ओ३म्
भारत में सबसे अधिक पुरानी, आज भी प्रासंगिक, सर्वाधिक लाभप्रद व सत्य मूल्यों पर आधारित धर्म व संस्कृति ‘‘वैदिक धर्म व संस्कृति” ही है। महाभारत काल के बाद अज्ञान व अंधविश्वास उत्पन्न हुए और इसका नाम वैदिक धर्म से बदल कर हिन्दू धर्म हो गया। हम सभी हिन्दू परिवारों में उत्पन्न हुए और हमने महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज द्वारा प्रदर्शित वेदोक्त मार्ग का अनुसरण कर वेदाध्ययन किया और वेदों से पुष्ट मान्यताओं को ही अपनाया है। व्रत-उपवास, तप, तीर्थ व दान आदि का वैदिक स्वरुप आज भी काफी विकृत है। इनका सत्यस्वरुप बताना ही इस लेख की विषय वस्तु है जिसका उल्लेख कर रहे हैं। पहले व्रत व उपवास क्या हैं, इसको जानने का प्रयत्न करते हैं। व्रत के विषय में यजुर्वेद में एक मन्त्र आता है-‘ओ३म् अग्ने व्रतपते चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्। इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि।’ मन्त्र का अर्थ है कि ‘हे सत्य धर्म के उपदेशक, व्रतो के पालक प्रभु मैं असत्य को छोड़कर सत्य को ग्रहण करने का व्रत लेता हूं। आप मुझे ऐसा सामर्थ्य दो कि मेरा यह असत्य को छोड़ने और सत्य को ग्रहण व जीवन में धारण करने का व्रत सिद्ध व सफल हो अर्थात् मैं अपने इस व्रत को पूरा कर सकूं व सत्य के पालन में खरा उतरूं।’ यही व्रत करने वा रखने का वैदिक स्वरूप है। किसी सांसारिक मनोकामना की पूर्ति के लिए किसी विशेष दिन अन्न, जल आदि के त्याग का नाम व्रत नहीं है। पति या पत्नी की प्रसन्नता के लिए उससे सद्व्यवहार करने का संकल्प लेना तथा उसे निभाना भी व्रत है। रोगग्रस्त का उचित उपचार करवाना भी व्रत है। इसी प्रकार काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि के त्याग का संकल्प लेकर उनका पालन करना ही व्रत कहलाता है। व्रत एक प्रकार का संकल्प होता है। इसे सत्य गुणों की धारणा करना भी कह सकते हैं। यदि व्रत, संकल्प या धारणा कर ली है तो फिर उसे मन, वचन व कर्म से पूरा करने का यथाशक्ति प्रयास करना ही व्रत है।
तप का स्वरूप भी आजकल काफी बिगड़ा हुआ है। महर्षि दयानन्द जी ने लिखा है कि धर्म के आचरण करने में जो कठिनाईयां आती हैं उसे सहन करना, पीडि़त न होना और सत्य पालन में स्थिर रहना ही तप है। तप विद्या का पढ़ना व पढ़ाना, सज्जनों का संग करना, ईश्वर की उपासना, ब्रह्मचर्य का पालन तथा दीन दुःखियों की सेवा आदि परोपकार कर्म करते हुए जो-जो कष्ट आएं उन्हें सहते जाना परन्तु सत्कर्म से पीछे न हटना ही तप है। कुछ लोग तप के नाम पर अकारण ही अपने शरीर को अनेक कष्ट देते हैं। गर्म चिमटे से अपने शरीर को दागते हैं, महीनों खड़े रहते हैं जिससे टांगों में खून उतर आता है और वे सूजकर बहुत कष्ट देती हैं, शीतकाल में सिर पर सैकड़ों घड़े ठण्डे पानी के डलवाते हैं, सिर के बालों को कैंची से काटने की बजाए हाथ से नोचते हैं, इत्यादि। ये सब क्रियाएं न तप हैं, न धर्म। अपितु यह पाप और हिंसा हैं। बहकावा और धोखाधड़ी हैं।
तीर्थ के बारे में भी हमारे लोगों में भ्रम हैं। सच्चा तीर्थ क्या होता है इसका सामान्य लोगों को तो क्या हमारे धर्म पुरोहितों तक को ज्ञान नहीं है। जो उपाय व कार्य मनुष्यों को दुःखसागर से पार उतारते हैं उन्हें तीर्थ करते हैं। विद्या-ग्रहण, सत्संग, सत्य भाषण, पुरुषार्थ, विद्यादान, जितेन्द्रियता, परोपकार, योगाभ्यास, शालीनता आदि शुभ गुण तीर्थ हैं क्योंकि इनको करके जीव दुःख के सागर से पार हो सकता है। ऐसा करके मनुष्य दुःखों से बचता भी है और इन गुणों के धारण करने से जीवन यशस्वी व सुखी बनता है। हर की पैड़ी आदि किसी जल या किसी प्रसिद्ध मन्दिर व स्थल आदि का नाम तीर्थ नहीं है। किसी समय हरिद्वार, काशी, प्रयाग, मथुरा, द्वारका आदि