संसार के निरामिषभोजी महापुरुष

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संसार के निरामिषभोजी महापुरुष

लेखक – स्वामी ओमानंदजी सरस्वती 

जगद् गुरु श्री शंकराचार्य (शारदा पीठ, द्वारिका) 

यह अत्यन्त दुःख की बात है कि संसार की युवक पीढ़ी और विशेषकर हिन्दू युवक वर्ग पवित्र शाकाहार को छोड़ता जा रहा है और मांसाहार की ओर प्रवृत्त हो रहा है, जो हिन्दुत्व नहीं है । वह मानव का धर्म नहीं है । इसलिये हम सब को सावधान करते हैं और उपदेश देते हैं कि मानवमात्र को विशेष रूप से हिन्दुओं को शपथ लेनी चाहिये, प्रतिज्ञा करनी चाहिये कि हम शुद्ध शाकाहार ही करेंगे और मांस कभी नहीं खायेंगे । इस शपथ को सद्व्यवहार में लाना ।

श्री जगद् गुरु शंकराचार्य (श्रृंगेरी मठ) 

शाकाहार ने केवल शरीर को ही शुद्ध रखता है बल्कि आत्मा को भी शुद्ध पवित्र करता है । यह सार्वभौम स्वीकृत सिद्धान्त है कि शाकाहार ही सब राष्ट्रों और जातियों को अधिक स्वस्थ और सुखी करने वाला है ।

श्री जगद् गुरु शंकराचार्य (बद्रिकाश्रम) 

अब संसार शुद्ध शाकाहार के महत्त्व को समझने लगा है । क्योंकि शुद्ध सात्त्विक आहार मानसिक, शारीरिक और आत्मिक उन्नति का एकमात्र कारण है । यही स्वास्थ्य, शक्ति और पवित्रता को देता है ।

श्री जगद् गुरु कामाकोठी पीठ 

मनुष्यों में पूर्ण शक्ति और सुख की प्राप्ति के लिये वातावरण का निर्माण शुद्ध शाकाहार ही करता है ।

सन्त विनोबा भावे 

मानव को शीघ्रातिशीघ्र इस निष्कर्ष पर अवश्य पहुंचना है कि शाकाहार ही सब भोजनों में श्रेष्ठतम भोजन है, जो शक्ति प्रदान करता है ।

योरूप के महान् ईसाई सन्त बासिल (३२०-३७६ ई०) 

यदि मानव मांसाहार का परित्याग कर दे तो सब प्राणियों के प्राण बच जायेंगे । उनका व्यर्थ में खून नहीं बहेगा । भोजन की मेजों पर प्रचुर मात्रा में फलों के ढ़ेर लग जायेंगे, जो प्रकृति ने प्रभूत मात्रा में उत्पन्न किये हैं, और सर्वत्र शान्ति ही शान्ति हो जायेगी ।

ईसाई सन्त जेरोमे (Saint Jerome) (३४०-४२० ई०) 

ईसा मसीह हमें मांस खाने की अब आज्ञा नहीं देता । यह बहुत ही अच्छा है कि कभी मांस नहीं खाना चाहिये, न कभी शराब-मद्यपान करना चाहिये – “Jesus Christ today does not permit us to eat flesh according to Apostle (Rom XV-21). It is good never to drink wine and never to eat flesh.”

St. Augustine (354-430 ई०) 

Bishop of HIPPO in Africa says – not only abstain from flesh, wine, but also quotes “That is good never to eat meat and drink wine when by doing so we scandalize our brothers.”

कोन्स टेंटी नोपल का आर्कबिशप क्राइसोस्टोम Chrysostom 

लिखता है – रोटी और जल को छोड़कर मद्य मांस का कोई सेवन नहीं करता था – No streams o fblood are among them, no but cheering and cutting of flesh. Nor are there the horrible smells of flesh meats among them. Or disagreeable fumes from kitchen. No tumult and disturbance and scarisome clamours, but bread and water.

पीथागोरस (Pythagoras – 570-470 ईसा पूर्व) 

यह योरुप का एक बहुत बड़ा दार्शनिक, गणितज्ञ और संगीत विद्या का भी बहुत बड़ा विद्वान् था । उसने कभी मांस और मद्य का सेवन नहीं किया । वह शाक, सब्जी और रोटी ही खाता था ।

योरुप के कवि

अंग्रेज कवि सामुयल टेलर कॉलरिज (Samuel Taylor Coleridge – 1772-1834) लिखता है – “He prayeth best who loveth best. Both man and bird and beast for the dear God who loveth us. He made and loveth all.”

अर्थात् जो व्यक्ति मनुष्य, पक्षी और पशुओं अर्थात् सब प्राणियों से बहुत अधिक प्रेम करता है, वही भगवान् का सच्चा भक्त व उपासक है । जो प्रिय प्रभु के लिये हम सबसे प्रेम करता है, वही यथार्थ में सबका प्रेमी है ।

अमेरिका के हेनरी वाड्सवर्थ लोंगफैलो लिखते हैं – “मैं उस व्यक्ति को सबसे अधिक वीर मानता हूँ जो किसी बड़े नगर में बिना पक्षपात और भय के मित्रहीन पशुओं का मित्र बनकर उनकी सेवा और सुरक्षा, प्राणरक्षार्थ डटकर खड़ा रहता है ।”

अंग्रेज कवि जोहन विल्टन कहता है – “जो हिंसा से अन्य प्राणियों के प्राण लेते हैं, वे भी अग्नि, बाढ़, दुर्भिक्ष आदि के द्वारा नष्ट हो जायेंगे । मांस और मदिरापान से भूमि पर अनेक प्रकार के भयंकर रोग फैल जायेंगे । राष्ट्रहित के लिये लिखने वाला लेखक शुद्ध जल और शाकाहार पर ही निर्वाह करता है ।”

इसी प्रकार अंग्रेज कवि विलियम वर्डसवर्थ, विलियम शेक्सपीयर, परसी वेशी शैले और विलियम कोपर आदि सभी ने मद्य मांस के सेवन का अपने कविताओं और लेखों में सर्वथा निषेध किया है । विस्तार से उनके पृथक् उदाहरण नहीं दे रहा हूँ ।

मांसाहारी वीर नहीं होते

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मांसाहारी वीर नहीं होते

लेखक – स्वामी ओमानंदजी सरस्वती 

न जाने लोग मांस क्यों खाते हैं ! न इसमें स्वाद है और न शक्ति । मांस स्वाभाविक नहीं । मांस में बल नहीं, पुष्टि नहीं । वह स्वास्थ्य का नाशक और रोगों का घर है । मनुष्य मांस को कच्चा और बिना मसाले के खाना पसन्द नहीं करते । पहले-पहल मांस के खाने से उल्टी आ जाती है । डा० लोकेशचन्द्र जी तथा लेखक की रूस की यात्रा में मांस की दुर्गन्ध से कई बार बुरी अवस्था हुई, वमन आते-आते बड़ी कठिनाई से बची । फिर भी लोग इसे खाते हैं । कई लोग तो बड़ी डींग मारते हैं कि मांसाहार बड़ा बल और शक्ति बढ़ाता है । यह भी मिथ्या है । नीचे के उदाहरण से यह सिद्ध हो जायेगा ।

कुछ वर्ष पूर्व लोगों की यह धारणा थी कि कुश्ती लड़नेवाले पहलवानों और व्यायाम करनेवालों को मांसाहार करना आवश्यक है । इसलिये योरोप, अमेरिका और पश्चिमी देशों के पहलवान अधपके मांस और अन्य उत्तेजक पदार्थ खाते थे । पर अब उनकी यह धारणा बदल गई और वे शाकाहारी बनते जा रहे हैं । तुर्की के सिपाही मांस बहुत कम खाते हैं, इसलिये वे योरोप भर में बली और योद्धा समझे जाते हैं । १९१४ के विश्वयुद्ध में ६ नं० जाट पलटन ने अपनी वीरता के कारण सारे संसार में प्रसिद्धि पाई । इस पलटन के अनेक वीर सैनिकों ने अपनी वीरता के फलस्वरूप विक्टोरिया क्रास पदक प्राप्त किये । इस छः नम्बर पलटन में सभी हरयाणे के सैनिक निरामिषभोजी थे । उन्हें युद्ध के क्षेत्र में खाने के लिए जब बिस्कुट दिये गए, तो उन्होंने इस सन्देह से कि कभी इनमें अण्डा न हो, उन्हें छुआ तक नहीं । सूखे भुने हुए चने चबाकर लड़ते रहे । इन्हीं की वीरता के कारण अंग्रेजों की जीत हुई । अभी पाकिस्तान के साथ हुये सन् १९६५ के युद्ध में हरयाणे के निरामिषभोजी वीर सैनिकों ने हाजी पीर दर्रे, स्यालकोट, डोगराई, खेमकरण आदि के मोर्चों पर मांसाहारी पाकिस्तानियों को भयंकर पराजय (शिकस्तपाश) दी । खेमकरण के मोर्चे पर हरयाणे के पहलवानों ने ४८ टैंकों से पाकिस्तान के २२५ टैंकों से टक्कर ली और उनको हराकर टैंक छीन लिए, कितने ही टैंकों की होली मंगला दी । डोगराई का मोर्चा तो हरयाणे के वीर सैनिकों की वीरता का इतिहास प्रसिद्ध मोर्चा है । उसे विजय करके भारत तथा हरयाणे के यश और कीर्ति को चार चांद लगा दिए । इनकी वीरता का इतिहास कभी पृथक् लिखने का विचार है ।

हमारे निरामिषभोजी सैनिक

मैं ६ नं० जाट पलटन की चर्चा पहले कर चुका हूँ । इसी प्रकार ७ नं० रिसाले की गाथा है जिसमें अंग्रेज अफसर जे० एम० कर्नल बारलो थे । बर्मा में उस समय हमारी सेना गई हुई थी । वहां सेना में बलपूर्वक मांस खिलाने की बात चली । हरयाणा के सैनिक जाट, अहीर, गूजर उस समय प्रायः सब शाकाहारी थे । सब पर बड़ा दबाव दिया गया । यहां तक धमकी दी गई कि जो मांस नहीं खायेगा, सबको गोली मार दी जायेगी । उस रेजिमेन्ट में १२०० सैनिक थे । केवल हरयाणे के तीस-चालीस युवक थे जिन्होंने स्पष्ट रूप से मांस खाने से निषेध कर दिया । इन सब के नेता आर्य सैनिक जमादार रिसालसिंह भालौठ जिला रोहतक हरयाणा के रहने वाले थे । उन्हें सब सैनिकों से अलग करके कैद में बन्दी के रूप में बंद कर दिया । फिर तीन दिन के पश्चात् पुनः विचार करने के लिये छोड़ दिया गया । उन्हीं दिनों सारी रिजमेंट की लम्बी दौड़ होनी थी । उस दौड़ में जमादार रिसालसिंह (शाकाहारी) ने भाग लिया । वे सारी रेजिमेंट में १२०० आदमियों में से सर्वप्रथम दौड़ में आये । वह अंग्रेज कर्नल इससे बड़ा प्रसन्न हुआ । रिसालसिंह को बड़ी शाबाशी और पुरस्कार दिया । किन्तु दस दिन के पीछे फिर बलपूर्वक मांस खिलाने की चर्चा चली । इन्कार करने पर फिर रिसालसिंह की पेशी उस अंग्रेज आफिसर के आगे हुई । रिसालसिंह ने निर्भय होकर कह दिया, हमारे बाप-दादा सदैव से शाकाहार करते आये हैं, हम मांस नहीं खा सकते और मांस खाने की आवश्यकता भी नहीं । हम बिना मांस खाये किस कार्य में पीछे हैं वा किस से निर्बल हैं ? मैं १२०० सैनिकों में लम्बी दौड़ तथा अन्य खेलों में सर्वप्रथम आय हूँ, फिर हमें मांस खाने के लिये क्यों तंग वा विवश किया जा रहा है ? अंग्रेज अफसर की समझ में आ गया और उसने रिसालसिंह को छोड़ दिया और यह घोषणा कर दी कि मांस खाना आवश्यक नहीं, जो न खाना चाहे वह न खाये, जबरदस्ती (बलपूर्वक) किसी को न खिलाया जाये । इस प्रकार के संघर्ष फौजों में हरयाणे के सैनिक बहुत करते रहे । कप्तान दीवानसिंह बलियाणा निवासी को मांस न खाने के कारण बर्मा से लखनऊ जेल वापिस भेज दिया था । इनको उन्नति (प्रमोशन) भी नहीं मिली ।

सर्वश्री कप्तान रामकला धांधलाण रोहतक, सूबेदार-मेजर खजानसिंह रोहद रोहतक, पं० जगदेवसिंह सिद्धान्ती, रघुनाथ सिंह खरहर, छोटूराम (ब्रह्मदेव) नूनामाजरा, उमरावसिंह खेड़ी-जट, श्री रिसालसिंह महराणा, देवीसिंह हलालपुर, नेतराम भापड़ौदा, दफेदार रिसालसिंह बेरी, सुच्चेसिंह रोहणा निवासी इत्यादि हरयाणे के सैंकड़ों फौजी सिपाहियों ने मांस न खाने के कारण अंग्रेजी काल में फौज में बड़े-बड़े कष्ट सहे हैं । कितनों को जेल हुई, कितनों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा, कितनों को तरक्की नहीं मिली । दफेदार रिसालसिंह बेरी के सैंकड़ों शिष्य कप्तान, मेजर आदि बन गये किन्तु वे दफेदार रहते रहते ही दफेदारी की पेंशन लेकर चले आये, किन्तु मांस नहीं खाया । शुद्ध शाकाहारी रहते हुये हरयाणे के इन वीरों ने जो वीरता दिखलायी, उसकी चर्चा अन्यत्र कर चुका हूँ ।

सन् १९१७ में स्वामी सन्तोषानन्द जी महाराज ११३ नं० सेना में बगदाद में थे । उस समय हवलदार थे । इनका नाम भवानीसिंह था । अंग्रेज उस समय सैनिकों को मांस और शराब बलपूर्वक खिलाते थे, युद्ध के समय इस विष्य में अधिक कठोरता बरतते थे । सब से पूछने पर अनेक व्यक्तियों ने मांस खाने का निषेध (इन्कार) कर दिया । उनमें प्रमुख व्यक्ति रामजीलाल हवलदार कितलाना (महेन्द्रगढ़), हुकमसिंह गुड़गावां, चिरंजीलाल भरतपुर (राज्य), अमरसिंह गुड़गावां तथा भवानीसिंह (स्वामी सन्तोषानन्द जी) थे । अंग्रेज आफिसर ने मांस न खाने वाले ९ सैनिकों को पृथक् छांट लिया और गोली मारने का भय दिखाया गया । उस समय भवानीसिंह ने अंग्रेज आफिसर से यह निवेदन किया कि हमें गोली मारनी है तो भले ही मार लेना, हम तैयार हैं । मांस नहीं खायेंगे । किन्तु हम मांस खाने वालों से किस कार्य में पीछे हैं या हम उनसे कोई निर्बल हैं ? हमारा उन से मुकाबला करवा के देख लें । कुश्ती, रस्साकसी, कबड्ड़ी सब खेल कराये गये । स्वामी सन्तोषानन्द जी (माजरा), शिवराज रेवाड़ी वाले (भवानीसिंह) की कुश्ती मांसाहारी रामभजन तगड़े पहलवान से हुई थी । उसे बुरी प्रकार से हराया । जीत होने पर सब ओर जयघोष होने लगा । फौजी अफसरों ने सबको शाबासी दी और घी-दूध का भोजन देना आरम्भ कर दिया । निरामिषभोजियों की संख्या बढ़ गई । उनका सर्वत्र मान होने लगा । सब अंग्रेज आफिसर भी उनसे प्रसन्न रहने लगे ।

मांस खाने वालों से बल, वीरता आदि सब गुणों में ही शाकाहारी, निरामिषभोजी बढ़कर होते हैं, इससे यही प्रत्यक्ष होता है ।

सन् १९५७ के हिन्दी सत्याग्रह में भी इसी प्रकार मांसाहारी तथा हरयाणे के शाकाहारी सत्याग्रहियों में संघर्ष रहता था । तो फिरोजपुर जेल तथा संगरूर जेल में कबड्ड़ी-कुश्ती में दोनों पक्षों का मुकाबला हुवा । उस में दोनों जेलों में कुश्ती तथा कबड्ड़ी में हरयाणे के निरामिषभोजी सत्याग्रहियों ने मांसाहारी सत्याग्रहियों को बहुत बुरी तरह हराया ।

इसी प्रकार हैदराबाद के सत्याग्रह में हरयाणे के निरामिषभोजी सत्याग्रही मांसाहारियों को कबड्ड़ी, कुश्ती आदि खेलों में सदैव हराते रहते थे ।

अण्डा और मछली

कुछ लोग अण्डे और मछली को मांस ही नहीं मानते । इससे बड़ी मूर्खता और धूर्तता और क्या हो सकती है ! क्या अण्डे मछली गाजर, मूली की भांति कंद मूल अथवा किन्हीं वृक्षों के फल हैं ? कुछ अकल के अंधे और गांठ के पूरे व्यक्ति कहते हैं कि अण्डे में जीव नहीं होता और मछलियां जल तोरियां हैं, अतःएव ये दोनों भक्ष्य हैं । मछलियां तो चलते फिरते जन्तु हैं और इनमें जीव नहीं ! मैं समझता हूं कि इस स्वार्थ निहित असत्य कल्पना को कोई भी विचारवान् व्यक्ति नहीं मान सकता । मछली का मांस सबसे खराब होता है । उसकी भयंकर दुर्गन्ध और दोषों की चर्चा पहले हो चुकी है । वह खाने की तो क्या, छूने की वस्तु भी नहीं है । वह सब रोगों का घर है । बहुत से अयोग्य, निकम्मे डाक्टरों ने मछली का तेल दवाई के रूप में पिला पिला कर सब का दीन भ्रष्ट कर डाला है । इनसे सावधान रहना चाहिये । इसी प्रकार के दुष्ट प्रकृति के डाक्टर अण्डों के खाने का प्रचार अनेक प्रकार की भ्रांतियां फैला कर करते हैं । “अण्डे में सब प्रकार के अर्थात् ए. बी. सी. डी. सभी प्रकार के विटामिन होते हैं, एक अण्डे में एक सेर दूध के समान शक्ति व बल होता है, एक अण्डा खा लिया मानो एक सेर दूध पी लिया – और अण्डे के खाने से जीव हिंसा का पाप भी नहीं लगता क्योंकि अंडे में जीव ही नहीं होता – फिर हिंसा किसकी होगी ? अतः अण्डे खाने चाहियें ।” इस प्रकार का नीचतापूर्ण भ्रामक प्रचार डाक्टर तथा अनेक अध्यापक और प्रोफेसर लोग खूब करते हैं । इनमें सार कुछ नहीं है । अण्डे में यदि जीव नहीं है तो अण्डज सृष्टि पक्षी, सर्प आदि की उत्पत्ति कैसे होती है ? बिना जीव के जीवन नहीं हो सकता और जीवन के बिना शरीर की वृद्धि व विकास नहीं हो सकता । अण्डा गर्भावस्था है । जिस अण्डे में जीव नहीं होता वह सड़ कर कुछ काल में समाप्त हो जाता है । प्रश्न अण्डे में जीव का ही नहीं, अपितु भक्षाभक्ष्य का भी है । अण्डे में जीव नहीं है यह थोड़ी देर के लिये मान भी लिया जाये तो वह मनुष्य का भोजन है यह कैसे माना जा सकता है ? अण्डे की उत्पत्ति रज वीर्य से होती है । वह मल-मूत्र के स्थान से बाहर आता है । जो गुण कारण में होते हैं वे ही कार्य में पाये जाते हैं – कारणगुण – पूर्वकाः कार्ये गुणाः दृष्टा – इसके अनुसार जो गुण कारण में होते हैं वे ही उसके कार्य में आते हैं । जैसे जो गुण गेहूं में हैं वे ही उसके बने पदार्थों रोटी, दलिया, पूरी, कचौरी आदि में भी मिलते हैं । अन्य पदार्थों के मिलाने से उन पदार्थों के गुण-दोष भी उनमें आ जाते हैं । अण्डे सारे संसार में मुर्गियों के ही खाये जाते हैं । मुर्गी गन्दे से गन्दे पदार्थ को खा जाती है । जैसे सभी के थूक, खखार, मल-मूत्र और टट्टी आदि एवं कीड़े-मकौड़े, चीचड़ आदि खाती है । गन्दी, सड़ी नालियों के कीड़ों और दुर्गन्धयुक्त मलमूत्र वाले पदार्थों को मुर्गी बड़े चाव से खाती है । किसी भी गन्दगी को वह नहीं छोड़ती । भूमि को शुद्ध करने के लिये भगवान् ने सच्चे भंगी मुर्गी और सूअरों को बनाया है । लोग इनको तथा इनके अण्डे एवं बच्चे सब कुछ हजम कर जाते हैं । अण्डों में सारे विटामिन होने की दुहाई देते हैं । फिर जो वस्तु थूक, खखार, श्लेष्मा, नाक के मल और टट्टी आदि को मुर्गी खा जाती है उन सब में भी विटामिन होने चाहियें ! तो फिर इन मुर्गी के अण्डों को खाने की क्या आवश्यकता है ! विटामिन का भंडार तो थूक और टट्टी आदि ही हुये ! इन्हें क्यों घर से बाहर फेंकते हो ? अच्छा हो उन्हें ही खा लिया करो ! इन मुर्गी आदि तथा इनके अण्डे और गर्भों में बच्चों के प्राण तो बच जायेंगे और मांसाहारियों के विटामिन्ज की पूर्ति बिना हिंसा के, सस्ते में ही मुर्गी पाले बिना हो जायेगी । कितनी विडम्बना, प्रवञ्चना और बुद्धि का दिवालियापन है कि इतनी गन्दी वस्तु भी मनुष्य का भोजन वा भक्ष्य है तो फिर अभक्ष्य क्या है ? कहां हमारे पूर्वज ऋषि महर्षि, कहां हम उनकी सन्तान । भयंकर पतन और सर्वनाश आज हमारी दशा देखकर मुख फाड़े खड़ा है । मनु महाराज लिखते हैं – अभक्ष्याणि द्विजातीनाममेध्यप्रभवाणि च । अर्थात् उन्होंने मल, मूत्र आदि गन्दगी से उत्पन्न होने वाले सभी पदार्थों को अभक्ष्य ठहराया है । जिन खेतों में मनुष्य के मल-मूत्र की खाद पड़ती है उनमें उत्पन्न हुई शाक सब्जियां तथा अन्न भी नहीं खाना चाहिये । जिन पदार्थों (लहसुन, प्याज, शलगम आदि) से दुर्गन्ध आती है, वे कभी खाने योग्य नहीं होते ।

रही अण्डों की बात । मैं स्वयं सेवा-भाव से रोगियों की चिकित्सा करता हूँ । कुछ दिन पूर्व मेरे पास एक युवक आया जो मस्तिष्क का रोगी था । पागलपन के कारण उसकी सरकारी नौकरी छूट गई थी । उसके घर वाले उसे मेरे पास लाये । वे पाकिस्तान से आये पंजाबी भाई थे । मैंने देखकर कहा कि इस रोगी युवक ने बहुत गर्म पदार्थ अधिक मात्रा में खाये हैं, इसकी चिकित्सा बहुत कठिन है । पूछने पर उन्होंने बताया कि वह बहुत अण्डे खाता रहा है, इसी के कारण पागल हुआ । एक दिन एक और दूसरा इसी प्रकार का रोगी मेरे पास आया । बह भी अधिक अण्डे खाने से पागल हो गया था । इसी प्रकार एक भारत के वाममार्गी को पागलावस्था में मैंने कलकत्ता के हस्पताल में स्वयं देखा, जो बुरी तरह पागल था । कभी रोता था, कभी हंसता था । उसकी दुर्गति देखकर मुझे बड़ी दया आई पर मैं क्या कर सकता था ? जो व्यक्ति अपने वाममार्गी साहित्य द्वारा मद्य-मांस और व्यभिचार का प्रचार करता रहा, स्वयं को महाविद्वान् प्रकट करता हुआ लोगों को पागल बनाता रहा, उसे भगवान् ने अन्तिम समय में पागल बनाकर उसको तथा उस पर झूठा विश्वास करने वाले लोगों को शिक्षा देकर सावधान किया । देश विदेश में चिकित्सा करवाने पर तथा सहस्रों रुपया पानी की भांति व्यय करने पर भी वह तथाकथित विद्वान् एवं महापण्डित अच्छा न हो सका और उसी पागल अवस्था में ही मृत्यु का ग्रास बन गया । वह था मांस, शराब और व्यभिचार का खुला प्रचार करने वाला राहुल सांस्कृत्यायन । उसे ही क्या, अपितु सभी को अपने पाप पुण्य का फल भगवान् की व्यवस्थानुसार भोगना ही पड़ता है । बौद्ध भिक्षु होने पर पुनः गृहस्थी बनना, मांस शराब का सेवन करना, बुढ़ापे में तीसरा विवाह करना, ऐसे पाप थे जिनका फल करने वाले के अतिरिक्त कौन भोगता ? स्पष्ट है कि मांस भक्षण आदि का दुःखरूपी पल सभी मांसाहारियों को भोगना पड़ता है । अतः अण्डा मनुष्य का भोजन नहीं है ।

योरुप के कुछ विचारशील डाक्टर अब मानने लगे हैं कि अण्डे में एक भयंकर विष होता है जो सिर दर्द, बेचैनी पागलपन आदि भयंकर रोगों को उत्पन्न करता है । रूस के कुछ डाक्टर तो यह मानते हैं कि अण्डे, मांस के खाने से बुढापे में अनेक भयंकर रोग उत्पन्न हो जाते हैं और उनके कारण मृत्यु से पूर्व ही मांसाहारी लोग चल बसते हैं । उनकी रीढ़ की हड्डी कठोर होकर बुढ़ापा शीघ्र आ जाता है । मांसाहारी मनुष्य कुबड़ा हो जाता है । रीढ़ की हड्डी का कमान बन जाता है । आंखों के रोग मोतियाबिन्द आदि हो जाते हैं । यह मत डॉ. प्रो० मैचिनकॉफ आदि अनेक रूसी विद्वानों का है ।

जो लोग अण्डों में जीव नहीं मानते, उनके लिए एक परीक्षा लिखी है ।

(१) जिन अण्डों में जीव का जीवन होता है, उन्हें आप किसी जल से भरे पात्र में डाल दें । वे सब डूब जायेंगे तथा नीचे सतह में चले जायेंगे ।

(२) जिन अण्डों में कुछ मरने के लक्षण उत्पन्न होने लगेंगे तो वे अण्डे पानी की तह में नीचे खड़े हो जायेंगे ।

(३) जिस अण्डे में जीवन समाप्त हो जाता है वह अण्डा ऊपर की तह पर मृत शव के समान तैरता रहेगा, डूबेगा नहीं । अतः अण्डों में जीव नहीं है, यह मिथ्या भ्रम उपर्युक्त परीक्षणों से दूर हो जाता है । अण्डों में जीव स्वीकार ही करना पड़ेगा और इस नाते उनका प्रयोग भी एक प्रकार से अमानुषिक और घृणित कार्य है ।

निरामिषभोजी सिंह और सिंहनी

सन् १९३७ ई० के लगभग की घटना है कि एक साधु ने किसी शेर के बच्चे को पकड़कर उसका दूध आदि के द्वारा पालन-पोषण किया । वह बड़ा होने पर भी केवल दूध आदि का ही भोजन करता रहा । वह सिंह उस साधु के साथ सभी नगरों में खुला घूमता था । उसने कभी किसी जीव जन्तु को हानि नहीं पहुंचाई । वह साधु उस सिंह को साथ लिये हुये दिल्ली में भी आया था । पालतू कुत्ते के समान वह शेर उस साधु के पीछे घूमता था । अनेक वर्षों तक यह प्रदर्शन उस साधु ने भारत के अनेक बड़े बड़े नगरों में घूमकर दिया और सिद्ध कर दिया कि मांसाहारी हिंसक शेर भी दुग्धाहारी और अहिंसक बन सकता है ।

इसी प्रकार महर्षि रमण ने भी एक सिंह को अहिंसक और अपना भक्त बना लिया था । वे योगी थे, शुद्ध सात्त्विक भोजन (आहार) करते थे । उनका भोजन रोटी, फल, शाक, सब्जी, दूध इत्यादि था । वे मांस, मछली, अण्डे आदि के भक्षण के सर्वथा विरोधी थे । शुद्ध सात्त्विक आहार पर बड़ा बल देते थे । उनका मत था कि स्वस्थ और समृद्ध शरीर में ही स्वस्थ मन तथा दृढ़ आत्मा का निवास होता है । वे कहा करते थे – Vegetables are the best food which contain all that is necessary for maintaining the body.

