तमाम मुसलमान इस्लाम छोड़ जायेंगे .- डॉ गुलाम जेलानी

जो लोग दूर दराज  मुल्कों में सफर करने के आदी हैं वो इस हकीकत से आगाज़ हैं कि  सूरज गुरूब  नहीं होता . जब पाकिस्तान में सूरज डूब  जाता है तो मिश्र में लोग शाम की चाय पी रहे होते हैं. वहीं इंगलिश्तान में दोपहर का खाना खा रहे होते हैं और अमरीका के बाज हिस्सों में सूरज निकल रहा होता है . अगर आप बीस काबिल एहातिमाद   घड़ियाँ  साथ रखकर एक तियारे में विलायत चले जाएँ तो वहां जा कर आप हैरान हो जायेंगे की जब यह तमाम घड़ियाँ  शाम के आठ बजा रही होंगी वहां दिन का डेढ़ बज रहा होगा अगर आप एक तेज रफ़्तार रोकेट में बैठ कर अमरीका चले जाएँ तो यह देख कर आपकी हैरत और बढ़ जायेगी कि इन घड़ियों के मुताबिक सूरज तुलुह  हो जाना चाहिए था लेकिन वहां डूब रहा होगा अगर इन्ही घड़ियों के साथ आप जापान की तरफ रवाना हो जाएँ तो पाकिस्तानी वकत के मुताबिक वहां एनितीन  दोपहर सूरज डूब रहा होगा . खुलासा यह की रात के ठीक बारह बजे इंगलिस्तान में शाम के शाम के साढ़े पांच बज रहे होंगे और  हवाई में सुबह के साढ़े पांच .

 

आज घर घर रेडियो मौजूद है रात के नौ बजे रडियो के पास बैठ के पहले इंगलिस्तान लगायें फिर टोकियो और इस के बाद अमरीका आपको मन में यकीन हो जाएगा की जमीन का साया (रात ) नसब (आधा )   दुनिया पर है और नसब (आधा )   पर आफताब पूरी आबोताब . के साथ चमक रहा है .

 

इस हकीकत की वजाहत के बाद आप ज़रा यह हदीस पढ़ें –

अबुदर फरमाते हैं की एक मर्तबा गुरूब आफताब  के बाद रसूल आलः ने मुझ से पूछा क्या तुम जानते हो कि ग़ुरबत के बाद आफताब कहाँ चला जाता है . मैने कहा अल्लाह और उसका रसूल बेहतर जानते हैं आपने फ़रमाया की सूरज खुदाई तख़्त ने नीचे सजदे में गिर जाता है और दुबारा तालोह होने की इजाजत मांगता  है और उसे मुशरफ से दोबारा निकलने की इजाजत मिल जाती है लेकिन एक वकत ऐसा भी आयेगा की उसे इजाजत नहीं मिलेगी . और हुकुम होगा की लौट जाओ जिस तरफ से आये हो ……… वह मगरब की तरफ से निकलना शुरू करेगा और.तफसीर यही है .

अगर हम रात के दस बचे पाकिस्तान रेडियो से दुनिया को या हदीस सुना दें और कहें की इस वकत सूरज अर्श   के नीचे सजदे में पड़ा हुआ है तो सारी मगरबी  दुनिया खिलखिला कर हंस देगी और वहाँ के तमाम मुसलमान इस्लाम छोड़ जायेंगे .

हनुमान जी बन्दर नहीं थे

भारतीय इतिहास में अनेक विद्वान् तथा बलवान् हुए हैं। हनुमान उनमें से एक                       व्यक्ति थे। उनकी सेवक के रूप में बहुत अच्छी      है। उनका जीवन आदर्श ब्रह्मचारी का भी रहा है परन्तु हमारे नादान पौराणिक भाइयों ने उन्हें बन्दर मानकर उनके साथ अन्याय किया हैः-
एक वे हैं जो दूसरों की छवि को देते हैं सुधार।
एक हम हैं लिया अपनी ही सूरत को बिगाड़।।
वे बन्दर न थे, अपितु पूर्णतः ऊपरोक्त गुणों से युक्त एक प्रेरक, आदर्श तथा कुलीन महापुरुष थे। कुछ प्रमाणों से हम इसे स्पष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं। मर्यादा                                           राम से उनकी प्रथम भेंट तब हुई थी, जब राम व लक्ष्मण भगवती सीता की खोज में इधर-उधर भटक रहे थे। खोजते-खोजते वे दोनों ऋष्यमूक पर्वत पर- सुग्र्रीव की ओर गए तो सुग्रीव उन्हें दूर से देखकर भयभीत हो गया। उसने अपने मन्त्रियों से यह कहा कि ये दोनों वाली के ही भेजे हुए हैं ऐसा प्रतीत होता है। हे वानर शिरोमणी हनुमान! तुम जाकर पता लगाओ कि ये कोई दुर्भावना लेकर तो नहीं आये हैं।
सुग्रीव की इस बात को सुनकर हनुमान जहाँ अत्यन्त बलशाली श्री राम तथा लक्ष्मण थे, उस स्थान के लिए तत्काल चल दिये। वहाँ पहुँचने से पूर्व उन्होंने अपना रूप त्यागकर भिक्षु (=सामान्य तपस्वी) का रूप धारण किया तथा श्री राम व लक्ष्मण के पास जाकर अपना परिचय दिया तथा उनका परिचय लिया।
तत्पश्चात् श्री राम ने अनुज लक्ष्मण से कहा-
नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः।
नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्।।
वा. रा., किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक २८
जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेद का                           नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान् नहीं है, वह इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता।
नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्।
बहु व्याहरतानेन न किंचिदपश    िदतम्।।
-वा. रा., किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग श्लोक २९
अर्थः- निश्चय ही इन्होंने                                   व्याकरण का अनेक बार अध्ययन किया है। यही कारण है कि इनके इतने समय बोलने में इन्होंने कोई भी त्रुटि नहीं की है।
न मुखे नेत्रयोश्चापि ललाटे च भ्रुवोस्तथा।
अन्येष्वपि च सर्वेषु दोषः संविदितः क्वचित्।।
-वा. रामायण, किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक ३०
अर्थः-                               के समय इनके मुख, नेत्र, ललाट, भौंह तथा अन्य सब अंगों से भी कोई दोष प्रकट हुआ हो, ऐसा कहीं ज्ञात नहीं हुआ।
इससे स्पष्ट है कि हनुमान वेदों के विद्वान् तो थे ही, व्याकरण के उत्कृष्ट ज्ञाता भी थे तथा उनके शरीर के सभी अंग अपने-अपने करणीय कार्य उचित रूप में ही करते थे। शरीर के अंग जड़ पदार्थ हैं व मनुष्य का आत्मा ही अपने उच्च संस्कारों से उच्च कार्यों के लिए शरीर के अंगों का प्रयोग करता है।                   किसी बन्दर में यह योग्यता हो सकती है कि वह वेदों का विद्वान् बने? व्याकरण का विशेष ज्ञाता हो? अपने शरीर की उचित देखभाल भी करे?
रामायण का दूसरा प्रमाण इस विषय में प्रस्तुत करते हैं। यह प्रमाण तब का है, जब अंगद,                                   व हनुमान आदि समुद्रतट पर बैठकर समुद्र पार जाकर  सीता जी की खोज करने के लिए विचार कर रहे थे। तब                                  ने हनुमान जी को उनकी उ                                  कथा सुनाकर समुद्र लङ्घन के लिए उत्साहित किया। केवल एक ही श्लोक वहाँ से उद्धृत है-
सत्वं केसरिणः पुत्रःक्षेत्रजो भीमविक्रमः।
मारुतस्यौरसः पुत्रस्तेजसा चापि तत्समः।।
-वा. रामायण, किष्किन्धा काण्ड, सप्तषष्टितम सर्ग, श्लोक २९
अर्थः- हे वीरवर! तुम केसरी  के क्षेत्रज पुत्र हो। तुम्हारा पराक्रम शत्रुओं के लिए भयंकर है। तुम वायुदेव के औरस पुत्र हो, इसलिए तेज की दृष्टि से उन्हीं के समान हो। इससे सिद्ध है कि हनुमान जी के पिता केसरी थे परन्तु उनकी माता अंजनी ने पवन नामक पुरुष से नियोग द्वारा प्राप्त किया था। इस सत्य को स्वयं हनुमान जी ने भी स्वीकार किया, जब वे लंका में रावण के दरबार में प्रस्तुत किए गए थे-
अहं तु हनुमान्नाम मारुतस्यौरसः सुतः।
सीतायास्तु कृते तूर्णं शतयोजनमायतम्।।
– वा. रामायण, सुन्दरकाण्ड, त्रयस्त्रिंश सर्ग
अर्थः- मैं पवनदेव का औरस पुत्र हूँ। मेरा नाम हनुमान है। मैं सौ योजन पार कर सीता जी की खोज में आया हूँ।
हनुमान को मनुष्य न मानकर उन्हें बन्दर मानने वालों से हमारा निवेदन है कि इन दो प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध है कि हनुमान जी बन्दर न थे, अपितु वे एक नियोगज पुत्र थे। नियोग प्रथा मनुष्य समाज में अतीत में प्रचलित थी। यह प्रथा बन्दरों में प्रचलित होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। रामायण के इस प्रबल प्रमाण के होते हुए हनुमान जी को मनुष्य मानना ही पड़ेगा।
रामायण में से ही हम तीसरा प्रमाण भी प्रस्तुत करते हुए सिद्ध कते हैं कि हनुमान मनुष्य ही थे, न कि वे बन्दर थे। यह प्रमाण तब का है, जब हनुमान लंका में पहुँच तो गए थे किन्तु बहुत प्रयास करने पर भी सीता जी का पता न कर पाए तो वे सोचने लगे थे कि बिना सीता जी का अता-पता पाए मैं यदि लौटूँगा तो राम जी तथा स्वामी सुग्रीव जी को                   सूचना दूँगा? वहाँ हा हाकार मचेगा। वाल्मीकि ऋषि के                शब्द्दों मेंः-
सोऽहं नैव गमिष्यामि किष्कि न्धां नगरीमितः।
वानप्रस्थो भविष्यामि ह्यदृष्ट्वा जनकात्मजाम्।।
वा. रा., सुन्दरकाण्ड, सप्तम सर्ग
अर्थः- मैं यहाँ से लौटकर किष्किन्धा नहीं जाऊँगा। यदि मुझे सीता जी के दर्शन नहीं हुए तो मैं वानप्रस्थ धारण कर लूँगा। हनुमान जी को मनुष्य न मानकर बन्दर घोषित करने वाले अपने पौराणिक भाई-बहनों से निवेदन है कि वे अपना हठ त्याग कर यह तथ्य तुरन्त स्वीकार कर लें कि हनुमान सच्चे वैदिक धर्मी मनुष्य थे, न कि वे बन्दर थे क्योंकि वानप्रस्थी बनने की बात सोचना तो दूर क ी बात है, वानप्रस्थ                       होता है, बन्दरों को यह भी ज्ञात नहीं होता। हनुमान को बन्दर मानने वाले लोग तुलसीदास गोस्वामी द्वारा रचित ‘‘हनुमान चालीसा’’ का पाठ करते हैं परन्तु उसमें भी एक प्रमाण ऐसा है जो हमारी बात का समर्थन करता हैः-
हाथ वज्र औ ध्वजा विराजे।
कान्धे मूँज जनेऊ साजे।।
काश! ऐसे लोग इस चालीसा में                                   यह पाँचवा पद बोलते-पढ़ते समय इतना समझ पाते कि इसके अनुसार हनुमान जी अपने कन्धे पर जनेऊ धारण किए फिरते थे तथा बन्दर नहीं, अपितु जनेऊ (= यज्ञोपवीत) तो मनुष्य ही धारण करते हैं।
हनुमान दूरस्थ किसी पर्वत पर जाकर मूर्च्छित लक्ष्मण के उपचार के लिए संजीवनी बूटी लाए थे। यह कार्य भी कोई बन्दर नहीं कर सकता अपितु कोई मनुष्य ही कर सकता था जिसे जड़ी-बूटियों का पर्याप्त ज्ञान हो।
हनुमान से हटकर अब थोड़े विचार उनके समकालीन रामायण के कुछ अन्य पात्रों के विषय में भी प्रस्तुत हैं। इनमें एक प्रसंग वाली की पत्नी तारा से                               है। जब सुग्रीव दूसरी बार वाली को युद्ध के लिए ललकारने गया तो वाली की पत्नी तारा ने अपने पति को राम जी से मैत्री कर लेने की प्रार्थना की परन्तु वाली ने ऐसा न करके सुग्रीव का सामना करने, सुग्रीव का घमण्ड चूर-चूर करने, परन्तु सुग्रीव के प्राण हरण न करने का वचन देकर तारा को वापिस राजप्रसाद में चले जाने को कहा तो-
ततः स्वस्त्ययनं कृत्वा मन्त्रविद् विजयैषिणी।
अन्तःपुरं सह स्त्रीभिः प्रविष्टा शोकमोहिता।।
-वा.रा. किष्किन्धा काण्ड, षोडश सर्ग श्लोक १२
अर्थः- वह पति की विजय चाहती थी तथा उसे मन्त्र का भी ज्ञान था। इसलिए उसने वाली की मंङ्गल-कामना से स्वस्तिवाचन किया तथा शोक से मोहित होकर वह अन्य स्त्रियों के साथ अन्तःपुर को चली गई।
मन्त्र का ज्ञान बन्दरों को अथवा बन्दरियों को नहीं होता, न ही हो सकता है। अतः सिद्ध है कि हनुमान का जिन से मिलना-जुलनादि था, उनकी पत्नियाँ भी मनुष्य ही थीं। यही तारा जब अपने पति वाली को प्राण त्यागते देख रही थी तो अन्य बातों के अतिरिक्त यह भी बोली-
यद्यप्रियं किंचिदसम्प्रधार्य कृतं मया स्यात् तव दीर्घबाहो।
क्षमस्व मे तद्धरिवंशनाथ व्रजामि मूर्धा तव वीरपादौ।।
– वा. रा. किष्किन्धाकाण्ड, एकविंश सर्ग, श्लोक २५
अर्थः- ‘‘महाबाहो! यदि नासमझी के कारण मैंने आपका कोई अपराध किया हो तो आप उसे क्षमा कर दें। वानरवंश के स्वामी वीर आर्यपुत्र! मैं आपके चरणों में मस्तक रखकर यह प्रार्थना करती हूँ।’’ इस श्लोक से सिद्ध है कि वाली आर्यों के एक वंश वानर में जन्मा  मनुष्य ही था। इसी प्रकार तारा को भी महर्षि वाल्मीकि ने आर्य पुत्री ही घोषित कियाः-
तस्येन्द्रकल्पस्य दुरासदस्य महानुभावस्य समीपमार्या।
आर्तातितूर्णां व्यसनं प्रपन्ना जगाम तारा परिविह्वलन्ती।।
– वा. रा. किष्किंधा काण्ड, चतुर्विंश सर्ग श्लोक २९
अर्थः- ‘‘उस समय घोर संकट में पड़ी हुई शोक पीड़ित आर्या तारा अत्यन्त विह्वल हो गिरती-पड़ती तीव्र गति से महेन्द्र तुल्य दुर्जय वीर महानुभाव श्री राम के समीप गई।’’
वाली की मृत्यु के पश्चात् अङ्गद व सुग्रीव ने वाली के शव का अन्त्येष्टि-संस्कार शास्त्रीय विधि से कियाः-
ततोऽग्ंिन विधिवद् द    वा सोऽपसव्यं चकार ह।
पितरं दीर्घमध्वानं प्रस्थितं व्याकुलेन्द्रियः।।
संस्कृत्य वालिनं तं तु विधिवत् प्लवगर्षभाः।
आजग्मुरुदकं कर्तुं नदीं शुभजलां शिवाम्।।
– वा. रा. किष्किंधा काण्ड, षड्विंश सर्ग, श्लोक ५०-५१
अर्थः- ‘‘फिर शास्त्रीय विधि के अनुसार उसमें आग लगाकर उन्होंने उसकी प्रदक्षिणा की। इसके बाद यह सोचकर कि मेरे पिता लम्बी यात्रा के लिए प्रस्थित हुए हैं, अङ्गद की सारी इन्द्रियाँ शोक से व्याकुल हो उठीं। इस प्रकार विधिवत् वाली का दाह संस्कार करके सभी वानर जलाञ्जलि देने के लिए पवित्र जल से भरी हुई कल्याणमयी तुङ्गभद्रा नदी के तट पर आए।’’
इस प्रमाण से सिद्ध होता है कि वाली, सुग्रीव, अङ्गद आदि वेद विहित शास्त्रीय कार्य करते थे। यह भी उनके मनुष्य होने का प्रमाण है।
उपर्युक्त तथ्यों के बाद हम अब सामान्य विश्लेषण करते हुए पौराणिकों से पूछते हैं कि वाली की पत्नी तारा, सुग्रीव की पत्नी रुमा हनुमान की माँ अंजनि मनुष्य योनि की स्त्रियाँ थीं तो उनके माताओं-पिताओं ने उन्हें बन्दरों अर्थात् वाली, सुग्रीव तथा केसरी के सङ्ग                                             दिया था? बन्दरों व स्त्रियों से बन्दरों का जन्म होना अव्यवहारिक व अवैज्ञानिक है। अतः यह सर्वथा अमान्य है कि उक्त पुरुष बन्दर थे। यह भी निवेदन है कि बन्दरों, उनकी पत्नियों, उनके पिताओं तथा उनकी माताओं के नाम नहीं होते, उनके जीवन का कोई इतिहास नहीं होता, खाने-पीने व सोने-जागने के अतिरिक्त कोई अन्य कार्य वे करते नहीं। फिर ऊपरोक्त पात्रों के नामकरण                       हुए? उनके कार्य-व्यवहार मनुष्यों जैसे-कैसे                   हुए?
वास्तविकता यह है कि वानर एक जाति है। इसे आंग्ल भाषा में सरनेम भी कहते हैं। हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा व हमीरपुर जिलों में नाग जाति के कुछ मनुष्य आपको मिल सकते हैं। नाग                  का अर्थ सर्प है परन्तु वे इस                  को अपने नाम के साथ सहर्ष लिखते हैं। पिछले वर्ष के न्द्र सरकार में कार्यरत एक उच्चाधिकारी जब सेवानिवृ    ा हुए था तो किसी विशेष कारण वश उसका नाम भी दैनिक पत्रों में छपा था। तब पता चला कि वह भी ऊपरोक्त नाग जाति का ही सदस्य था। सन् १९६९ में भारत के राष्ट्रपति पद पर वी.वी. गिरि नामक एक दक्षिण भारतीय व्यक्ति आसीन हुआ था। गिरि                  का अर्थ पर्वत है परन्तु वह पर्वत न होकर मनुष्य ही था। गिरि उसका सरनेम था या उसकी जाति थी। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, राजस्थान, उ    ारप्रदेश तथा कुछ अन्य प्रदेशों में बहुत-से लोग (अधिकतर जन्मना क्षत्रिय) अपने नाम के साथ सिंह                  का प्रयोग करते हैं, जिसका अर्थ शेर है। हरियाणा में बहुत-से लोग मोर जाति से सम्बद्ध हैं और उनके नाम के पीछे मोर                  लिखा होता है। पंजाब के एक राज्यपाल जयसुख लाल हाथी हुए हैं। हरियाणा में सिंह मार नामक जाति के कई व्यक्ति आपको मिल सकते हैं।
इस वर्णन के आधार पर हमारा निवेदन है कि जिस प्रकार नाग, गिरि, मोर, सिंह, हाथी व सिंह मार नामक जातियाँ मनुष्यों की ही हैं, न कि सर्पों, पर्वतों, शेरों, हाथियों व शेरों के हत्यारों आदि की हैं, हालांकि इनके शा    िदक अर्थ ऊपरोक्त ही है। इसी प्रकार रामायण के हनुमान, सुग्रीव, बाली, तारा, रुमा, जाम्बवान व अङ्गद आदि वानर नामक मनुष्य जाति के सदस्य थे, न कि ये बन्दर थे। यह उनके कार्यों व इतिहास से प्रमाणित किया गया है।
– चूना भट्ठियाँ, सिटी सेन्टर के निकट, यमुनानगर (हरियाणा)

