प्राप्त होती है और वह स्थायी भी दिखती है, टिकने वाली दिखती है। महर्षि दयानन्द जी ने जब जन्म लिया तो टिकना चाहते थे, जीना चाहते थे लेकिन स्थिति ऐसी दिख रही थी, परिस्थिति ऐसी बन रही थी कि जीवन टिकता हुआ दिख नहीं रहा था, घटनाएँ ऐसी घट रही थीं जिनसे स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि भैया, जीवन ज्यादा दिन टिकने वाला नहीं है। शिव मन्दिर में गए, टिकाऊ ईश्वर चाहते थे लेकिन यह क्या? ईश्वर भी टिकाऊ नहीं मिल पा रहा। उधर मूर्तियों में चूहें क्या कूदे- ईश्वर भी हाथ से निकलने लगा। तो ऋषि-महर्षि क्या चाहते हैं? अथर्ववेद कहता है-

भद्रमिच्छन्त ऋषयः स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरग्रे।

ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मै देवा उपसंनमन्तु।।

– अथर्व. १९/४१/१

भद्रमिच्छन्त ऋषयः ऋषि लोग भद्र को चाहते हैं। भद्र के अतिरिक्त ऋषियों को कुछ भी नहीं चाहिए। मन्त्र में ऋषि का एक विशेषण कहा- स्वर्विदः स्वः सुख (को), विदः जानने वाला। यथार्थ में यदि कोई सुख को जानने वाला होता है, पहचानने वाला होता है तो वह ऋषि ही होता है, आध्यात्मिक व्यक्ति ही होता है, साधक ही होता है। सांसारिक व्यक्ति तो छिछले पानी में सुख ढूँढ़ने लगता है। निरुक्त में ज्ञान पिपासुओं को जलाशय/नदी में स्नान करने वाले के दृष्टान्त से समझाया है अर्थात् जलाशय में नहाने के लिए जाने वालों में कुछ घुटने तक पानी में जाकर ही सन्तुष्ट हो जाते हैं, कुछ छाती तक पानी में तृप्त हो जाते हैं, लेकिन अच्छे तैराक तो गहरे जल में गोते लगाकर ही सन्तुष्टि को पाते हैं। वैसे ही जहाँ सांसारिक व्यक्ति थोड़े से सुख से सन्तुष्ट हो जाता है, वहीं आध्यात्मिक थोड़े से सन्तुष्ट नहीं होता है। जब तक सुख की पुष्कल मात्रा न मिल जाए उसकी खोज जारी रहती है। तो यह भद्र प्राप्त कैसे होता है? मन्त्र कह रहा है- तपो दीक्षाम्+उपनिषेदुः अग्रे अर्थात् जब तपो= तप (और) दीक्षाम्= दीक्षा के, उपनिषेदुः= निकट जाते हैं अर्थात् सुख को जानने वाले ऋषि भद्रं को चाहते हुए (उसे प्राप्त करने के लिए) तप और दीक्षा के निकट जाते हैं (तप और दीक्षा का आचरण करते हैं) महर्षि दयानन्द का दृष्टान्त हमारे सामने है, भद्र को प्राप्त करने के लिए ऋषि ने कितना तप किया, चाहे शारीरिक तप हो या वाचनिक तप हो या मानसिक तप हो, इन तीनों ही तपों में तपाकर महर्षि ने स्वयं को कुन्दन बनाया है। जब महर्षि के शारीरिक तप की बात करें तो सच्चे गुरु की खोज में अलकनन्दा के उद्गम की ओर बढ़ते हुए रास्ता बेरी की कटीली झाड़ियों से अवरुद्ध हो गया तो लेटकर वहाँ से आगे निकले और ऐसा करते हुए अपने मांस का बलिदान देना पड़ा। जब और आगे गए तो शीत बढ़ती ही गई, नदी पार करते समय बर्फ के नुकीले किनारों से पैर लहुलुहान हो गए, लेकिन ऋषि भद्र के लिए आगे बढ़ते ही जा रहे हैं। इसी प्रकार