शाकाहारी भोजन में वे सब शक्तियां विद्यमान हैं जो शरीर को पुष्ट और शक्तिशाली बनाने के लिये आवश्यक हैं । महर्षि रमण अपने देशी, विदेशी सभी शिष्यों को सात्त्विक निरामिष भोजन का आदेश देते थे तथा वैसा ही अभ्यास कराते थे । उन्होंने अपने शिष्य Mr. Evans Wentz आदि सब को निरामिषभोजी बना दिया था ।

अहिंसक सिंह

महर्षि रमण का आश्रम जंगल में था, जहां शेर, चीते तथा हिंसक पशु रहते थे । एक दिन महर्षि जी भ्रमणार्थ गये तो उन्हें किसी दुःखी सिंह के करहाने की आवाज सुनाई दी । वे धीरे-धीरे उस ओर चले तो क्या देखते हैं कि एक सिंह के पैर में आर-पार एक कांटा निकल गया है । शेर का पैर पक गया था और उस पर पर्याप्त सूजन आ गया था । वह कई दिन से भूखा-प्यासा, चलने में असमर्थ तथा पीड़ा से व्याकुल, विवश पड़ा हुआ था । महषि जी धीरे से उसके निकट गये । शनैः-शनैः उसके कांटे को निकाला, जख्म को साफ करके जड़ी बूटियों का रस उसमें डाला और पट्टी बांध दी । इस प्रकार पांच दिन मरहम पट्टी करने से वह सिंह स्वस्थ हो गया और महर्षि के आश्रम तक चलकर उनके पीछे आया और उनके पैर चाटकर चला आया । वह शेर इसी प्रकार सप्ताह दस दिन में आता था और महर्षि के पैर चाटकर चला जाता था । वह किसी आश्रमवासी को कुछ नहीं कहता था ।

योगदर्शन के सूत्र अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः के अनुसार योगी के अहिंसा में प्रतिष्ठित होने पर शेर आदि हिंसक पशु भी योगी के प्रभाव से हिंसा छोड़ देते हैं । यही अवस्था महर्षि रमण के संसर्ग में इस शेर की हुई ।

दुग्धाहारी अमेरिकन सिंहनी

अमेरिका के एक चिड़ियाघर में एक सुन्दर सिंहनी थी । वह शेरनी वहां से ऊब गई थी और अपने बच्चे का पालन पोषण भी नहीं करती थी । चिड़ियाघर वाले उसके बच्चों को जीवित रखना चाहते थे । वहां जॉर्ज नामक एक व्यक्ति था, जो जानवरों से बड़ा प्रेम करता था । उसने जंगल में घोड़े, खच्चर, मोर, बिल्ली, मुर्गे, बत्तख और मृग आदि बहुत पाल रखे थे । शेरनी का प्रसव का समय था । चिड़ियाघर वालों ने जॉर्ज को बुलाया । शेरनी के प्रसव होने पर उसका बच्चा पिंजरे में बंद करके उसे सौंप दिया । बच्चे की आंखें बन्द तथा एक टांग टूटी हुई थी । उससे वह सिंह शावक बड़ा दुःखी था । उसे जॉर्ज ले आया । उसने उसका इलाज किया । उसे भोजन के रूप में वह गोदुग्ध देता रहा । टांग अच्छी हो गई । शेरनी का बच्चा नर नहीं, मादा था । जब इसका जन्म हुआ, उस समय इसका भार तीन पौंड था जो एक मनुष्य के बच्चे से भी बहुत थोड़ा था । किन्तु जब यह दस सप्ताह की आयु का हो गया तो उसका भार ६५ पौंड हो गया । अब तक जॉर्ज इसको गाय का दूध ही दे रहा था । अब उसने सोचा कि इसे ठोस भोजन दिया जाये । उसने इसे मांस खिलाने का विचार किया क्योंकि शेर प्रायः जंगल में मांस का ही आहार करते हैं । शेर के बच्चे के आगे मांस परोसा गया, किन्तु उसने इसको नहीं खाया । इसकी दुर्गन्ध से शेर का बच्चा रोगी हो गया । फिर जॉर्ज ने एक चाल चली । उसने मांस से तैयार किये हुये अर्क के १०, १५ और ५ बूंदें दूध में क्रमशः डाल कर जब जब उसे पिलाना चाहा, तब तब उस शेरनी के बच्चे ने दूध भी नहीं पीया । अब वे विवश हो गये । उन्होंने मांस के शोरबे की एक बूंद उसकी बोतल में रखी । किन्तु उसे भी उसने नहीं छुआ । कितनी ही बार वह भूखा रहा किन्तु उसने माँस अथवा माँस से बने किसी भी पदार्थ को नहीं खाया । वे उसे बूचड़ की दुकान पर ले गये कि वह अपनी इच्छानुसार किसी मांस को चुनकर खा लेगी । किन्तु वह शेरनी किसी प्रकार का भी मांस नहीं खाना चाहती थी । मांस, खून की दुर्गन्ध भी उसे व्याकुल कर देती थी । वह शेरनी सारे संसार में प्रसिद्ध हो गई क्योंकि वह निरामिषभोजी शाकाहारी शेरनी थी । वह अपने साथी अन्य जीवों बिल्ली, मुर्गी, भेड़, बत्तख आदि सबसे प्रेम करती थी । भेड़ के बच्चे उसकी पीठ पर निर्भयता से बैठे रहते थे । उसने कभी किसी को कोई पीड़ा नहीं दी । उसे गाड़ियों में घूमना, गाना सुनना बड़ा अच्छा लगता था । वह गायों, घोड़ों के साथ घूमती थी । उसमें बड़ी होने पर ३५२ पौंड भार हो गया था । उसके चित्र अमेरिका के सभी प्रसिद्ध समाचारपत्रों के प्रथम पृष्ठ पर छपते थे । अन्य देशों के पत्रों में भी उसके चित्र छपे । बच्चे उसकी पीठ पर सवारी करते थे । सिनेमा में भी उसके चित्रपट बना कर दिखाये गये । वह शेरनी ज्यों ज्यों बड़ी होती गई, त्यों त्यों अधिक विश्वासपात्र, सभ्य और सुशील होती चली गई । वह दूध और अन्न की बनी वस्तुओं को ही खाती थी । वह १० फीट ८ इंच लम्बी हो गई थी । वह चिड़ियाघर में सदैव खुली घूमती थी । किस प्रकार मांसाहारी शेर शेरनी हिंसक पशु शाकाहारी निरामिषभोजी अहिंसक हो सकते हैं, उपर्युक्त सच्चे उदाहरण इसके जीते जागते प्रतीक हैं । फिर मांस खाने वाले मनुष्य अस्वाभाविक भोजन मांस का परित्याग नहीं कर सकते ? अवश्य ही कर सकते हैं । थोड़ा सा गम्भीरता से विचार करें, मांसाहार की हानियां समझकर दृढ़ संकल्प करने मात्र की आवश्यकता ही तो है । संसार में असम्भव कुछ भी नहीं । केवल मनुष्य की अपनी दृढ़ शक्ति चाहिये और उसके क्रियान्वयन के लिये आत्मबल । फिर बड़े से बड़ा कार्य सुगम हो जाता है । मांसाहार छोड़ने जैसे तुच्छ से साहस की तो बात ही क्या ?

मांसाहार ही रोगोत्पत्ति का कारण

food and disease

मांसाहार ही रोगोत्पत्ति का कारण

लेखक – स्वामी ओमानंदजी सरस्वती 

मांस में यूरिक एसिड नाम का एक विष सबसे अधिक मात्रा में होता है, इसको सभी डाक्टर मानते हैं । मांसाहारी का शरीर उस अधिक विष को भीतर से बाहर निकालने में असमर्थ होता है, इसलिये मनुष्य के शरीर में वह विष (यूरिक एसिड) इकट्ठा होता रहता है । क्योंकि शाकाहारी मनुष्यों की अपेक्षा वह यूरिक एसिड मांसाहारी के शरीर में तीन गुणा अधिक उत्पन्न होता है । यह इकट्ठा हुआ विष अनेक प्रकार के भयंकर रोगों को उत्पन्न करने वाला बनता है ।

मानचैस्टर के मैडिकल कालिज के प्रोफेसर हॉल ने अनुभव करके निम्नलिखित तालिका भिन्न-भिन्न पदार्थों में यूरिक एसिड के विषय में बनाई है ।

नाना प्रकार के मांस एक पौंड मास में यूरिक एसिड की मात्रा
मछली का मांस ८.१५ ग्रेन
बकरी वा भेड़ का मांस ०.७५ ग्रेन
बछड़े का मांस ८.१४ ग्रेन
सूवर का मांस ८.४८ ग्रेन
गोमांस (कबाब) १४.४५ ग्रेन
जिगर के मांस में १९.२६ ग्रेन
मीठी रोटी ७०.४३ ग्रेन

 

शाक आदि तथा अन्न में यूरिक एसिड

गेहूं की रोटी में बिल्कुल नहीं
बन्द गोभी बिल्कुल नहीं
फूल गोभी बिल्कुल नहीं
चावल बिल्कुल नहीं
दूध, दही, मक्खन, तक्र बिल्कुल नहीं
आलू, ०.१४ ग्रेन
मटर २.५४ ग्रेन

 

यह तो सत्य है कि यह यूरिक ऐसिड नाम का विष कुछ सीमा तक तो मनुष्य के शरीर से बाहर निकाला जा सकता है किन्तु दिन-रात में अर्थात् २४ घंटे में १० ग्रेन यूरिक ऐसिड से अधिक मात्रा मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट हो जाये तो वह सारी नहीं निकलती और रक्त के प्रवाह (दौरे) के साथ मिलकर शारीरिक पट्ठों (माँसपेशियों) में इकट्ठी हो जाती है । यूरिक ऐसिड के इकट्ठा होने से इस विष से रक्त (खून) अशुद्ध (गन्द) हो जाता है और खुजली, फोड़े, फुन्सी आदि अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं ।

यूरिक ऐसिड की अधिकता से पाचनशक्ति निर्बल हो जाती है, मलबद्धता (कब्ज) रहने लगती है । ऐसी अवस्था में यह विष अधिक हो जाने से दुर्बलता बढ़ती जाती है । इस दुर्बलता के कारण हुक्का, शराब आदि के सेवनार्थ प्रवृत्ति बढ़ती है और नशों के व्यसनों में फंसने से सर्वनाश ही हो जाता है । सभी नशे रोगों का तो घर ही हैं । नशे करने वाले शराब आदि में बहुत व्यय करते हैं, जिसकी पूर्ति के लिये समाज में रिश्वत, जूआ, चोरी, ठगी, भ्रष्टाचार आदि का सहारा लेते हैं । जो मांस खाता है, वह शराब पीता है तथा जो शराब पीता है वह मांस खाता है । इनका परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है, इसके लिए मुस्लिम बादशाहों का इतिहास सन्मुख है । इस्लाम में शराब हराम (सर्वथा वर्जित) है । किन्तु भारतीय मुगल बादशाहों में बाबर से लेकर अन्तिम बादशाह बहादुरशाह तक देख लें शायद ही कोई शराब से बचा होगा, क्योंकि वे मांसाहारी थे । मांस से शराब पीने की प्रवृत्ति बढ़ती है तथा दोनों से व्यभिचार फैलता है । इसी कारण मुगल बादशाहों के रणिवास (जनानखाने) में बेगमों, लौंडियों तथा दासियों की सेना (फौज की फौज) तथा भेड़ों के समान भारी रेवड़ रहता था । इससे यही सिद्ध होता है कि मांस और शराब सब पापों की जड़ है ।

मांस को पचाने के लिये भी शराब तक अनेक उत्तेजक पदार्थों, मसालों का सेवन करना पड़ता है । उसको स्वादिष्ट बनाने के लिये तथा उसकी सड़ांद (बदबू) को दबाने के लिये भी गर्म मसाले, सुगन्धित पदार्थ डाले जाते हैं जो अनेक रोगों की उत्पत्ति के कारण हैं । मांस बासी तथा सड़ा हुआ होता है, इसी कारण उसमें दुर्गन्ध होती है और दुर्गन्धयुक्त पदार्थ खाने के योग्य नहीं होता, वह अभक्ष्य है । जहां मांस पकाया जाता है वहां भयंकर दुर्गन्ध दूर तक फैल जाती है जो सर्वथा असह्य होती है । मांस खाने वालों के मुख से भी बहुत बुरी दुर्गन्ध आती रहती है ।

यहां तक कि उनके शरीर, पसीने और वस्त्रों से भी दुर्गन्ध आती रहती है जिसको सहन करना बहुत ही कठिन होता है । और दुर्गन्ध वाले सभी पदार्थ रोगों को उत्पन्न करते हैं, वे सर्वथा अभक्ष्य होते हैं । अच्छे भोजन की पहचान यही है कि उसे अग्नि में डालकर देखें । यदि उसमें सुगन्ध आये तो वह भक्ष्य और दुर्गन्ध आये तो वह सर्वथा अभक्ष्य है । आर्यों की यह भक्ष्याभक्ष्य भोजन के निर्णय की सर्वोत्तम प्राचीन पद्धति है । इसलिये जो भोजन आर्यों की पाकशाला में बनता था, उसकी पहले अग्नि में आहुतियां देकर परीक्षा की जाती थी । यही पंचमहायज्ञों में बलिवैश्वदेव यज्ञ का एक भाग है, जो प्रत्येक गृहस्थ को अनिवार्य रूप से करना पड़ता था । कोई भी दुर्गन्धयुक्त अग्नि पर पकाया जाये, वा पका हुवा अग्नि में डाला जाए तो उसकी दुर्गन्ध दूर तक फैलती और असह्य होती है । इसी प्रकार लाल मिर्च, तम्बाकू आदि पदार्थों को अग्नि पर डालने से पड़ौसियों तक को बड़ा कष्ट होता है, सबका जीना दूभर हो जाता है । इससे यही सिद्ध होता है कि मांसादि दुर्गन्धयुक्त तथा मिर्च, तम्बाकू आदि तीक्ष्ण तथा नशीले पदार्थ अभक्ष्य हैं, हेय हैं । इनका प्रयोग कभी नहीं करना चाहिये । मांस यदि रख दिया जाये तो वह बहुत शीघ्र सड़ने लगता है, उसमें असह्य दुर्गन्ध पैदा हो जाती है और यह दुर्गन्ध उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है । जो मांस पकाया जाता है वह शरीर के अन्दर जाकर और अधिक सड़कर अधिक दुर्गन्ध उत्पन्न करता है । इसी कारण मांसाहारियों के वस्त्र, मुख, शरीर, पसीना सभी में दुगन्ध आती है । जिन मोटरों, रेलगाड़ी के डब्बों में मांसाहारी यात्रा करते हैं, वहां निरामिषभोजी वयक्ति को यात्रा करना वा ठहरना बहुत ही कठिन होता है । जिस स्थान वा मकान में मांसाहारी रहते हैं, वहां भी दुर्गन्ध का कोई ठिकाना नहीं होता । मांस की दुकानों, होटलों में इसीलिये बड़ी दुर्गन्ध आती है और जहां मछली बिकती है वहां किसी भले मानस का ठहरना या जाना ही असम्भव सा हो जाता है । बहुत दूर से ही असह्य दुर्गन्ध आनी प्रारम्भ हो जाती है । इससे यही प्रत्यक्ष सिद्ध होता है कि मांस में भयंकर दुर्गन्ध होती है । अतः वह कभी भी तथा किसी को भी नहीं खाना चाहिए क्योंकि दुर्गन्ध रोगों का घर है ।

पशुओं का मांस जो खाया जाता है वह प्रायः रोगी, निर्बल, कम मूल्य वाले तथा अनुपयोगी पशुवों का होता है । क्योंकि जब तक पशु नाना प्रकार के कार्यों में हितकर, सहायक, उपयोगी होते हैं तब तक उनका मूल्य अधिक होता है, वे मांस के लिये नहीं बेचे जाते, उनकी हत्या नहीं होती । जब ऐसे पशु दुर्बल, रोगी और बूढ़े हो जाते हैं तथा कार्य के योग्य नहीं रहते, निकम्मे हो जाते हैं, तब कसाइयों के पास बेचे जाते हैं । क्योंकि उनका उपयोग न होने से उनका मूल्य थोड़ा होता है और उधर मांस की बहुत बड़ी मांग को पूर्ण करने के लिए विवश होते हैं और इसी में उनको आर्थिक लाभ भी रहता है । मूल्यवान, उपयोगी पशुवों की हत्या करने में आर्थिक लाभ की अपेक्षा हानि होती है, अतः रोगी पशु ही अधिक मारे जाते हैं । और ऐसे पशुओं को अला-बला रद्दी पदार्थ खिलाकर कसाई लोग मांस बढ़ाने के लिए मोटा करते हैं । उन्हें तो मांस की मांग की पूर्ति करनी होती है । इसलिये उपर्युक्त प्रकार के पशुओं के मांस में डाक्टरों के मतानुसार रोगों के कीटाणु होते हैं जो आंखों से प्रत्यक्ष दिखायी नहीं देते और वे बढ़ते जाते हैं और मांस को और अधिक गन्दा, गला, सड़ा हुआ बना देते हैं और पकाने से भी उसका प्रभाव दूर नहीं होता । जैसे बासी रोटी वा गले सड़े फलों एवं सब्जियों को हम चाहे कितना ही पकायें, उनको स्वास्थ्यप्रद नहीं बना सकते । सड़े हुये मांसादि में जो दुर्गन्ध उत्पन्न हो जाती है, वह इसकी साक्षी देती है कि इसमें विष है, यह खाने योग्य नहीं है । विषाक्त भोजन रोगों का मूल है, वह स्वास्थ्यप्रद कैसे हो सकता है ?

जिन पशुओं का मांस खाया जाता है, स्वयं उनमें भी क्षय, मृगी हैजा आदि अनेक रोग होते हैं, जिनके कारण मांसाहारी मनुष्य भी उन रोगों में फंस जाते हैं । अतः मांसाहार स्वास्थ्य का नाश करता तथा अनेक रोगों को उत्पन्न करता है ।

मांस का भोजन मनुष्य की जठराग्नि को निर्बल करके पाचनशक्ति बिगाड़ देता है । मुख में जो थूक वा लार होती है उसमें जो खारीपन (तेजाब) होता है, मांस का भोजन उस प्रभाव को बदल देता है । फिर मुख का रस जो भोजन के साथ मिलकर पाचन-क्रिया में सहायक होता है, उस में न्यूनता आ जाती है और भोजन ठीक न पचने के कारण मलबद्धता (कब्ज) हो जाती है । मल नहीं निकलता वा थोड़ा निकलता है, इसी कारण मांसाहारी प्रायः कब्ज के रोगी होते हैं ।

उनकी जीभ पर बहुत मल जमा रहता है । उनके दांत शीघ्र ही खराब हो जाते हैं । ९९ प्रतिशत मांसाहारियों के दांत युवावस्था में ही बिगड़ जाते हैं । उनको प्रायः सभी को पायोरिया रोग हो जाता है । अमेरिका आदि देशों में प्रायः अधिकतर लोगों के दांत बनावटी देखने में आते हैं । उनको अपने प्राकृतिक दांत उपर्युक्त रोगों के कारण निकलवाने पड़ते हैं । मांसाहारियों के पेशाब में तेजाब अधिक होता है । उनकी नब्ज बहुत शीघ्र-शीघ्र चलती है । वे हृदय के रोगों से ग्रस्त रहते हैं । प्रायः मांसाहारी लोग हृदय की गति के रुकने से अकाल मृत्यु के मुख में चले जाते हैं । मांसाहार में जो यूरिक एसिड का विष होता है वह बहुत अधिक मात्रा में शरीर के अन्दर जाता है, वही अधिकतर उपर्युक्त रोगों का कारण है ।

मांसाहारी लोगों को मस्तिष्क सम्बन्धी रोग अधिक होते हैं जैसे मृगी, पागलपन, अन्धापन, बहरापन इत्यादि । क्योंकि मांस तमोगुणी भोजन है । सात्त्विक आहार मस्तिष्क को बल देता है । मानसिक शक्तियों की दृष्टि से मांसाहारी स्वयं यह अनुभव करते हैं कि मांस का भोजन छोड़ देने से उनके मस्तिष्क बहुत शुद्ध होकर बुद्धि कुशाग्र हो जाती है ।

मृगी के रोगी, पागल, अन्धे तथा बहरे लोग मांसाहारी लोगों में (जैसे मुसलमान) अधिक संख्या में देखने में आते हैं । गोदुग्ध, गाय का मक्खन आदि सात्त्विक आहार अधिक देने से मृगी, पागलपन के रोगी अच्छे हो जाते हैं ।

न्यूयार्क में एक अनाथालय के प्रिंसीपल ने १३० बच्चों को वनस्पति आहार अर्थात् शाक, फल आदि पर ही रक्खा था । इससे बच्चों की मानसिक शक्तियों में इतना विशेष अन्तर आ गया कि उनकी किसी विषय को झटपट समझ लेने, किसी बात की तह तक पहुंचने और मस्तिष्क की शक्ति दिन प्रतिदिन अधिक होती चली गई जिससे वह प्रिंसीपल स्वयं बहुत विस्मित हुआ । यह भी प्रसिद्ध है कि यूनान के बहुत बड़े दार्शनिक विद्वान (फिलास्फर) मांस नहीं खाते थे, अतः वहां अरस्तू, लुकमान, सुकरात और अफलातून जैसे अनेक जगत् प्रसिद्ध विद्वान् हुये हैं ।

भारत के ऋषि महर्षि विद्वान् ब्राह्मण सभी उच्च कोटि के दार्शनिक विद्वान् हुये हैं जिनके चरणों में सारे संसार के लोग चरित्र आदि की शिक्षा ग्रहण करने के लिये आते थे । मनु जी महाराज लिखते हैं –

एतद्‍देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥

भारतवर्ष विद्या का भंडार था । हजारों वर्ष की दासता के कारण इसका बड़ा भारी पतन हुआ, किन्तु फिर भी गिरी हुई अवस्था में भी आध्यात्मिक दृष्टि से आज भी संसार का शिरोमणि है । इसका मुख्य कारण यहां का निरामिष सात्विक आहार है । सर आईजक न्यूटन ने सारी आयु (८३ वर्ष तक) मांस नहीं खाया । योरुप के लोगों को पृथिवी की आकर्षण-शक्ति का ज्ञान उन्हीं ने कराया । वे उच्चकोटि के विद्वान् थे । इस युग के आदर्श सुधारक, पूर्णयोगी, पूर्ण ज्ञानी महर्षि दयानन्द जी महाराज हुये हैं । वे सर्वथा निरामिषभोजी थे । गोकरुणानिधि आदि ग्रन्थों में उन्होंने इस मांस भक्षण रूपी महापाप की बहुत निन्दा की है । वे सर्वप्रथम ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अंग्रेजी राज्य में गोहत्या के विरुद्ध आवाज उठाई और उसे बन्द करने के लिये जनता के लाखों हस्ताक्षर करवाये किन्तु देश का दुर्भाग्य था उस समय भारत का वह कलंक धुल नहीं सका, जो आज तक भारतमाता के मुख को काला किये हुए है ।

