वह प्रभु महान सुपार तथा यग्यशीलों के मित्र है
डा. अशोक आर्य
रिग्वेद के प्रथम मण्डल ए सूक्त चार के समबन्ध मेम प[रकाश डालते
हुए बताया गया है कि प्रभु सरुपक्रत्नु है । इस प्रभुकी प्रार्थना करते
हुए उपदेश किया गया है कि हम सदा यग्योइं को करने वाले बनें , जीवन भर
सोम की रक्शा करते रहेम , हम दान देने में आनन्द आ अनुभव करेम , सदा
ग्यानियों से ग्यान्प्राप्त करते रहेम , किसी की निन्दा कदापि न करेम ,
व्यर्थ ए कामों में कभी अपना समय नष्ट न करेम , सदा प्रभु की चर्चा में
ही अपना समय लगावें क्योंकि वह प्रभु महान , सुपार तथा यग्य्शीलों के
मित्र होते हैं । इन सब बातों का इस सूक्त के विभिन्न मन्त्रों के
द्वारा चर्चा करते हुए बडे विस्तार से इस प्रकार वर्णन किया गय है । आओ
इस सूक्त के माध्यम से हम यह सब ग्यान प्रप्त अरने का यत्न करें ।
main janma ko hi nahi manta. to mrityu kahanse aayegi. atma amar ahi na vo janma leti hai na marti hai.
प्रकृति आत्मा और परमात्मा अनादि अजन्मा है |