सत्पात्र बन सकूँ- रामनिवास गुणग्राहक

ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद् भद्रं तन्नासुव ।।
भावार्थ- हे सकल जगत् के उत्पत्ति कत्र्ता समग्र ऐश्वर्य युक्त, शुद्ध स्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिये और जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हंै, वह सब हमें प्राप्त कराइये । (ऋषि भाष्य)
यह मंत्र ऋषि दयानंद को बहुत प्रिय था, यजुर्वेद का भाष्य करते समय ऋषिवर ने इसे प्रत्येक अध्याय के प्रारम्भ में आवश्यक रूप से लिखा है । स्तुति प्रार्थनोपासना के मंत्रों का प्रारम्भ भी इसी मंत्र के साथ किया है । स्तुति प्रार्थनोपासना के मंत्रों का शब्दार्थ करते समय महर्षि दयानन्द ने बहुत ही सरल भाषा का प्रयोग किया है । भाषा सरल होने के साथ-साथ बड़ी रोचक, प्रवाहपूर्ण एवं मंत्र के अर्थ को स्पष्ट कर देने वाली है । स्तुति प्रार्थनोपासना के इन आठ मंत्रों पर कई आर्य विद्वानों ने कलम उठाई है, उनमें से कुछ एक के विचारों को मैंने पढ़ा है । मैं जब दैनिक यज्ञ समाज में या कभी घर में करता हूँ तो सदैव ऋषिवर के अर्थ सहित मंत्र पाठ करता हूँ । पाठ करते समय औपचारिकता निभाना मुझे कभी ठीक नहीं लगा, मैं महर्षि पतंजलि के ‘तज्जपस्तदर्थ भावनम्’ के पालन करने का प्रयास करता हूँ । ऐसा करते समय कई बार मेरे मन में आया कि महर्षि ने इन मंत्रों का जो अर्थ किया है, उस ऋषि के अर्थ को ऋषि की भावना के अनुरूप थोड़ा भाव-विस्तारपूर्वक लिखा जाए ताकि भक्त हृदय आर्य जन उसका पूरा आनन्द ले सकें । मैं अपनी इस सदिच्छा को लम्बे समय से टालता आ रहा था, लेकिन आज (4-1-2015) मेरे हृदय ने कहा कि किसी अच्छे विचार को कार्यरूप देने क¢ समय बहानेबाजी करना ऐसा दोष है जो अपराध की कोटि में रखा जाता है । यह हमारे स्वभाव का पतनशील अंग है, जनहित की भावना को निर्बल बनाता है। मनुष्य को पुण्यों की पूँजी से वंचित करता है । हृदय में उठने वाले हर प्रकार के सद्भावों का पल्लवन उनके क्रियान्वयन पर टिका होता है । सद्भाव-सद्विचार व सद्गुण को व्यवहार के रास्ते विस्तृत धरातल पर विचरने की स्वतन्त्रता नहीं मिलती, जब वो व्यवहार मंे प्रकट होने के लिए हृदय में प्रतीक्षा करते-करते थक जाते हैं, व्याकुल हो जाते हैं, उनका दम घुटता है तो वे निर्बल और निर्जीव होकर निढ़ाल हो जाते हैं । व्यवहार में व्यक्त होने क¢ लिए व्याकुल सद्भाव, सद्विचार व सद्गुण हमारी उपेक्षा व अनदेखी का शिकार होकर अन्दर ही दम तोड़ दें तो हमारा हृदय दुर्भावों, दुर्विचारों व दुर्गुणों क¢ फूलने-फलने का उपजाऊ खेत बनकर रह जाता है और हम न चाहते हुए भी पतन क¢ गर्त में गिरने लगते हंै । सुख-शान्ति, समृद्धि चाहने वालों का पहला कत्र्तव्य है कि वे अपने हृदय में उठने वाले सद्भाव, सद्विचार, सत्संकल्प एवं सद्गुण को व्यवहार का रूप देकर अपने स्वभाव का जीवन्त अंग बनाने में आलस्य प्रदान न करें । ध्यान रहे जो व्यक्ति अपने स्वयं क¢ हृदय में उठने वाले सद्विचारों, सद्भावों व सत्संकल्प का सम्मान नहीं कर सकता, वह जगत् व्यवहार में किसी दूसरे क¢ मानवीय सद्गुणों व सत्कर्माें क¢ साथ कभी भी न्याय नहीं कर सकेगा । मुझे मेरी अच्छाई नहीं सुहाती तो किसी दूसरे की अच्छाई क्यों सुहाएगी ?
लो क्या करने निकले थे, कहाँ जा निकले । चलो सीधे अपने विषय पर आते हैं- महर्षि दयानन्द ने मंत्रार्थ में जो कुछ कहा है हम स्तुति-प्रार्थना की शैली में ऋषि वाक्यों की अन्तर्यात्रा करने निकलंे और अपने मन-मस्तिष्क को इस पूरी यात्रा में साथ ही रखेंगे तो मन्त्रार्थ को आत्मसात करने में सुभीता रहेगा ।
‘हे सकल जगत् क¢ उत्पत्तिकत्र्ता ! ‘समग्र ऐश्वर्य युक्त’ – ऋषि दयानन्द जी ने सविता का अर्थ जगत् निर्माता व सब ऐश्वर्य से युक्त किया है। ‘सविता वै प्रसविता भवति’ के अनुसार सविता का अर्थ बनाने-उत्पन्न करने वाला होता है और जिसने जो बनाया है, वह उसका स्वामी तो हो ही गया। जगत् में जो भी कुछ ऐश्वर्य है, अनमोल दिखने वाला धन है, वह सब परमात्मा ने ही बनाया है, तो वही उस सबका स्वामी ठहरा । इसके साथ ही जान लें कि सविता शब्द ‘षु प्रेरणे’ धातु से बनता है। निर्माण और प्रेरणा दोनों अर्थ सविता शब्द से लिये जा सकते हंै । परमात्मा सबका निर्माण करने और सबको प्रेरित-संचालित करने वाला है । स्तुति प्रार्थनोपासना के छटे मंत्र में कहा है कि जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले होकर हम आपको पुकारें, आपका आश्रय लेवें, उस-उसकी कामना हमारी पूर्ण होवे । अर्थात् हमें जीवन में जो कुछ चाहिए उसे पाने के लिए हमें परमात्मा से ही पुरुषार्थपूर्वक प्रार्थना करनी चाहिए । इससे सिद्ध है कि परमात्मा इस संसार की हर वस्तु को बनाकर उसे अपनी अटल न्यायपूर्ण व्यवस्था के अनुरूप चलाता, प्रेरित करता है ।
‘शुद्ध स्वरूप सब सुखों क¢ दाता परमेश्वर’ । देव शब्द का यही अर्थ ऋषिवर ने यहाँ किया है । सामान्य भाषा में भी देने वाले को देव कहते हैं । क्या दुःख देने वाले को भी ? नहीं सुख या सुखद वस्तु देने वाले को ही देव कहा जाता है । परमात्मा भी सबके लिए सब सुखों का देने वाला है । यहाँ एक व्यावहारिक बात समझ लेनी चाहिए कि परमात्मा अपनी ओर से कभी किसी को सुख या सुखद वस्तुएँ नहीं देता । संसार में ज्ञान से बड़ा कोई दान नहीं, ऐसा महर्षि मनु-‘सर्वेषामेव दानानां ब्रह्म दानं विशिष्यते’ कहते हैं । योगिराज श्री कृष्ण ज्ञान के बारे में लिखते हैं -‘नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते’ । अर्थात हमारे जीवन को ज्ञान ही सबसे अधिक पवित्र करने वाला है । जीवन की पवित्रता मानो सब सुखों व सुखद वस्तुओं को प्राप्त करने की पात्रता है । वह परमात्मा अपनी ओर से मनुष्य मात्र को ज्ञान-प्रेरणा निरन्तर देता रहता है । यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम प्रभु प्रदत्त प्रेरणा (ज्ञान) के अनुसार कर्म-व्यवहार करते हुए सब सुखों व सुखद वस्तुओं को प्राप्त करें। परमात्मा द्वारा सुख देना दूसरे प्रकार से भी सिद्ध होता है । हमारी कमाई हुई धन-सम्पत्ति को कोई दुष्ट व्यक्ति छीन या चुराकर ले जाए तो उस चोर को जितना दोषी मानते हैं उससे कहीं अधिक दोषी शासक व शासक की व्यवस्था को भी मानते हंै । शासक की न्याय व्यवस्था अगर हमारी चुराई व खोई चीज को हमें दुबारा दिला दे तो हम उसका धन्यवाद अवश्य करते हैं। ठीक इसी प्रकार से अगर हमारे शुभ कर्माें का यथायोग्य फल ईश्वर की अटल, न्याय व्यवस्था से मिलता है तो उसका दाता ईश्वर को ही मानना चाहिए ।
मंत्र में सविता और देव के अर्थ स्पष्ट हो जाने के बाद दो बातें शेष रह जाती हंै और वे दोनों बातें अत्यन्त स्पष्ट हैं- ‘विश्वानि दुरितानि परासुव’ अर्थात् सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और ‘यद् भद्रं तन्नासुव’ जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ है, वह सब हमको प्राप्त कराइये । मंत्र को और सरलता से समझने के लिए ‘विश्वानि दुरितानि‘- सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को-‘परासुव’ दूर करने या परे धकेलने की प्रार्थना को भली भाँति समझना होगा । यहाँ दुर्गुण और दुव्र्यसन से पूर्व सम्पूर्ण शब्द बहुत ही ध्यान देने योग्य है । हमारे जीवन में जितने भी दुर्गुण हैं, जितने भी दुव्र्यसन हैं उन सब को दूर करने की प्रार्थना या पुकार यह सिद्ध करती है कि हमारा जीवन पूर्णतः निर्मल और पवित्र होना चाहिए । एक भी दुर्गुण व दुव्र्यसन मेरे जीवन में शेष न रहे । अगर हम थोडा सा भी दुःख नहीं चाहते तो अपने अन्दर के सब दुर्गुणों को ढूँढ़-ढूँढ़ कर निकाल फैंकंे । हमारे आन्तरिक दुर्गुणों के कारण हमारे व्यावहारिक जीवन में दुव्र्यसन उत्पन्न होते हैं और दोषों दुव्र्यसनों के परिणाम स्वरूप हमें दुःख भोगने पड़ते हंै । दुःख दूर करने की इच्छा है जिनकी वे दुव्र्यसनों को दूर भगायें । जो दुव्र्यसनों से मुक्त होना चाहते हैं वे अपने दुर्गुणों को समाप्त करने का संकल्प लें । हमारे आन्तरिक दुर्गुण ही हमारे दुव्र्यसनों अर्थात् दुराचरणों, दुष्प्रवृत्तियांे और दुष्कर्मों के बीज हैं और इन्हीं दुव्र्यसनों का परिणाम दुःख है । यह मंत्र हमारे दुःखों को दूर करने का वैदिक उपाय बताता है । आज हम अपने दुःखों को दूर करने के लिए अनेक प्रकार के मनमाने उपाय करते रहते हंै या किसी गुरु घण्टाल के मायाजाल में फँस कर विविध प्रकार के पाखण्ड पूर्ण कृत्य करते-कराते हैं । हमारे मनमाने उपायों या गुरु घण्टालों के तंत्र-मंत्र से दुःख दूर हो जाते तो संसार में एक भी दुःखी नहीं होता ।