मांसाहार रुधिर को गन्दा करता है । अतः मांसाहारी के रुधिर के भीतर रोगों से संघर्ष (मुकाबला) करने की शक्ति क्षीण (नष्ट) हो जाती है । अतः मांसाहारी पर रोग का बार-बार आक्रमण होता है । यह अनुभव-सिद्ध है कि यदि किसी का कोई अंग कट जाये अथवा काटा जाये तो मांसाहारी की तुलना में शाकाहारी बहुत शीघ्र अच्छा होता है । यह सत्यता भारतीय सेना के अस्पतालों में खूब हो चुकी है ।

रोगों का घर मांसाहार

हमारे भारतीय ऋषियों ने भोजन के विषय में बहुत की खोज तथा छानबीन की थी । इसीलिये घोर तमोगुणी भोजन सब रोगों का घर होता है । दुर्गन्धयुक्त सड़े हुए मांस से रोग ही उत्पन्न होंगे । मनुष्य का भोजन न होने से यह देर से पचता है, जठराग्नि पर व्यर्थ का भार डालता है । किस पदार्थ के पचने में कितना समय लगता है, इस की निम्न तालिका अनुभवी डाक्टरों ने दी है –

 

मांस पचने का समय
बकरे का मांस ३ घण्टे में
शोरबा ३ घण्टे में
मुर्गी का मांस ४ घण्टे में
मछली ४ घण्टे में
सूवर का मांस ५ घण्टे में
गोमांस ५ घण्टे में

अन्न, फल, दूध आदि के पचने का समय इस प्रकार है –

 

रोटी ३ घण्टे
आलू भुना हुआ २ घण्टे
जौ पका हुआ २ घण्टे
दूध धारोष्ण वा गर्म २ घण्टे
सेब पका हुआ १ घण्टा
चावल उबला हुआ १ घण्टा
मीठी रोटी ७०.४३ ग्रेन

इसलिये जौ, चावल, दूध के सात्त्विक भोजन को हमारे पूर्व-पुरुष अधिक महत्त्वपूर्ण समझकर खाते थे । वैसे सभी अन्न जो अपने प्रकृति के अनुकूल हों, मनुष्य को खाने चाहियें । यथार्थ में अन्न, फल, शाक, सब्जी, दूध, घी आदि पदार्थों पर ही मनुष्य का जीवन है । इन्हें बिना पकाये भी खाया-पीया जा सकता है । विज्ञान यह बतलाता है कि पकाने तथा ऊपर के नमक-मिर्च आदि डालने से पदार्थ की शक्ति न्यून हो जाती है । जो पदार्थ जिस रूप में प्रकृति से मिलता है, वह उसी रूप में खाया जाने से अधिक शक्ति प्रदान करता है तथा शीघ्र पचता है, किन्तु मांस बिना पकाये नहीं खाया जा सकता । इसीलिये सिंह, भेड़िया, कुत्ते और बिल्ली आदि को ही मांसभक्षी कहा जा सकता है जो अपने आप अपने शिकार को मारकर ताजा मांस खाते हैं । मनुष्य मांसाहारी नहीं, न इसे कोई मांसाहारी कहता है क्योंकि हम देखते हैं कि बिल्ली का बच्चा बिना सिखाये चूहे के ऊपर टूट पड़ता है । इसी प्रकार सिंह का शावक (बच्चा) भी अपने शिकार पर चढ़ाई करता है । किन्तु मानव का बच्चा फल उठाकर

भले ही मुख में देने का यत्न करता है किन्तु वह मांसाहारी जीवों के समान मांस के टुकड़े, रक्त, मच्छी, चूहा, कीट, पतंग किसी पदार्थ को उठाकर खाने की चेष्टा नहीं करता ।

यह सब सिद्ध करता है कि मांस मनुष्य का भोजन नहीं । मूक और असहाय जीव जन्तुओं पर निर्दय होना मनुष्य के लिये सर्वाधिक कलंक की बात है । सभ्य और शिक्षित मनुष्य में तो क्रूरता नहीं होनी चाहिए, उसके स्थान पर सौम्यता, सुशीलता एवं दयाभाव होना चाहिये ।

मुसलमानों की एक धार्मिक पुस्तक अबुलफजल के तीसरे दफतर में लिखा है कि अज्ञानी पुरुष अपने मन की मूढ़ता में ग्रसित हुआ अपने छुटकारे का मार्ग नहीं ढ़ूंढ़ता । ईश्वर उसके सृजनहार ने मनुष्य के लिये अनेक पदार्थ उत्पन्न कर दिये हैं । उन पर सन्तुष्ट न रहकर उसने अपने अन्तःकरण (पेट) को पशुओं का कब्रिस्तान बनाया है और अपना पेट भरने के लिये कितने ही जीवों को परलोक पहुंचाया है । यदि ईश्वर मेरा शरीर इतना बड़ा बनाता कि ये मांसभक्षण की हानि न समझने वाले सब लोग मेरे ही मांस को खाकर तृप्त हो सकते और किसी अन्य जीव को न मारते तो तेरा बड़ा कृतार्थ होता ।

इलमतिबइलाज की पुस्तक मखजन-उल अदविया में मांस के विषय में इस प्रकार व्यवस्था दी है –

रात्रि में मांस खाने से तुखमा जो हैजे से कुछ न्यून होता है, हो जाता है और खिलतै जो वात, पित्त और कफ कहलाते हैं उनमें दोष आ जाता है । मन काला अर्थात् मलिन हो जाता है । आंखों में धुंधलापन उत्पन्न हो जाता है । जहन कुन्द (बुद्धिमान्द्य) हो जाता है ।

क्योंकि कच्चे मांस पर भिनभिनाती हुई मक्खियां और सड़ने की दुर्गन्ध देखकर किसका मुख उसका स्वाद लेना चाहेगा ? जो वस्तु नेत्रों को भी अप्रिय है, अच्छी नहीं लगती, उसे जिह्वा कब स्वीकार कर सकती है ?

डाक्टर मिचलेट साहब अपनी एक भोजन की पुस्तक में लिखते हैं –

जीवन-मृत्यु और नित्य की हत्यायें जो केवल क्षणिक जीभ के स्वाद के लिये हम नित्य करते हैं तथा अन्य तामसिक और कठोर समस्यायें हमारे सन्मुख उपस्थित हैं । हाय, यह कैसी हृदयविदारक और उल्टी चाल है ? क्या हमें किसी ऐसे लोक की आशा करनी चाहिये, जहां पर ये क्षुद्र और भयंकर अत्याचार न हों ?

अमेरिका के प्रसिद्ध विद्वान् शिटडेन Ph.D, D.Sc, L.L.D ने एक प्रयोग किया । उन्होंने छः मस्तिष्क से कार्य करने वाले बुद्धिजीवी प्रोफेसर और डाक्टर तथा २० शारीरिक श्रम करने वालों को, जो सेना से छांटे गये थे, और एक यूनिवर्सिटी से आठ पहलवानों को लिया । उन सब पर भोजन संबन्धी प्रयोग किया गया । यह प्रयोग अक्तूबर १९०३ से आरम्भ हुआ और जून १९०४ तक चलता रहा । इसमें उन्हें थोड़ा प्राण-पोषक तत्त्व दिया जाता था, जिससे उनमें आरोग्यता और शक्ति बनी रहे । इस प्रयोग से पूर्व डाक्टरों का मत था कि प्रत्येक मनुष्य के लिये केवल १२० ग्राम (२ छटांक) प्राणपोषक तत्त्व की आवश्यकता है । जितना वह अधिक मिले, उतना अच्छा है । वे भूल करते हैं । प्रो० शिटडेन ने यह सिद्ध कर दिया कि २० सिपाहियों के लिये ५० ग्राम प्राणपोषक तत्त्व पर्याप्त था और आठ पहलवानों के लिये ५५ ग्राम बहुत होता था । प्रोफेसर महोदय ने स्वयं

३६ ग्राम अपने लिये प्रयोग किया, फिर भी उनकी शक्ति बढ़ती गई । प्रयोग में जो सिपाही लिये गये थे, उनकी खुराक पहले ७५ ओंस (२ सेर) थी जिसमें उन्हें २२ ओंस कसाई के यहां से मांस मिलता था । प्रयोग में मांस बिल्कुल बंद करके इनकी खुराक केवल ५१ ओंस कर दी गई । नौ मास वे उस भोजन पर रहे । यद्यपि वे लोग पहले भी आरोग्य स्वस्थ थे, तथापि नौ मांस तक बिना मांस का भोजन किये वे बहुत अधिक बलवान्, शक्तिशाली और अच्छी अवस्था में पाये गये । इस प्रयोग में डाइनमोमीटर से ज्ञात हुआ कि उनकी शक्ति पहले से डेढ़ गुणी हो गई थी और उन्हें कार्य में विशेष उत्साह रहता था । इस प्रयोग के पश्चात् कहने पर भी उन्होंने मांस नहीं खाया । सदैव के लिये मांस खाना छोड़ दिया ।

स्वर्गीय दादाभाई नौरोजी से उनकी ८६वीं वर्षगांठ के दिन एक पत्र प्रतिनिधि ने पूछा कि आप की आरोग्यता का क्या कारण है ? तो उन्होंने उत्तर दिया – मैं न मांस खाता हूं, न शराब पीता हूं, न मसाले खाता हूं । मैं सदा शुद्ध वायु सेवन करता हूं । यही मेरे स्वस्थ रहने के कारण हैं ।

अमेरिका के डाक्टर जानहार्न का मत है कि मांस बड़ी देर से पचता है । इसके पचने के समय कलेजे की धड़कन दो सौ के लगभग बढ़ जाती है, जिससे हृदयरोग हो जाता है और मेदा कमजोर हो जाता है । इसी कारण मांसाहारी लोग हृदय के रोगों के कारण ही अधिक संख्या में मरते हैं । हृदय के कमजोर होने से मांसाहारी भीरू वा कायर हो जाते हैं ।

“इंडियन मैडिकल जनरल” नामल पत्र में लिखा है कि मांस भक्षकों के मूत्र में तिगुणी यूरिक एसिड अधिक बढ़ जाती है । इसी प्रकार यूरिया भी दूनी मात्रा में आने लगती है । ये दोनों पदार्थ विष हैं । उनके गुर्दों कोअधिक कार्य करना पड़ता है, जिससे गठिया, वातरोग, अस्थि रोग और बलोदर रोग उत्पन्न होते हैं ।

डाक्टर अलैक्जेण्डर मार्सडन M.D. F.R.C.S. चेयरमैन आफ कैंसर हस्पताल, लंदन, लिखते हैं – इंग्लैंड में कैंसर के रोगी दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं । प्रतिवर्ष ३०,००० (तीस सहस्र) मनुष्य कैंसर के रोग से मरते हैं । मांसाहार जितनी तेजी से बढ़ रहा है, उससे भय है कि भविष्य की सन्तानों में से ढ़ाई करोड़ लोग इसकी भेंट होंगे । जिन देशों में मांस अधिक खाया जाता है, वहां के लोग रोगी अधिक होते हैं, उनकी कमाई का अधिकतर धन डाक्टरों के पास जाता है और डाक्टरों की फौज इसी कारण बढ़ती जा रही है ।

निम्नलिखित तालिका से इस पर प्रकाश पड़ता है –

देश एक मनुष्य पर एक वर्ष में एक मास का व्यय दस लाख मनुष्यों में डाक्टरों की संख्या
जर्मनी ६४ ओंस ३५५
फ्रांस ७७ ओंस ३८०
इंग्लैंड वा वेल्स ११८ ओंस ५७८
आस्ट्रेलिया २७६ ओंस ७८०

यह बहुत पहले की सूची है । अब तो डाक्टर इससे भी दुगुणे हो गये होंगे । हम भारत में देखते हैं कि शहरों और कस्बों में बाजार के बाजार डाक्टरों, वैद्य और हकीमों से भरे पड़े हैं ।

डाक्टरों ने खोज करके बताया है, निमोनियां, लकवा, रिडेरपेस्ट, शीतला, चेचक, कंठमाला, क्ष्य (तपेदिक) और अदीठ आदि विषैला फोड़ा इत्यादि भयंकर और प्राणनाशक रोग प्रायः गाय, बकरी और जलजन्तुओं का मांस खाने से होते हैं । सूवर के मांस में एक प्रकार के छोटे कीड़े कद्दूदाने होते हैं, उनके पेट में जाने से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं । बकरी के मांस में ट्रिक्नास्पिक्टस कीड़ा रहता है, जिससे भयंकर रोग ट्रिक्नोसेस हो जाता है । पठनी मछली के खाने से कुष्ठ रोग होता है । अतः समुद्र के तट पर रहने वाले अथवा मछली का मांस अधिक मात्रा में खाने वाले लोग अधिकतर कुष्ट रोग से पीड़ित देखे जाते हैं । मांस को देखकर यह कोई नहीं जानता कि यह रोगी पशु का मांस है वा स्वस्थ का । कसाई बूचड़ लोग पैसा कमाने के लिये रोगी पशुओं को काटते हैं क्योंकि उअका मांस ही सस्ता पड़ता है । रोगी पशुओं का मांस खाकर कोई स्वस्थ कैसे होगा, जबकि स्वस्थ पशुओं का मांस भी भयंकर रोग उत्पन्न करता है ।

इस विषय में कुछ अन्य डाक्टरों का अनुभव लिखता हूं –

“मेरा पच्चीस वर्ष से मछली और पक्षियों के मांसत्याग का अनुभव है । मेरे पिता की आयु इससे २० वर्ष बढ़ गई थी । मांस की अपेक्षा फल बहुत ही अधिक लाभ करते हैं ।” – डाक्टर वाल्टर हाडविन M.D.

“एक रोगी की गर्दन पर चार वर्ष से कैंसर थी । मुझे खोज करने पर उसके मांसाहारी होने का पता चला । उससे मांस छुड़ा दिया गया, अब वह स्वस्थ है ।” – डा० J.H.K. Lobb

“मांसाहार शक्ति प्रदान करने के बदले निर्बलता का शिकार बनाता और उससे नाइट्रोजिन्स पदार्थ उत्पन्न होता है । वह स्नायु पर विष का कार्य करता है ।”

– डा० सर टी. लोडर ब्रण्टन“मांसाहार की बढ़ती के साथ-साथ नासूर के दर्द की असाधारण वृद्धि होती है ।” – डा० विलियम राबर्ट

“नासूर के दर्द का होना मांसाहार का परिणाम है ।” – डा० सर जेम्स सीयर M.D. F.R.C.P.

“८५% गले की आंतों के दर्द का कारण मांसाहार है ।” – डा० ली ओनार्ड विलियम्स

“डेढ़ सौ वर्ष पहले से दांत और पायोरिया के रोगी अधिक बढ़ गये हैं । इसका कारण मांसाहार है ।” – डा० मिस्टर आर्थर अन्डरबुड

“१०५००० विद्यार्थियों में से ८९२५ विद्यार्थी दांत के रोगों के रोगी पाये गये, ये सब मांस के कारण है ।” – डा० मिस्टर थोमस जे० रोगन

इस युग के महापुरुष महर्षि दयानन्द जी शाकाहारी होकर ही महाशक्तिशाली बने थे । उन्होंने मांस भक्षण करने का कभी जीवन भर विचार भी नहीं किया । उनके बलशक्ति सम्बंधी अनेक घटनायें प्रसिद्ध हैं । जैसे जालन्धर में एक बार उन्होंने दो घोड़ों की बग्घी को एक हाथ से रोक दिया था, घोड़ों के पूरा बल लगाने पर भी बग्घी टस से मस नहीं हुई थी । एक बार एक रहट को हाथ से खैंचकर एक बड़े हौज को भर दिया था, उससे भी उनका व्यायाम पूरा नहीं हुआ । उसकी पूर्ति के लिये उनको आगे जाकर दौड़ लगानी पड़ी । महर्षि कई-कई कोस की दौड़ प्रतिदिन करते थे ।

एक बार उन्होंने कश्मीरी पहलवानों की उपस्थिति में अपने व्याख्यान में घोषणा की थी कि मेरी पचास वर्ष से अधिक आयु है, आप में ऐसा कौन शक्तिशाली पुरुष है जो मेरे इस खड़े हुए हाथ को झुका दे । इस पर किसी भी पहलवान में उठने का साहस नहीं हुआ ।

एक बार कुछ पहलवानों ने महर्षि जी का शक्तिपरीक्षण करना चाहा । महर्षि उनके विचार को भाँप गए । उस समय ऋषिवर स्नान करके आ रहे थे, उनके पास गीली कौपीन थी । उन्होंने कहा कि इसमें से एक बूंद जल निकाल दीजिये । किन्तु कोई भी पहलवान एक बूंद भी जल नहीं निकाल सका । तदन्तर महर्षि ने स्वयं उस कौपीन को एक हाथ से निचोड़ कर जल निकाल कर दिखा दिया ।

इस प्रकार उनकी शक्ति के अनेक उदाहरण हैं, जिन से सिद्ध है कि घी, दूध आदि सात्विक पदार्थों से ही बल बढ़ता है । महर्षि जी का भोजन सर्वथा विशुद्ध और सात्विक था । उन्होंने कभी मांस भक्षण का समर्थन नहीं किया, किन्तु सदा घोर विरोध ही करते रहे । उनके ग्रन्थों में मांस निषेध की अनेक स्थलों पर चर्चा है ।

जब ऋषिवर ने भारत भूमि पर जन्म लिया, उस समय इस देश की अवस्था बहुत शोचनीय थी । उसका वर्णन एक कवि ने इस प्रकार किया है –

छाया घोर अन्धकार मिथ्या पन्थन को,

शुद्ध बुद्ध ईश्वरीय ज्ञान बिसराया था ॥

वैदिक सभ्यता को अस्त व्यस्त करने के काज,

पश्चिमी कुसभ्यता ने रंग बिठलाया था ॥

गौ विधवा अनाथ त्राहि त्राहि करते थे,

धर्म और कर्म चौके चूल्हे में समाया था ॥

रक्षक नहीं कोई, भक्षक बने थे सभी,

ऐसे घोर संकट में दयानन्द आया था ॥

उपर्युक्त भयंकर समय में महर्षि दयानन्द ने क्रान्ति का बिगुल बजाया । उल्टी गंगा बहाकर दिखाई । यह अदम्य साहस, वीरता, बल, शक्ति ऋषिवर दयानन्द में कहां से आई ? वे ब्रह्मचारी थे । वीर्यं वै बलम् वीर्यवान् थे । इसीलिये, सुदृढ़, सुन्दर, सुगठित, सुडौल, स्वस्थ शरीर के स्वामी थे । उनकी ऊंचाई छः फीट नौ इञ्च थी । चलते समय भूमि भी कम्पायमान होती थी । सारे शरीर में कान्ति, तेज और विचित्र छवि थी । वे शुद्ध, सात्विक आहार और घोर तपस्या के कारण अखण्ड ब्रह्मचारी रहे । मांसाहारी कभी ब्रह्मचारी नहीं रह सकता । मांस खाने वाले के लिये ब्रह्मचर्यपालन वा वीर्यरक्षा असम्भव है । शुद्ध भोजन के बिना शुद्ध विचार नहीं हो सकते । शुद्ध विचार ही ब्रह्मचर्य का मुख्य साधन है । मांसाहारी देशों में ब्रह्मचारी के दर्शन दुर्लभ ही नहीं असम्भव हैं । व्यभिचार अनाचार के घर कहीं देखने हों तो मांसाहारी देश हैं । कुमार कुमारियों की अनुचित सन्तानों की वहां भरमार है । मांसाहारी देश सभी पापों की खान हैं । यह वहां होने वाले पापों के आंकड़े सिद्ध करते हैं । अप्राकृतिक मैथुन मांसाहारी जातियों तथा व्यक्तियों में ही विशेष रूप से पाया जाता है ।

आदि सृष्टि से भारत देश शुद्ध शाकाहारी सात्त्विक भोजन प्रधान रहा है । इसीलिये यह ऋषियों, देवताओं और ब्रह्मचारियों का देश माना जाता है । इस देश में –

अष्टाशीतिसहस्राणि ऋषीणामूर्ध्वरेतसां बभूवुः (महाभाष्य ४.१।७९)

इस देश में ८८ (अट्ठासी) हजार ऊर्ध्वरेता अखण्ड ब्रह्मचारी ऋषि

हुये हैं । ब्रह्मचारियों की परम्परा महाभारत युद्ध के कारण टूट गई थी । उसके पांच हजार वर्ष पश्चात् आदर्श अखण्ड ब्रह्मचारी महर्षि, देव दयानन्द ने उस टूटी हुई परम्परा को पुनः जोड़ दिया और उन्हीं की प्रेरणा से ब्रह्मचर्य के क्रियात्मक प्रचारार्थ अनेक गुरुकुलों की स्थापना हुई । ब्रह्मचर्यपूर्वक आर्षशिक्षा की गुरुकुल प्रणाली का पुनः प्रचलन ब्रह्मचारी दयानन्द की कृपा से पुनः सारे भारतवर्ष में हो गया जहां पर ब्रह्मचारी लोग सर्वथा और सर्वदा शुद्ध, सात्विक और निरामिष आहार करते हैं और यत्र तत्र सर्वत्र पुनः ब्रह्मचारियों के दर्शन होने लगे हैं ।

शुद्ध शाकाहारी ब्रह्मचारियों ने आज तक क्या क्या किया, उस पर चन्द्र कवि के इस भजन ने प्रकाश डाला है, जिसे आर्योपदेशक स्वामी नित्यानन्द जी आदि सभी सदा झूम झूमकर गाते हैं ।

भजन

ब्रह्मचर्य नष्ट कर डाला, हो गया देश मतवाला ॥टेक॥

ब्रह्मचारी हनुमान् वीर ने कितना बल दिखलाया था,

ब्रह्मचर्य के प्रताप से लंका को जाय जलाया था,

रावण के दल से अंगद का पैर टला नहीं टाला ॥१॥

शक्ति खाय उठे लक्ष्मण जी कैसा युद्ध मचाया था,

मेघनाद से शूरवीर को क्षण में मार गिराया था,

रामायण को पढ़ कर देखो, है इतिहास निराला ॥२॥

परशुराम के भी कुठार का जग मशहूर फिसाना था,

बाल ब्रह्मचारी भीष्म को जाने सभी जमाना था,

जग कांपे था उसके भय से, कभी पड़ न जाये कहीं पाला ॥३॥

डेढ़ अरब के मुकाबले में इकला वीर दहाड़ा था,

जो कोई उनके सन्मुख आया, पल में उसे पछाड़ा था,

जिसका शोर मचा दुनियां में ऋषि दयानन्द आला ॥४॥

चालीस मन के पत्थर को धर छाती पर तुड़वाता था,

लोहे की जंजीरों को वह टुकड़े तोड़ बगाता था,

राममूर्ति दो मोटर रोके है प्रत्यक्ष हवाला ॥५॥

ब्रह्मचर्य को धारो लोगो, यह चीज अनूठी है,

मुर्दे से जिन्दा करने की यह संजीवनी बूटी है,

चन्द्र कहे इस कमजोरी को दे दो देश निकाला ॥६॥

इस भजन में भारत के निरामिषभोजी ब्रह्मचारियों के उपक्रमों का वर्णन किया है ।

इसी प्रकार अन्य देशों के निवासी जो मांस नहीं खाते, वे मांसाहारियों से बलवान् और वीर होते हैं ।

लाल समुद्र तथा नहर स्वेज के तट पर रहने वाले भी मांस नहीं छूते, वे बड़े परिश्रमी और बली होते हैं । काबुल के पठान मेवा अधिक खाते हैं, इसी से वे पुष्ट और बलवान् होते हैं । इन उपर्युक्त बातों से सिद्ध होता है कि मांसाहारी लोगों की अपेक्षा शाकाहारी निरामिषभोजी अधिक परिश्रमी, अनथक और बलवान् होते हैं ।

मांसाहारी क्रोधी और भयानक अत्याचारी हो जाते हैं । पैशाचिक और निर्दयता की भावना उनमें घर कर जाती है तथा स्थिर हो जाती है । पर वे बलवान् नहीं होते । उनकी आत्मा कमजोर हो जाती है । शेर अरने (जंगली) भैंसे से मुकाबला नहीं कर सकता । अनेक शेरों के बीच में जंगली

भैंसा जल पी जाता है, वह उनसे नहीं डरता, किन्तु शेर जंगली भैंसे से डर कर दूर रहने का यत्न करते हैं । जितना भार (बोझ) एक बैल वा घोड़ा खींच ले जा सकता है, उतना भार दस शेर मिलकर भी नहीं खींच सकते । मथुरा के चौबों के मुकाबले पर कोई मांसाहारी नहीं आ सकता ।

भारत के प्रसिद्ध बली प्रो० राममूर्ति ने योरुप के पहलवानों को दाल चावल घी-दूध के बल पर विजय कर डाला था ।