महर्षि दीक्षित भी हुए। मन्त्र कह रहा है जब व्यक्ति तपस्वी और दीक्षित होता है, तब – ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातम् अर्थात् उस तपस्वी और दीक्षित से राष्ट्र उत्पन्न होता है, बल उत्पन्न होता है और ओज उत्पन्न होता है। बल और राष्ट्र तो विदित हैं, यह ओज क्या है? कई बार कहा जाता है कि इसके मुख में ओज है, इसकी वाणी में ओज है, इसके व्यक्तित्व में ओज है। शरीर में ओज है अर्थात् शरीर विशेष कान्ति से युक्त है, यह वैसी ही कान्ति होती है जैसी बसन्त की नई कोपलों (प       िायों) में होती है, जैसे बच्चों के शरीर में होती है। यह चमक करती क्या है? यह व्यक्तियों को आकर्षित करती है। महर्षि दयानन्द के शरीर में ओज था, उनकी वाणी में ओज था। कहते हैं जब महर्षि मूर्तिपूजा खण्डन में अपनी ओजस्वी वाणी में व्याख्यान करते थे, लोग इतने प्रभावित होते थे कि टोकरियों में भर-भरकर अपने घरों की मूर्तियाँ निकाल फेंकते थे। तो तपस्वी और दीक्षित में बल उत्पन्न होता है। महर्षि दयानन्द में कितना शारीरिक बल था? महर्षि जोधपुर में ठहरे हुए थे, भ्रमण में जाते समय मार्ग में एक भारी रहंठ आया करती थी, एक पहलवान जो इस रहंठ को घुमाकर हौदी में पानी भरता था, उसे इस बात का अभिमान था कि मेरे अतिरिक्त इस रहंठ को कोई भी घुमा नहीं सकता। एक बार महर्षि भ्रमणार्थ जब वहाँ पहुँचे तो हौदी को खाली देख, पशुओं के पीने के पानी के लिए और शारीरिक व्यायाम की दृष्टि से रहंठ घुमाने लगे, थोड़ी ही देर में हौदी भर गई, लेकिन महर्षि का व्यायाम भी पूरा नहीं हुआ तो महर्षि टहलने आगे निकल गए। जब लौटे तो इतने में वहाँ पहलवान भी आ चुका था। उसने महर्षि से पूछा- महाराज क्या आपने ये हौदी भरी है? महर्षि ने कहा कि हाँ, हमने भरी है, हमने सोचा कि इससे हमारा व्यायाम हो जाएगा, लेकिन हौदी जल्दी ही भर गई, व्यायाम भी पूरा नहीं हो पाया तो हम टहलते आगे चले गए। पहलवान को बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि जिस हौदी को भरते-भरते मैं थक जाता हूँ, स्वामी जी का थकना तो दूर, ठीक से व्यायाम भी नहीं हुआ, कितना बल रहा होगा महर्षि के शरीर में! इसी प्रकार मानसिक बल भी, जितनी विषम परिस्थितियों में स्वयं को अडिग रखते हुए महर्षि ने कार्य किया, हम अनुमान कर सकते हैं कि कितना अधिक मानसिक बल रहा होगा और ऐसा होने पर अर्थात् जब भद्र की इच्छा करते हुए तपस्वी व दीक्षित होने पर ऋषि बल, राष्ट्र और ओज को उत्पन्न कर देते हैं तब- तदस्मै देवा उपसंनमन्तु अर्थात् उस ऋषि के लिए देवता भी प्रणाम करते हैं। विद्वान्/श्रेष्ठ उस तपस्वी का सम्मान करते हैं। इति।।

 

नरक, स्वर्ग व मोक्ष क्या हैं ? – आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा मैं आपसे अपनी ही नहीं अपितु आम व्यक्तियों की जिज्ञासा हेतु कुछ जानना चाहता हूँ। कृपया समाधान कर कृतार्थ करें-