मंत्र में दूसरी प्रार्थना है -‘यद्् भद्रं तन्न आसुव’- अर्थात् जो कल्याण कारक गुण, कर्म और स्वभाव हंै वह सब हमको प्राप्त कराइये । जब हम अपने जीवन के सब दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर करने का सशक्त संकल्प लेकर अपनी आन्तरिक बुराइयों के विरुद्ध सफल संघर्ष छेड़ देते हैं, दुर्गुणों, दोषों व दुष्कर्मों के पतनशील प्रवाह में निर्जीव तिनके की तरह बहते रहने से आत्मबल पूर्वक मना कर देते हैं और बुराइयों के चक्रव्यूह से बच निकलते हैं तो हमारे सामने अपने हृदय को अच्छाइयों से भरते रहने का प्रश्न खड़ा होता है । यह तो सब जानते हैं कि संसार में ऐसा कुछ नहीं जो किसी प्रकार के गुणों से शून्य हो । ऐसे में हमारा हृदय-मन, बु़िद्ध और चित्त आदि भी गुणहीन स्थिति में नहीं रह सकते । दुर्गुणों को दूर करने के आन्तरिक अभियान के साथ-साथ हमें कल्याण कारक गुणों का आह्वान करना होगा । दुर्गुणों को दूर करके उनके स्थान पर कल्याण कारक गुणों अर्थात् सद्गुणों को बसाना जीवन-निर्माण की आवश्यक प्रक्रिया है । किसी बर्तन में कोई अनावश्यक व अनुपयोगी चीज भरी हो तो जब तक उसमें किसी अच्छी व उपयोगी वस्तु को रखने की आवश्यकता नहीं पड़ती तब तक हम उस अनुपयोगी चीज को निकाल फैंकने के बारे में प्रायः नहीं सोचते । जब हमें कोई मूल्यवान व उपयोगी वस्तु की आवश्यकता अनुभव होती है तो हम उसे पाने के प्रयास करते हैं । पाने के प्रयास करने से पूर्व बुद्धिमान व्यक्ति उसे सुरक्षित रखने के बारे में सोचता है तो उसे लगता है कि यह जो अनावश्यक चीज इस बर्तन में रखी है, उसे निकाल फैंको और इस बर्तन को स्वच्छ करके उपयोगी वस्तु को इसमें रख दो ।
यही स्थिति मानव के जीवन की है । सांसारिक विषय वासना व परस्पर के राग-द्वेष पूर्ण जीवन जीने वाले को जब किसी सद्ग्रन्थ के स्वाध्याय या सत्संग से यह पता चलता है कि मेरा हृदय जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मात्सर्य का कबाड बनकर रह गया है, मेरे जीवन में आलस्य, प्रमाद, दीर्घसूत्रता आदि दोष निरन्तर बिगाड़ पैदा कर रहे हैं, ये मुझे सुख-शान्ति, समृ़िद्ध और सन्तुष्टि नहीं दे सकते । ये मेरे जीवन को सफल और सार्थक बनाने में उपयोगी नहीं । यह ज्ञान स्वाध्याय व सत्संग के बिना नहीं होता । अधिकांश लोगों को लम्बे समय तक सत्संग स्वाध्याय करते रहने पर भी यह ज्ञान नहीं होता, लेकिन जिन विवेकशील सज्जनों को यह ज्ञान हो जाता है तो उन्हें कल्याण कारक गुण, कर्म और स्वभाव की आवश्यकता अनुभव होने लगती है । जब उन्हें सद्गुणों की आवश्यकता अनुभव होती है तो उन्हें लगता है कि मेरे हृदय में तो दुर्गुण जडे़ं जमाये बैठे हैं । जीवन को अच्छा, सुखी और सन्तुष्ट बनाने की प्रबल इच्छा जब तक हृदय में उठ खडी नहीं होती, तब तक हर मनुष्य को अपने हृदय में भरा पड़ा काम-क्रोध आदि दुर्गुणों का कूड़ा-कबाड़ भी काम चलाऊ अच्छा लगता है । जैसे ही उसके मन-मस्तिष्क में कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थों की उपयोगिता स्पष्ट हो जाती है, और वह उन्हें पाने के लिए लालायित होने लगता है, वैसे ही उसे अपने अन्दर के काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि अनुपयोगी और अनावश्यक ही नहीं लगते, बल्कि काँटे की तरह चुभने लगते हैं । इस अवस्था में आकर वह ‘विश्वानि दुरितानि परासुव’ और ‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’ की पुकार करने लगता है । इस अवस्था में सच्चे हृदय से की गई ऐसी प्रार्थना, पुकार ही परमात्मा के निकट सफल होती है ।
‘‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’’ का जो अर्थ ऋषि दयानन्द ने किया है, वह बहुत ही चमत्कार पूर्ण एवं जीवन-निर्माण की अन्तःक्रिया को सन्तुलित-सम्यक् ढं़ग से प्रकट करता है । ऋषि लिखते हैं- ‘जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमें प्राप्त कराइये ।’ कल्याण करने वाले गुण, कर्म और स्वभाव की क्रमबद्धता पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है । सुखी, शान्त व आनन्दपूर्ण जीवन के तीन घटक आन्तरिक हैं और पदार्थ बाहरी हैं । कल्याणकारक घटकों में गुण, कर्म और स्वभाव एक पात्रता है और पदार्थ उसमें रखी जाने वाली सामग्री । जिसने तप-साधना से अपने गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याण कारक बना लिया परमात्मा उसक¢ लिए कल्याणकारक पदार्थाें की प्राप्ति सरल और सहज बना देते हैं । जो अपने गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याणकारक बनाने के लिए तप नहीं करते, स्वयं को सद्गुण सम्पन्न सदाचारी एवं सुख का सत्पात्र बनाये बिना ही जो कल्याणकारक सुखद पदार्थाें को छल-बल या कल से हथिया लेते हंै, ऐसे अभिशप्त लोगों के हाथ लगे कल्याण कारक पदार्थ कभी उनको सच्चा सुख नहीं दे पाते । सीधे शब्दों में कहें तो गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याणकारी बनाये बिना हम कल्याणकारी पदार्थाें का सच्चा सदुपयोग नहीं कर सकते । बुद्धिमान लोग काँटों का सदुपयोग बाड़ लगाकर फलों व फसलों की सुरक्षा के रूप में करते हैं दूसरी ओर कुछ मूर्ख लोगों ने पाकिस्तान में पंजाब के गवर्नर के हत्यारे आतंकियों पर गुलाब के फूलों की वर्षा करके भी विश्व के मानवतावादी जन समुदाय के बीच स्वयं को कलंकित कर लिया ।
‘‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’’ की अन्तिम लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय वस्तु को रखना चाहते हैं । जो सच्चे अर्थाें में सच्चे हृदय से अपना जीवन सुखी व श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं, उनके लिए ऋषि दयानन्द के शब्दों -‘कल्याण कारक गुण, कर्म और स्वभाव’ को समझ लेना बहुत ही आवश्यक है । जब हमारे कल्याणकारक गुण हमारे कर्माें के माध्यम से सजीव होकर हमारे स्वभाव का अंग बन जाते हंै, तब जाकर हमारा जीवन कल्याणकारक पदार्थाें को पाने का पात्र बन पाता है । आज के मानव की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अपने अन्दर की ढ़ेर सारी अच्छाइयों को अपने कर्मों-व्यवहार में उतारने से ड़रता है । जब तक यह डर हमारे जीवन में डेरा डाले रहेगा, तब तक हर सच्चाई और अच्छाई मानव के संकीर्ण स्वार्थ के भार तले दबकर दम तोड़ती रहेगी । पाठक ध्यान रखें कि परमात्मा ने हमारे कल्याण को सरल और सहज बनाने के लिए हमारे हृदय में सत्य के प्रति श्रद्धा और असत्य के प्रति अश्रद्धा स्वाभाविक रूप से प्रदान की है । प्रत्येक मानव का हृदय सदैव सत्य के प्रति श्रद्धालु रहता है, आकर्षित रहता है । असत्य मानव के हृदय को कभी अच्छा नहीं लगता । असत्य मानव के हृदय में सदैव काँटे की तरह खटकता रहता है । मानव-स्वभाव की विचित्रता भी बड़ी अनौखी है । यह सच है कि सरल चित्त के व्यक्ति के हृदय में असत्य काँटे की तरह ही खटकता है, लेकिन जब वो स्वार्थ के खूंटे से बँधकर सत्य को स्वीकार करने का साहस नहीं दिखा पाता और निरन्तर इस असत्य रूपी काँटे से हृदय को लहूलुहान करता रहता है तो कुछ काल ऐसा ही होते रहने के बाद स्वार्थपूर्ति से मिलने वाले क्षणिक सुख के नशे में असत्य रूपी काँटे की इस तीखी चुभन को भी वह भाग्यहीन व्यक्ति ऐसे ही सहन करता रहता है जैसे एक शराबीे मद के लिए उसकी कड़वाहट व तीखेपन को सहन करता रहता है।
कल्याण की कामना वाले व्यक्ति को सांसारिक स्वार्थ पूर्ति से ऊपर उठकर एक अक्षय सुख पर अपना ध्यान केन्द्रित करना होगा । सुधी जन जानते हंै कि झूठ की जितनी शक्ति है, जितनी आयु है, उससे मिलने वाले सुख की शक्ति और आयु भी उतनी ही होगी उससे अधिक नहीं । झूठ सदैव सत्य से भयभीत रहता है, सत्य की एक किरण झूठ को धराशायी कर देती है ठीक इसी प्रकार से असत्य के बल पर सुख शान्ति पाने वाले व्यक्ति सत्य से भयभीत होकर जीवन जीते हंै, उनका सुख सत्य की सम्भावना देखकर ही भाग खड़ा होता है । क्या लाभ उस टूटे-फूटे, डरे-सहमे सुख का ? सत्य से डरकर उल्लू की तरह अँधेरे में कब तक ऐसे सुख को भोगकर सन्तुष्ट होते रहोगे ? वह सुख ही क्या जो अपने इष्ट मित्रों व परिजनों के साथ मिल कर खुले में सार्वजनिक रूप से न भोगा जा सके ? इसीलिए ऋषि दयानन्द कल्याणकारक गुणों को कर्माें में सजीव और साकार करके अपने स्वभाव का अंग बनाने का सांकेतिक प्रेरणा कर रहे हैं । गीता में श्री कृष्ण जी भी शब्दान्तर से यही सन्देश दे रहे हैं कि संसार में सब प्राणी अपनी प्रकृति अर्थात् स्वभाव के अनुसार ही अपनी समस्त चेष्टाएँ (कर्म) करते हैं इसलिए स्वभाव को ही अच्छा (श्रेष्ठ) बनाओ अपनी बुराइयों को छिपाकर अच्छा दिखने से क्या लाभ ? स्वभाव को श्रेष्ठ बनाने-सुधारने का सच्चा और सरल रास्ता ऋषि दयानन्द बता रहे हैं कि अपने हृदय में सोये पडे़ हुए अपने सद्गुणों को कर्माें में उतारिये । हम जब निरन्तर अपने सद्गुणों को कर्मों का सहारा देते रहेंगे तो एक दिन हमारे सद्गुण हमारे स्वभाव का अंग बना जाएँगें । जब हम अपने सद्गुणों को अपने कर्मों के द्वारा अपने स्वभाव का अंग बना लेंगे तब इस संसार के समस्त कल्याण कारक पदार्थों को प्राप्त करने के अधिकारी-पात्र बन जाएँगे । दुर्गुणों, दुव्र्यसनों और दुःखों से निकल कर कल्याणकारक गुण, कर्म स्वभाव और पदार्थों को प्राप्त करने की अन्तर्यात्रा को मंत्रानुसार ऋषिवर ने जिस रूप में रखी और वह जैसी मेरी समझ में आई वैसी मैंने सच्चे हृदय से, सुधी जन के कल्याण की कामना से प्रकट कर दी । आशा है अध्यात्म पथ के पथिक इससे लाभ उठाएँगे ।
रामनिवास गुणग्राहक
महर्षि दयानन्द सरस्वती स्मृति भवन न्यास
निकट जसवन्त काॅलेज पुराना परिसर
रातानाडा, जोधपुर (राजस्थान)
सम्पर्कः- 07597894991