भारत के पहलवान जो मांस खाते हैं, वे भी घी, दूध, बादामों का अधिक सेवन करते हैं । उनमें बल घी, दूध के कारण होता है । सारी दुनियां को जीतने वाला पहलवान गामा भी इसी प्रकार का था, वह रुस्तमे-जहां कहलाया । किन्तु भारतीय पहलवान भगवानदास जो नराणा बसी (दिल्ली राज्य) का रहने वाला था, के साथ गामा पहलवान की कुश्ती हुई, वे दोनों बराबर रहे । विश्वविजयी गामा पहलवान भगवानदास को नहीं जीत नहीं सका ।

मैंने भगवानदास पहलवान के अनेक बार दर्शन किये । वह सर्वथा निरामिषभोजी एवं शाकाहारी था । वह बहुत सुन्दर, स्वस्थ, सुदृढ़, सुडौल शरीर वाला छः फुटा बलिष्ठ पहलवान था । उसने पत्थर की चूना पीसने वाली चक्की में बैलों के स्थान पर स्वयं जुड़कर चूना पीसकर पक्की हवेली (मकान) बनाई थी, उनकी यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है । वह सारी आयु ब्रह्मचारी रहा तथा बहुत ही सदाचारी एवं सरल प्रकृति का पहलवान था । उसकी जोड़ के पहलवान भारत में दो-चार ही थे ।

भगवानदास पहलवान महाराजा कोल्हापुर के पहलवान थे, जैसे कि गामा महाराजा पटियाले के पहलवान थे । एक बार भगवानदास पहलवान हैदराबाद के पहलवान के साथ, जो कि मीर उस्मान अली नवाब का अपना निजी पहलवान था, कुश्ती लड़ने हैदराबाद गये । नवाब का पहलवान अली नाम से प्रसिद्ध था, जो गामा की जोड़ का ही था । नवाब की आज्ञा से कुश्ती की तिथि नियत हो गई और दो मास की तैयारी का समय दिया गया । पहलवान भगवानदास हिन्दूगोसाईं के बाग में रहता था, वहीं पर गोसाईं ने घी-दूध का प्रबन्ध कर दिया था, किन्तु जोर करने के लिये कोई जोड़ का पहलवान इन्हें वहां नहीं मिला, विवशता थी । इन्होंने गोसाईं जी से कहकर लोहे का झाम के समान एक बड़ा फावड़ा (कस्सी) तैयार करवाया । व्यायाम के पश्चात् बाग में उस कस्सी से तीन-चार बीघे भूमि खोद डालना यही प्रतिदिन का पहलवान भगवानदास का जोर था । दो मास बीत गये । दोनों पहलवान मैदान में आये । नवाब की देखरेख में कुश्ती आरम्भ हुई । पहले भारत में तोड़ की अर्थात् पूर्ण हार-जीत की कुश्ती होती थी । जब तक चित्त करके सारी पीठ और कमर भूमि पर न लगा दे और छाती आकाश को न दिखा दे, तब तक जीत नहीं मानी जाती थी, न ही कुश्ती बीच में छूटती थी । दो अढ़ाई घण्टे पहलवानों की जंगली भैंसों के समान कुश्ती हुई । बड़े पहलवान थे, बराबर की जोड़ी थी, हार-जीत सहज में नहीं होनी थी । अन्त में अली पहलवान जो प्रतिदिन दो बकरों का शोरबा खा जाता था, थकने लगा और अन्त में थककर, बेहोश होकर भूमि पर गिर पड़ा । पहलवान भगवानदास की जय हुई । वह सर्वथा शाकाहारी निरामिषभोजी था । मांसाहारियों पर यह शाकाहारियों की विजय थी ।

एक परीक्षण इस विषय में अंग्रेजों ने अपने राज्यकाल में बबीना छावनी में निरामिषभोजी पहलवानों पर किया था । उन्होंने ६० पहलवान शाकाहारी निरामिषभोजी और ६० मांसाहारी छांटे । तोल के अनुसार इनकी जोड़ मिलाई और एक दो मास की तैयारी का समय दे दिया । जब कुश्ती की निश्चित तिथि आ गई तो पहलवानों का दंगल हुआ । उन ६० जोड़ों में ५९ कुश्तियां शाकाहारी निरामिषभोजी पहलवान जीत गए तथा ६०वीं कुश्ती में वह जोड़ बराबर रही । ये जीतने वाले सभी पहलवान प्रायः हरयाणे के थे । इसने प्रत्यक्ष रूप से सिद्ध कर दिया कि निरामिषभोजी घी, दूध, अन्न, फल खाने वाले ही बलवान्, वीर और बहादुर होते हैं ।

अब वर्त्तमान समय की बात लीजिये । जो सबके सम्मुख है, वह हैं भारत केसरी हरयाणे के प्रसिद्ध, होनहार पहलवान मास्टर चन्दगीराम के विषय में । उसका विवरण संक्षेप में पढ़ें ।

भारत में हरयाणा प्रान्त अन्य प्रान्तों की अपेक्षा कुछ विशिष्टतायें रखता है । यहाँ के वीर निवासी इतिहास प्रसिद्ध वीर यौधेयों की सन्तान हैं । यौधेयों के पूर्वजों में मनु, पुरूरवा, ययाति, उशीनर और नृग आदि बड़े-बड़े राजा हुये हैं । इसी वंश में यौधेयों के चचा शिवि औशीनर के सुवीर, केकय और मद्रक – इन तीन पुत्रों से तीन गणराज्यों की स्थापना हुई । इसी प्रकार इनके चचेरे भाई सुव्रत के पुत्र अम्बष्ठ ने एक गणराज्य की स्थापना की । यदुवंश भी, जिसमें योगिराज श्रीकृष्ण एवं बलवान् बलराम हुये हैं, एक गण हैं तथा कौरव, पांडव भी पुरुवंशी हैं और यौधेय अनुवंशी हैं । पुरु, अनु और यदु तीनों सगे भाई चक्रवर्ती राजा ययाति की सन्तान हैं । वैसे तो सभी भारतवासी ऋषियों की सन्तान हैं । ऋषि, महर्षि सभी निरामिष, शुद्ध सात्त्विक आहार-विहार करने वाले थे । यौधेय उन्हीं ऋषियों की सन्तान हैं । वैवस्त मनु के वंश में उत्पन्न होने से यौधेयों का ऊंचा स्थान है । सप्तद्वीपों का स्वामी चक्रवर्ती सम्राट् महामना यौधेयों का प्रपितामह (परदादा) था ।

यौधेयों का भोजन सदा से गोदुग्ध, दही, घृत, फल अन्नादि सात्त्विक तथा पवित्र रहा है । वे अपने वंश चलाने वाले मनु जी महाराज की सब वेद विहित आज्ञाओं को मानते थे । वेदानुसार बनाये गये वैदिक विधान ग्रन्थ मनुस्मृति में लिखे अनुसार चलने में वे अपना तथा सारे विश्व का कल्याण समझते थे । वे मनुस्मृति के इस श्लोक को कैसे भूल सकते थे –

स्वमांसं परमांसेन यो वर्द्धयितुमिच्छति ।

अनभ्यचर्य पितृन् देवान् ततोऽन्यो नास्त्यपुण्यकृत् ॥

(मनु० ५।५२)

जो व्यक्ति केवल दूसरों के मांस से अपना मांस बढ़ाना चाहता है, उस जैसा कोई पापी है ही नहीं ।

इन्हीं विशिष्टताओं के कारण यौधेय वंश सहस्रों वर्षों तक भारतीय इतिहास में सूर्यवत् प्रकाशमान् रहा है । इस विषय में मेरी लिखी पुस्तक हरयाणे के वीर यौधेय में विस्तार से लिखा है । शतियां बीत गईं, अनेक राज्य इस आर्यभूमि की रंगस्थली पर अपना खेल खेलकर चले गये, किन्तु यौधेयों की सन्तान हरयाणा निवासियों में आज भी कुछ विशेषतायें शेष हैं । आहार-विहार में सरलता, सात्त्विकता इनमें कूट-कूट कर भरी है । अर्थात् अन्य प्रान्तों की अपेक्षा इनका आचार, विचार, आहार, व्यवहार शुद्ध सात्त्विक है । ये आदि सृष्टि से आज तक परम्परा से सर्वथा शाकाहारी निरामिषभोजी हैं । मांस को खाना तो दूर रहा, कभी इन्होंने छुवा भी नहीं ।

देशों में देश हरयाणा । जहाँ दूध दही का खाना ।

इनकी यह लोकोक्ति जगत्प्रसिद्ध है । जैन कवि सोमदेव सूरि ने भी अपने पुस्तक यशस्तिलकम् चम्पू में यौधेयों की खूब प्रशंसा की है ।

स यौधेय इति ख्यातो देशः क्षेत्रोऽस्ति भारते ।

देवश्रीस्पर्धया स्वर्गः स्रष्ट्रा सृष्ट इवापरः ॥४२॥

भारतदेश में प्रसिद्ध यह यौधेय देश अत्यधिक मनोहर होने के कारण ऐसा प्रतीत होता था मानो ब्रह्मा ने अथवा परमात्मा स्रष्टा ने दिव्य श्री से ईर्ष्या करके दूसरे स्वर्ग की रचना कर डाली है ।  महर्षि व्यास ने भी विवश होकर यौधेयों की राजधानी रोहतक के विषय में इसी प्रकार लिखा है –

ततो बहुधनं रम्यं गवाढ्यं धनधान्यवत् ।

कार्तिकेयस्य दयितं रोहितकमुपाद्रवत् ॥

नकुल ने बहुत धनधान्य से सम्पन्न, गौवों की बहुलता से युक्त तथा कार्तिकेय के अत्यन्त प्रिय रमणीय नगर रोहितक पर आक्रमण किया । हरयाणा के शूरवीर मस्त क्षत्रिय यौधेयों से उसका घोर संग्राम हुआ । यौधेयानां जयमन्त्रधराणाम् – जिन यौधेयों को सभी जयमन्त्रधर कहते थे, जो कभी किसी से पराजित नहीं होते थे, उन विजयी यौधेयों की प्रशंसा उनके शत्रुओं ने भी की है । इन्हीं से भयभीत होकर सिकन्दर की सेना ने व्यास नदी को पार नहीं किया । अपने पूर्वज यौधेयों के गुण आज इनकी सन्तान हरयाणावासियों में बहुत अधिक विद्यमान हैं । जैसे अल्हड़पन से युक्त वीरता और भोलेपन से मिश्रित उद्दण्डता आज भी इनके भीतर विद्यमान है । इन्हें प्रेम से वश में करना जितना सरल है, आंखें दिखाकर दबाना उतना ही कठिन है । अपने पूर्वज यौधेयों के समान युद्ध करना (लड़ना) इनका मुख्य कार्य है । यदि लड़ने को शत्रु न मिले तो परस्पर भी लड़ाई कर बैठते हैं, लड़ाई के अभ्यास को कभी नहीं छोड़ते ।

पाकिस्तान और चीन के युद्ध में इनकी वीरता की गाथा जगत्प्रसिद्ध है जिसकी चर्चा मैं पहले भी कर चुका हूँ । इन्हीं यौधेयों की सन्तान आर्य पहलवान श्री मास्टर चन्दगीराम जी भारत के सभी पहलवानों को हराकर दो बार भारत केसरी और दो बार हिन्द केसरी उपाधि प्राप्त कर चुके हैं । इसी प्रकार हरयाणे के रामधन आर्य पहलवान हरयाणे के पहलवानों को हराकर हरयाणा-केसरी उपाधि प्राप्त कर चुके हैं । ये दोनों पहलवान न मांस, न अण्डे, मच्छी आदि अभक्ष्य पदार्थों को छूते और न ही तम्बाकू, शराब आदि का ही सेवन करते हैं । आचार व्यवहार में शुद्ध सात्त्विक हैं । सर्वथा और जन्म से ही शुद्ध निरामिषभोजी (शाकाहारी) हैं ।

श्री मास्टर चन्दगीराम जी सब पहलवानों को हराकर दो बार (सन् १९६२ और १९६८ ई०) हिन्दकेसरी विजेता बने और दो बार (सन् १९६८ और १९६९ ई०) भारतकेसरी विजेता बने । इन्होंने बड़े बड़े भारी भरकम प्रसिद्ध मांसाहारी पहलवानों को पछाड़कर दर्शकों को आश्चर्य में डाल दिया । जैसे मेहरदीन पहलवान मांसाहारी है । दोनों बार भारतकेसरी की अन्तिम कुश्ती इसी के साथ मा० चन्दगीराम की हुई है और दोनों बार मा० चन्दगीराम शाकाहारी पहलवान जीता तथा मांसाहारी मेहरदीन हार गया । एक प्रकार से यह शाकाहारियों की मांसाहारियों से जीत थी । प्रथम बार जिस समय मेहरदीन के मुकाबले पर मा० चन्दगीराम जी अखाड़े में कुश्ती के लिये निकले तो उनके आगे बालक से लगते थे । किसी को भी यह आशा नहीं थी कि वे जीत जायेंगे ।

क्योंकि चन्दगीराम की अपेक्षा मेहरदीन में १६० पौंड भार अधिक है । ३५ मिनट तक घोर संघर्ष हुवा । इसमें मेहरदीन इतना थक गया कि अखाड़े में बेहोश होकर गिर पड़ा, स्वयं उठ भी नहीं सका, आर्य पहलवान रूपचन्द आदि ने उसे सहारा देकर उठाया । यदि मेहरदीन में मांस खाने का दोष नहीं होता तो चन्दगीराम उसे कभी भी नहीं हरा सकता था । मांसाहारी पहलवानों में यह दोष होता है कि वे पहले ५ वा १० मिनट खूब उछल कूद करते हैं, फिर १० मिनट के पीछे हांफने लगते हैं । उनका दम फूल जाता है और श्वास चढ़ जाते हैं । फिर उनको हराना वामहस्त का कार्य है । गोश्तखोर में दम नहीं होता, वह शाकाहारी पहलवान के आगे अधिक देर तक नहीं टिक सकता । इसी कारण सभी मांसाहारी पहलवान थककर पिट जाते हैं, मार खाते हैं । इसी मांसाहार का फल मेहरदीन को भोगना पड़ा । यह १९६८ में हुई कुश्ती की कहानी है । इस बार १९६९ ई० में दिल्ली में पुनः भारत केसरी दंगल हुवा और फिर अन्तिम कुश्ती मा० चन्दगीराम और मेहरदीन की हुई । यह कुश्ती मैंने प्रोफेसर शेरसिंह की प्रेरणा पर स्वयं देखी । मैं काशी जा रहा था । मेरे पास समय नहीं था, चलता हुआ कुछ देख चलूं, यह विचार कर वहां पहुँच गया । उस दिन बड़ी भारी भीड़ थी । कुश्ती देखने के लिए दिल्ली की जनता इस प्रकार उमड़ पड़ेगी, मुझे यह स्वप्न में भी ध्यान नहीं आ सकता था । वैसे यह दंगल २८ अप्रैल से चल रहा था । इस भारत केसरी दंगल में क्रमशः सुरजीतसिंह, भगवानसिंह, सुखवन्तसिंह तथा रुस्तमे अमृतसर बन्तासिंह को १० मिनट के भीतर अखाड़े से बाहर करने वाला हरयाणा का सिंहपुरुष अखाड़े में उतरा । उधर जिससे टक्कर हुई थी, वह उपविजेता मेहरदीन सम्मुख आया । दोनों में टक्कर होनी थी । बड़े-बड़े पहलवान कुश्ती जीतकर पुनः उसी प्रतियोगिता में भाग नहीं लेते । क्योंकि पुनः हार जाने पर सारे यश और कीर्ति के धूल में मिलने का भय रहता है । किन्तु कौन चतुर व्यक्ति हरयाणे के इस नरकेसरी की प्रशंसा किये बिना रह सकता है ? जो अपनी शक्ति और बल पर आत्मविश्वास करके पुनः भारतकेसरी के दंगल में कूद पड़ा और अपने द्वारा हराये हुये मेहरदीन से पुनः टकराने के लिये अखाड़े में उतर आया । इधर मा० चन्दगीराम को अपने भुजबल पर पूर्ण विश्वास था । उसने गतवर्ष इसी आधार पर समाचार पत्रों में एक बयान दिया था –

“भीमकाय मेहरदीन पर दाव कसना खतरे से खाली नहीं था । भारतकेसरी की उपाधि मैंने भले ही जीत ली, पर मेहरदीन के बल का मैं आज भी लोहा मानता हूँ । पर इतना स्पष्ट कर दूं कि अब वह मुझे अखाड़े में चित्त नहीं कर पायेगा । मैंने उसकी नस पकड़ ली है और अब मैं निडर होकर उससे कुश्ती लड़ सकता हूं और इन्हीं शब्दों के साथ मैं मेहरदीन को चुनौती देता हूं कि वह जब भी चाहे, जहां उसकी इच्छा हो, मुझ से फिर कुश्ती लड़ सकता है ।”

“मेरी जीत का रहस्य कोई छिपा नहीं, मैं शक्ति (स्टेमिना) और धैर्य के बल्पर ही अपने से अधिक शक्तिशाली और भारत के रुस्तमे-हिन्द मेहरदीन को पछाड़ने में सफल रहा ।”

“मुझे पूरा विश्वास था कि यदि दस मिनट तक मैं मेहरदीन के आक्रमण को विफल करने में सफल हो सका तो उसे निश्चय ही हरा दूंगा । आपने ही क्या, दुनियां ने देखा कि आरम्भ के १०-१२ मिनट तक मैं मेहरदीन पर कोई दाव लगाने का साहस नहीं कर सका । १३वें मिनट में मेहरदीन ने ज्यों ही पटे निकालने का यत्न किया, त्यों ही मैंने उसकी कलाई पकड़कर झटक दी । वह औंधे मुंह अखाड़े पर गिरता-गिरता बचा और दर्शकों ने दाद देकर (प्रशंसा करके) मेरे साहस को दूना कर दिया । कई बार जनेऊ के बल पर मैंने नीचे पड़े मेहरदीन को चित्त करने का यत्न किया । यदि आपने ध्यान किया हो तो मैं निरन्तर अपने चेहरे से मेहरदीन की स्टीलनुमा (फौलादी) गर्दन को रगड़ता रहा था ।”

“मैं हरयाणे के एक साधारण किसान परिवार का जाट हूं । स्वर्गीय चाचा सदाराम अपने समय के एक नामी (प्रसिद्ध) पहलवान थे । मरते समय उन्होंने मेरे पिता श्री माड़ूराम से कहा था – इसे दो मन घी दे दो, यही पहलवानी में वंश का नाम उज्ज्वल कर देगा ।”

“मैं किसी प्रकार से इण्टर पास कर आर्ट एण्ड क्राफ्ट में प्रशिक्षण ले मुढ़ाल गांव के सरकारी स्कूल में खेलों का इन्चार्ज मास्टर लग गया । मैं बचपन से उदास रहता था । प्रायः यही सोचा करता था कि संसार में निर्बल मनुष्य का जीवन व्यर्थ है ।”

उपर्युक्त कथन से यह प्रकट होता है कि अपने चचा की प्रेरणा से ये पहलवान बने । पहलवानी इनके घर में परम्परा से चली आती थी । वैसे तो तीस-चालीस वर्ष पूर्व हरयाणे के सभी युवक-युवती कुश्ती का अभ्यास करते थे । उसी प्रकार के संस्कार मास्टर जी के थे, अपने पुरुषार्थ से वे इतने बड़े निर्भीक नामी पहलवान बन गये । इस प्रकार एक वर्ष की पूर्ण तैयारी के बाद १९६९ में होने वाले दंगल में पुनः १२ मई के सायं समय भारत केसरी दंगल में मेहरदीन से आ भिड़े । आज भारत केसरी का निर्णायक दंगल था । इससे पूर्व इसी दिन हरयाणे के वीर युवक मुरारीलाल वर्मा “भारत कुमार” के उपाधि विजेता बने थे । यह भी पूर्णतया निरामिषभोजी विशुद्ध शाकाहारी हैं । यह भी सारे भारत के विद्यार्थी पहलवानों को जीतकर भारतकुमार बना था । अब विख्यात पहलवान दारासिंह की देखरेख में (निर्णायक के रूप में) भारत-केसरी उपाधि के लिये मल्ल्युद्ध प्रारम्भ हुआ । प्रारम्भ में ही मा० चन्दगीराम ने अपने फौलादी हाथों से मेहरदीन के हाथ को जकड़ लिया । मेहरदीन पहली पकड़ में ही घबरा गया । उसे अपने पराजय का आभास होने लगा । जैसे-तैसे टक्कर मारकर हाथ छुड़ाया किन्तु फिर दूसरी पकड़ में वह हरयाणे के इस शूरवीर के पंजे में फंस गया, वह सर्वथा निराश हो गया । विवश होकर केवल ७ मिनट ४५ सैकिण्ड में उससे छूट मांग ली अर्थात् बिना चित्त हुये उसने आगे लड़ने से निषेध कर दिया और अपनी पराजय स्वीकार कर भीगे चूहे के समान अखाड़े से बाहर हो गया । दर्शकों को भी ऐसा विश्वास नहीं था कि विशालकाय मेहरदीन हलके फुलके मा० चन्दगीराम से इतना घबरा कर बिना लड़े अपनी पराजय स्वीकार कर अखाड़ा छोड़ देगा । दर्शकों को तो भय था कि कभी चन्दगीराम हार न जाये । लोग उसकी जीत के लिये ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे । हार स्वीकार करने से पूर्व दारासिंह निर्णायक ने मेहरदीन को कुश्ती पूर्ण करने को कहा था, किन्तु वह तो शरीर, मन, आत्मा सबसे पराजित हो चुका था । उसके पराजय स्वीकार करने पर निर्णायक दारासिंह ने हजारों दर्शकों की उपस्थिति में मास्टर चन्दगीराम को विजेता घोषित कर दिया । फिर क्या था, तालियों की गड़गड़ाहट तथा मा० चन्दगीराम के जयघोषों से सारा क्रीडाक्षेत्र गूंज उठा । श्री विजयकुमार मल्होत्रा मुख्य कार्यकारी पार्षद ने दूसरी बार विजयी हुये मा० चन्दगीराम को भारतकेसरी के सम्मानजनक गुर्ज से अलंकृत किया । सारे भारत में इनके विजय की धूम मच गई । स्थान-स्थान पर स्वागत होने लगा । इनके अपने ग्राम सिसाय (जि० हिसार) में भी इनका बड़ा भारी स्वागत हुवा । उस स्वागत समारोह में मैं स्वयं भी गया और मा० चन्दगीराम को इनके दोबारा विजय पर स्वागत करते हुये बधाई दी । गत वर्ष प्रथम भारत केसरी विजय पर हरयाणे के आर्य महासम्मेलन पर सारे आर्यजगत् की ओर से भारतकेसरी मा० चन्दगीराम तथा हरयाणाकेसरी आर्य पहलवान रामधन – इन दोनों का रोहतक में स्वागत किया था ।

इस प्रकार मा० चन्दगीराम की देशव्यापी ख्याति, कुश्ती कला की जानकारी, लम्बा श्वास वा दम, उनकी हाथों की फौलादी पकड़ से देशवासियों के हृदयों में नवीन आशाओं का संचार होने लगा है । पुनः मल्ल्युद्ध (कुश्ती) के प्रति श्रद्धा और प्रेम उत्पन्न हो गया है ।

मा० चन्दगीराम का विजय उनका अपना विजय नहीं है, यह शाकाहारियों का मांसाहारियों पर विजय है । यह ब्रह्मचर्य का व्यभिचार पर विजय है क्योंकि मा० चन्दगीराम सात मास के पश्चात् अब अपने घर पर गया था, वह गृहस्थ होते हुये भी ब्रह्मचारी है । अगले दिन प्रातःकाल पुनः दिल्ली को चल दिया । इस श्रेष्ठ आर्ययुवक हरयाणे के नरपुंगव की जीत आबाल वृद्ध वनिता सभी अपनी जीत समझते हैं । मा० चन्दगीराम को यह सदाचार की प्रेरणा आर्यसमाज की शिक्षा महर्षि दयानन्द के पवित्र जीवन से ही मिली है । वे इसे अपने भाषणों में बार-बार स्वयं कहते रहते हैं । इससे बढ़कर और क्या उदाहरण हो सकता है जिस से यह सिद्ध होता है कि घी-दूध ही बल का भण्डार है । घृतं वै बलम् – घृत ही बल है, मांस नहीं । मांस से बल बढ़ता है, इस भ्रम को मा० चन्दगीराम ने सर्वथा दूर कर दिया है । एक बार हरयाणे के पहलवानों को एक मुस्लिम पहलवान कटड़े ने जो झज्जर का था, छुट्टी दे दी । फिर ब्रह्मचारी बदनसिंह आर्य पहलवान निस्तौली निवासी से इसकी कुश्ती झज्जर में ही हुई । उस कसाई पहलवान का शरीर बड़ा भारी भरकम था और ब्र० बदनसिंह चन्दगीराम के समान हलका फुलका था । उस कसाई पहलवान के पिता ने कहा इस बालक को मरवाने के लिये क्यों ले आये ? शुभराम भदानी वाले पहलवान को लाओ, उसकी और इसकी जोड़ है । किन्तु भदानियां शुभराम पहलवान कुश्ती लड़ना नहीं चाहता था । उसके पिता जी ही पहलवान बदनसिंह को कुश्ती के लिये निस्तौली से लाये थे । कुश्ती हुई । ब्र० बदनसिंह ने पहले तो बचाव किया । कसाई कट्टा पहलवान पहले तो खूब उछलता-कूदता रहा, फिर १५-२० मिनट के पीछे उसका दम फूलने लगा, जैसे कि मांसाहारियों का दम फूलता ही है । फिर क्या था, ब्र० बदनसिंह का उत्साह बढ़ने लगा और अन्त में भीमकाय कसाई पहलवान को चारों खाने चित्त मारा । ब्र० बदनसिंह को कसाई पहलवान के पिता ने स्वयं पगड़ी दी और छाती से लगाया ।

इस प्रकार की सैंकड़ों घटनायें और लिखी जा सकती हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि मांसाहारी बली वा शक्तिशाली नहीं होता, और न ही मांस से बल मिलता है । किन्तु घी दूध ही बल और शक्ति प्रदान करते हैं ।

मनुष्य का आहार क्या है

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मनुष्य का आहार क्या है ?