(क) तमाम कथावाचक, उपदेशक, साधु व सन्त नरक, स्वर्ग व मोक्ष की बातें करते हैं। आप इन को विस्तृत रूप से समझायें और अपने विचार दें।

समाधन– (क) वेद विरुद्ध मत-सम्प्रदायों ने अनेक मिथ्या कल्पना कर, उन कल्पनाओं को जन सामान्य में फैलाकर पूरे समाज को अविद्या अन्धकार में फँसा रखा है, जिससे जगत् में दुःख की ही वृद्धि हो रही है। ये मत-सम्प्रदाय ऊपर से अध्यात्म का आवरण अपने ऊपर डाले हुए मिलते हैं। यथार्थ में देखा जाये तो जो वेद के प्रतिकूल होगा वह अध्यात्म हो ही नहीं सकता। कहने को भले ही कहता रहे। महर्षि दयानन्द के काल में व उनसे पूर्व और आज वर्तमान में इन मत-सम्प्रदायों की संख्या देखी जाये तो हजारों से कम न होगी। उन हजारों में शैव, शाक्त, वैष्णव, वाममार्ग, बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम आदि प्रमुख हैं। महर्षि दयानन्द के समय से कुछ पूर्व स्वामी नारायण सम्प्रदाय, रामस्नेही सम्प्रदाय, वल्लभ सम्प्रदाय, गुसाईं मत आदि और महर्षि के बाद राधास्वामी मत, ब्रह्माकुमारी मत, हंसा मत, सत्य सांई बाबा पंथ (दक्षिण वाले), आनन्द मार्ग, महेश योगी, माता अमृतानन्दमयी, डेरा सच्चा सौदा, आर्ट ऑफ लिविंग, निरंकारी, विहंगम योग, शिव बाबा आदि कितनों के नाम लिखें। ये सब अवैदिक मान्यता वाले हैं। इन्होंने अपने-अपने मत की पुस्तकें भी बना रखी हैं। इन पुस्तकों में इन मत वालों ने अपनी मनघड़न्त कल्पनाओं के आधार पर ही अधिक लिख रखा है। स्वर्ग, नरक, मोक्ष, आकाश में देवताओं का निवास स्थान, यमराज, यमदूत आदि की व्याख्याएँ अविद्यापरक ही हैं।

आपने स्वर्ग, नरक, मोक्ष के विषय में जो आज के तथाकथित उपदेशक, कथावाचक, साधु-सन्त कहते-बतलाते हैं, उसके सम्बन्ध में जानना चाहा है। यहाँ हम महर्षि की मान्यता को लिखते हैं व इन तथाकथित कथावाचकों की इन विषयों में क्या दृष्टि है उसको भी लिखते हैं। ‘‘स्वर्ग- जो विशेष सुख और सुख की सामग्री को जीव का प्राप्त होना है वह स्वर्ग कहाता है। नरक- जो विशेष दुःख और दुःख की सामग्री को जीव का प्राप्त होना है उसको नरक कहते हैं।’’ आर्योद्दे. १४-१५ स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश में महर्षि इनके विषय में लिखते हैं- ‘‘स्वर्ग- नाम सुख विशेष भोग और उनकी सामग्री प्राप्ति का है। नरक- जो दुःख विशेष भोग और उनकी सामग्री प्राप्ति को प्राप्त होना है।’’ सत्यार्थप्रकाश ९वें सम्मुल्लास में महर्षि लिखते हैं- ‘‘…….सुख विशेष स्वर्ग और विषय तृष्णा में फँसकर दुःख विशेष भोग करना नरक कहाता है। ‘स्वः’ सुख का नाम है, स्व सुखं गच्छति यस्मिन् स स्वर्गः, अतो विपरीतो दुःखभोगो यस्मिन् स नरक इति। जो सांसारिक सुख है वह सामान्य स्वर्ग और जो परमेश्वर की प्राप्ति में आनन्द है, वही विशेष स्वर्ग कहाता है।’’