जर्मन संस्कृत विवाद कितना उचित – डॉ धर्मवीर

गत दिनों मोदी सरकार के एक निर्णय को लेकर समाचार-पत्रों में पक्ष-विपक्ष पर बहुत लिखा गया। सामान्य रूप से इस विवाद से ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कोई बहुत बड़ा निर्णय मोदी ने किया है। जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है। बात केवल इतनी सीधी थी कि पिछली सरकार ने एक अवैधानिक और अनुचित निर्णय लिया था, उसको इस सरकार ने वापस कर लिया। हाँ, इतना सच है यदि सोनिया की सरकार सत्ता में आती तो यह निर्णय नहीं लिया जाता। यह निर्णय सोनिया सरकार ने अपनी सरकार की नीति के परिप्रेक्ष्य में लिया था। इस नीति को समझने के लिए गत वर्षों के क्रियाकलाप पर दृष्टि डालना उचित होगा। इस नीति का मूल कारण था चर्च, जिसे अपने काम करने में सबसे बड़ी बाधा लगती है संस्कृत। मैकाले का मानना था कि इस देश को अपने आधीन करने के लिए इसकी जड़ों को काटना आवश्यक है। भारतीय इतिहास और संस्कृति की जड़ संस्कृत में निहित है। इस देश की जीवन पद्धति संस्कृत में रच बस गई है। प्रातःकाल से सायं और जन्म से मृत्यु तक का यहाँ का सामाजिक जीवन संस्कृत से संचालित होता है। मैकाले ने यहाँ की समझ और समृद्धि को समाप्त करने के लिए सरकार का संरक्षण देकर चर्च का प्रचार-तन्त्र खड़ा किया था। सरकार ने ऐसी नीतियाँ बनाई जिससे यहाँ के लोगों को अपने आधार से पृथक् किया जाये और ईसायत के रूप में अपने प्रति निष्ठावान् बनाया जा सके। यह प्रयास नेहरू से सोनिया गाँधी तक निरन्तर चलता आ रहा है। इसी नीति के अनुसार संस्कृत को विभिन्न पाठ्यक्रमों से धीरे-धीरे बाहर कर दिया गया। सन् २००१ में दिल्ली में हुए मानव-अधिकार सम्मेलन में चर्च के सलाहकार और मानव अधिकारवादी शिक्षक कान्ता चैलय्या ने कहा था– इस देश में हमारे लिए सबसे बड़ी रुकावट संस्कृत भाषा है और इसे हम समाप्त करना चाहते हैं। चैलय्या का कहना था- ‘‘वी वाण्ट टू किल संस्कृत इन दिस कण्ट्री’’ इसी नीति का अनुसरण करते हुए और विभागों की तरह केन्द्रीय विद्यालय के पाठ्यक्रम से भी संस्कृत को हटाया गया। पहले बड़ी कक्षाओं से हटाया फिर पूरे विषय को ही पाठ्यक्रम से समाप्त कर दिया गया। यह समाप्त करने की प्रक्रिया ही वर्तमान सरकार के निर्णय का कारण है। समाचार पत्रों में अधिकांश चर्चा बिना वस्तुस्थिति जाने की गई है, अंग्रेजी समाचार-पत्रों ने और उनके समर्थकों द्वारा मोदी सरकार के निर्णय को गलत सिद्ध करने का धूर्तता पूर्ण प्रयास किया है।

राजीव गाँधी के समय भी संस्कृत को केन्द्रीय विद्यालयों के पाठ्यक्रम से हटाने का प्रयास किया गया था, उस समय संस्कृत-प्रेमियों ने इस निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय तक लड़ाई लड़ी और सरकार के प्रयास को विफल किया। सरकार ने दूसरी चाल चलकर संस्कृत विभाग से अध्यापकों को उन्नति दे कर विभाग ही समाप्त करा दिये। शिक्षकों के अभाव में छात्रों को संस्कृत पढ़ाता कौन? संस्कृत को समाप्त कर विदेशी भाषाओं को पढ़ाने का प्रावधान सोनिया गाँधी के समय किया गया। उस समय के मानव संसाधन मन्त्रालय के मन्त्री कपिल सि बल ने जर्मनी के साथ समझौता किया, जिसके क्रियान्वयन के लिए केन्द्रीय विद्यालय संगठन ने ५ जनवरी २०११ को एक परिपत्र जारी किया। जिसके चलते २०११-२०१२ के सत्र से कक्षा ६ से ८ तक तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत के स्थान पर जर्मन, फ्रेन्च, चीनी, स्पेनिश जैसी विदेशी भाषायें पढ़ाने के निर्देश दिये गये। जो शिक्षक संस्कृत अध्यापन का कार्य करते थे उन्हें इन भाषाओं का प्रशिक्षण लेने के लिए कहा गया जिससे इन अध्यापकों को इन भाषाओं को पढ़ाने की योग्यता प्राप्त हो सके। यह निर्देश अवैधानिक होने के साथ-साथ अनुचित भी था। जिस व्यक्ति ने जीवन का लम्बा समय जिस भाषा को सीखने और सिखाने में लगाया है उसके इस पुरुषार्थ और योग्यता को नष्ट करना व्यक्ति के साथ तो यह अन्याय है ही इसके साथ ही राष्ट्र की शैक्षणिक और भौतिक सम्पदा को नष्ट करने का अपराध भी है। परन्तु सरकार किसी बात को करने की ठान ले तो फिर उचित-अनुचित के विचार का प्रश्न ही कहाँ उठता है। इस प्रकार संस्कृत को पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया गया और उसके स्थान पर जर्मन पढ़ाना प्रारम्भ हो गया।

यह निर्देश संस्कृत भाषा और संस्कृति के नाश का कारण तो था ही साथ ही साथ यह एक अवैध कदम भी था। असंवैधानिक होने के साथ-साथ सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध भी था। संविधान के अनुच्छेद ३४३(१) में कहा गया है कि आधिकारिक भाषा देवनागरी लिपि में हिन्दी भाषा होगी। संविधान के अनुच्छेद ३५१ में कहा गया है- हिन्दी के विकास करने के लिए आवश्यकता होने पर प्राथमिक रूप से संस्कृत और बाद में अन्य भाषाओं से श द लिए जायें। संविधान में यह भी कहा गया है- भारत सरकार संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित भाषाओं के विकास के लिए प्रयास करेगी। इसमें किसी भी विदेशी भाषा का उल्लेख नहीं किया गया है अतः संस्कृत को हटाकर जर्मन पढ़ाने का निर्णय किसी भी दशा में उचित नहीं कहा जा सकता। केन्द्रीय विद्यालयों की नियमावली के अनुसार भी यह निर्देश अनुचित है। नियमावली के अध्याय १३ के अनुच्छेद १०८ में कहा गया है कि केन्द्रीय विद्यालयों में जो तीन भाषायें पढ़ाई जायेंगी वे हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत होंगी। इसी प्रकार राष्ट्रीय विद्यालय शिक्षा नीति के प्रावधानों के भी यह विरुद्ध है- नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क फॉर स्कूल एजुकेशन में जो त्रिभाषा सूत्र २-८-५ में कहा गया है, इस त्रिभाषा सूत्र में किसी विदेशी भाषा का समायोजन नहीं किया जा सकेगा। इस प्रकार किसी रूप में सोनिया सरकार द्वारा जारी किये गये परिपत्र को उचित ठहराया नहीं जा सकता। ऐसे परिपत्र के निर्देश को मोदी सरकार हटाती है तो यह कार्य कैसे प्रतिगामी कदम कहा जा सकता है। सरकार के निर्णय द्वारा केवल पुरानी गलती को सुधारा गया है। जब सोनिया सरकार ने संस्कृत हटाने का परिपत्र प्रकाशित किया तब २८ अप्रैल २०१३ को दिल्ली उच्च न्यायालय में इसके विरोध में एक जनहित याचिका दायर की गई थी, जब सरकार के निर्णय पर तथाकथित प्रगतिवादियों ने शोर मचाया तो सरकार ने न्यायालय में शपथ पत्र देकर अपने पुराने निर्णय को वापस ले लिया। नवम्बर २०१४ में शपथ पत्र दायर कर सोनिया सरकार द्वारा जारी पत्र को वापस ले लिया। साथ ही मोदी सरकार ने सितम्बर २०१४ में गोआ इंस्टीट्यूट, मैक्समूलर भवन के साथ संस्कृत के स्थान पर जर्मन पढ़ाने के समझौते की जाँच के आदेश भी दे दिये तथा समझौते का नवीनीकरण भी नहीं किया गया। जहाँ तक सत्र के मध्य में पाठ्यक्रम बदलने की बात है यह आपत्ति इसलिए निराधार है क्योंकि ८वीं कक्षा तक परीक्षा नहीं होती। छात्रों को बिना परीक्षा के उत्तीर्ण किया जाता है। अतः छात्र के परीक्षा परिणाम पर किसी प्रकार का प्रभाव पड़ने वाला नहीं है।