सत्त्व, रज और तम की साम्यावस्था का नाम प्रकृति है । भोजन की भी तीन श्रेणियां हैं । प्रत्येक व्यक्ति अपने रुचि वा प्रवृत्ति के अनुसार भोजन करता है । श्रीकृष्ण जी महाराज ने गीता में कहा है –

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः

सभी मनुष्य अपनी प्रवृत्ति के अनुसार तीन प्रकार के भोजन को प्रिय मानकर भक्षण करते हैं । अर्थात् सात्त्विक वृत्ति के लोग सात्त्विक भोजन को श्रेष्ठ समझते हैं । राजसिक वृत्ति वालों को रजोगुणी भोजन रुचिकर होता है । और तमोगुणी व्यक्ति तामस भोजन की ओर भागते हैं । किन्तु सर्वश्रेष्ठ भोजन सात्त्विक भोजन होता है ।

सात्त्विक भोजन

आयुः – सत्त्व – बलारोग्य – सुख – प्रीति – विवर्धनाः ।

रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥

आयु, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले रसीले, चिकने स्थिर, देर तक ठीक रहने वाले एवं हृदय के लिये हितकारी – ऐसा भोजन सात्त्विक जनों को प्रिय होता है । अर्थात् जिस भोजन के सेवन से आयु, बल, वीर्य, आरोग्य आदि की वृद्धि हो, जो सरस, चिकना, घृतादि से युक्त, चिरस्थायी और हृदय के लिये बल शक्ति देने वाला है, वह भोजन सात्त्विक है ।

सात्त्विक पदार्थ – गाय का दूध, घी, गेहूं, जौ, चावल, मूंग, मोठ, उत्तम फल, पत्तों के शाक, बथुवा आदि, काली तोरई, घीया (लौकी) आदि मधुर, शीतल, स्निग्ध सरस, शुद्ध पवित्र, शीघ्र पचने वाले तथा बल, ओज अवं कान्तिप्रद पदार्थ हैं वे सात्त्विक हैं । बुद्धिमान् व्यक्तियों का यही भोजन है ।

गोदुग्ध सर्वोत्तम भोजन है । वह बलदायक, आयुवर्द्धक, शीतल, कफ पित्त के विकारों को शान्त करता है । हृदय के लिये हितकारी है तथा रस और पाक में मधुर है । गोदुग्ध सात्त्विक भोजन के सभी गुणों से ओतप्रोत है ।

प्राकृतिक आहार दूध ही है । मनुष्य-जन्म के समय भगवान् ने मनुष्य के लिये माता के स्तनों में दूध का सुप्रबन्ध किया है । मनुष्य के शरीर और मस्तिष्क का यथोचित पालन पोषण करने के लिये पोषक तत्त्व जिन्हें आज का डाक्टर विटेमिन्स (vitamins) नाम देता है, सबसे अधिक और सर्वोत्कृष्ट रूप में दूध में ही पाये जाते हैं जो शरीर के प्रत्येक भाग अर्थात् रक्त, मांस और हड्डी को पृथक्-पृथक् शक्ति पहुंचाते हैं । मस्तिष्क अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार इस अन्तःकरण चतुष्टय को शुद्ध करके गोदुग्ध सब प्रकार का बल प्रदान करता है । इसमें ऐतिहासिक प्रमाण है –

महात्मा बुद्ध तप करते-करते सर्वथा कृशकाय हो गये थे । वे चलने फिरने में भी सर्वथा असमर्थ हो गये थे । उस समय अपने वन के इष्ट देवता की पूजार्थ गोदुग्ध से बनी खीर लेकर एक वैश्य देवी सुजाता नाम की वहां पहुंची जहां वट-वृक्ष के नीचे महात्मा बुद्ध निराश अवस्था में (मरणासन्न) बैठे थे । उस देवी ने उन्हें ही अपना देवता समझा और उसी की पूजार्थ वह खीर उसके चरणों में श्रृद्धापूर्वक उपस्थित कर दी । महात्मा बुद्ध बहुत भूखे थे, उन्होंने उस खीर को खा लिया । उससे उन्हें ज्योति मिली, दिव्य प्रकाश मिला । जिस तत्त्व की वे खोज में थे, उसके दर्शन हुए । निराशा आशा में बदल गई । शरीर और अन्तःकरण में विशेष उत्साह, स्फूर्ति हुई । यह उनके परम पद अथवा महात्मा पद की प्राप्ति की कथा वा गौरव गाथा है । सभी बौद्ध इतिहासकार ऐसा मानते हैं कि सुजाता की खीर ने ही महात्मा बुद्ध को दिव्य दर्शन कराये । वह खीर उस देवी ने बड़ी श्रद्धा से बनाई थी । उनके घर पर एक हजार दुधारू गायें थीं । उन सबका दूध निकलवाकर वह १०० गायों को पिला देती थी और उन १०० गायों का दूध निकलवाकर १० गौवों को पिला देती थी और दस गौवों का दूध निकालकर १ गाय को पिला देती थी ।

इस गाय के दूध से खीर बनाकर वन के देवता की पूजार्थ ले जाती । उसका यह कार्यक्रम प्रतिदिन चलता था । इस प्रकार से श्रद्धापूर्वक बनायी हुई वह खीर महात्मा बुद्ध के अन्तःकरण में ज्ञान की ज्योति जगाने वाली बनी ।

छान्दोग्य उपनिषद् में लिखा है –

आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः ।

स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः ॥

आहार के शुद्ध होने पर अन्तःकरण मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार शुद्ध हो जाते हैं । अन्तःकरण की शुद्धि होने पर स्मरणशक्ति दृढ़ और स्थिर हो जाती है । स्मृति के दृढ़ होने से हृदय की सब गांठें खुल जाती हैं । अर्थात् जन्म-मरण के सब बन्धन ढीले हो जाते हैं । अविद्या, अन्धकार मिटकर मनुष्य दासता की सब श्रृंखलाओं से छुटकारा पाता है और परमपद मोक्ष की प्राप्ति का अधिकारी बनता है । निष्कर्ष यह निकला कि शुद्धाहार से मनुष्य के लोक और परलोक दोनों बनते हैं । योगिराज श्रीकृष्ण जी ने भी गीता में इसकी इस प्रकार पुष्टि की है –

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥६-१७॥

यथायोग्य आहार-विहार करने वाले, यथोचित कर्म करनेवाले, उचित मात्रा में निद्रा (सोने और जागने) का यह योग दुःखनाशक होता है । शुद्ध आहार-विहार करने वाले मनुष्य के सब दुःख दूर हो जाते हैं ।

इसी के अनुसार महात्मा बुद्ध को सुजाता की खीर से ज्ञान का प्रकाश मिला । दूसरी ओर इससे सर्वथा विपरीत हुआ, अर्थात् महात्मा बुद्ध को उनके एक भक्त ने सूवर का मांस खिला दिया, यही उनकी मृत्यु का कारण बना । उनको भयंकर अतिसार (दस्त) हुये । कुशीनगर में उन्हें यह शरीर छोड़ना पड़ा । मांस तो रोगों का घर है और रोग मृत्यु के अनुचर सेवक हैं । अतः गोदुग्ध की बनी सुजाता की खीर सात्त्विक भोजन ने ज्ञान और जीवन दिया तथा तमोगुणी भोजन मांस ने महात्मा बुद्ध को रोगी बनाकर मृत्यु के विकराल गाल में धकेल दिया । इसीलिये प्राचीनकाल से ही गोदुग्ध को सर्वोत्तम और पूर्ण भोजन मानते आये हैं ।

आयुर्वेद के ग्रन्थों में सात्त्विक आहार की बड़ी प्रशंसा की है –

आहारः प्रणितः सद्यो बलकृद् देहधारणः ।

स्मृत्यायुः-शक्ति वर्णौजः सत्त्वशोभाविवर्धनः ॥(भाव० ४-१)

भोजन से तत्काल ही शरीर का पोषण और धारण होता है, बल्कि वृद्धि होती है तथा स्मरणशक्ति आयु, सामर्थ्य, शरीर का वर्ण, कान्ति, उत्साह, धैर्य और शोभा बढ़ती है । आहार ही हमारा जीवन है । किन्तु सात्त्विक सर्वश्रेष्ठ है । और सात्त्विक आहार में गोदुग्ध तथा गोघृत सर्वप्रधान और पूर्ण भोजन है ।

धन्वन्तरीय निघन्टु में लिखा है –

पथ्यं रसायनं बल्यं हृद्यं मेध्यं गवां पयः ।

आयुष्यं पुंस्त्वकृद् वातरक्तविकारानुत् ॥१६४)

(सुवर्णादिः षष्ठो वर्यः)

गोदुग्ध पथ्य सब रोगों तथा सब अवस्थाओं (बचपन, युवा तथा वृद्धावस्था) में सेवन करने योग्य रसायन, आयुवर्द्धक, बलकारक, हृदय के लिये हितकारी, मेधा बुद्धि को बनाने वाला, पुंस्त्वशक्ति अर्थात् वीर्यवर्द्धक, वात तथा रक्तपित्त के विकारों रोगों को दूर करनेवाला है । गोदुग्ध को सद्यः शुक्रकरं पयः तत्काल वीर्य बलवर्द्धक लिखा है । इस प्रकार आयुर्वेद के सभी ग्रन्थों में गोदुग्ध के गुणों का बखान किया है और इसकी महिमा के गुण गाये हैं । अतः इस सर्वश्रेष्ठ और पूर्णभोजन का सभी मनुष्यों को सेवन करना चाहिये । यह सर्वश्रेष्ठ सात्त्विक आहार है । जैसे अपनी जननी माता का दूध बालक एक से दो वा अधिक से अधिक तीन वर्ष तक पीता रहता है । माता के दुग्ध से उस समय बच्चा जितना बढ़ता और बलवान् बनता है उतना यदि वह अपनी आयु के शेष भाग में ४० वर्ष की सम्पूर्णता की अवस्था तक भी बढ़ता रहे तो न जाने कितना लम्बा और कितना शक्तिशाली बन जाये । माता का दूध छोड़ने के पश्चात् लोग गौ, भैंस, बकरी आदि पशुवों के दूध को पीते हैं । यदि केवल गोदुग्ध का ही सेवन करें तो सर्वतोमुखी उन्नति हो । बल, लम्बाई, आयु आदि सब बढ़ जावें । जैसे स्वीडन, डैनमार्क, हालैण्ड आदि देशों में गाय का दूध मक्खन पर्याप्त मात्रा में होता है । इसलिये स्वीडन में २०० वर्ष में ५ इंच कद बढ़ा है और भारतीयों के भोजन में पचास वर्ष से गोदुग्ध आदि की न्यूनता होती जा रही है, अतः इन तीस वर्षों में २ इंच कद घट गया । महाभारत के समय भारत देश के वासियों को इच्छानुसार गाय का घृत वा दुग्ध खाने को मिलता था । अतः ३०० और ४०० वर्ष की दीर्घ आयु तक लोग स्वस्थ रहते हुए सुख भोगते थे । महर्षि व्यास की आयु ३०० वर्ष से अधिक थी । भीष्म पितामह १७६ वर्ष की आयु में एक महान् बलवान् योद्धा थे । कौरव पक्ष के मुख्य सेनापति थे, अर्थात् सबसे बलवान् थे । महाभारत में चार पीढ़ियां युवा थी और युद्ध में भाग ले रही थी । जैसे शान्तनु महाराज के भ्राता बाह्लीक अर्थात् भीष्म के चचा युद्ध में लड़ रहे थे । उनका पुत्र सोमदत्त तथा सोमदत्त के पुत्र भूरिश्रवा और भूरिक्षवा – ये सब युद्ध में रत अपना युद्ध कौशल दिखा रहे थे । इस प्रकार चार पीढ़ियां युवा थीं । ६ फीट से कम लम्बाई किसी की नहीं थी । १०० वर्ष से पूर्व कोई नहीं मरता था । यह सब गोदुग्धादि सात्त्विक आहार का ही फल था । सत्यकाम जाबाल को ऋषियों की गायों की सेवा करते हुए तथा गोदुग्ध के सेवन से ही ब्रह्मज्ञान हुआ । गोदुग्ध की औषध मिश्रित खीर से ही महाराज दशरथ के चार पुत्ररत्न उत्पन्न हुए । इसीलिये गाय के दूध को अमृत कहा है । संसार में अमृत नाम की वस्तु कोई है तो वह गाय का घी-दूध ही है ।

गाय के घी के विषय में राजनिघन्टु में इस प्रकार लिखा है –

गव्यं हव्यतमं घृतं बहुगुणं भोग्यं भवेद्‍भाग्यतः ॥२०४॥

गौ का घी हव्यतम अर्थात् हवन करने के लिये सर्वश्रेष्ठ है और बहु-गुण युक्त है, यह बड़े सौभाग्यशाली मनुष्यों को ही खाने को मिलता है । यथार्थ में गोपालक ही शुद्ध गोघृत का सेवन कर सकते हैं । गाय के घी को अमृत के समान गुणकारी और रसायन माना है । सब घृतों में उत्तम है । सात्त्विक पदार्थों में सबसे अधिक गुणकारी है । इसी प्रकार गाय की दही, तक्र, छाछ आदि भी स्वास्थ्य रक्षा के लिये उत्तम हैं । दही, तक्र के सेवन से पाचनशक्ति यथोचित रूप में भोजन को पचाती है । इसके सेवन से पेट के सभी विकार दूर होकर उदर नीरोग हो जाता है । निघण्टुकार ने कितना सत्य लिखा है – न तक्रसेवी व्यथते कदाचित् – तक्र का सेवन करनेवाला कभी रोगी नहीं होता । गौ के घी, दूध, दही, तक्र – सभी अमृत तुल्य हैं । इसीलिये हमारे ऋषियों ने इसे माता कहा है । वेद भगवान् ने इस माता को आप्यायध्वमघ्न्या न मारने योग्य, पालन और उन्नत करने योग्य लिखा है अर्थात् गोमाता का वध वा हिंसा कभी नहीं करनी चाहिये क्योंकि यह सर्वश्रेष्ठ सात्त्विक भोजन के द्वारा संसार का पालन पोषण करती है । इसकी नाभि से अमृतस्य नाभिः अमृतरूपी दूध झरता है । यह सात्त्विक आहार का स्रोत है ।

राजसिक भोजन

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः ।

आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥ (गीता १७।९॥

कड़वे, खट्टे, नमकीन, अत्युष्ण, तीक्ष्ण, रूक्ष दाह, जलन उत्पन्न करने वाले नमक, मिर्च, मसाले, इमली, अचार आदि से युक्त चटपटे भोजन राजसिक हैं । इनके सेवन से मनुष्य की वृत्ति चंचल हो जाती है । नाना प्रकार के रोगों से ग्रस्त होकर व्यक्ति विविध दुःखों का उपभोग करता है और शोकसागर में डूब जाता है । अर्थात् अनेक प्रकार की आधि-व्याधियों से ग्रस्त होकर दुःख ही पाता है । इसलिये उन्नति चाहने वाले स्वास्थ्यप्रिय व्यक्ति इस रजोगुणी भोजन का सेवन नहीं करते । उपर्युक्त रजोगुणी पदार्थ अभक्ष्य नहीं, किन्तु हानिकारक हैं । किसी अच्छे वैद्य के परामर्श से औषधरूप में इनका सेवन हो सकता है । भोजनरूप में प्रतिदिन सेवन करने योग्य ये रजोगुणी पदार्थ नहीं होते ।

 तामसिक भोजन

यातयामं गतरसं पूतिपर्युषितं च यत् ।

उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥गीता १७।१०॥

बहुत देर से बने हुए, नीरस, शुष्क, स्वादरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी, उच्छिष्ट (जूंठे) और बुद्धि को नष्ट करने करनेवाले भोजन तमोगुणप्रधान व्यक्ति को प्रिय होते हैं । जो अन्न गला सड़ा हुआ बहुत विलम्ब से पकाया हुआ, बासी, कृमि कीटों का खाया हुआ अथवा किसी का झूठा, अपवित्र किया हुआ, रसहीन तथा दुर्गन्धयुक्त माँस, मछली, अण्डे, प्याज, लहसुन, शलजम आदि तामसिक भोजन हैं । इनका सेवन नहीं करना चाहिये । ये अभक्ष्य मानकर सर्वथा त्याज्य हैं । जो इन तमोगुणी पदार्थों का सेवन करता है, वह अनेक प्रकार के रोगों में फंस जाता है । उसका स्वास्थ्य बिगड़ जाता है, आयु क्षीण हो जाती है, बुद्धि, मन तथा आत्मा इतने मलिन हो जाते हैं कि उनको अपने हिताहित और धर्माधर्म का भी ज्ञान और ध्यान नहीं रहता । अतःएव तमोगुणी व्यक्ति मलिन, आलसी, प्रमादी होकर पड़े रहते हैं । चोरी, व्यभिचार आदि अनाचारों का मूल ही तामसिक भोजन है (इन तमोगुणी भोजनों में भी मांस, अण्डा, मछली सबसे अधिक तमोगुणी है । वैसे तो सभी तमोगुणी भोजन हानिकारक होने से सर्वथा त्याज्य हैं किन्तु मांस, मछली आदि तो सर्वथा अभक्ष्य है । इनको खाना तो दूर, कभी भूल कर स्पर्श भी नहीं करना चाहिये ।)

संस्कृत में मांस का नाम आमिष है, जिसका अर्थ है – अमन्ति रोगिणो भवन्ति येन भक्षितेन तदामिषम् जिस पदार्थ के भक्षण से मनुष्य रोगी हो जाये, वह आमिष कहलाता है । आजकल सभी मानते हैं कि मांसाहारी लोगों को कैंसर, कोढ़, गर्मी के सभी रोग, दांतों का गिर जाना, मृगी, पागलपन, अन्धापन, बहरापन आदि भयंकर रोग लग जाते हैं । मांस मनुष्य को रोगी करने वाला अभक्ष्य पदार्थ है । मनुष्य को इनसे सदैव दूर रहना चाहिये । इस विचार के मानने वाले लोग योरुप में भी हुये हैं ।

अंग्रेजी भाषा के ख्यातिनाम साहित्यकार बर्नाड शॉ ने मांस खाना छोड़ दिया था । वे मांस के सहभोज में नहीं जाते थे । मांस भक्षण के पक्षपाती डाक्टरों ने उनसे कहा कि मांस नहीं खाओगे तो शीघ्र मर जावोगे । उन्होंने उत्तर दिया मुझे परीक्षण कर लेने दो, यदि मैं नहीं मरा तो तुम निरामिषभोजी बन जाओगे अर्थात् मांस खाना छोड़ दोगे । बर्नाड शॉ लगभग १०० वर्ष की आयु के होकर मरे और मरते समय तक स्वस्थ रहे । उन्होंने एक बार कहा था – “मेरी स्थिति बड़ी गम्भीर है, मुझसे कहा जाता है गोमांस खाओ, तुम जीवित रहोगे । मैंने अपने वसीयत (स्वीकार पत्र) लिख दी है कि मेरे मरने पर मेरी अर्थी के साथ विलाप करती हुई गाड़ियों की आवश्यकता नहीं । मेरे साथ बैल, भेड़ें, गायें, मुर्गे और मछलियां रहेंगी क्योंकि मैंने अपने साथी प्राणियों को खाने की अपेक्षा स्वयं का मरना अच्छा समझा है । हजरत नूह की किस्ती को छोड़कर यह दृश्य सबसे अधिक और महत्त्वपूर्ण होगा ।”

इसी प्रकार आर्य जगत् के प्रसिद्ध विद्वान् स्व० पं० गुरुदत्त एम. ए. विद्यार्थी एक बार रोगी हो गये थे । डाक्टरों ने परामर्श दिया कि गुरुदत्त जी मांस खा लें तो बच सकते हैं । पं० गुरुदत्त जी ने उत्तर दिया कि यदि मैं मांस खाने पर अमर हो जाऊं, पुनः मरना ही न पड़े तो विचार कर सकता हूँ । डाक्टर चुप हो गये ।

भारत की बेटी

bharat ki beti

भारत की बेटी

जननी नाम से पवित्र, दूसरा कौनसा है नाम |

माँ नाम से निर्मल, कौनसा है दूसरा है नाम ||

आज की किशोरी ही भविष्य की आधारशिला है | संतान उत्पत्ति की अर्थात श्रेष्ट संतान उत्पत्ति की और राष्ट्र गौरव की, क्यों की जब कोई युवती स्वयं निर्णय लेने लग जाती है अर्थात यह आयु १६ से १८ की होती है और इसी आयु में वह निर्णय लेनी की क्षमता प्राप्त करती है | यही से उसके भावी संतान का भविष्य शुरू हो जाता है | यही संतान उत्पत्ति का विज्ञान है | इतिहास इस बात का साक्षी है – शिवाजी,श्री कृष्ण, श्री राम, प्रलहाद , रावण, पांडव, आदि की | ऐसी हजारो बेटियों ने राष्ट्र रक्षक, राष्ट्र निर्माण, तो एक  ओर  दुष्ट,विनाशक            संतान को  उत्तपन किया | जिस स्त्री में संतान गर्भ में आने से पहले ही अर्थात अपनी युवा अवस्था में स्त्री जिस विचारों का चिंतन करती रहेंगी वहाँ पर उसी विचारों से प्रभावित वैसी ही विचारों वाली आत्मा का गर्भ में प्रवेश होंगा और वह संतान जन्मजात उसी प्रवृति का पोषक होंगी | वह चाहे तो रावण जैसी संतान को भी जन्म दे सकती है और चाहे तो कृष्ण जैसी योद्धा संतान को भी उत्तपन कर राष्ट्र रक्षा या राष्ट्र निर्माण कर देश की सेवा कर  सकती है | घर बैठे नारी समाज की, देश की सेवा कर सकती है | पर इसके लिए आवश्यकता है तपस्या – दूसरों के प्रति त्याग और सेवा ही तपस्या है | पर दुःख की बात है की ऐसे जीवन का महत्व आज नहीं रहा | ऐसे जीवन को आज निचले स्तर से देखा जाता है |

आज पाश्चात्य सभ्यता हर क्षण इतनी हावी हो रही है, की हमारे संस्कार प्राय: उनके समक्ष नष्ट हो रहे है | आज की शिक्षा, आज के रहन सहन, आज के विचार, हमारे संस्कार रपी धरोवर को नष्ट करते चले जा रहे है | भविष्य के इस आधारशिला  किशोरी के भटकते हुए जीवन का कौन जिम्मेदार है ? उसके ओर उठने वाली पाशविक दृष्टी का कौन जिम्मेदार है ? घर से भागकर प्रेमविवाह करने का कौन जिम्मेदार है ? उसके बिना विवाह माँ बनाने का कौन जिम्मेदार है ? उसके मर्यादाहीन होने का कौन जिम्मेदार है ? उसके अभिभावक व वह स्वयं ?