महर्षि की इन परिभाषाओं के आधार पर (परमेश्वर की प्राप्ति रूप विशेष स्वर्ग को छोड़) स्वर्ग-नरक किसी लोक विशेष या स्थान विशेष पर न होकर, जहाँ भी मनुष्य आदि प्राणी हैं, वहाँ हो सकते हैं। जो इस संसार में सब प्रकार से सम्पन्न है अर्थात् शारीरिक स्वस्थता, मन की प्रसन्नता, बन्धु जन आदि का अनुकूल मिलना, अनुकूल साधनों का मिलना, धन सम्प   िा पर्याप्त मिलना आदि है, जिसके पास ये सब हैं वह स्वर्ग में ही है। इसके विपरीत होना नरक है, नरक में रहना है। वह नरक भी इसी संसार में देखने को मिलता है।

नरक के विषय में किसी नीतिकार ने लिखा है

अत्यन्तकोपः कटुका च वाणी, दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम्।

नीचप्रसङ्गः कुलहीनसेवा चिह्नानि देहे नरकस्थितानाम्।।

अत्यन्त क्रोध, कटुवचन, दारिद्र्य, अपने स्वजनों से वैर-भाव, नीच-दुर्जनों का संग और कुलहीन की सेवा, ये चिह्न नरकवासियों की देह में होते हैं। ये सब चिह्न इसी संसार में देखने को मिलते हैं। इस आधार पर स्वर्ग अथवा नरक के लिए कोई लोक पृथक् से हो ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा। यह काल्पनिक ही सिद्ध हो रहा है।

जिस स्वर्ग लोक की कल्पना इन लोगों ने कर रखी है, वह तो इस पृथिवी पर रहने वाले एक साधन सम्पन्न व्यक्ति से अधिक कुछ नहीं है।

मोक्ष निराकार परमेश्वर को प्राप्त कर, उसके आनन्द में रहने का नाम है अर्थात् जब जीव अपने अविद्यादि दोषों को सर्वथा नष्ट कर, शुद्ध ज्ञानी हो जाता है तब वह सब दुःखों से छूट कर परमेश्वर के आनन्द में मग्न रहता है, इसी को मोक्ष कहते हैं। वहाँ आत्मा अपने शरीर रहित अपने शुद्ध स्वरूप में रहता है। कथावाचकों के मोक्ष की कल्पना और उसके साधनों की कल्पना सब मिथ्या है। किन्हीं का मोक्ष गोकुल में, किसी का विष्णु लोक क्षीरसागर में, किसी का श्रीपुर में, किसी का कैलाश पर्वत में, किसी का मोक्षशिला शिवपुर में, तो किसी का चौथे अथवा सातवें आसमान आदि पर। इस प्रकार के मोक्ष के उपाय भी मिथ्या एवं काल्पनिक हैं। जैसे-

गङ्गागङ्गेति यो ब्रूयाद् योजनानां शतैरपि।

मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति।।

– ब्रह्मपुराण. १७५.९२/पप.पु.उ. २३.२

अर्थात् जो सैकड़ों सहस्रों कोश दूर से भी गंगा-गंगा कहे, तो उसके पाप नष्ट होकर वह विष्णु-लोक अर्थात् वैकण्ठ को जाता है।

हरिर्हरति पापानि हरिरित्यक्षरद्वयम्।।

अर्थात् हरि इन दो अक्षरों का नामोच्चारण सब पापों को हर लेता है, वैसे ही राम, कृष्ण, शिव, भगवती आदि नामों का महात्म्य है।

इसी तरह

प्रातः काले शिवं दृष्ट्वा निशि पापं विनश्यति।

आजन्म कृतं मध्याह्ने सायाह्ने सप्तजन्मनाम्।।

अर्थात् जो मनुष्य प्रातः काल में शिव अर्थात् लिंग वा उसकी मूर्ति का दर्शन करे तो रात्रि में किया हुआ, मध्याह्न में दर्शन से जन्मभर का, सायङ्काल में दर्शन करने से सात जन्मों का पाप छूट जाता है।