यह एक बहुत सामान्य बात थी कि एक असंवैधानिक निर्देश से संस्कृत को पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया गया था, उस निर्देश को सरकार ने वापस ले लिया। इसमें कैसे जर्मन हटाई गई और किसने संस्कृत थोपी, सब कुछ केवल शोर मचाने के लिए है। अंग्रेजी समाचार-पत्रों ने संस्कृत थोपे जाने का जोर-शोर से विरोध किया। अंग्रेजी की महत्व में बड़े-बड़े लेख लिखे गये। पिछलग्गू हिन्दी समाचार पत्रों ने संस्कृत की महत्व पूजा-पाठ के लिए बताते हुए किसी पर भाषा थोपने का विरोध किया। जो तथ्यों से परिचित थे उन्होंने इन तथाकथित प्रगतिशील लोगों का मुँहतोड़ जवाब दिया। तथ्य व वास्तविकता को जनता के सामने रखा। ऐसे धर्मध्वजी लोगों का उत्तर देना आवश्यक भी है। जो लोग संस्कृत थोपने की बात करते हैं यदि उनमें यदि थोड़ी भी नैतिकता होती तो जिस दिन संस्कृत हटाने का परिपत्र प्रकाशित हुआ उन्हें उसका विरोध करना चाहिए था। इन लोगों ने उस दिन मनमोहन सिंह को बधाई दी, लम्बे-लम्बे सम्पादकीय लिखे थे जब एक असंवैधानिक निर्णय सरकार ने किया था जिसमें हिन्दी के विकास के लिए संस्कृत से शब्दों के ग्रहण करने का प्रावधान हटाकर हिन्दी में उर्दू और अंग्रेजी शब्दों की भरमार कर दी थी। जिस मूर्खता को सारे समाचार दिखाने वाले और छापने वाले समाचार पत्र बड़े गर्व से आज भी प्रस्तुत कर रहे हैं।

सोनिया सरकार की कार्य सूची में हिन्दू को समाप्त करने के लिए हिन्दी और संस्कृत को समाप्त करने का प्रस्ताव कार्य सूची में बहुत ऊपर था। आज ऐसे लोग हिन्दी में न केवल अंग्रेजी, उर्दू शब्द अनावश्यक रूप से भाषा में घुसाते हैं अपितु उन्हें रोमन में लिखकर हिन्दी भाषियों को अंग्रेजी सिखाने का भी काम कर रहे हैं। इस देश पर अंग्रेज शासक था उसका अंग्रेजी थोपना समझ में आता है परन्तु स्वतन्त्रता के बाद अंग्रेजी प्रशासन, विधान मण्डल, शिक्षा, न्याय की भाषा बनना यह सबसे बड़ा थोपना है। अंग्रेजी भाषा एक विषय के रूप में पढ़ाई जा सकती है परन्तु इस देश का दुर्भाग्य यह है कि यह हमारी शिक्षा का माध्यम बना दी गई है। हम आज स्वतन्त्र होकर भी अंग्रेजी के ही आधीन हैं। क्या पराधीनता से मुक्त करने का प्रयास करना थोपना कहा जायेगा, संस्कृत को मृत भाषा या संस्कृत को देवी-देवताओं की स्तुति भाषा बताकर उसके महत्व को कम करना नहीं है। जो भाषा इस देश पर दो सौ वर्षों से थोपी जा रही है उसका विरोध तो किया नहीं, संस्कृत के विरोध का बहाना कर लिया। वेद में भाषा के महत्व को रेखांकित करते हुए वेदवाणी को राष्ट्र में ऐश्वर्यों को प्रदान करने वाली कहा है-

अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम्।

– धर्मवीर

 

ओ३म् वह सबका स्वामी है। रामनिवास गुणग्राहक

ओं हिरण्य गर्भः समवत्र्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेकऽ आसीत्।
स्दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विद्येम।।
जो स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाश करने हारे सूर्य-चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं। जो उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का प्रसिद्ध स्वामी एक ही चेतन स्वरूप था। जो सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व वर्तमान था। सो इस भूमि और सूर्यादि को धारण कर रहा है। हम लोग उस सुख स्वरूप, शुद्ध परमात्मा के लिए ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अति प्रेम से विशेष भक्ति किया करें। (ऋषि भाष्य)
परमात्मा स्वयं प्रकाश स्वरूप तो है ही साथ ही वह संसार के समस्त प्रकाश करने वाले सूर्य चन्द्रमा आदि लोकों को धारण भी कर रहा है। यजुर्वेद का बड़ा सर्वज्ञात मंत्र है- ‘वेदाहमेतं पुरुषं महान्तं आदित्य वर्णं तमसः परस्तात्’। उपासक समाधि-अवस्था में परमात्मा को पाकर, उस न्यारे-प्यारे प्रभु का साक्षात्कार करके आनन्द विभोर होकर सहसा कह उठता है- अरे। मैंने पा लिया उसे, उस महान् पुरुष को, जो सारे ब्रह्माण्ड़ में सुखपूर्वक शयन करता हुआ सब भक्तजनों को सतत् सुख प्रदान कर रहा है। शरीर रूपी पुरी में शयन करने के कारण मुझ जीवात्मा को पुरुष कहा जाता है और वह परम् पुरुष इस अनन्त सी दिखने वाली ब्रह्माण्ड़ पुरी में शयन कर रहा है। आहा। कैसा है वह? आदित्य वर्ण है। चमक और प्रकाश के लिए हमारे सामने सूर्य से बढ़कर कोई उदाहरण है ही नहीं। वह प्रभु भी आदित्य वर्ण है, सूर्य के समान चमकीला है, प्रकाश स्वरूप है। सुना है कि सूर्य में भी कुछ स्थान प्रकाश रहित है तो क्या परमात्मा भी…….अरे नहीं रे। परमात्मा में तो जितने भी गुण हैं वे सब पूर्णता से हैं। वह परम् पुरुष होने के साथ ही पूर्ण पुरुष भी है। उसका स्वरूप कहीं भी किंचित् भी प्रकाश शून्य नहीं है, वह तमस् अर्थात् अज्ञान-अन्धकार से नितान्त परे है। वह तो पूर्ण प्रकाशस्वरूप है, उसके प्रकाश की तुलना या उपमा संसार के किसी प्रकाशमान पदार्थ से नहीं की जा सकती। ऋग्वेद में कहा है-‘इदं श्रेष्ठं ज्योतिषां ज्योतिः आगात् चित्रः प्रकेतो’ (१‐११३‐१), ‘इदं ज्योतिषाम् श्रेष्ठं ज्योतिः’= संसार में प्रकाश करने वाले इन समस्त प्रकाशकों में वह परमात्मा अतीव प्रकाशस्वरूप है। उस परम् प्रकाश प्रभु को, चित्रः प्रकेतः आगात् = अद्भुत प्रज्ञा व पुरुषार्थसम्पन्न पुरुष ही प्राप्त कर सकता है। कठोपनिषद् का ऋषि भी उद्घोष कर रहा है कि सूर्य चन्द्रमा व विद्युत की चमक भी उसकी चमक, उसके प्रकाश के सामने कुछ नहीं, इस लोक-अग्नि की तो चर्चा ही क्या? वेद बता रहा है कि विलक्षण गुण, कर्म स्वभाव वाला, अद्भुत प्रज्ञा (बुद्धि) और पुरुषार्थ (कार्य-व्यवहार) वाला धर्मनिष्ठ विद्वान् ही उस परमप्रकाश स्वरूप प्रभु को प्राप्त कर सकता है। समाधि-प्राप्त साधक ही- ‘वेदाहमेतं पुरूषं महान्तं’ कह सकता है। उसी की आत्मज्योति तप-साधना के द्वारा इतनी सक्षम व समर्थ हो सकती है जो उस परम् ज्योति का साक्षात् कर सके।
निर्धन-अभावग्रस्त व्यक्ति को एकाएक अपार धनराशि मिल जाए तो वह उसे सम्भाल नहीं पाता हमारी आँखों को देखने के लिए प्रकाश चाहिए, वह प्रकाश कम होगा तो असुविधा होगी लेकिन बहुत अधिक हो तो आँखें चुँधिया जाती हैं। बिजली चमकती है तो हमारी आँखंे स्वतः बन्द हो जाती है। ज्येष्ठ मास में दोपहर एक बजे कड़क-तेज धूप हो तो प्रायः सभी को धूप के काले चश्मे का सहारा लेना पड़ता है। स्पष्ट है कि हमारी सामथ्र्य जितनी होगी हम उतने ही किसी गुण या वस्तु का लाभ उठा सकते हैं। इसीलिए वेद बताता है कि उस परम् प्रकाशस्वरूप प्रभु को अद्भुत गुण सम्पन्न साधक जो तप-साधना के द्वारा अपना सामथ्र्य उतना बढ़ा लेते हंै, वे ही प्राप्त कर सकते हैं। तप के बारे में ऋषि कहते हैं- ‘कायेन्द्रिय सिद्धिऽशुद्धि क्षयात् तपसः’ (यो.२‐५३) शरीर व इन्द्रियों की अशुद्धियों को नष्ट करके इन्हें साधना के योग्य बनाना ही तप है। ‘तपति दुःखी भवति, तप्यते समर्थो वा भवति येन तत् तपः’ अर्थात तप करने वाला प्रथम तप के कारण दुःखी होता है और आगे चलकर वह इस तप से प्रभु प्राप्ति का सामथ्र्य तक पा लेता है। प्रसंगवश अत्यन्त उपयोगी समझते हुए यहाँ तप का स्वरूप भी बतना उपयोगी रहेगा क्योंकि तप के बारे में हमारे देश में बहुत भ्रान्तियाँ पनप रही हैं। आज हम किसी भी जटाधारी, राख लपेटे हुए निरक्षर भट्टाचार्य पाखण्ड़ी को देखकर उसे तपस्वी समझ बैठते हैं और उसकी सेवा को धर्म मानते हैं। हमारे ऋषि लिखते हैं- ‘सत्यं तपो दमस्तपः स्वाध्याय स्तपः (तैत्तÛ)’ अर्थात् सत्य बोलना, सत्याचरण करना तप है। मन-इन्द्रियों का दमन करना तप है तथा वेद आदि सद्ग्रन्थों का श्रद्धापूर्वक नित्य पढ़ना तप है। महर्षि मनु के शब्दों में- ‘वेदाभ्यासहि विप्रस्य तपः परमिहोच्यते’ (२‐१४१) अर्थात् वेद को स्वीकार करना, वेदमंत्रों पर चिन्तन-मनन और विचार करना, वेदपाठ करना, वेदमंत्रों का जाप करना तथा वेद का प्रचार-प्रसार करना, उपदेश करना- इन सब को मिलाकर वेदाभ्यास कहते हंै और इन पाँचों कर्मों में लगे रहने को महर्षि मनु परम् तप मानते हैं। योगदर्शन सूत्र २‐२३ के भाष्य में महर्षि व्यास लिखते हैं- ‘तपो द्वन्द्व सहनम्’- अर्थात् अपने कत्र्तव्य कर्म को करते हुए सर्दी-गर्मी, धूप-छाँव, सुख-दुःख, मान-अपमान, लाभ-हानि, सफलता-असफलता, राग-द्वेष आदि से विचलित हुए बिना लगे रहना, कत्र्तव्य कर्म करते रहना ही तप कहलाता है। ऐसे तप करने वाले को ही परमात्मा के प्रकाश स्वरूप का साक्षात् होता है।
स्वप्रकाश स्वरूप परमात्मा ही प्रकाश करने हारे सूर्य-चन्द्रमा आदि को धारण कर रहा है। इसी मंत्र में आगे चल कर ‘सदाधार पृथिवीं द्यामुतेमां’ बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहा है- ‘सो परमात्मा इस पृथ्वी और सूर्यादि को धारण कर रहा है। ऋषि ने स्तुति प्रार्थनोपासना के पाँचवे मंत्र में इस बात को दो बार कहा है। ऋषि ने स्तुति प्रार्थनोपासना के लिए जिन मंत्रों का चयन किया है, उनमें परमात्मा को इस सारे ब्रह्माण्ड़ का निर्माता, संचालक और स्वामी सिद्ध करने का भूरिशः प्रयास किया गया है। इन मंत्रों का अर्थ सहित नित्य पाठ करने से कम से कम मेरे मन-मस्तिष्क पर तो यह प्रभाव पड़ा है कि मैं स्वयं को सदैव परमात्मा की निगरानी और नियंत्रण में अनुभव करता हूँ और ऐसी अनुभूति मुझे निर्भय और निर्दोष बनाने में बहुत सहायक है। पाठक स्वस्थ चित्त से विचार करें कि संध्या में आये अघमर्षण मंत्रों में परमात्मा को इस विश्व ब्रह्माण्ड़ का रचयिता और नियन्ता ही सिद्ध किया है। परमात्मा ने अपने ऋत ज्ञान और सत्रूप प्रकृति से तप पूर्वक इस ब्रह्माण्ड़ को बनाया। उसी ने सूर्य को बनाया और उसी ने दिन रात आदि को बनाकर इस निर्मित ब्रह्माण्ड़ को स्वाभाविक रूप से अपने नियंत्रण में किया हुआ है। तीसरे मंत्र में केवल यही प्रकट किया है कि परमात्मा ने सूर्य चन्द्र आदि विश्व को जैसे अब बनाया है वैसे ही पूर्व कल्प में बनाया था और ऐसा ही आगामी कल्पों में बनाएगा। इन तीन मंत्रों को महर्षि ने अघमर्षण नाम दिया है। वेद कहता है- ‘ऋतस्य धीतिर्वृजनानि हन्ति’ (ऋ 4.23.8) अर्थात् ऋत के धारण करने, ध्यान करने और चिन्तन-मनन करने से हमारी पाप वासनाएँ नष्ट होती हैं। अर्थात् परमात्मा द्वारा इस सृष्टि के बनाने और चलाने का वर्णन जहाँ भी आया है, जिन मंत्रों में ऐसा वर्णन है, उनके ध्यान और चिन्तन से हमारे अन्दर की पाप वृत्ति नष्ट होती है।