हम निश्चित कह सकते है, युवा पीढ़ी के अनुशासनहीनता के लिए, तपस्या हिन् जीवन के लिए, भोगमय जीवन के लिए जिम्मेदार उसकी पूर्व पीढ़ी अर्थात माता-पिता ही है | हम इसे सिद्ध भी कर सकते है | नारी गर्भ से संतान इस धरती पर आती है, पर इसके लिए उसे किसी योगदान की आवश्यकता होती है ओर वह योगदान देने वाले होते है उसके अपने माता-पिता | उच्चा संस्कारो के बिज को संतानों में अंकुरित करना होता है | अंकुरित करने के लिए किसे न किसे खाद, जल ओर अन्य पोषक तत्व तो देने ही होंगे, तभी तो उच्चा संस्कारो का भिज अंकुरित होंगा | इस आधुनिकता को देखते हुए यह बड़ा जटिल लगता है, क्यों की तप करना कोई साधारण कार्य नहीं है | यह कोई एक दो दिन में होनेवाला चमत्कार भी नहीं है | पीढ़िय बिगड़ने में लगी है, तो पीढ़िय सुधरने में भी लगेंगी | इसलिए आज के युवा पीढ़ी को माता-पिता से संस्कार न भी मिले हो, तो कोई बात नहीं, तो उनका कोई दोष भी नहीं है यह नष्टता पीढियों से चली आ रही है |

अब तो इसे अंकुरित करने की जिज्ञासा युवा पीढ़ी में होनी चाइये | निरंतर जागृति से संस्कार रूपी बिज अंकुरित होकर एक दिन वट वृक्ष निश्चित होंगा | सीता, सावित्री, मदालसा, गार्गी, सुलभा, मैत्री, अरुंधती, अन्नपुर्णा, संध्या, अनुसया, शाण्डिली, दमयंती, रानी दुर्गावती, रानी लक्ष्मीबाई आदि हजारो युवतियों, नारियो ज्ञान की ओर पवित्रता की उन उचाइयो को छु लिया था | इन बेटियों के जीवन से यह बात भी झूठी सभीत होती है, की स्त्रियों को पड़ने का अधिकार नहीं था | क्यों की मदालसा, सुलभा, गार्गी आदि उच्चस्तरीय पंडित, विद्वान, ब्रह्मज्ञानी थी जिन्हें शास्त्रार्थ में हराना जनक जैसे विद्वान को भी अशक्य था |

वैदिक संस्कृति के अनुसार स्त्रीजीवन की महानता माता का पद प्राप्त करने में है, ओर महाभाग्यशाली होना है ज्ञानी, योद्धा, दानी, त्यागी, तपस्वी, पुत्र-पुत्री की माता कहलाना में | रोटी बनाना, व्यापार करना, नौकरी करना, घर चलाना अलग बात है और औरो के लिए जीना, संसार के कल्याण की चाह रखकर संतान का निर्माण, राष्ट्र निर्माण, समाज निर्माण, धर्मं  रक्षा करना अलग बात है | एक नारी प्रसव पीड़ा सहन करती है, अगर उस प्रसव पीड़ा से राष्ट्र उन्नति नहीं हुई, लोक कल्याण नहीं हुआ,अन्याय नष्ट नहीं हुवा, आभाव दूर नहीं हुवा, अज्ञानियों का अज्ञान दूर नहीं हुवा, दुखियो को दुःख दूर नहीं हुवा, तो फिर क्या हुवा ? किस काम का है उत्सव ? किस काम का हुवा यह जन्म ? प्रसव पीड़ा तो दूर हुई पर नई पीड़ा बड गयी अपनी भी ओर दूसरो की भी |

आचार विचार जहा नष्ट होते है, संतान वहा भ्रष्ट होती है | संतानों के भ्रष्ट होने से संस्कार नष्ट हो जाते है | संस्कारो के नष्ट होने से, राष्ट्र गरिमा खो देता है |राष्ट्र गरिमा खो जाने से मनुष्य अपनी  पहचान भी खो जाती है

नाम मात्र ही माँ न बन, त्याग प्रेम से बने तू माता |

सुन भारत की बेटी, पवित्रता से बने तू माता ||

शरीर से तू माँ न बन, नारीत्व से बने तू माता |

सुन भारत की बेटी, संस्कारो से बने तू माता ||

दूध पिलाने से माँ न बन, व्रत स्वाध्याय से बने तू माता |

सुन भारत की बेटी, प्रार्थनाओ से बने तू माता ||

भोजन वस्त्रों से ही माँ न बन, मातृत्व से बने तू माता |

सुन भारत की बेटी, आचरण से बने तू माता ||

पढने पढाने से ही माँ न बन, सुप्रवृतियो से बने तू माता |

सुन भारत की बेटी, तपस्या से बने तू माता ||

पाशविक तृष्णा से ही माँ न बन, सु विचारों से बने तू माता |

सुन भारत की बेटी, संयम से बने तू  माता ||

अधर्म से तू माँ न बन, धर्मं से बने तू माता |

सुन भारत की बेटी, सतीत्व से बने तू माता ||

अपने लिए माँ न बन, विश्व सेवा के लिए बने तू माता |

सुन भारत की बेटी, जाबाज़ विरो से बने तू माता ||

अँग्रेजी भाषा के बारे में भ्रम

bhasha ki gulami

*** अँग्रेजी भाषा के बारे में भ्रम ***

आज के मैकाले मानसों द्वारा अँग्रेजी के पक्ष में तर्क और उसकी सच्चाई :

1. अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है:: दुनिया में इस समय 204 देश हैं और मात्र 12 देशों में अँग्रेजी बोली, पढ़ी और समझी जाती है। संयुक्त राष्ट संघ जो अमेरिका में है वहां की भाषा अंग्रेजी नहीं है, वहां का सारा काम फ्रेंच में होता है। इन अंग्रेजों की जो बाइबिल है वो भी अंग्रेजी में नहीं थी और ईशा मसीह अंग्रेजी नहीं बोलते थे। ईशा मसीह की भाषा और बाइबिल की भाषा अरमेक थी। अरमेक भाषा की लिपि जो थी वो हमारे बंगला भाषा से मिलती जुलती थी, समय के कालचक्र में वो भाषा विलुप्त हो गयी। पूरी दुनिया में जनसंख्या के हिसाब से सिर्फ 3% लोग अँग्रेजी बोलते हैं। इस हिसाब से तो अंतर्राष्ट्रीय भाषा चाइनिज हो सकती है क्यूंकी ये दुनिया में सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाती है और दूसरे नंबर पर हिन्दी हो सकती है।

2. अँग्रेजी बहुत समृद्ध भाषा है:: किसी भी भाषा की समृद्धि इस बात से तय होती है की उसमें कितने शब्द हैं और अँग्रेजी में सिर्फ 12,000 मूल शब्द हैं बाकी अँग्रेजी के सारे शब्द चोरी के हैं या तो लैटिन के, या तो फ्रेंच के, या तो ग्रीक के, या तो दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ देशों की भाषाओं के हैं। उदाहरण: अँग्रेजी में चाचा, मामा, फूफा, ताऊ सब UNCLE चाची, ताई, मामी, बुआ सब AUNTY क्यूंकी अँग्रेजी भाषा में शब्द ही नहीं है। जबकि गुजराती में अकेले 40,000 मूल शब्द हैं। मराठी में 48000+ मूल शब्द हैं जबकि हिन्दी में 70000+ मूल शब्द हैं। कैसे माना जाए अँग्रेजी बहुत समृद्ध भाषा है ?? अँग्रेजी सबसे लाचार/ पंगु/ रद्दी भाषा है क्योंकि इस भाषा के नियम कभी एक से नहीं होते। दुनिया में सबसे अच्छी भाषा वो मानी जाती है जिसके नियम हमेशा एक जैसे हों, जैसे: संस्कृत। अँग्रेजी में आज से 200 साल पहले This की स्पेलिंग Tis होती थी। अँग्रेजी में 250 साल पहले Nice मतलब बेवकूफ होता था और आज Nice मतलब अच्छा होता है। अँग्रेजी भाषा में Pronunciation कभी एक सा नहीं होता। Today को ऑस्ट्रेलिया में Todie बोला जाता है जबकि ब्रिटेन में Today. अमेरिका और ब्रिटेन में इसी बात का झगड़ा है क्योंकि अमेरीकन अँग्रेजी में Z का ज्यादा प्रयोग करते हैं और ब्रिटिश अँग्रेजी में S का, क्यूंकी कोई नियम ही नहीं है और इसीलिए दोनों ने अपनी अपनी अलग अलग अँग्रेजी मान ली।

3. अँग्रेजी नहीं होगी तो विज्ञान और तकनीक की पढ़ाई नहीं हो सकती:: दुनिया में 2 देश इसका उदाहरण हैं की बिना अँग्रेजी के भी विज्ञान और तकनीक की पढ़ाई होटी है- जापान और फ़्रांस । पूरे जापान में इंजीन्यरिंग, मेडिकल के जीतने भी कॉलेज और विश्वविद्यालय हैं सबमें पढ़ाई “JAPANESE” में होती है, इसी तरह फ़्रांस में बचपन से लेकर उच्चशिक्षा तक सब फ्रेंच में पढ़ाया जाता है।
हमसे छोटे छोटे, हमारे शहरों जितने देशों में हर साल नोबल विजेता पैदा होते हैं लेकिन इतने बड़े भारत में नहीं क्यूंकी हम विदेशी भाषा में काम करते हैं और विदेशी भाषा में कोई भी मौलिक काम नहीं किया जा सकता सिर्फ रटा जा सकता है। ये अँग्रेजी का ही परिणाम है की हमारे देश में नोबल पुरस्कार विजेता पैदा नहीं होते हैं क्यूंकी नोबल पुरस्कार के लिए मौलिक काम करना पड़ता है और कोई भी मौलिक काम कभी भी विदेशी भाषा में नहीं किया जा सकता है। नोबल पुरस्कार के लिए P.hd, B.Tech, M.Tech की जरूरत नहीं होती है। उदाहरण: न्यूटन कक्षा 9 में फ़ेल हो गया था, आइंस्टीन कक्षा 10 के आगे पढे ही नही और E=hv बताने वाला मैक्स प्लांक कभी स्कूल गया ही नहीं। ऐसी ही शेक्सपियर, तुलसीदास, महर्षि वेदव्यास आदि के पास कोई डिग्री नहीं थी, इनहोने सिर्फ अपनी मात्रभाषा में काम किया।
जब हम हमारे बच्चों को अँग्रेजी माध्यम से हटकर अपनी मात्रभाषा में पढ़ाना शुरू करेंगे तो इस अंग्रेज़ियत से हमारा रिश्ता टूटेगा।

क्या आप जानते हैं जापान ने इतनी जल्दी इतनी तरक्की कैसे कर ली ? क्यूंकी जापान के लोगों में अपनी मात्रभाषा से जितना प्यार है उतना ही अपने देश से प्यार है। जापान के बच्चों में बचपन से कूट- कूट कर राष्ट्रीयता की भावना भरी जाती है।

* जो लोग अपनी मात्रभाषा से प्यार नहीं करते वो अपने देश से प्यार नहीं करते सिर्फ झूठा दिखावा करते हैं। *

दुनिया भर के वैज्ञानिकों का मानना है की दुनिया में कम्प्युटर के लिए सबसे अच्छी भाषा ‘संस्कृत’ है। सबसे ज्यादा संस्कृत पर शोध इस समय जर्मनी और अमेरिका चल रही है। नासा ने ‘मिशन संस्कृत’ शुरू किया है और अमेरिका में बच्चों के पाठ्यक्रम में संस्कृत को शामिल किया गया है। सोचिए अगर अँग्रेजी अच्छी भाषा होती तो ये अँग्रेजी को क्यूँ छोड़ते और हम अंग्रेज़ियत की गुलामी में घुसे हुए है। कोई भी बड़े से बड़ा तीस मार खाँ अँग्रेजी बोलते समय सबसे पहले उसको अपनी मात्रभाषा में सोचता है और फिर उसको दिमाग में Translate करता है फिर दोगुनी मेहनत करके अँग्रेजी बोलता है। हर व्यक्ति अपने जीवन के अत्यंत निजी क्षणों में मात्रभाषा ही बोलता है। जैसे: जब कोई बहुत गुस्सा होता है तो गाली हमेशा मात्रभाषा में ही देता हैं।

॥ मात्रभाषा पर गर्व करो…..अँग्रेजी की गुलामी छोड़ो ॥

!!! जय भारत माता !!!

वेदों में गौ की सुरक्षा

cow in veda

वेदों में गौ की सुरक्षा

Vedas AV12.4

AV Sukta12.4 अथर्व वेद 12-4 सूक्त -वशा गौ ,ऋषि- कश्यप:

4.1.0.1 AV 12.4.1 अथर्व 12-4-1 On Donating a cow

गौ दान  किस को

ददामीत्येव ब्रूयादनु चैनामभुत्सत।

वशां  ब्रह्मभ्यो याचद्भ्यस्तत्प्रजावदपत्यवत्‌ || अथर्व 12.4.1

Cows should be given in keeping of learned persons

(veterinarians) who have noble temperaments.

गौओं को ब्राह्मण वृत्ति के पशु पालन  वैज्ञानिकों के ही दायित्व में देना  चाहिए ।

4.1.0.2 AV 12-4-2 Curse of a sick Cow दुःखी गौ का श्राप

प्रजया स वि क्रीणीते पशुभिश्चोप दस्यति।

य आर्षेयेभ्यो याचभ्दयो देवानां  गां न  दित्सति ।। अथर्व 12-4-2

Those who do not give cows in the keeping of such

virtuous persons to bring about improvements in the

cows, merely trade and do no service for society.

They  suffer from curse of unhappy cows.

जो लोग कुशल कार्य कर्ताओं की सहायता से गौ संवर्द्धन  का कार्य

नहीं करते, वे केवल व्यापार वृत्ति से कार्य कराते हैं। वे दुखी  गौ के

श्राप के भोगी होते हैं।

4.1.0.3 AV 12-4-3 Underfed Cow’s Curse

दुःखी गौ का श्राप

कूटयास्य सं शीर्य-ते श्लोणया काटमर्दति।

बण्ड्या दह्य-ते गृहाः काणया दीयते स्वम् ।। अथर्व 12-4-3

Society that trades in unhealthy cows gets destroyed

By  curse of unhappy cows.

जो समाज गौ को व्यापार मान  कर चलाते हैं, वे दुखी गौ के श्राप से

नष्ट हो जाते हैं।

4.1.0.4 AV12-4-4 same as above फिर वही

विलोहितो अधिष्ठानाच्छद्विक्लिदुर्नाम विन्दति गोपतिम् ।

तथा वशायाः संविद्यं दुरदभ्ना  ह्युच्यसे ।। अथर्व12-4-4

Miserly person’s looking after the cows neglect their

Feed and health. Cows suffer bleeding and such

ailments which become incurable.

कंजूस गोपालक की गौ,रक्त  स्राव जैसे असाध्य रोगों से ग्रसित हो

कर नष्ट  हो जाती हैं।

4.1.0.5 AV 12-4-5 Foot and mouth disease

मुंह खुरपका

पदोरस्या अधिष्ठानाद्विक्लिन्दुर्नाम विंदति|

अनामनात्सं शीर्यन्ते या मुखेनोपजिघ्रति ।। अथर्व 12-4-5

By sniffing her feet/ place where cow puts her feet, A

disease ‘Wiklindu’ is contracted that finally destroys

the cow. ( The obvious reference is to the contagious

Foot and mouth disease)

गौ अपने  खुर सूंघने  से मुंह खुर पका रोग से ग्रस्त हो कर नष्ट हो

जाती  है।

4.1.0.6 AV12-4-6 Do not make Cut marks on Cow

ears

गौ की पहचान के लिए कान मत काटो

यो अस्याः कर्णावास्कुनोत्या स देवेषु वृश्चते ।

लक्ष्मं कुर्व इति मन्यते कनीयः कृणुते स्वम् ।। अथर्व 12-4-6

Those persons who make cut marks on cow’s ears for

Identification, are as if cutting short their own wealth.

गौ की पहचान के लिए  के कान नहीं काटने  चाहिएं।

4.1.0.7 AV 12-4-7 Do not cut COW Hair गौ के बाल नही

काटे  जाते

यदस्याः कस्मै चिद्भोगाय बालान्कश्चित्प्रकृन्तति ।

ततः किशोरा म्रियन्ते वत्सांश्च धातुको वृकः ।। अथर्व 12-4-7

Those who cut hair of a cow for any reasons, are

Cursed  to suffer in life.

जो किसी तांन्त्रिक कार्य के लिए गौ के बाल लेते हैं उन को श्राप

लगता है।

4.1.0.8 AV 12-4-8 Protect Cows from attack by birds गौ को कौए इत्यादि पक्षियों से बचाएं

यदस्या गोपतौ सत्या लोम ध्वाङ्क्षो अजीहिडत् ।

ततः कुमारः म्रियन्ते  यक्ष्मो विन्दत्यनामनात् ।। अथर्व 12-4-8

If crows are allowed to attack a cow, the lazy care

taker of  cows will suffer from tuberculosis.

( Lazy persons attract Tuberculosis)

जो चरवाहा गौ को कौए जैसे पक्षियों से नहीं बचाता , उस आलसी

को  क्षय रोग होगा । (आलस्य के कारण क्षय रोग होता है)

4.1.0.9 AV12-4-9 Cow Dung and Urine

गोबर गोमूत्र

यदस्याः पल्पूलनं  शकृद्दासी समस्यति ।

ततोऽपरूपं जायते तस्मादव्येष्यदेनसः ।। अथर्व 12-4-9

Throwing away in to waste the Cow Dung and Cow

Urine disfigures the society.

गोबर गोमूत्र व्यर्थ करने  से समाज के रूप की सुन्दरता नष्ट हो जाती

है ।

VETERINARY SERVICES

पशु चिकित्सा सेवाएं

4.1.0.10 AV 12-4-10 Cow Protection गौ सुरक्षा

जायमानाभि जायते  देवान्त्सब्राह्मणान्वशा ।

तस्माद ब्रह्मभ्यो देयैषा तदाहुः स्वस्य गोपनम् ।। अथर्व 12-4-10

Cow should always be under the care of

Knowledgeable persons having altruistic attitudes.

This  is the best form of COW PROTECTION

गौपालन  में ब्राह्मण वृत्ति के कुशल गोपालकों से ही गौ सुरक्षित

रहती है।

4.1.0.11 AV12-4-11 No Cow protection is cruelty

गौ की असुरक्षा अपराध है

य एनां  वनिमायन्ति तेषां देवकृता वशा।

ब्रह्मज्येयं तदब्रुवन्य एना निप्रयायते ।। अथर्व 12-4-11

Not providing cow in to proper hands for care is

cruelty to cows.

गौ को ब्राह्मण वृत्ति के लोगों के हाथ न देना गौ पर  अत्याचार है।

4.1.0.12 AV 12-4-12 Same again वही विषय

य आर्षेयेभ्यो या चद्भयो देवानां गां न  दित्सति ।

आ स देवेषु वृश्चते ब्राह्मणानां  च मन्यते ।। अथर्व 12-4-12

Not providing the cows with such care, destroys good

traditions of society.

गौवों को ऐसी सुरक्षा न  देने  से सामाजिक परम्पराओं का  नाश

होता है।

4.1.0.13 AV 12-4-13 pre parturition post parturition

care

दूध से हटी गर्भिनी गौ सेवा विषय

यो अस्य स्याद् वशाभोगो अन्यामिच्छेत तर्हि सः ।

हिंस्ते अदत्ता पुरुषं याचितां च न  दित्सति ।। अथर्व 12-4-13

Productive cows can be kept for the immediate

benefits but unproductive cows must be given for

care by selfless persons.

बाखड़ी, गर्भिणी, दूध से सूखी गौ को निस्वार्थ सेवा चाहिए।

4.1.0.14 AV 12-4-14 Same as above वही विषय फिर

यथा शेवधिर्निहितो  ब्राह्मणानां  तथा वशा ।

तामेतदच्छायन्ति  यस्मिन्कस्मिंश्च जायते ।। अथर्व 12-4-14

Like the protection to be provided for hidden

treasures, such cows must be provided with due

protection .

( Modern science calls it Pre parturition & post

parturition- a 90 days regime two months or more

before calving and at least one week after calving

care under best hands)

जैसे किसी कोष की सुरक्षा की जाती है, उसी प्रकार विद्वान  कुशल

हाथों से बाखड़ी, कम/बिना  दूध की गर्भवती गौ की सुरक्षा होती है।

4.1.0.15 AV 12-4-15Denial of this service is cruelty to Cows

यह गौ सेवा उप्लब्ध न होना  गौ पर अत्याचार है

तस्मेतदच्छायन्ति  यद् ब्राह्मणा अभि ।

यथैनानन्यस्मिञ्जिनीयादेवास्या निरोधनम् ।। अथर्व 12-4-15

It is the duty of selfless good persons (veterinarians)

To provide this service. Denial of this service is cruelty towards Cows.

गौ वंश की ऐसी सेवा समाज का दायित्व है। इस सेवा का प्रबंध  न

होना  गौ पर अत्याचार है।

Importance of Veterinary Services गो विज्ञान  का महत्व

4.1.0.16 AV 12-4-16 Increase of Cows and identification

गो वंश विस्तार और उसे चिह्नित  करना

चरेदेवा त्रैहायणादविज्ञातगदा सती ।

वशां च विद्यान्नारद ब्राह्मणास्तह्येर्ष्याः ।। अथर्व 12-4-16

Up to three years of age a heifer moves around with

its mother. Then it Caves and has to be given an

identity and  donated to a deserving good household.

तीन  वर्ष तक की उस्रिया माता के संग रहती है। बछ्ड़ा देने  पर उस

का नामकरण करके किसी उपयुक्त परिवार को दान  की जाती है

4.1.0.17 AV 12-4-17 Nonobservance of such practice

Is not in best interests of society

ऐसे गोदान न करना समाज कल्याण हित में नही होता

य एनामवशामाह देवानां निहितं निधिम् ।

उभौ तस्मै भवाशर्वौ परिक्रम्येषुमस्यतः ।। अथर्व 12-4-17

Those who realize the wealth in cow’s udders and

milk, but do not share these cows with population, are

doing great disservice to welfare of the community.

जो गौ के दुग्ध का महत्व जानते हुए भी ऐसे गोदान नहीं करते वे

समाज के लिए कल्याण कारी नहीं सिद्ध होते

4.1.0.18 AV 12-4-18 Same again वही विषय फिर

यो अस्या ऊधो न  वेदाथो अस्या स्तनानुत ।

उभयेनैवास्मै दुहे दातुं चेदशकद्वशाम् । । अथर्व 12-4-18

Even ignorant persons if they donate cows for

Spreading them, do a great community service.

अविद्वान  लोग भी जो गोदान  से गौ संवर्द्धन  करने  के लिए यथा

समय गौ सेवा के लिए गौ दान  करते हैं, वे समाज सेवा का बड़ा

काम करते हैं

4.1.0.19 AV 12-4-19 Same again वही विषय फिर

दुर दभ्नैनमा शये याचितां च ना  दित्सति।

नास्मै कामाः समृध्यन्ते  यामदत्त्वा चिकीर्षति ।। अथर्व 12-4-19

Motivated by selfish considerations those who do not

Lend their cows at appropriate times for proper care

by experts, make their cows suffer and are in the end

not able to derive the benefits they were trying to

protect in the first place .

बाखड़ी गर्भ वती गौ की विशेष सेवा के लिए जो लोग अपनी  गौओं

को विशेषज्ञों के पास दान रूप से नही भेजते, उन  की गौएं कष्ट में

रहती हैं और जो लाभ अपेक्षित था वह नहीं मिलता।

4.1.0.20 AV 12-4-20

Provide Vet experts honorable place

गो चिकित्सकों का आदर करो  

देवा वशामयाचन्मुखं कृत्वा ब्राह्मणम् ।

तेषां सर्वेषामददद्धेडं न्येति मानुषः ।। अथर्व 12-4-20

Veterarian’s offer  for providing help to community to

take care of Cows should be gratefully accepted .

Ignoring the Vet Services angers the Vet Experts

पशु चिकित्सक गो सेवा के लिए उत्सुक रहते हैं। उन  सेवा ने  लेने

पर वे  क्रुद्ध होते हैं।

4.1.0.21 AV 12-4-21 Veterinarians पशु चिकित्सक

हेडं पशूनां न्येति ब्राह्मणेभ्योऽददद्वशाम् ।

देवानां निहितं भागं मर्त्यश्चेन्निप्रियायते ।। अथर्व 12-4-21

Veterinarians are to be made available to serve cows.

By not taking  their services properly even the cows

are put to great  discomfort.

गौ सेवा के लिए प्रशिक्षित जन गोसेवा अवसर की प्रतीक्षा में  उत्सुक

रहते हैं। उन  की सेवा न  लेने  से गौ को भी बहुत पीड़ा होती है।

4.1.0.22 AV 12-4-22 Veterinary help

पशु चिकित्सा दायित्व

यदन्ये  शतं याचेयुर्ब्राह्मणा गोपतिं वशाम्‌।

अथैनां  देवा अब्रुवन्नेवं ह विदुषो वशा ।। अथर्व 12-4-22

Hundreds of people seek help from veterinarians, and

All their cows are said to belong to him.

बहुत से लोग अपनी  गौएं पशु चिकित्सक के पास ले जाते हैं। वे सब

गौ उस चिकित्सक की कही जाती हैं।

4.1.0.23 AV12-4-23 Expert Vet Services

कुशल पशु चिकित्सक सेवा

य एवं विदुषेऽदत्त्वाथान्येभ्यो ददद्वशाम् ।

दुर्गा तस्मा अधिष्ठाने पृथिवी सहदेवता ।। अथर्व 12-4-23

Those who do not take help of trained Vets and go to

Seek help from illiterates, cause lot of misery and loss

to society.

जो लोग विद्वान  पशुचिकित्सकों को छोड़ कर अविद्वानों  के पास

जाते हैं, वे समाज में दुःख का कारण होते हैं।

4.1.0.24 AV 12.4.24 Ignoring Vet help

पशु चिकित्सा न लेना

देवा वशामयाचन्यस्मिन्नग्रे अजायत ।

तामेतां विद्यान्नारदः सह देवै रुदाजत ।। अथर्व 12-4-24

First time pregnant cow needs extra care. House

Holders may think of such cows to be their blessing

and feel that it can take care of itself on its own as a

routine.

पहली बार गर्भ वती को गृह स्वामी अपना  सौभाग्य समझ कर यह

सोच लेता है कि सब अपने  से ठीक होगा। यह ग़लती है

4.1.0.25 AV 12-4-25 Continued वही विषय

अनपत्यमल्पपशुं वशा कृणोति पूरुषम्‌।

ब्राह्मणैश्च याचितामथैनां निप्रियायते ।। अथर्व 12-4-25

Ignoring the expert Vet help those who confine such cows to their family out of misplaced affection, unknowingly cause harm to their cows and bring damage to the interests of their family.

विशेषज्ञों की सहायता न  ले कर ये गो स्वामी गौ और अपने  परिवार का और गौ का अहित करता है।

4.1.0.26 AV 12-4-26

अग्नीषोमाभ्यां कामाय मित्राय वरुणाय च ।

तेभ्यो याचन्ति  ब्राह्मणास्तेष्वा वृश्चतेऽददत् ।। अथर्व 12-4-26

Knowledge, Skills, Expert help, Implements and Resources all are needed for proper care. Ignoring this is a retrograde step.

विद्वत्ता, ज्ञान , हर प्रकार के संसाधन  उपयुक्त  स्थान  और समय पर उपलब्ध रहने  चाहिएं।

इन  सब पर ध्यान न  देना  समाज में पिछड़ापन  बढ़ाता है।

PASTURE FEEDING गोचर विषय

4.1.0.27 AV 12.4.27 Time to release Cows for Pastures प्रातः काल गोचर

यावदस्या गोपतिर्नोपशृणुयाद्दचः स्वयम् ।

चरेदस्य तावद्गोषु नास्यं श्रुत्वा गृहे वसेत् ।। अथर्व 12-4-27

Morning strains of mantras when heard being recited at Agnihotras indicates the time to release cows to go to pastures for self feeding.