स्थानों पर अथवा गंगा के किनारे ऋषियों, मुनियों, योगियों और तपस्तियों के आश्रम रहे होंगे। गृहस्थी लोग उनके पास सत्संग के लिए जाया करते होंगे तथा उनके सद् उपदेशों व मार्गदर्शन के अनुसार आचरण करके अपने जीवनों को सुधारते व संवारते होगें। मांस, शराब, व्यभिचार, बेईमानी आदि बुराइयों का त्याग करते होंगे। इस कारण से इन स्थानों का नाम तीर्थ स्थान पड़ गया होगा। आजकल ऐसे स्थानों पर जाकर कोई लाभ नहीं होता अपितु समय व धन की बर्बादी के साथ कई प्रकार की हानियां ही होती है। अतः विवेकपूर्वक जल व स्थल को तीर्थ न मानकर वेदों के स्वाध्याय, सत्पुरूषों को दान, उनकी संगति, विद्या अध्ययन व प्रचार, असत्य का खण्डन व सत्य का मण्डन करना चाहिये। ऐसे कार्यों को करके ही मनुष्य जीवन उन्नत होता है। इसके विपरीत कर्म व कार्य करने से कोई लाभ नहीं होता। अतः मिथ्या कार्यों से बचना चाहिये।
दान का स्वरूप भी आजकल काफी बिगड़ गया है। दान अपने स्वामित्व की वस्तु व धन को दूसरे सुपात्रों को बिना अपनी किसी स्वार्थ भावना के दूसरों के हित के लिए देने को कहते हैं। कुपात्रों को धन व अन्य सामग्री का देना दान नहीं कहलाता। वेदों के अनुसार विद्या दान को सभी दानों में श्रेष्ठ माना गया है। गरीब, रोगी, अंगहीन (अपाहिज), अनाथ, कोढ़ी, विधवा या कोई भी जरूरतमन्द, विद्या और कला कौशल की वृद्धि, गोशाला, अनाथालय, हस्पताल आदि दान के लिए सुपात्र हैं। अथर्ववेद में कहा है ‘न पापत्वाय रासीय’ अर्थात् मैं पाप कर्म के लिए कभी दान न दूं। महाभारत में युधिष्ठिर जी कहते हैं कि ‘धनिने धनं मा प्रयच्छ। दरिद्रान्भर कौन्तेय’ अर्थात् हे युधिष्ठिर धनवानों को धन मत दो, दरिद्रों की पालना करो। वैदिक विद्वान श्री कृष्णचन्द्र गर्ग जी ने लिखा है कि ‘भरे पेट को रोटी देना उतना ही गलत है जितना स्वस्थ को औषधि । रोटी भूखे के लिए है और औषधि रोगी के लिए। समुद्र में हुई वर्षा व्यर्थ है। सृष्टि में ईश्वर का ऐसा नियम है कि जो कोई किसी को जितना सुख पहुंचाता है ईश्वर के न्याय से उतना ही सुख उसे भी मिलता है। इसलिए दान का उद्देश्य प्राणियों को अधिक से अधिक सुख पहुंचाना होता है।’ कठोपनिषद् में लिखा है कि ‘ऐसा दान जिसके लेने से लेने वाले को सुख न मिले, उस दान के देने से देने वाले को भी आनन्द नहीं मिलता।’ तैत्तिरीय उपनिषद में एक उपदेश में कहा गया है कि ‘श्रद्धया देयम्। अश्रद्धया देयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्। सविदा देयम्।’ अर्थात् यदि दान देने में श्रद्धा है तो दान देना, यदि श्रद्धा नहीं भी है तो भी दान देते रहना। संसार में यश पाने के ख्याल से दान देना। दूसरे लोग दान दे रहे हैं उन्हें देखकर लज्जावश भी दान देना। इस भय से भी दान देना कि यदि नहीं दूंगा तो परलोक न सुधरेगा, कमाया हुआ धन भी सार्थक न होगा। इस विचार से भी दान देते रहना कि गुरु के सामने प्रतिज्ञा की थी कि दान दूंगा। दान विषयक मनुस्मृति का प्रसिद्ध श्लोक है – ‘सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते। वार्यन्नगोमहीवासस्तिलकांचनसर्पिणाम्।’ यह श्लोक बताता है कि संसार में जितने दान हैं अर्थात् जल, अन्न, गौ, पृथिवी, वस्त्र, तिल, सुवर्ण, धृत आदि, इन सब दानों से वेद विद्या का दान अति श्रेष्ठ है। महर्षि दयानन्द के अनुसार बिना कुछ किए अपने निर्वाह अर्थ दूसरों से धन या पदार्थ लेना दान नहीं कहलाता, यह नीच कर्म है।
हमने इस लेख में श्री कृष्णचन्द्र गर्ग जी की आर्यमान्यतायें पुस्तक से सहायता ली है। इसके लिए उनका धन्यवाद करते हैं। हम आशा करते हैं कि पाठक व्रत, तप, तीर्थ व दान के सत्यस्वरूप को जानकर लाभान्वित होंगे और इससे लाभ उठायेंगे।
–मनमोहन कुमार आर्य
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