सत्य सनातन वैदिक धर्म आज की आवश्यकता- ‘रामनिवास गुणग्राहक’, वैदिक प्रवक्ता सम्पर्क-07597894991

धर्म शब्द इतने व्यापक अर्थाें वाला है कि संस्कृत व अन्य किसी भाषा में इसका पर्यायवाची शब्द नहीं मिलता। मानव जीवन के लिए धर्म की उपयोगिता प्रकट करते हुए ऋषिवर कणाद वैशेषिक दर्शन में लिखते हैं- ‘यतोऽभ्युदय निः श्रेयससिद्धि स धर्मः।(1.1.4) अर्थात् जिससे मनुष्य का यह लोक और परलोक दानों सुखद, शान्ति प्रद और कल्याणमय हों तथा मोक्ष की प्राप्ति हो, उसे धर्म कहते है। मीमांसा की भाषा में बात करें तो ‘यथा य एव’ श्रेयस्करः स धर्मः शब्देन् उच्यते’ अर्थात मनुष्य मात्र के लिए जो भी कुछ श्रेयस्कर है, कल्याण प्रद है- वह धर्म शब्द से जाना जाता है। हमारे दर्शनकार ऋ़षियों के अनुसार धर्म मनुष्य के लिए एक अक्षय सुख, शान्ति व मोक्ष-आनन्द का देने वाला है धर्म की महत्ता और मानव जीवन के लिए उपयोगिता जान लेने के बाद यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर वह धर्म है क्या? मनुष्य का समग्र हित करने वाले धर्म का स्वरूप क्या है? इस प्रश्न का उत्तर भी हम ऋषियों से ही पूछें तो अधिक उत्तम होगा? महर्षि मनु महाराज की मान्यता है- ‘वेदोऽखिलो धर्म मूलम्’ अर्थात् सम्पूर्ण वेद ही धर्म का मूल है इसे और स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं ‘वेद प्रतिपादितों धर्मः अधर्मस्तविपर्ययः’ – अर्थात् जिस-जिस कर्म को करने की वेद आज्ञा देते हैं, वह-वह कर्म ही धर्म है, इसके विपरीत अधर्म है। महर्षि मनु के ये दोनों वचन बड़ी स्पष्ट घोषणा करते हैं कि ईश्वर की वेदाज्ञा का श्रद्धा और निष्ठा पूर्णक पालन करना ही वह सच्चा धर्म है।
जब संसार में ऐ मात्र वेदमत ही था, सब वेद धर्म को मानने वााले थे, तो क्या सबका जीवन सुख समृद्धि से परिपूर्ण था? ऋषि दयानन्द लिखते हैं- ‘सृष्टि से ले के पाँच सहस्र वर्षों से पूर्व समय पर्यन्त आर्यों का सार्वभौम चक्रवर्ती अर्थात् भूगोल में सर्वोपरि एक मात्र राज्य था।’’ अन्यत्र ऋषि लिखते हैं- ‘‘स्वायंभुव राजा से लेकर पाण्डव पर्यन्त आर्यों का चक्रवर्ती राज्य रहा है।’’ महाभाारत के युद्ध से पूर्व सर्वत्र वेद धर्म का बोलबाला था, वेद धर्म का पालन करने के कारण भारत का एक ओर भूगोल भर में चक्रवर्ती राज्य था, तो दूसरी ओर भारत को ‘विश्व गुरु’ और ‘सोने की चिडि़या’ जैसे गौरव पूर्ण सम्बोधनों के साथ पुकारा जाता था। भारत का वह प्राचीन गौरव, वह चक्रवर्ती राज्य आज हमारे लिए एक सुहाने सपने जैसा लगता है। प्रत्येक भारतवासी का हृदय चाहता है कि हमारे प्यारे राष्ट्र को वह गौरव पुनः प्राप्त हो जाए। हाँ, हाँ- हो सकता है, क्यों नहीं हो सकता? अगर हम उन्हीं वैदिक आदर्शों की जीवन के धरातल पर स्वीकार कर लें, ऋषियों के बताए हुए उसी वैदिक धर्म को अपने जीवन का आधार बना लें, तो कोई कारण नहीं कि हमें वह गौरव प्राप्त न हो। धर्म के सम्बन्ध में हमसे जो थोड़ी सी भूल महाभारत के बाद हो गई थी, उसे सुधार लें, तो भारत पुनः ‘विश्व गुरू’ और ‘सोनेे की चिडि़या’ बनकर अपने खोए हुए गौरव को पा सकता है। कितने भाग्यवान होंगे वे विवेकशील सज्जन, जो धर्म के नाम पर फैल चुकी अधार्मिक प्रवृतियों से ऊपर उठकर परमात्मा की वेद वाणी पर श्रद्धा टिकाते हुए युग परिवर्तनकारी अभियान में सक्रिय भूमिका निभाएँगे? महानुभावो। हम ऋषियों की सन्तान हैं, हमारे रोम-रोम में गौतम, कपिल कणाद और पतंजलि का तप, तेज और स्वाभिमान हिलोरें ले रहा है। उनकी तपः साधना से प्राप्त पावन प्रज्ञा से प्रसूत अथाह ज्ञान राशि आज भी हमारी प्रतीक्षा कर रही है कि हम उसे जीवन का अंग बनाकर उनकी तपस्या को सार्थक करें। उन ऋषियों ने ये अमूल्य ग्रन्थ हमारे कल्याण की भावना लेकर ही लिखे थे।
धर्म को लेकर कई बार हम बड़े गौरव के साथ कहते हैं कि हमारा धर्म सनातन धर्म है। हम सनातन का अर्थ समझ लें- काल वाचक तीन शब्द हैं। अधुनातन अर्थात् वर्तमान काल से या नवीन, दूसरा पुरातन अर्थात् प्राचीन काल से या पुराना और तीसरा है सनातन अर्थात् प्रारम्भ से या नित्य। जब हम सनातन धर्म कहते हैं तो इसका अर्थ होता है, प्रारम्भ में चलें आने वाला नित्य धर्म। और वह नित्य धर्म वेद ही हो सकता है, क्योंकि वह सृष्टि के प्रारम्भ से ही चला आ रहा है। धर्म के नाम पर वर्तमान में जो कुछ चल रहा है, वह माहभारत के युद्ध के बाद वेद विद्या के लोप हो जाने के बाद पैदा हुआ है। यह पुरातन तो हो सकता है सनातन नहीं हो सकता। सनातन तो वही है, जो वेदों में कहा है, सनातन तो वही है जो महर्षि मनु से लेकर याज्ञवल्य, गौतम, कपिल, कणाद व व्यास ने अपने ग्रन्थों में लिखा है।
ऋषि महर्षियों के बताए वेद धर्म को त्यागकर, सनातन धर्म के स्थान पर पुरातन प्रवृतियों को धर्म के रूप में स्वीकार करके आज हमारी क्या स्थिति हो गई है? धर्म के नाम पर पिछले कुछ वर्षों से जो कुछ देखने और सुनने को मिल रहा है, देश के विभिन्न क्षेत्रों से हमारे आधुनिक धर्माचार्यों की जो लीलाएँ देखने को मिल रही हैं, क्या उन सबको हम अपने सत्य सनातन धर्म का अंग मान सकते है? हमारे धार्मिक स्थलों का जो नैतिकक्षरण हो रहा है, भगवा वस्त्रों की गरिमा जिस ढंग से नीलाम की जा रही है, क्या यह हमारे सत्य सनातन धर्म के साथ मेल खाती है? धर्म दिखावे की वस्तु नहीं है। धर्म के नाम पर वर्तमान में हमारे धर्मस्थलों व धार्मिक आयोजनों में जो कुछ हो रहा है, यदि वही सनातन धर्म है, तो अधर्म की परिभाषा क्या होगी?
आज ज्ञान-विज्ञान का युग है, आज के युग में धर्म के नाम पर वह सब कुछ नहीं चल सकता जो पिछले हजारों वर्षों से चला आ रहा है। आज धर्म के सम्बन्ध में उठने वाले प्रश्नों को हम धर्म में ‘अकल का दखल’ नही होना चाहिए, कह कर नहीं टाल सकते। टालें भी क्यों? हमारे ऋषियों ने हमें धर्म ज्ञान के साथ यह भी सिखाया है- तर्क प्रमाणाभ्यां वस्तु सिद्धिः न तु संकल्प मात्रेण’ अर्थात् किसी वस्तु की सिद्धि तर्क और प्रमाणों से ही जाती है, संकल्प मात्र से नहीं। धर्म के सम्बन्ध में उठने वाले प्रश्नों के उत्तर हमें तर्क और प्रमाणों सहित देने होंगे।

की पूजा उपासना के अधिकार तक में सबको समान मानने वाला धर्म ही विश्व धर्म हो सकता है।
विश्वयापी भ्रातृभावः- सबको समान मानने के बाद दूसरी बात आती है कि सबाके अपना मानकर चलें। ऐसा धर्म जो विश्व के मानव मात्र को जापित, नस्ल तथा लिंग भोद में न बाँटकर सबको अपना समझने के उपदेश दे। मानव-मानव के साथ भाई-भाई जैसार अपनापन बनाने की शिक्षा व उपदेश देने वाला धर्म ही विश्वधर्म बन सकता है। धर्म के नाम पर किसी भी प्रकार का भोद भाव और अपने-पराये की भावना के रंग में रंगाा कोई धर्म विश्वमानव को क्यों कर स्वीकार होगा?
सर्वागींण विकास- विश्वधर्म की तीसरी विशेषता यह होनी चाहिए कि वह मनुष्य की सर्वागींण उन्नति एव समग्र विकास की सैद्धान्तिक रूपरेखा प्रस्तुत करता हो। मानव का शारीरिक विकास, बौद्धिक विकास, आत्मिक विकास, सामाजिक विकास आदि की सम्पूर्ण प्रक्रिया प्रस्तुत कर सकने वाले धर्म को विश्वमानव निःसंकोच होकर उत्साहपूर्वक स्वीकार करेगा ही। सामाजिक संरचना के प्रत्येक क्षेत्र में काम करने वाले डाॅक्टर, वकील, किसान, व्यापारी, व राज काज में लगे विभिन्न लोगों से लेकर श्रमिक तक के सम्पूर्ण जीवन के विकास की व्यवस्था देने वाले धर्म को विश्वधर्म माना जाना समय की माँग है।
वैज्ञानिक आधारः- विश्वधर्म चुने जाने की प्रतिस्पर्धा में विजयी होने वाले धर्म के सम्पूर्ण सिद्धान्त, उसके धार्मिक अनुष्ठान व धर्म सम्बन्धी अवधारणाएँ, मान्यताएँ पूर्णतः वैज्ञानिक होनी चाहिए। धर्म ग्रन्थों का विज्ञान के विरुद्ध होना संसार का सबसे बड़ा मानवीय अभिशाप है। विज्ञान विरुद्ध तथ्यों को धर्म का नाम देकर प्रचारित-प्रसारित करना किन्हीं लोगों के लिए सत्ता पाने या पेट भरने का कुटिल अभियान तो हो सकता है, धर्म नहीं।
वेद पढ़ने वाला कोई भी विवेकशील सज्जन, निष्पक्ष होकर विचार करे तो वह पाएगा कि 1893 में शिकागो के विश्वधर्म सम्मेलन में संसार भर के धर्माचार्यों, दार्शनिकों व वैज्ञानिकों ने विश्व-धर्म की जो चार कसौटी स्वीकार की थीं, उन पर संसार का एक मात्र सत्य सनातन वैदिक धर्म ही पूर्णतः खरा उतरता है।
धर्म कभी हमारे राष्ट्र की सबसे बड़ी शक्ति हुआ करता था, धर्म हमारे सामाजिक व पारिवारिक जीवन को मर्यादित रखता था। आज वही धर्म हमारे राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन से लेकर पारिवारिक और व्यक्तिगत जीवन में बिगाड़ और बिखराव ही पैदा कर रहा है। धर्म की वह पावनता हमें दुबारा लौटानी होगी। धर्म के सच्चे स्वरूप को समझकर उसके अनुसार जीवन बनाना होगा। धर्मशील सज्जनो और देवियो। धार्मिक बनना चाहते हो तो सच्चे धार्मिक बनो। धार्मिक दिखना अलग बात है तथा धार्मिक होना अलग बात है। धार्मिक दिखने, धर्मात्मा होने का दिखावा करने से धर्म का फल नहीं मिलता। असली और नकली धार्मिक को आज सामान्य जनता भी जानती है तो क्या परमात्मा नहीं जानता होगा? उसे धोखा देना सम्भव नहीं है, जो देने की कोशिश कर रहे हैं उन्हें भी समझाओ। धर्म की पावनता को नष्ट करने वालों से कह दो-
दे मुझको मिटा जालिम, मत धर्म मिटा मेरा।
ये धर्म मेरा मेरे ऋषियों की निशानी है।।
सत्य सनातन वैदिक धर्म का सच्चा स्वरूप जानने, वेद एवं वैदिक साहित्य प्राप्त करने के लिए सम्पर्क करें।
‘रामनिवास गुणग्राहक’, वैदिक प्रवक्ता सम्पर्क-07597894991