प्रातः कालीन मंत्रो के पाठ की ध्वनि  जब सुनाई देती है, तब जानिए कि गौओं को गोचर में जाने  का समय हो चला

4.1.0.28 AV 12-4-28 Stall feeding is harmful घर में गौ को बंध कर मत रखो

यो अस्या ऋचउपश्रुत्याथ गोष्वचीचरत् ।

आयुश्च तस्य भूतिं च देवा वृश्चन्ति  हीडिताः ।। अथर्व 12-4-28

One who keeps Cows at home to feed even after hearing the morning mantra patha suffers in life.

जो प्रातःकाल मंत्र ध्वनि  सुनने  के पश्चात भी गौ को अपने  घर पर बांध कर खिलाता है, वह जीवन  मे दुख पाता है।

4.1.0.29 AV 12.4.29 Time to stay in Pastures गोचर में रहने  का समय

वशां चरन्ति  बहुधा देवानां निहितो निधिः ।

आविष्कृणुष्व रूपाणि यदा स्थाम जिघांसति ।। अथर्व 12- 4-29

As long as the cows like to feed in pastures they represent community assets. When cows want to retreat from pastures they indicate it by many signs.

गोचर में गौएं समाज की धरोहर के रूप में रहती हैं।जब वे पुन: अपने  गृह स्वामी के स्थान  जाना  चाहती हैं, स्वयम् संकेत करती हैं।

4.1.0.30 AV 12-4-30

आविरात्मानं कृणुते यदास्त्थाम जिघांसति।

अथो ह ब्रह्मभ्यो वशा याञ्च्याय कृणुते मन:।। अथर्व 12-4-30

Cow herself indicates the time for her to go back to her home for help from her master

जब गोचर से गृह स्वामी के पास जाने  का समय होता है गौ स्वयम् ऐसे संकेत देती है।

4.1.0.31 AV 12-4-31Cow’s desires are to be complied , गौ के अनुकूल आचरण हो

मनसा सं कल्पयति तद्देवाँ अपि गच्छति ।

ततो ह ब्रह्माभ्यो  वशामुपप्रयन्ति  याचितुम् ।। अथर्व 12-4-31

When Cows want to leave pastures to return to their homes, their desires should be complied with. ( It is the udder stress when it is full of milk, that prompts cow to return to her master for milking her and feeding her calf)

गौ के घर लौटने  के संकेत पर दूध दुहने  के लिए गौ को गृह स्वामी के यहां ले जाना चाहिए।

4.1.0.32 AV 12-4-32 Cow’s Blessings गौ के आशीर्वाद

स्वधाकारेण पितृभ्यो यज्ञेन  देवताभ्यः ।

दानेन  राजन्यो  वशाया मातुर्हेडं न गच्छति ।। अथर्व 12-4-32

Cows blessings flow by long life  and  presence of  elders in Society, Ajya for havi in yagyas, for the Society by her bounties (organic agriculture).

पितरों को अपने  स्वरूप से, ब्राह्मणों को यज्ञ में आज्य की हवि से,राज्य को अपनी  उपलब्धियों से धन्य  करती हैं।

4.1.0.33 AV 12-4-33 Cows belong to the learned गौ बुद्धिजीवियों की होती है

वशा माता राजन्यस्य तथा संभूतमग्रशः ।

तस्या आहुरनर्पणं यद ब्रह्मभ्यः प्रदीयते ।। अथर्व 12-4-33

Cow on first priority provides for protecting the welfare of society like a

mother does. But Cow really belongs to the Veterinarian intellectuals, who

provide for its  upkeep.

गौ सामाज को सर्व प्रथम माता कि तरह संरक्षण प्रदान  करती है।

परन्तु वास्तव में विद्वान  बुद्धिजीवि ही गौ को सुरक्षा प्रदान  करते

हैं।

4.1.0.34 AV12-4-34 Gross treatment of Cows a Crime गाव से दुर्व्यवहार अपराध है

यथाज्यं प्रगृहीतमालुम्पेत्स्त्रुचो अग्नये ।

एवा ह ब्रह्मभ्यो वशग्नय आ वृश्चतेऽददत् ।। अथर्व 12-4-34

Like Ajya havi dropping outside the fire is a crime, not providing the cows

with good Veterinary care is also a crime.

जैसे यज्ञाग्नि  से बाहर स्रुवा से आज्य गिराना  अपराध है, उसी प्रकार गौ को पशु चिकित्सक की

सेवा से दूर रखना  भी एक अपराध है।

4.1.0.35 AV 12-4-35 Productive cow fulfils all needs दुधारु गौ सम्पन्नता प्रदान करती है

पुरोडाशवत्सा सुदुधा लोकेऽस्मा उप तिष्ठति

सस्मै सर्वान्कामान्वशा  प्रददुशषे  दुह ।। अथर्व 12-4-35

Productive Cows fulfill all needs of the society

सवत्सा दुधारु गौ सब कामानाएं पूर्ण करती है

4.1.0.36 AV 12-4-36 Denying provision of cows leads to hell गो सेवा न  करना नरक देता है

सर्वान्कामान्ययमराज्ये वशा प्रददुशे दुहे  ।

अथहुर्नारकं लोकं निरुन्धा नस्य याचिताम् ।। अथर्व 12-4-36

Not making provision for good cows, denying cow products to the needy,

turns the society in to a living hell

गो सेवा से यम राज के यहां भी सब इच्छा पूरी होती हैं, परन्तु  गौ की  सेवा न  करने  से नरक

से छुटकारा नहीं मिलता।

4.1.0.37 AV 12-4-37 Cows denied mating are angry cows

गौ को वृषभ आवश्यक है

प्रवीयमाना  चरति क्रुद्धा गोपतये वशा ।

वेहतं मा मन्यमानो  मृत्योः पाशेषु बध्यताम् ।। अथर्व 12-4-37

Denial of breeding to good cows makes them infertile makes cows angry

and curse the keepers to Death.

(Modern practice of artificial insemination is known to  cause infertility. This

is a challenge for modern Dairy Practice.))

गौ को वृषभ का सहवास न  मिलने  पर गौ क्रोधित और बांझ होने

लगती  हैं। (क्रित्रिम गर्भाधान में गौ बांझ होने लगती हैं )

4.1.0.38 AV 12-4-38 Cow Breeding facility

गौ प्रजनन व्यवस्था

यो वेहतं मन्यमानो ऽमा च पचते वशा ।

अप्यस्य पुत्रान्‌ पौत्रांश्च याचयते बृहस्पति ।। 12-4-38

Neglect of breeding a good cow makes the coming  generation of society in

to beggars

जिस समाज में गौ प्रजनन सुव्यवस्थित नहीं होता वहां के लोग भीख मांगते हैं।

Pasture Significance गोचर महत्व

4.1.0.39 AV 12-4-39 Pastures should have free access गोचर महत्व

महदेषाव तपति चरन्ति  गोषु गौरपि ।

अथो ह गोपतये वशाददुषे विषं दुहे ।। अथर्व 12-4-39

Barriers in pastures angers the cows, the milk from such cows is likened to

poison. (महदेषाव – Big barriers)

(This fact is fully supported by latest dairy

science researches. Only milk of green forage fed cows is rich Essential

Fatty acids-Omega3 & Omega 6 and has much lower saturated fat content

and is rich with all Carotenoids. This is confirmed by the researches

shown here.)

 

मुसलमानों का ईमान एक झूठ

TAQIYYA

मुसलमानों का ईमान एक झूठ

अक्सर मुसलमान यह बात कहते हैं ,कि हम तो अपने ईमान के पक्के हैं .क्योंकि मुसलमान शब्द का मतलब ही है “मुसल्लम ईमान “यानी पूरा ईमान .लोग गलती से ईमान का तात्पर्य उनकी सत्यवादिता या उनकी आस्था समझ लेते हैं (जो है नहीं) .
लेकिन बहुत कम लोग जानते

हैं कि ,मुसलमानों के दो गुप्त ईमान policies और भी हैं ,जिनका प्रयोग मुसलमान खुद को बचाने और दूसरों को धोखा देने में करते हैं .मुसलमानों कि इन दो नीतियों Policies या ईमान का नाम है ,तकिय्या और कितमान .इनका विवरण इस प्रकार है –
1 -तकिय्या تقيه Taqiyya
इसका अर्थ है छल, ढोंग ,ढकोसला,दिखावा ,सत्य को नकारना ,बहाने बनाना आदि हैं
उदाहरण -जब किसी इस्लामी किताब में कोई खराब बात बताई जाती है ,तो मुसलमान कसते है कि ,अनुवाद गलत है ,अमुक शब्द का अर्थ कुछ और है,हम इस फतवे या हदीस को नहीं मानते ,या यह आयत मंसूख (रद्द )हो चुकी है .आदि
2 -कितमान كِتمان Kitaman
इसका अर्थ है आड़,झूठ,मिथ्या आरोप लगाना आदि
उदाहरण -जब मुसलमानों की गलतियाँ पकड़ी जाती हैं ,तो वह खुद को निर्दोष साबित करने लिए दूरारों में वही गलतियां बताने लगते है ,और लोगों को गुमराह करने के लिए गालीगालोच करने लगते हैं ,दवाब डालने के लिए हंग्गामा करते हैं ,हिंसा करते है .आदि
मुसलमानों के विशासघात के उदाहरण
1 -मुहम्मद गौरी ने 17 बार कुरआन की कसम खाई थी कि भारत पर हमला नहीं करेगा ,लेकिन हमला किया ]
2 -अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तोड़ के राणा रतन सिंह को दोस्ती के बहाने बुलाया फिर क़त्ल कर दिया
3 -औरंगजेब ने शिवाजी को दोस्ती के बहाने आगरा बुलाया फिर धोखे से कैद कर लिया .
4 -औरंगजेब ने कुरआन की कसम खाकर श्री गोविन्द सिघ को आनद पुर से सुरक्षित जाने देने का वादा किया था .फिर हमला किया था
5 -अफजल खान ने दोस्ती के बहाने शिवाजी की ह्त्या का प्रयत्न किया था .
६-मित्रता की बातें कहकर पाकिस्तान ने कारगिल पर हमला किया था .
अगर हम इतिहास से सबक नहीं लेकर मुसलमानों की शांति और दोस्ती की बातों मे आते रहे तो हमेशा नुकसान उठाते रहेंगे.

 

अखण्ड भारत के स्वप्नद्रष्टा- वीर नाथूराम गोडसे…

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अखण्ड भारत के स्वप्नद्रष्टा- वीर नाथूराम गोडसे…

प्रस्‍तुति: डॉ0 संतोष राय

 

19 मई 1910 को मुम्बई – पुणे के बीच ‘ बारामती ‘ में संस्कारित राष्ट्रवादी हिन्दु परिवार मेँ जन्मेँ वीर नाथूराम गोडसे एक ऐसा नाम है जिसके सुनते ही लोगोँ के मन-मस्तिष्क मेँ एक ही विचार आता है कि गांधी का हत्यारा।

इतिहास मेँ भी गोडसे जैसे परम राष्ट्रभक्त बलिदानी का इतिहास एक ही पंक्ति मेँ समाप्त हो जाता है…

गांधी का सम्मान करने वाले गोडसे को गांधी का वध आखिर क्योँ करना पडा, इसके पीछे क्या कारण रहे, इन कारणोँ की कभी भी व्याख्या नही की जाती।

नाथूराम गोडसे एक विचारक, समाज सुधारक, पत्रकार एवं सच्चा राष्ट्रभक्त था और गांधी का सम्मान करने वालोँ मेँ भी अग्रिम पंक्ति मेँ था। किन्तु सत्ता परिवर्तन के पश्चात गांधीवाद मेँ जो परिवर्तन देखने को मिला, उससे नाथूराम ही नहीँ करीब-करीब सम्पूर्ण राष्ट्रवादी युवा वर्ग आहत था। गांधीजी इस देश के विभाजन के पक्ष मेँ नहीँ थे। उनके लिए ऐसे देश की कल्पना भी असम्भव थी, जो किसी एक धर्म के अनुयायियोँ का बसेरा हो। उन्होँने प्रतिज्ञापूर्ण घोषणा की थी कि भारत का विभाजन उनकी लाश पर होगा। परन्तु न तो वे विभाजन रोक सके, न नरसंहार का वह घिनौना ताण्डव, जिसने न जाने कितनोँ की अस्मत लूट ली, कितनोँ को बेघर किया और कितने सदा – सदा के लिए अपनोँ से बिछड गये।

खण्डित भारत का निर्माण गांधीजी की लाश पर नहीँ, अपितु 25 लाख हिन्दू, सिक्खोँ और मुसलमानोँ की लाशोँ तथा असंख्य माताओँ और बहनोँ के शीलहरण पर हुआ।

किसी भी महापुरुष के जीवन मेँ उसके सिद्धांतोँ और आदर्शो की मौत ही वास्तविक मौत होती है। जब लाखोँ माताओँ, बहनोँ के शीलहरण तथा रक्तपात और विश्व की सबसे बडी त्रासदी द्विराष्ट्रवाद के आधार पर पाकिस्तान का निर्माण हुआ। उस समय गांधी के लिए हिन्दुस्थान की जनता मेँ जबर्दस्त आक्रोश फैल चुका था। प्रायः प्रत्येक की जुबान पर एक ही बात थी कि गांधी मुसलमानोँ के सामने घुटने चुके है। रही – सही कसर पाकिस्तान को 55 करोड रुपये देने के लिए गांधी के अनशन ने पूरी कर दी। उस समय सारा देश गांधी का घोर विरोध कर रहा था और परमात्मा से उनकी मृत्यु की कामना कर रहा था।

जहाँ एक और गांधीजी पाकिस्तान को 55 करोड रुपया देने के लिए हठ कर अनशन पर बैठ गये थे, वही दूसरी और पाकिस्तानी सेना हिन्दू निर्वासितोँ को अनेक प्रकार की प्रताडना से शोषण कर रही थी, हिन्दुओँ का जगह – जगह कत्लेआम कर रही थी, माँ और बहनोँ की अस्मतेँ लूटी जा रही थी, बच्चोँ को जीवित भूमि मेँ दबाया जा रहा था। जिस समय भारतीय सेना उस जगह पहुँचती, उसे मिलती जगह – जगह अस्मत लुटा चुकी माँ – बहनेँ, टूटी पडी चुडियाँ, चप्पले और बच्चोँ के दबे होने की आवाजेँ।

ऐसे मेँ जब गांधीजी से अपनी जिद छोडने और अनशन तोडने का अनुरोध किया जाता तो गांधी का केवल एक ही जबाब होता- “चाहे मेरी जान ही क्योँ न चली जाए, लेकिन मैँ न तो अपने कदम पीछे करुँगा और न ही अनशन समाप्त करुगा।”

आखिर मेँ नाथूराम गोडसे का मन जब पाकिस्तानी अत्याचारोँ से ज्यादा ही व्यथित हो उठा तो मजबूरन उन्हेँ हथियार उठाना पडा। नाथूराम गोडसे ने इससे पहले कभी हथियार को हाथ नही लगाया था। 30 जनवरी 1948 को गोडसे ने जब गांधी पर गोली चलायी तो गांधी गिर गये। उनके इर्द-गिर्द उपस्थित लोगोँ ने गांधी को बाहोँ मेँ ले लिया। कुछ लोग नाथूराम गोडसे के पास पहुँचे। गोडसे ने उन्हेँ प्रेमपूर्वक अपना हथियार सौप दिया और अपने हाथ खडे कर दिये। गोडसे ने कोई प्रतिरोध नहीँ किया। गांधीवध के पश्चात उस समय समूची भीड मेँ एक ही स्थिर मस्तिष्क वाला व्यक्ति था, नाथूराम गोडसे। गिरफ्तार होने के बाद गोडसे ने डाँक्टर से शांत मस्तिष्क होने का सर्टिफिकेट मांगा, जो उन्हेँ मिला भी।

नाथूराम गोडसे ने न्यायालय के सम्मुख अपना पक्ष रखते हुए गांधी का वध करने के 150 कारण बताये थे। उन्होँने जज से आज्ञा प्राप्त कर ली थी कि वह अपने बयानोँ को पढकर सुनाना चाहते है। अतः उन्होँने वो बयान माइक पर पढकर सुनाए। लेकिन नेहरु सरकार ने (डर से) गोडसे के गांधी वध के कारणोँ पर रोक लगा दी जिससे वे बयान भारत की जनता के समक्ष न पहुँच पाये। गोडसे के उन क्रमबद्ध बयानोँ मेँ से कुछ बयान आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा जिससे आप जान सके कि गोडसे के बयानोँ पर नेहरु ने रोक क्योँ लगाई.?

तथा गांधी वध उचित था या अनुचित.??

दक्षिण अफ्रिका मेँ गांधीजी ने भारतियोँ के हितोँ की रक्षा के लिए बहुत अच्छे काम किये थे। लेकिन जब वे भारत लोटे तो उनकी मानसिकता व्यक्तिवादी हो चुकी थी। वे सही और गलत के स्वयंभू निर्णायक बन बैठे थे। यदि देश को उनका नेतृत्व चाहिये था तो उनकी अनमनीयता को स्वीकार करना भी उनकी बाध्यता थी। ऐसा न होने पर गांधी कांग्रेस की नीतियोँ से हटकर स्वयं अकेले खडे हो जाते थे। वे हर किसी निर्णय के खुद ही निर्णायक थे। सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर रहते हुए गांधी की नीति पर नहीँ चलेँ। फिर भी वे इतने लोकप्रिय हुए कि गांधीजी की इच्छा के विपरीत पट्टाभी सीतारमैया के विरोध मेँ प्रबल बहुमत से चुने गये। गांधी को दुःख हुआ, उन्होँने कहा की सुभाष की जीत गांधी की हार है। जिस समय तक सुभाष चन्द्र बोस को कांग्रेस की गद्दी से नहीँ उतारा गया तब तक गांधी का क्रोध शांत नहीँ हुआ ।

मुस्लिम लीग देश की शान्ति को भंग कर रही थी और हिन्दुओँ पर अत्याचार कर रही थी । कांग्रेस इन अत्याचारोँ को रोकने के लिए कुछ भी नहीँ करना चाहती थी, क्योकि वह मुसलमानोँ को खुश रखना चाहती थी।गांधी जिस बात को अनुकूल नहीँ पाते थे उसे दबा देते थे । इसलिए मुझे यह सुनकर आश्चर्य होता है की आजादी गांधी ने प्राप्त की । मेरा विचार है की मुसलमानोँ के आगे झुकना आजादी के लिए लडाई नहीँ थी। गांधी व उसके साथी सुभाष को नष्ट करना चाहते थे ।

 

श्री नाथूराम गोडसे व अन्य राष्ट्रवादी युवा गांधीजी की हठधर्मिता और मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति से क्षुब्ध थे, हिन्दुस्थान की जनता के दिलोँ मेँ गांधीजी के झूठे अहिँसावाद और नेतृत्व के प्रति घृणा पैदा हो चुकी थी।उस समय गांधीजी के चरित्र पर भी अंगुली उठ रही थी जिसके चलते वरिष्ठ नेता जे. बी. कृपलानी और वल्लभ भाई पटेल आदि नेताओँ ने उनसे दूरी बना ली। यहा तक की कई लोगोँ ने उनका आश्रम छोड दिया था। अब उससे आगे के बयान….

इस बात को तो मैँ सदा से बिना छिपाए कहता रहा हूँ कि मैँ गांधीजी के सिद्धांतोँ के विरोधी सिद्धांतोँ का प्रचार  कर रहा हूँ। यह मेरा पूर्ण विश्वास रहा है कि अहिँसा का अत्याधिक प्रचार हिन्दू जाति को अत्यन्त निर्बल बना देगा और अंत मेँ यह जाति ऐसी भी नहीँ रहेगी कि वह दूसरी जातियोँ से, विशेषकर मुसलमानोँ के अत्याचारोँ का प्रतिरोध कर सके ।

हम लोग गांधीजी की अहिँसा के विरोधी ही नहीँ थे, प्रत्युत इस बात के अधिक विरोधी थे कि गांधीजी अपने कार्यो और विचारोँ मेँ मुस्लिमोँ का अनुचित पक्ष लेते थे और उनके सिद्धांतोँ व कार्यो से हिन्दू जाति की अधिकाधिक हानि हो रही थी।

मालाबार, नोआख्याली, पंजाब, बंगाल, सीमाप्रांत मेँ हिन्दुओँ पर अत्याधिक अत्याचार हुयेँ । जिसको मोपला विद्रोह के नाम से जाना जाता है । उसमेँ हिन्दुओँ की संपत्ति, धन व जीवन पर सबसे बडा हमला हुआ।हिन्दुओँ को बलपूर्वक मुसलमान बनाया गया, स्त्रियोँ के अपमान हुये । गांधीजी अपनी नीतियोँ के कारण इसके उत्तरदायी थे, मौन रहे । प्रत्युत यह कहना शुरु कर दिया कि मालाबार मेँ हिन्दुओँ को मुसलमान नहीँ बनाया गया ।यद्यपि उनके मुस्लिम मित्रोँ ने यह स्वीकार किया कि सैकडोँ घटनाऐँ हुई है। और उल्टे मोपला मुसलमानोँ के लिए फंड शुरु कर दिया ।

कांग्रेस ने गांधीजी को सम्मान देने के लिए चरखे वाले ध्वज को राष्ट्रीय ध्वज बनाया। प्रत्येक अधिवेशन मेँ प्रचुर मात्रा मेँ ये ध्वज लगाये जाते थे । इस ध्वज के साथ कांग्रेस का अति घनिष्ट सम्बन्ध था। नोआख्याली के 1946 के दंगोँ के बाद वह ध्वज गांधीजी की कुटिया पर भी लहरा रहा था, परन्तु जब एक मुसलमान को ध्वज के लहराने पर आपत्ति हुई तो गांधी ने तत्काल उसे उतरवा दिया। इस प्रकार लाखोँ – करोडोँ देशवासियोँ की इस ध्वज के प्रति श्रद्धा को गांधी ने अपमानित किया। केवल इसलिए की ध्वज को उतारने से एक मुसलमान खुश होता था।

कश्मीर के विषय मेँ गांधी हमेशा यह कहते रहे की सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौप दी जाये, केवल इसलिए की कश्मीर मेँ मुस्लिम है। इसलिए गांधीजी का मत था कि महाराजा हरिसिँह को संन्यास लेकर काशी चले जाना चाहिए, परन्तु हैदराबाद के विषय मेँ गांधी की नीति भिन्न थी । यद्यपि वहाँ हिन्दूओँ की जनसंख्या अधिक थी, परन्तु गांधीजी ने कभी नहीँ कहा की निजाम फकीरी लेकर मक्का चला जायेँ ।

जब खिलापत आंदोलन असफल हो गया तो मुसलमानोँ को बहुत निराशा हुई और अपना क्रोध हिन्दुओँ पर  उतारा । गांधीजी ने गुप्त रुप से अफगानिस्तान के अमीर को भारत पर आक्रमण करने का निमन्त्रण दिया, जो गांधीजी के लेख के इस अंश से सिद्ध हो जाता है – “मैँ नही समझता कि जैसे खबर फैली है, अली भाईयोँ को क्योँ जेल मेँ डाला जायेगा और मैँ क्योँ आजाद रहूँगा? उन्होँने ऐसा कोई कार्य नही किया है जो मैँ न करु।यदि उन्होँने अमीर अफगानिस्तान को आक्रमण के लिए संदेश भेजा है, तो मैँ भी उनके पास संदेश भेज दूँगा कि जब वो भारत आयेँगे तो जहाँ तक मेरा बस चलेगा एक भी भारतवासी उनको हिन्द से निकालने मेँ सरकार की सहायता नहीँ करेगा।”

मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए गांधी ने एक मुसलमान के द्वारा भूषण कवि के विरुद्ध पत्र लिखने पर उनकी अमर रचना शिवबवनी पर रोक लगवा दी, जबकि गांधी ने कभी भी भूषण का काव्य या शिवाजी की जीवनी नहीँ पढी। शिवबवनी 52 छंदोँ का एक संग्रह है जिसमेँ शिवाजी महाराज की प्रशंसा की गयी है । इसके एक छंद मेँ कहा गया है कि अगर शिवाजी न होते तो सारा देश मुसलमान हो जाता । गांधीजी को ज्ञात हुआ कि मुसलमान वन्देमातरम् पसंद नही करते तो जहाँ तक सम्भव हो सका गांधीजी ने उसे बंद करा दिया ।

राष्ट्रभाषा के विषय पर जिस तरह से गांधी ने मुसलमानोँ का अनुचित पक्ष लिया उससे उनकी मुस्लिम समर्थक नीति का भ्रष्ट रुप प्रगट होता था । किसी भी दृष्टि से देखा जाए तो यह स्पष्ट है कि इस देश की राष्ट्रभाषा बनने का अधिकार हिन्दी को है । गांधीजी ने अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत मेँ हिन्दी को बहुत प्रोत्साहन दिया। लेकिन जैसे ही उन्हेँ पता चला कि मुसलमान इसे पसन्द नही करते, तो वे उन्हेँ खुश करने के लिए हिन्दुस्तानी का प्रचार करने लगे । बादशाह राम, बेगम सीता और मौलवी वशिष्ठ जैसे नामोँ का प्रयोग होने लगा। मुसलमानोँ को खुश करने के लिए हिन्दुस्तानी (हिन्दी और उर्दु का वर्ण संकर रुप) स्कूलोँ मेँ पढाई जाने लगी। इसी अवधारणा से मुस्लिम तुष्टिकरण का जन्म हुआ जिसके मूल से ही पाकिस्तान का निर्माण हुआ है ।

गांधीजी का हिन्दू मुस्लिम एकता का सिद्धांत तो उसी समय नष्ट हो गया जिस समय पाकिस्तान बना। प्रारम्भ से ही मुस्लिम लीग का मत था कि भारत एक देश नही है। हिन्दू तो गांधी के परामर्श पर चलते रहे किन्तु मुसलमानोँ ने गांधी की तरफ ध्यान नही दिया और अपने व्यवहार से वे सदा हिन्दुओँ का अपमान तथा अहित करते रहे। अंत मेँ देश का दो टुकडोँ मेँ विभाजन हो गया और भारत का एक तिहाई हिस्सा विदेशियोँ की भूमि बन गया।

32 वर्षो से गांधीजी मुसलमानोँ के पक्ष मेँ कार्य कर रहे थे और अंत मेँ उन्होँने जो पाकिस्तान को 55 करोड रुपये दिलाने के लिए धूर्ततापूर्ण अनशन करने का निश्चय किया, इन बातोँ ने मुझे गांधी वध करने का निर्णय लेने के लिए विवश कर दिया। 30 जनवरी 1948 को बिडला भवन की प्रार्थना सभा मेँ देश की रक्षा के लिए मैने गांधी को गोली मार दी।

वास्तव मेँ मेरे जीवन का उसी समय अन्त हो गया था जब मैने गांधी वध का निर्णय लिया था। गांधी और मेरे  जीवन के सिद्धांत एक है, हम दोनोँ ही इस देश के लिए जीये,गांधीजी ने उन सिद्धांतोँ पर चलकर अपने जीवन का रास्ता बनाया और मैने अपनी मौत का। गांधी वध के पश्चात मैँ समाधि मेँ हूँ और अनासक्त जीवन बिता रहा हूँ।

मैँ मानता हूँ कि गांधीजी एक सोच है, एक संत है, एक मान्यता है और उन्होँने देश के लिए बहुत कष्ट उठाए। जिसके कारण मैँ उनकी सेवा के प्रति एवं उनके प्रति नतमस्तक हूँ, लेकिन इस देश के सेवक को भी जनता को धोखा देकर मातृभूमि के विभाजन का अधिकार नही था। किसी का वध करना हमारे धर्म मेँ पाप है, मै जानता हूँ कि इतिहास मेँ मुझे अपराधी समझा जायेगा लेकिन हिन्दुस्थान को संगठित करने के लिए गांधी वध आवश्यक था । मैँ किसी प्रकार की दया नही चाहता हँ । मैँ यह भी नही चाहता कि मेरी ओर से कोई और दया की याचना करेँ ।

यदि देशभक्ति पाप है तो मैँ स्वीकार करता हूँ कि यह पाप मैने किया है ।यदि पुण्य है तो उससे उत्पन्न  पुण्य पर मेरा नम्र अधिकार है। मुझे विश्वास है कि मनुष्योँ के द्वारा स्थापित न्यायालय के ऊपर कोई न्यायालय हो तो उसमेँ मेरे काम को अपराध नही माना जायेगा । मैने देश और जाति की भलाई के लिए यह काम किया! मैने उस व्यक्ति पर गोली चलाई जिसकी नीतियोँ के कारण हिन्दुओँ पर घोर संकट आये और हिन्दू नष्ट हुए!!