इस प्रकार के उपाय पाप छूटाने मोक्ष दिलाने के मिथ्या ग्रन्थों में लिखे हैं और इन्हीं प्रकार के उपाय आज का तथाकथित कथावाचक बता रहा है। पाठक स्वयं देखें, समझें कि ये उपाय पाप छुड़ाने वाले हैं या अधिक-अधिक पाप कराने वाले। भोली जनता इन साधनों से ही अपना कल्याण समझती है, जिससे लोक में अविद्या अन्धकार, अन्धविश्वास, पाखण्ड और अधिक फैल रहा है।

वेद व ऋषियों द्वारा मुक्ति व उसके उपाय ऐसे नहीं हैं। वहाँ तो सब बुरे कामों और जन्म-मरण आदि दुःख सागर से छूटकर सुखस्वरूप परमेश्वर को प्राप्त होकर सुख ही में रहना मुक्ति कहाती है। और ऐसी मुक्ति के उपाय महर्षि दयानन्द लिखते हैं ‘‘…..ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना का करना, धर्म का आचरण और पुण्य का करना, सत्संग, विश्वास, तीर्थ सेवन (विद्याभ्यास, सुविचार, ईश्वरोपासना, धर्मानुष्ठान, सत्य का संग, ब्रह्मचर्य, जितेन्द्रियतादि उत्तम कर्मों का सेवन), सत्पुरुषों का संग और परोपकारादि सब अच्छे कामों का करना तथा सब दुष्ट कर्मों से अलग रहना, ये सब मुक्ति के साधन कहाते हैं।’’ इन मुक्ति के साधनों को देख पाठक स्वयं विचार करें कि यथार्थ में मुक्ति के साधन, उपाय ये महर्षि द्वारा कहे गये हैं वा उपरोक्त मिथ्या ग्रन्थों व तथाकथित कथावाचकों द्वारा कहे गये हैं वे हैं। निश्चित रूप से ऋषि प्रतिपादित ही मुक्ति के उपाय हो सकते हैं, दूसरे नहीं।

मिथ्या पुराणों जैसी ही मुक्ति ईसाइयों व मुसलमानों की भी है। ईसाइयों के यहाँ खुदा का बेटा जिसे चाहे बन्धन में डलवा दे। ईसाई जगत् में तो जीवितों को मुक्ति के पासपोर्ट मिल जाते हैं। समय से पूर्व अपना स्थान सुरक्षित कराया जाता है। जितना कुछ चाहिए उससे पूर्व उतना धन चर्च के पोप को पूर्व में जमा कराया जाता है।

मुसलमानों के यहाँ भी ‘नजात’ होती है और वहाँ पहुँच कर सब सांसारिक ऐश परस्ती के साधन विद्यमान हैं, मोहम्मद की सिफारिश के बिना उसकी प्राप्ति नहीं है अर्थात् उन पर ईमान लाये बिना। कबाब, शराब, हूरें, गितमा आदि सभी ऐय्याशी के साधन मिलते हैं। क्या यह भी कभी मुक्ति कहला सकती है? अर्थात् ऐय्याशी करना कभी मुक्ति हो सकती है? इस मुक्ति पर मुसलमानों का विश्वास भी है। वे कहते हैं-

अल्लाह के पतले में वहदत के सिवाय क्या है।

जो कुछ हमें लेना है ले लेंगे मोहम्मद से।।

इतना सब लिखने का तात्पर्य यही है कि जो वेद व ऋषि प्रतिपादित नरक, स्वर्ग व मोक्ष की परिभाषाएँ हैं, वही मान्य हैं इससे इतर नहीं। स्वर्ग व मोक्ष के उपाय भी वेद व ऋषियों द्वारा कहे गये ही उचित हैं। इन मिथ्या पुराणों व इनके कथावाचकों द्वारा कहे गये नहीं।