आर्य समाज का वेद प्रचार: एक नूतन प्रयोग – रामनिवास गुणग्राहक

‼ ओ३म् ‼

आर्य समाज की प्रचार-पद्धति के सम्बन्ध में विचार करने से पहले एक बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि संसार के धार्मिक कहे जाने वाले मत-पन्थों के प्रचार-अभियान और आर्य समाज के प्रचार कार्य में बड़ा अन्तर है। पाखण्ड और अन्धविश्वास को धर्म स्वीकार कर चुका भारतीय जन मानस एक पाखण्ड से अच्छा और सरल लगने वाले दूसरे पाखण्ड को सहजता से स्वीकार कर लेता है। मूर्ति राम की न सही कृष्ण की भी चलेगी, गणेश की न सही हनुमान की भी चलेगी। यही परम्परा आज यहाँ तक पहुँच गई है कि शिव का स्थान सांई ले सकता है और गली-गली में बनने वाले भोले-भैरों  के मन्दिर से जिनकी कामना सिद्ध नहीं होती वे उसी कथित श्रद्धा से किसी मियाँ की मजार या कब्र पर जाकर भेंट पूजा चढ़ाने चले जाते हैं। आर्य समाज इन सबसे अलग हटकर बुद्धि और तर्क की बात करता है जिन्हें हमारे पुराणी और कुरानी बन्धु सैकड़ों सहस्रों वर्ष पूर्व धार्मिक सोच से दूर भगा चुके हैं। यही कारण है कि तर्क और बुद्धि से काम लेने वालों को आज के धर्माचार्य व धर्मभीरू लोग बिना सोचे समझे नास्तिक कह ड़ालते है। वैसे यह एक कडवा सच भी है कि तर्क और विज्ञान की बात करने वाले हमारे बुद्धिजीवी आज नास्तिक बन कर ही रह गये हैं। ऐसे में आर्य समाज को अपनी प्रचार-पद्धति को एक नया धारदार रूप देने के लिए वर्तमान पद्धति की जाँच-परख करते रहना चाहिए।

यह सही है कि आर्य समाज की पहली पीढी ने जितना जो कुछ वेद प्रचार व समाज सुधार का काम किया वो सब इसी प्रचार-पद्धति से किया। इसी के साथ यह भी मानना ही पडेगा कि विगत 20-30 वर्षों का अनुभव चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है कि अब यह प्रचार-पद्धति अपना प्रभाव खो चुकी है। कारण जो भी रहे हो, चाहे हमारी जीवन-शैली की व्यवस्था हो या टी.वी., मोबाइल से चिपके रहने की प्रवृति। चाहे हमारे उपदेशकों की निष्ठा, स्वाध्यायशीलता में कमी आने के कारण या हमारे कर्णधारों-पदाधिकारियों के मन-मस्तिष्क में जडें जमा चुकी उठा-पटक की प्रवृत्ति के साथ माला और फोटो की मानसिकता-कुछ भी हो आज का सच यह है कि हमारी वर्तमान प्रचार-पद्धति अब न तो हम आर्य कहलाने वालों के जीवन में कोई सुधार व निखार लाती दिख रही है और न नये व्यक्तियों को आर्यसमाज से जुडने के लिए प्रेरित या आकर्षित कर पा रही है। ऐसे में प्रत्येक वेद भक्त और ऋषि भक्त आर्य का कत्र्तव्य है कि वह आर्य समाज के प्रचार कार्य को प्रखर और प्रभावी बनाने की दिशा में गम्भीरता से विचार करे और उसे व्यावहारिक बनाने के लिए कुछ ठोस कार्य भी करे। मैंने इस दिशा में बहुत लम्बे समय से अनेक सुधी आर्य जनों व मित्रों से विचार-विमर्श करके हमारी प्रचार-पद्धति को नया रूप देने का छोटा प्रयास किया है। सुधी पाठक इस पर और विचार करके अपने अमूल्य सुझाव देकर इसे और प्रभावोत्पादक बना सकते हैं या जिन्हें यह अच्छा लगे वो अपने पदाधिकारियों से मिलकर चर्चा करके इस पर व्यवहार प्रारम्भ कर सकते हैं।

सम्भव है कुछ आर्य जनों को यह अटपटा लगे, कुछ को इस पर स्वार्थ जन्य आपत्तियाँ भी हो सकती हैं, मगर मेरा मानना है कि वेद प्रचार की यह प्रचार शैली आर्य समाजों में प्रचलित हो जाए तो इसके प्रत्यक्ष और उत्साहवर्धक परिणाम एक-दो वर्ष में ही प्रकट होने लगेंगे। हाँ जिन्हें आर्य समाज से अधिक व्यक्ति जुड़ने पर पद चले जाने का डर लगता हो, उनके लिए कोई कुछ नहीं कर सकता है। अब पढि़ये कि आर्य समाज को नवजीवन देने के लिए हमें अपनी प्रचार-पद्धति में क्या कुछ बदलना पडे़गा। यद्यपि आज आर्य समाज में ऐसे उपदेशक बहुत कम संख्या में हैं जो नित्य नियमित रूप से संध्योपासना व स्वाध्याय करते हों। जितने भी हों, प्रारम्भ के लिए ऐसे विद्वान् हमारे मध्य है जो संध्या व स्वाध्याय दैनिक कर्म के रूप में करते हैं। जो नहीं भी करते हंै, जब सिर पर आ पडे़गी तो सब करने लगा जाएँगे। आज समस्या यह है कि आर्य समाज में ‘सब धान सत्ताइस का सेर’ बिकता है। हमें सिद्धान्त निष्ठ, धर्मात्मा, निष्कलंक, निर्लोभी और सरल स्वभाव के स्वाध्यायशील किसी एक विद्वान को अपने आर्य समाज में प्रचार कार्य के लिए कम से कम 8-10 दिन के लिए सादर आमन्त्रित करना चाहिए। उससे पहले आर्य समाज के पदाधिकारी व श्रेष्ठ सभा- सद मिलकर प्रचार-योजना इस ढं़ग से बनायें- प्रतिदिन प्रातःकाल सुविधानुसार किसी पदाधिकारी या श्रदालु आर्य के घर यज्ञ व पारिवारिक सत्संग रखे, जिसमें एक घण्टा तक व्याख्या युक्त यज्ञ हो और एक घण्टा धर्म, ईश्वर, वेद आदि की विशेषताएँ लिये हुए परिवार, समाज व राष्ट्र से जुड़े हुए कत्र्तव्यों के पालन की प्रेरणापरक प्रवचन होना चाहिए। जिस परिवार में यज्ञ व सत्संग हो, वह अपने परिचितों व पड़ौसियों को प्रेम पूर्वक आमन्त्रित करे। घर मीठे चावल बनाए, स्विष्टकृत आहुति व बलिवैश्वदेव की आहुतियाँ देकर प्रसाद रूप में सबको वही यज्ञशेष प्रदान करें।

प्रातःकाल इतना करके दिन में किसी विद्यालय में कार्यक्रम रखने के लिए पहले ही सम्बन्धित प्रधानाध्यापक आदि से मिलकर सुविधानुसार 40-50 मिनट का समय तय कर लें। आर्य समाज के एक या दो सज्जन आमन्त्रित विद्वान् को सम्मान पूर्वक विद्यालय ले जाएँ और विद्या व विद्यार्थियों से जुड़े हुए विषय पर सरल व रोचक भाषा शैली में वेद व वैदिक साहित्य के प्रमाण पूर्वक प्रवचन करें। वेद व आर्य समाज के प्रति श्रद्धा बढ़ाने की भावना का ध्यान पारिवारिक यज्ञ-सत्संग से भी रखना चाहिए और विद्यालयों में भी। कार्यक्रम के अन्त में सबको निवेदन करें कि वे सांयकाल आर्य समाज में होने वाली धर्म चर्चा-सत्संग में पुण्य लाभ प्राप्त करने हेतु अवश्य पधारें। सुविधानुसार एक दिन में दो-तीन विद्यालयों में प्रवचन रख सकते हैं। हमारी आज की पीढ़ी बहुत तेज तर्रार है उसके मन-मस्तिष्क में धर्म और ईश्वर को लकर अनेक प्रश्न खडे़ होते हैं। लेखक लड़के-लड़कियों के काॅलेजों के अनुभव के आधार पर कह सकता है कि युवक-युवतियाँ बडे़ तीखे प्रश्न करते हैं। ऐसे में आर्य समाज का गौरव कोई स्वाध्यायशील व साधनाशील आर्य विद्वान् ही बचा सकता है। नई पीढ़ी को प्रश्नों व शंका समाधान की छूट दिये बिना हम नई पीढ़ी के मन-मस्तिष्क को धर्म, ईश्वर व आर्य समाज की ओर नहीं मोड सकते, इसलिए किसी विद्वान् को बुलाने से पहले इस बात का ध्यान अवश्य रखें और उन्हें इसकी सूचना भी अवश्य कर दें।

दिन में इतना कुछ करके रात्रि में सबकी सुविधा व अधिकतम लोगों के आगमन की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए दो घण्टे का कार्यक्रम बनायें। दिन में अगर अधिक प्रश्न व शंकाएँ रखी गई हांे तो उनके उत्तर रात्रि काल के सत्संग में रखे जा सकते हैं या समाज के सुधीजन कार्यक्रम बनाते समय कुछ उपयोगी व सामयिक विषय निश्चित कर सकते हैं। इस प्रकार एक दिन का यह कार्यक्रम है, ऐसे ही 8-10 दिन का कार्यक्रम बनाकर हम इसके अनुसार प्रचार कार्य करके समय, श्रम व संसाधनों का सटीक सदुपयोग करके बहुत लाभ प्राप्त कर सकते हंै। प्रसंगवश एक बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य की ओर आर्य जनों का ध्यान आकर्षित करना बहुत आवश्यक है। प्रचार कार्य में प्रवचन और सत्संग से अधिक भूमिका साहित्य की होती है। दुःख की बात यह है कि आज आर्यसमाज में स्वाध्याय की प्रवृत्ति और स्वाध्याय के योग्य प्रभावी साहित्य दोनों में निरन्तर गिरावट आती जा रही है। प्रचार को प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक है कि हम ऋषि दयानन्द के लघु ग्रन्थों, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, पं. चमूपति, स्वामी दर्शनानन्द जी, पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय, पं. रामचन्द्र देहलवी और स्वामी वेदानन्द जी जैसे सिद्धान्तनिष्ठ विद्वानों के साहित्य को बहुत बड़ी मात्रा में प्रकाशित करा कर अल्प मूल्य में उपलब्ध करायें। मुझे क्षमा करें हमारे आज के प्रतिष्ठित कहलाने वाले तथा विभिन्न आर्य संस्थानों से पुरस्कृत होते रहने वाले लेखक और अन्तर्राष्ट्रीय कथाकारों की वाणी और लेखनी किसी के जीवन को निखारने-सँवारने में सर्वथा असमर्थ है। आज स्थिति यह है कि हमारे आज के नामधारी लेखकों ने इधर-उधर से दान लेकर अपने कई-कई पोथे छपवाकर अल्प मूल्य के साथ बाजार में छोड़ रखे हैं। पुरानी पीढ़ी के लेखकों के ग्रन्थ छपाने के लिए कोई दानी आगे नहीं आता या बहुत कम आते हंै। आर्य समाज को इस दिशा में भी गम्भीरता से सोचना पड़ेगा। पहली-दूसरी पीढ़ी के गम्भीर, सिद्धान्तजीवी वैदिक विद्वानों के साहित्य का उद्धार करना आज की बहुत बड़ी माँग है, ऐसा न हो कि कल बहुत देर हो जाए। वेद प्रचार को जीवन्त बनाने के लिए सत्साहित्य व सिद्धान्तनिष्ठ प्रवचन-सत्संग ही एक मात्र उपाय है। हमारे सुधी पाठक इस पर गम्भीरता से विचार करके देखेंगे तो लगेगा कि बिना लम्बी चैड़ी भाग दौड़ के, बिना किसी ताम-झाम के, बिना किसी बड़े खर्चे के एक सीमित आय वाले आर्यसमाज भी इसका लाभ ले सकते हैं। मैंने इसके प्रायः सभी पक्षों को लेकर बहुभाँति चिन्तन किया है, उस चिन्तन के आधार पर मैं पाठकों को विश्वास दिला सकता हूँ कि प्रचार की यह पद्धति अपना ली जाए तो आर्य समाज का कायाकल्प होने में 5‘-10 वर्ष से अधिक समय नहीं लगेगा। हाँ इसके साथ-साथ हमें अपने संगठन सम्बन्धी अपनी कमियों को दूर करना पड़ेगा।