मेरा विश्वास अडिग है कि मेरा कार्य ‘नीति की दृष्टि’ से पूर्णतया उचित है। मुझे इस बात मेँ लेश मात्र भी सन्देह नही की भविष्य मेँ किसी समय सच्चे इतिहासकार इतिहास लिखेँगे तो वे मेरे कार्य को उचित आंकेगे।

मोहनदास गांधीजी की हत्या करने के कारण नाथूराम गोडसेजी एवँ उनके मित्र नारायण आपटेजी को फाँसी की सजा सुनाई गई थी। न्यायालय मेँ जब गोडसे को फाँसी की सजा सुनाई गई तो पुरुषोँ के बाजू फडक रहे थे, और स्त्रियोँ की आँखोँ मेँ आँसू थे। नाथूराम गोडसे व नारायण आपटे को 15 नवम्बर 1949 को अम्बाला (हरियाणा) मेँ फासी दी गई। फाँसी दिये जाने से कुछ ही समय पहले नाथूराम गोडसे ने अपने भाई दत्तात्रेय को हिदायत देते हुए कहा था, कि

“मेरी अस्थियाँ पवित्र सिन्धू नदी मेँ ही उस समय प्रवाहित करना जब सिन्धू नदी एक स्वतन्त्र नदी के रुप मेँ भारत के झंडे तले बहने लगे, भले ही इसमेँ कितने भी वर्ष लग जायेँ, कितनी ही पीढियाँ जन्म लेँ, लेकिन तब तक मेरी अस्थियाँ विसर्जित न करना ।”

श्रीनाथूराम गोडसे ने तो न्यायालय से भी अपनी अन्तिम इच्छा मेँ सिर्फ यही माँगा था – ” हिन्दुस्थान की सभी नदियाँ अपवित्र हो चुकी है, अतः मेरी अस्थियोँ को पवित्र सिन्धू नदी मेँ प्रवाहित कराया जाए ।”

वीर नाथूराम गोडसे और नारायण आपटे ने वन्दे मातरम् का उद्घोष करते हुये फाँसी के फंदे को अखण्ड भारत का स्वप्न देखते हुये चूमा और देश के लिए आत्म बलिदान दे दिया ।

नाथूराम गोडसे और नारायण आपटे के अन्तिम संस्कार के बाद उनकी अंतिम इच्छा को पूर्ण करना तो दूर उनकी राख भी उनके परिवार वालोँ को नहीँ सौँपी गई थी । जेल अधिकारियोँ ने अस्थियोँ और राख से भरा मटका रेलवे पुल के ऊपर से घग्गर मेँ फेँक दिया था । दोपहर बाद मेँ उन्ही जेल कर्मचारियोँ मेँ से किसी ने बाजार मेँ जाकर यह बात एक दुकानदार को बताई, उस दुकानदार ने तत्काल यह सूचना स्थानीय हिन्दू महासभा कार्यकर्ता इन्द्रसेन शर्मा तक पहुँचाई ।इन्द्रसेन उस समय ‘ द ट्रिब्यून ‘ के कर्मचारी भी थे। इन्द्रसेन तत्काल अपने दो मित्रोँ को साथ लेकर दुकानदार द्वारा बताये गये स्थान पर पहुँचेँ । उन दिनोँ घग्गर नदी मेँउस स्थान पर बहुत ही कम पानी था । उन्होँने वह मटका वहाँ से सुरक्षित निकालकर प्रोफेसर ओमप्रकाश कोहल को सौप दिया,जिन्होँने आगे उसे डाँ. एल वी परांजये को नासिक मेँ ले जाकर सुपुर्द किया। उसके पश्चात वह अस्थिकलश 1965 मेँ नाथूराम गोडसे के छोटे भाई गोपाल गोडसे तक पहुँचाया गया, जब वे जेल से रिहा हुए । वर्तमान मेँ यह अस्थिकलश पूना मेँ उनके निवास पर उनकी अंतिम इच्छा पूरी होने की प्रतिक्षा मेँ रखा हुआ है।

15 नवम्बर 1950 से अभी तक प्रत्येक 15 नवम्बर को महात्मा गोडसे का “शहीद दिवस” मनाया जाता है। सबसे पहले नाथूराम गोडसे और नारायण आपटे के चित्रोँ को अखण्ड भारत के चित्र के साथ रखकर फूलमाला पहनाई जाती है ।उसके पश्चात जितने वर्ष उनके आत्मबलिदान को हुए है उतने दीपक जलाये जाते है और आरती होती है। अन्त मेँ उपस्थित सभी लोग यह प्रतिज्ञा लेते है कि वे महात्मा गोडसेजी के “अखण्ड हिन्दुस्थान” के स्वप्न को पूरा करने के लिये काम करते रहेँगे। हमे पूर्ण विश्वास है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश एक दिन टुकडे- टुकडे होकर बिखर जायेगे और अन्ततः उनका भारत मेँ विलय होगा और तब गोडसेजी का अस्थि विर्सजन किया जायेगा।

हमेँ स्मरण रखना होगा कि यहूदियोँ को अपना राष्ट्र पाने के लिये 1600 वर्ष लगे,प्रत्येक वर्ष वे प्रतिज्ञा लेते थे कि अगले वर्ष यरुशलम हमारा होगा। इसी प्रकार हमेँ भी प्रत्येक 15 नवम्बर को अखण्ड भारत बनाने की प्रतिज्ञा लेनी चाहिये।

मेरा यह लेख लिखने का उद्देश्य किसी की भावनाओँ को ठेस पहुँचाना नहीँ, बल्कि उस सच को उजागर करना है, जिसे अभी तक इतिहासकार और भारत सरकार अनदेखा करती रही है।

गांधीजी के बलिदान को नही भूला जा सकता है तो गोडसेजी के बलिदान को भी नही।

 

मदर टेरेसा संत या धोखा

Mother Teresa

मदर टेरेसा संत या धोखा 

एग्नेस गोंक्झा बोज़ाझियू अर्थात मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त 1910 को स्कोप्जे, मेसेडोनिया में हुआ था और बारह वर्ष की आयु में उन्हें अहसास हुआ कि “उन्हें ईश्वर बुला रहा है”। 24 मई 1931 को वे कलकत्ता आईं और फ़िर यहीं की होकर रह गईं। उनके बारे में इस प्रकार की सारी बातें लगभग सभी लोग जानते हैं, लेकिन कुछ ऐसे तथ्य, आँकड़े और लेख हैं जिनसे इस शख्सियत पर सन्देह के बादल गहरे होते जाते हैं। उन पर हमेशा वेटिकन की मदद और मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी की मदद से “धर्म परिवर्तन” का आरोप तो लगता ही रहा है, लेकिन बात कुछ और भी है, जो उन्हें “दया की मूर्ति”, “मानवता की सेविका”, “बेसहारा और गरीबों की मसीहा”… आदि वाली “लार्जर दैन लाईफ़” छवि पर ग्रहण लगाती हैं, और मजे की बात यह है कि इनमें से अधिकतर आरोप (या कहें कि खुलासे) पश्चिम की प्रेस या ईसाई पत्रकारों आदि ने ही किये हैं, ना कि किसी हिन्दू संगठन ने, जिससे संदेह और भी गहरा हो जाता है (क्योंकि हिन्दू संगठन जो भी बोलते या लिखते हैं उसे तत्काल सांप्रदायिक ठहरा दिये जाने का “रिवाज” है)। बहरहाल, आईये देखें कि क्यों इस प्रकार के “संत” या “चमत्कार” आदि की बातें बेमानी होती हैं (अब ये पढ़ते वक्त यदि आपको हिन्दुओं के बड़े-बड़े और नामी-गिरामी बाबाओं, संतों और प्रवचनकारों की याद आ जाये तो कोई आश्चर्यजनक बात नहीं होगी) –

यह बात तो सभी जानते हैं कि धर्म कोई सा भी हो, धार्मिक गुरु/गुरुआनियाँ/बाबा/सन्त आदि कोई भी हो बगैर “चन्दे” के वे अपना कामकाज(?) नहीं फ़ैला सकते हैं। उनकी मिशनरियाँ, उनके आश्रम, बड़े-बड़े पांडाल, भव्य मन्दिर, मस्जिद और चर्च आदि इसी विशालकाय चन्दे की रकम से बनते हैं। जाहिर है कि जहाँ से अकूत पैसा आता है वह कोई पवित्र या धर्मात्मा व्यक्ति नहीं होता, ठीक इसी प्रकार जिस जगह ये अकूत पैसा जाता है, वहाँ भी ऐसे ही लोग बसते हैं। आम आदमी को बरगलाने के लिये पाप-पुण्य, अच्छाई-बुराई, धर्म आदि की घुट्टी लगातार पिलाई जाती है, क्योंकि जिस अंतरात्मा के बल पर व्यक्ति का सारा व्यवहार चलता है, उसे दरकिनार कर दिया जाता है। पैसा (यानी चन्दा) कहीं से भी आये, किसी भी प्रकार के व्यक्ति से आये, उसका काम-धंधा कुछ भी हो, इससे लेने वाले “महान”(?) लोगों को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। उन्हें इस बात की चिंता कभी नहीं होती कि उनके तथाकथित प्रवचन सुनकर क्या आज तक किसी भी भ्रष्टाचारी या अनैतिक व्यक्ति ने अपना गुनाह कबूल किया है? क्या किसी पापी ने आज तक यह कहा है कि “मेरी यह कमाई मेरे तमाम काले कारनामों की है, और मैं यह सारा पैसा त्यागकर आज से सन्यास लेता हूँ और मुझे मेरे पापों की सजा के तौर पर कड़े परिश्रम वाली जेल में रख दिया जाये..”। वह कभी ऐसा कहेगा भी नहीं, क्योंकि इन्हीं संतों और महात्माओं ने उसे कह रखा है कि जब तुम अपनी कमाई का कुछ प्रतिशत “नेक” कामों के लिये दान कर दोगे तो तुम्हारे पापों का खाता हल्का हो जायेगा। यानी, बेटा..तू आराम से कालाबाजारी कर, चैन से गरीबों का शोषण कर, जम कर भ्रष्टाचार कर, लेकिन उसमें से कुछ हिस्सा हमारे आश्रम को दान कर… है ना मजेदार धर्म…

बहरहाल बात हो रही थी मदर टेरेसा की, मदर टेरेसा की मृत्यु के समय सुसान शील्ड्स को न्यूयॉर्क बैंक में पचास मिलियन डालर की रकम जमा मिली, सुसान शील्ड्स वही हैं जिन्होंने मदर टेरेसा के साथ सहायक के रूप में नौ साल तक काम किया, सुसान ही चैरिटी में आये हुए दान और चेकों का हिसाब-किताब रखती थीं। जो लाखों रुपया गरीबों और दीन-हीनों की सेवा में लगाया जाना था, वह न्यूयॉर्क के बैंक में यूँ ही फ़ालतू पड़ा था? मदर टेरेसा को समूचे विश्व से, कई ज्ञात और अज्ञात स्रोतों से बड़ी-बड़ी धनराशियाँ दान के तौर पर मिलती थीं।

अमेरिका के एक बड़े प्रकाशक रॉबर्ट मैक्सवैल, जिन्होंने कर्मचारियों की भविष्यनिधि फ़ण्ड्स में 450 मिलियन पाउंड का घोटाला किया, ने मदर टेरेसा को 1.25 मिलियन डालर का चन्दा दिया। मदर टेरेसा मैक्सवैल के भूतकाल को जानती थीं। हैती के तानाशाह जीन क्लाऊड डुवालिये ने मदर टेरेसा को सम्मानित करने बुलाया। मदर टेरेसा कोलकाता से हैती सम्मान लेने गईं, और जिस व्यक्ति ने हैती का भविष्य बिगाड़ कर रख दिया, गरीबों पर जमकर अत्याचार किये और देश को लूटा, टेरेसा ने उसकी “गरीबों को प्यार करने वाला” कहकर तारीफ़ों के पुल बाँधे।

मदर टेरेसा को चार्ल्स कीटिंग से 1.25 मिलियन डालर का चन्दा मिला, ये कीटिंग महाशय वही हैं जिन्होंने “कीटिंग सेविंग्स एन्ड लोन्स” नामक कम्पनी 1980 में बनाई थी और आम जनता और मध्यमवर्ग को लाखों डालर का चूना लगाने के बाद उसे जेल हुई थी। अदालत में सुनवाई के दौरान मदर टेरेसा ने जज से कीटिंग को “माफ़”(?) करने की अपील की थी, उस वक्त जज ने उनसे कहा कि जो पैसा कीटिंग ने गबन किया है क्या वे उसे जनता को लौटा सकती हैं? ताकि निम्न-मध्यमवर्ग के हजारों लोगों को कुछ राहत मिल सके, लेकिन तब वे चुप्पी साध गईं।

ब्रिटेन की प्रसिद्ध मेडिकल पत्रिका Lancet के सम्पादक डॉ.रॉबिन फ़ॉक्स ने 1991 में एक बार मदर के कलकत्ता स्थित चैरिटी अस्पतालों का दौरा किया था। उन्होंने पाया कि बच्चों के लिये साधारण “अनल्जेसिक दवाईयाँ” तक वहाँ उपलब्ध नहीं थीं और न ही “स्टर्लाइज्ड सिरिंज” का उपयोग हो रहा था। जब इस बारे में मदर से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि “ये बच्चे सिर्फ़ मेरी प्रार्थना से ही ठीक हो जायेंगे…”(?)

बांग्लादेश युद्ध के दौरान लगभग साढ़े चार लाख महिलायें बेघरबार हुईं और भागकर कोलकाता आईं, उनमें से अधिकतर के साथ बलात्कार हुआ था। मदर टेरेसा ने उन महिलाओं के गर्भपात का विरोध किया था, और कहा था कि “गर्भपात कैथोलिक परम्पराओं के खिलाफ़ है और इन औरतों की प्रेग्नेन्सी एक “पवित्र आशीर्वाद” है…”। उन्होंने हमेशा गर्भपात और गर्भनिरोधकों का विरोध किया। जब उनसे सवाल किया जाता था कि “क्या ज्यादा बच्चे पैदा होना और गरीबी में कोई सम्बन्ध नहीं है?” तब उनका उत्तर हमेशा गोलमोल ही होता था कि “ईश्वर सभी के लिये कुछ न कुछ देता है, जब वह पशु-पक्षियों को भोजन उपलब्ध करवाता है तो आने वाले बच्चे का खयाल भी वह रखेगा इसलिये गर्भपात और गर्भनिरोधक एक अपराध है” (क्या अजीब थ्योरी है…बच्चे पैदा करते जाओं उन्हें “ईश्वर” पाल लेगा… शायद इसी थ्योरी का पालन करते हुए ज्यादा बच्चों का बाप कहता है कि “ये तो भगवान की देन हैं..”, लेकिन वह मूर्ख नहीं जानता कि यह “भगवान की देन” धरती पर बोझ है और सिकुड़ते संसाधनों में हक मारने वाला एक और मुँह…)

मदर टेरेसा ने इन्दिरा गाँधी की आपातकाल लगाने के लिये तारीफ़ की थी और कहा कि “आपातकाल लगाने से लोग खुश हो गये हैं और बेरोजगारी की समस्या हल हो गई है”। गाँधी परिवार ने उन्हें “भारत रत्न” का सम्मान देकर उनका “ऋण” उतारा। भोपाल गैस त्रासदी भारत की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना है, जिसमें सरकारी तौर पर 4000 से अधिक लोग मारे गये और लाखों लोग अन्य बीमारियों से प्रभावित हुए। उस वक्त मदर टेरेसा ताबड़तोड़ कलकत्ता से भोपाल आईं, किसलिये? क्या प्रभावितों की मदद करने? जी नहीं, बल्कि यह अनुरोध करने कि यूनियन कार्बाईड के मैनेजमेंट को माफ़ कर दिया जाना चाहिये। और अन्ततः वही हुआ भी, वारेन एंडरसन ने अपनी बाकी की जिन्दगी अमेरिका में आराम से बिताई, भारत सरकार हमेशा की तरह किसी को सजा दिलवा पाना तो दूर, ठीक से मुकदमा तक नहीं कायम कर पाई। प्रश्न उठता है कि आखिर मदर टेरेसा थीं क्या?

एक और जर्मन पत्रकार वाल्टर व्युलेन्वेबर ने अपनी पत्रिका “स्टर्न” में लिखा है कि अकेले जर्मनी से लगभग तीन मिलियन डालर का चन्दा मदर की मिशनरी को जाता है, और जिस देश में टैक्स चोरी के आरोप में स्टेफ़ी ग्राफ़ के पिता तक को जेल हो जाती है, वहाँ से आये हुए पैसे का आज तक कोई ऑडिट नहीं हुआ कि पैसा कहाँ से आता है, कहाँ जाता है, कैसे खर्च किया जाता है… आदि।

अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पत्रकार क्रिस्टोफ़र हिचेन्स ने 1994 में एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी, जिसमें मदर टेरेसा के सभी क्रियाकलापों पर विस्तार से रोशनी डाली गई थी, बाद में यह फ़िल्म ब्रिटेन के चैनल-फ़ोर पर प्रदर्शित हुई और इसने काफ़ी लोकप्रियता अर्जित की। बाद में अपने कोलकाता प्रवास के अनुभव पर उन्होंने एक किताब भी लिखी “हैल्स एन्जेल” (नर्क की परी)। इसमें उन्होंने कहा है कि “कैथोलिक समुदाय विश्व का सबसे ताकतवर समुदाय है, जिन्हें पोप नियंत्रित करते हैं, चैरिटी चलाना, मिशनरियाँ चलाना, धर्म परिवर्तन आदि इनके मुख्य काम हैं…” जाहिर है कि मदर टेरेसा को टेम्पलटन सम्मान, नोबल सम्मान, मानद अमेरिकी नागरिकता जैसे कई सम्मान मिले।

संतत्व गढ़ना –
मदर टेरेसा जब कभी बीमार हुईं, उन्हें बेहतरीन से बेहतरीन कार्पोरेट अस्पताल में भरती किया गया, उन्हें हमेशा महंगा से महंगा इलाज उपलब्ध करवाया गया, हालांकि ये अच्छी बात है, इसका स्वागत किया जाना चाहिये, लेकिन साथ ही यह नहीं भूलना चाहिये कि यही उपचार यदि वे अनाथ और गरीब बच्चों (जिनके नाम पर उन्हें लाखों डालर का चन्दा मिलता रहा) को भी दिलवातीं तो कोई बात होती, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ…एक बार कैंसर से कराहते एक मरीज से उन्होंने कहा कि “तुम्हारा दर्द ठीक वैसा ही है जैसा ईसा मसीह को सूली पर हुआ था, शायद महान मसीह तुम्हें चूम रहे हैं”,,, तब मरीज ने कहा कि “प्रार्थना कीजिये कि जल्दी से ईसा मुझे चूमना बन्द करें…”। टेरेसा की मृत्यु के पश्चात पोप जॉन पॉल को उन्हें “सन्त” घोषित करने की बेहद जल्दबाजी हो गई थी, संत घोषित करने के लिये जो पाँच वर्ष का समय (चमत्कार और पवित्र असर के लिये) दरकार होता है, पोप ने उसमें भी ढील दे दी, ऐसा क्यों हुआ पता नहीं।

मोनिका बेसरा की कहानी –
पश्चिम बंगाल की एक क्रिश्चियन आदिवासी महिला जिसका नाम मोनिका बेसरा है, उसे टीबी और पेट में ट्यूमर हो गया था। बेलूरघाट के सरकारी अस्पताल के डॉ. रंजन मुस्ताफ़ उसका इलाज कर रहे थे। उनके इलाज से मोनिका को काफ़ी फ़ायदा हो रहा था और एक बीमारी लगभग ठीक हो गई थी। मोनिका के पति मि. सीको ने इस बात को स्वीकार किया था। वे बेहद गरीब हैं और उनके पाँच बच्चे थे, कैथोलिक ननों ने उनसे सम्पर्क किया, बच्चों की उत्तम शिक्षा-दीक्षा का आश्वासन दिया, उस परिवार को थोड़ी सी जमीन भी दी और ताबड़तोड़ मोनिका का “ब्रेनवॉश” किया गया, जिससे मदर टेरेसा के “चमत्कार” की कहानी दुनिया को बताई जा सके और उन्हें संत घोषित करने में आसानी हो। अचानक एक दिन मोनिका बेसरा ने अपने लॉकेट में मदर टेरेसा की तस्वीर देखी और उसका ट्यूमर पूरी तरह से ठीक हो गया। जब एक चैरिटी संस्था ने उस अस्पताल का दौरा कर हकीकत जानना चाही, तो पाया गया कि मोनिका बेसरा से सम्बन्धित सारा रिकॉर्ड गायब हो चुका है (“टाईम” पत्रिका ने इस बात का उल्लेख किया है)।

“संत” घोषित करने की प्रक्रिया में पहली पायदान होती है जो कहलाती है “बीथिफ़िकेशन”, जो कि 19 अक्टूबर 2003 को हो चुका। “संत” घोषित करने की यह परम्परा कैथोलिकों में बहुत पुरानी है, लेकिन आखिर इसी के द्वारा तो वे लोगों का धर्म में विश्वास(?) बरकरार रखते हैं और सबसे बड़ी बात है कि वेटिकन को इतने बड़े खटराग के लिये सतत “धन” की उगाही भी तो जारी रखना होता है….

(मदर टेरेसा की जो “छवि” है, उसे धूमिल करने का मेरा कोई इरादा नहीं है, इसीलिये इसमें सन्दर्भ सिर्फ़ वही लिये गये हैं जो पश्चिमी लेखकों ने लिखे हैं, क्योंकि भारतीय लेखकों की आलोचना का उल्लेख करने भर से “सांप्रदायिक” घोषित किये जाने का “फ़ैशन” है… इस लेख का उद्देश्य किसी की भावनाओं को चोट पहुँचाना नहीं है, जो कुछ पहले बोला, लिखा जा चुका है उसे ही संकलित किया गया है, मदर टेरेसा द्वारा किया गया सेवाकार्य अपनी जगह है, लेकिन सच यही है कि कोई भी धर्म हो इस प्रकार की “हरकतें” होती रही हैं, होती रहेंगी, जब तक कि आम जनता अपने कर्मों पर विश्वास करने की बजाय बाबाओं, संतों, माताओं, देवियों आदि के चक्करों में पड़ी रहेगी, इसीलिये यह दूसरा पक्ष प्रस्तुत किया गया है)