कुछ लोग यह कहते हैं कि आर्य समाज का सांगठनिक ढाँचा आज के समय के अनुकूल नहीं है। ऐसे लोग लोकतान्त्रिक पद्धति की न्यूनताएँ गिनाने लगते हैं, लेकिन वे महर्षि दयानन्द की वेद विद्या से प्राप्त दूर दृष्टि को समझ नहीं पाते। नियम-सिद्धान्त कितने ही उच्चस्तर के हों अगर व्यक्ति निम्न स्तर के हैं तो अति महत्वपूर्ण तथ्यों की अनदेखी करके, साधारण या मनोनुकूल तथ्यों पर अधिक ध्यान केन्द्रित करके वे अच्छे-अच्छे नियम-सिद्धान्तों का दुरुपयोग कर ड़ालते हैं। आर्य समाज के संगठन सम्बन्धी नियम-उपनियमों के साथ भी हमारे कर्णधार लम्बे समय से यही करते चले आ रहे हैं। भविष्य में कभी इस विषय पर भी अपना चिन्तन पाठकों के सामने रखेंगे। अभी प्रचार सम्बन्धी चर्चा को व्यावहारिक रूप देने की आवश्यकता है। जो सज्जन इस पद्धति को अच्छा व उपयोगी मानते हों और ऐसा करना चाहते हों, वे अधिक जानकारी के लिए लेखक से संपर्क करके इसके बारे में समस्याओं व सम्भावनाओं पर विचार करके किसी भी प्रकार का सहयोग प्राप्त कर सकते हैं। आशा और विश्वास है कि  आर्यजन इस दिशा में आगे बढ़ने का प्रारम्भिक प्रयास करके लेखक के श्रम को सार्थक अवश्य करेंगे ।

इस नूतन प्रचार पद्धति के लाभः-

१-यह प्रचार पद्धति सबसे अधिक प्रभावी औरअच्छे परिणाम देने वाली है ।

२-कम खर्चीली होने के कारण कम आय वाले समाज भी इसका लाभ उठा सकते हैं ।

३-इसमें प्रबन्ध और व्यवस्था सम्बन्धी भागदौड बिल्कुल भी नहीं है ।

४-विद्यालयों में प्रवचन,व्याख्यान रखने से प्रतिदिन कई सौ युवाओं के साथ सम्पर्क हो सकेगा ।

५-पारिवारिक सत्संग से हमारे परिवारों व पडौसियों में वैदिक सिद्धान्तों व संस्कारों का प्रचार बढेगा ।

६-विद्यालयों में प्रश्नोत्तर के कारण हमारे प्रचारकों में स्वाध्याय व संध्या की प्रवृत्ति अवश्य ही बढेगी ।

७-टैण्ट,मंच,माइक,सजावट आदि के सब झंझट व भागदौड न रहने से आर्य कार्यकत्र्ता भी सत्संग,प्रवचन  का लाभ ले सकेंगे , वर्तमान में व्यवस्थाओं में लगे रहने से ऐसा नहीं हो पाता ।

८-नगर या शहर के अलग अलग क्षेत्रों में पारिवारिेक सत्संग होने से दूर दूर तक प्रचार प्रसार होगा ।

९-विद्यालयों में रुचि लेने वाले प्रतिभाशाली युवाओं से सम्पर्क बनाये रखकर हम आर्यसमाज की नई पीढी तैयार कर सकते हैं ।

१0-इस पद्धति से १५-२॰ हजार रुपये में ८-१0 दिन प्रचार हो सकेगा,अतः कोई भी समाज जितना पैसा एक उत्सव में अब लगाता है उतने में वर्ष में ८-१0 बार प्रचार करा कर पुण्य प्राप्त कर सकता है।

आशा है सुधी आर्यजन इन सब पर आर्योचित रीति से , न्याय बुद्धि से गम्भीरता पूर्वक विचार करंेगे। आप ऐसा करना उचित समझें तो मो॰-07597894991 पर मुझसे सम्पर्क करके इस प्रकार के प्रचार कार्य का प्रयोग कर सकते हैं ।मेरा इस दिशा में वर्षों का अनुभव है ,उसका परिणाम भी बहुत अच्छे मिले हंै । एक बार प्रयोग अवश्य करें इसमें कोई हानि नहीं , लाभ की सम्भावना बहुत है । अगर आप इस नूतन प्रचार पद्धति को स्वीकार इसके लाभ देखेंगे तो आपको बहुत आनन्द आयेगा और आपको इसके प्रथम प्रचलन का पुण्य प्राप्त होगा,एक बार सेवा का अवसर अवश्य दें । धन्यवाद ।।

आपका अपना ही

 

रामनिवास गुणग्राहक ०७५९७८९४९९१

आर्य-पथ – राजेश माहेश्वरी

हम हैं उस पथिक के समान

जिसे कर्तव्य बोध है

पर नजर नही आता है

सही रास्ता

अनेक रास्तों के बीच

हो जाता है दिग्भ्रमित।

इस भ्रम कोतोड़कर

रात्रि की कालिमा को देखकर

स्वर्णिम प्रभात की ओर

गमन करने वाला ही

पाता है सुखद अनुभूति

और सफल जीवन की संज्ञा।

हमें संकल्पित होना चाहिए कि

कितनी भी बाधाएँ आएँ

कभी नहीं होंगे

विचलित और निरुत्साहित।

जब आर्यपुत्र

मेहनत, लगन और सच्चाई से

जीवन में करता है संघर्ष

तब वह कभी नहीं होता है

पराजित।

ऐसी जीवन-शैली ही

कहलाती है जीने की कला

औरप्रतिकू ल समय में

मार्गदर्शन देकर

बन जाती है

जीवन-शिला।

१०६, नया गाँव हाउसिंग सोसाइटी,

रामपुर, जबलपुर, म.प्र.

दुःख उसी को होता है जो नासमझ होता है। स्वामी विश्वंग

संसार में व्यक्ति को सबसे अधिक दुःख तब होता है, जब कोई प्राप्त वस्तु व्यक्ति से छूटने लगती है। जब प्राप्त वस्तु छूटती या उसमें कोई ह्रास होता है, उसमें कोई कमी आती है, उसमें विकृति पैदा होती है तो व्यक्ति को दुःख होता है। प्रायः व्यक्ति इस दुःख को सहन नहीं कर पाता। योगदर्शन के भाष्यकार महर्षि वेदव्यास कहते हैं कि समस्त पदार्थों को दो भागों में बाँटा जा सकता है, जड़ और चेतन। इन दोनों प्रकार के पदाथरें से व्यक्ति का सम्पर्क/सम्बन्ध रहता है। जब इनकी बढ़ोत्तरी वृद्धि होती है तो व्यक्ति  को अच्छा लगता है और जब दोनों में अवनति होती है, ह्रास होता है तो व्यक्ति को दुःख होता है। वस्तुतः दुनिया में दुःख उसी को होता है जो नासमझ होता है। जिस किसी को, जिस किसी भी प्रकार का दुःख होता है तो समझ लेना चाहिए कि जिस किसी विषय में दुःख हो रहा है, उस विषय का बोध नहीं है। ईश्वर ने वेद में स्पष्ट रूप से समझाने का प्रयास किया है-

अश्वत्थे वो निषदनं पर्णे वो वसतिष्कृता।

गोभाजऽइत्किलासथ यत्सनवथ पूरुषम्।।

यह मन्त्र यजुर्वेद में दो बार आया है- एक १२/७९ में, दूसरा ३५/०४ में। दोनों स्थलों में पूरा का पूरा मन्त्र वही है। तो प्रश्न हो सकता है कि वेद में एक ही मन्त्र दो बार क्यों आया है। महर्षि दयानन्द ने अपने वेदभाष्य में इन दोनों मन्त्रों का अलग-अलग अर्थ किया है, एक मन्त्र का आत्मा परक अर्थ किया है और दूसरे का परमात्मा परक।

अश्वत्थे= श्वः स्थास्यति न स्थास्यति वा तस्मिन्ननित्ये संसारे

अर्थात् जो कल रहेगा या नहीं रहेगा ऐसे अनित्य संसार में, संसार की वस्तुएँ कल रहेंगी या नहीं रहेंगी इसका हमें पता नहीं, ऐसी जगह-पर्णे वो वसतिष्कृता– पत्ते  के तुल्य चञ्चल जीवन में हमारा निवास किया है, अर्थात् जैसे पत्ता  विशेषकर पीपल का पत्ता (क्योंकि अश्वत्थ=पीपल) अपनी यौवन अवस्था में सुन्दर दृढ़ दिखाई देता है, पेड़ से मजबूती से चिपका हुआ प्रतीत होता है, लेकिन जब हवा तेज आए तो पता नहीं वह पत्ता कहाँ जाएगा? संसार के समस्त पदार्थ भी ऐसे ही हैं, आज हैं तो कल नहीं रहेंगे। यहाँ कल से अभिप्राय केवल कल नहीं है, इसका अभिप्राय परसों भी हो सकता है, एक सप्ताह बाद भी हो सकता है, एक महीने बाद, एक वर्ष बाद, कभी भी कुछ भी हो सकता है। जब व्यक्ति को यह अहसास नहीं होता तब उसे दुःख होता है । यह कपड़ा कल ऐसा नहीं रहेगा, कल का मतलब ३ महीने बाद, ६ महीने बाद, सालभर के बाद, २ साल के बाद ऐसा नहीं रहेगा, यह बात मुझे पता है, इसलिए जब कपड़ा ऐसा नहीं रहता तो मुझे दुःख नही होता, क्योंकि मुझे बोध है, ज्ञान है, लेकिन मकान के विषय में ज्ञान नहीं है। कल मकान टूट सकता है, गिर सकता है, भूकम्प आए या जमीन धँस जाए तो जमीन में समा सकता है। अश्वत्थे वो निषदनम् संसार के समस्त पदार्थ कल रहेंगे या नहीं रहेंगे- किसी को पता नहीं है, क्योंकि ये उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न मात्र पदार्थ स्थिर नहीं रह सकता। जब व्यक्ति क ो यह बोध होता है तो उसे दुःख नहीं होता। यहाँ जब तक वस्तु है, उससे जुड़े रहना है, उसका पूरा लाभ लेना है, इस बात का निषेध नहीं किया जा रहा, बल्कि इसका विधान किया जा रहा है। कल रहेगा या नहीं- अतः उसका ठीक प्रयोग नहीं करना, वस्तु को नजरन्दाज करना, ठीक नहीं। उस वस्तु की भलीभाँति देखभाल करनी है, उससे लाभ लेना है लेकिन हाँ, यह बोध भी रखना है कि यह नश्वर है तो जब वह वस्तु नष्ट होगी तो दुःखी नहीं होंगे। इसी प्रकार शरीर के विषय में भी समझना चाहिए। अश्वत्थे= जो कल रहे या न रहे ऐसे शरीर में वः=तुम्हारा निषदनम्= निवास है अर्थात् ‘‘शरीर कल रहेगा या नहीं रहेगा अथवा कल इस शरीर में कुछ भी हो सकता है, कोई भी रोग आ सकता है, खून की कमी हो सकती है, हृदय में समस्या आ सकती है, किडनी में समस्या आ सकती है। पेट, मस्तिष्क, कान, आँख, नाक, जिह्वा, हाथ-पैर आदि में कुछ भी हो सकता है, किसी भी प्रकार की कोई भी कमी आ सकती है’’ जब सतत् मुझे यह बोध होगा तो कल कुछ हो जाये, तो मुझे दुःख नहीं होगा। इस बोध के लिये हमें अभ्यास करना होगा। कुछ विषयों में हम अभ्यास करते हैं वहाँ हमें दुःख नहीं होता, जैसे कपड़ों के विषय में। आज मेरा जन्मदिन है, मुझे नए वस्त्र मिले हैं, मैं उन्हें धारण कर रहा हूँ, नए वस्त्रों को धारण कर प्रसन्न हूँ, लेकिन यह बोध मुझको है कि एक समय के बाद ये कपड़े पुराने हो जाएँगे, २ साल बाद फट जाएँगे, पुराने हो जाएँगे, कोई बात नहीं, दुःख नहीं होता। जैसे कपड़े के विषय में जानते हैं वैसे ही इस शरीर के विषय में भी अभ्यास करना होगा और अभ्यास होने पर यदि शरीर में कोई समस्या आ जाए तो दुःख नहीं होगा, सम स्थिति में रहता है, यही स्थितप्रज्ञा है। नहीं तो व्यक्ति दुःखी होगा, रोएगा, छाती पीटेगा। स्थितप्रज्ञ होने पर स्वयं के शरीर में कुछ भी होने पर दुःखी नहीं होता, तो उससे सम्बन्धित अन्यों (माता-पिता, भाई-बहन, चाचा, ताऊ) को कुछ भी हो गया तो कोई समस्या नहीं आएगी। उसका चिन्तन होगा कि ठीक है, यह तो होना ही था, ठीक है समस्या आई तो इसका समाधान करेंगे, जितने अंश में समस्या को सुलझा सकते हैं, उसे सुलझाना है, लेकिन रोना-धोना, परेशान होना, चिन्तित होना, मानसिक स्थिति को बिगाड़ के रखना और दुःख में जीना-ये बुद्धिमत्ता  का कार्य नहीं है। ये मूर्खता के कार्य, नासमझी के कार्य हैं, इसी बात को हमें समझना होगा।