वैदिक समाज व्यवस्था

वैदिक समाज व्यवस्था

प्रो. वन्दना सी. सिसोदीया….

विश्व की समस्त प्राची सभ्यताओं से सहस्रों वर्ष पूर्व, इस पावन भारतभूति पर मन्त्रद्रष्टा ऋषियों ने वैदिक

ज्ञान का साक्षात्कार किया। प्राणिमात्र के कल्याण का सन्देश देने वाली यह वैदिक संस्कृति साक्षात्कार ऋषियों की धरोहर है।वे ऋषि इनके अधिक निर्मल अन्तःकरण वाले थे कि किसी स्थान या जाति विशेष के प्रति उनका कोई पक्षपात अथवा पूर्वाग्रह नहीं था। इस कारण उनके द्वारा प्रत्यक्ष किया गया कि सत्य युगीन न होकर शाश्वत है। वे मित्र और ‘शत्रु दानों से अभय की अपेक्षा रखते थे। किसी भी सुखद स्थिति के

निर्माण के लिये भय का अभाव आवश्यक है। भार न होने पर ही हम मित्र हो सकते हैं और सभी को मित्र की

दृष्टि से देख सकते हैं तथा कल्याण की भावना से ओतप्रोत हो सकते हैं। यही कल्याण की भावना हमें एक दूसरे से जोडती है।

वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था

व्यष्टि एवं समष्टि की उन्नति का उपाय

वस्तुतः आज के पूंजीवाद, समाजवाद और साम्यवाद में कोइ मौलिक अन्तर नहीं है। ये एक ही भौतिकवादी व्यवस्था के चट्टे बट्टे हैं। तीनों का उद्देश्य पैसा और अधिकार है। तीनों मनुष्य की असली समस्या को पैसे से सम्बद्ध समझते है। इसके विपरीत वैदिक संस्कृति द्वारा प्रतिपादित वर्णाश्रम की पद्धति पर आधारित समाज व्यवस्था व्यक्ति और समाज की भौतिक व आत्मिक दोनों प्रकार की भूख प्यास शान्त करती है। हम जब तक भौतिकतावादी बने रहेंगे तब तक विश्व शान्ति और विश्व प्रेम का नाम भर लेते रहेंगे, इन्हें प्राप्त नहीं कर पाएँगे। वैदिक संस्कृति का आध्यात्मवाद यह नहीं कहता कि हमें शरीर को भूल जाना है। या हमें मनुष्य की आर्थिक समस्या को हल नहीं करना है। सौ वर्ष तक जीने की इच्छा रखने वाले व्षि शरीर को घृणा की दृष्टि से कैसे देख सकते थे? वैदिक संस्कृति भौतिकवाद का तिरस्कार नहीं करती, उसे विकास की माँग में अपना साधन समझती है, क्योंकि इस संस्कृति के दृष्टिकोण में शरीर आत्मा की तरफ ले जाने का साधन है, प्रकृति परमात्मा की तरफ ले जाने का साधन है। हम शरीर से चलें परन्तु रुक न जाएँ। यही आज के युग को

वैदिक संस्कृति का सन्देश है। इसी अभ्युदय के लिए, व्यष्टि और समष्टि के पूर्ण विकास के लिए वैदिक ऋषियों नें वर्णाश्रम व्यवस्था प्रारम्भ की थी। वेद सब मनुष्यों को उसी परम पिता परमेश्वर की सन्तान मान कर सब में सम दृष्टि रखने का उपदेश देता है। ऋगवेद में स्पष्ट रुप से कहा गया है कि सब मनुष्य भाई हैं। इनमें से कोई जन्म से बड़ा नहीं और कोई छोटा नहीं, समानता के भाव को धारण करते हुए सब ऐश्वर्य या उन्नति के लिए मिलकर आगे बढ़ते हैं। वेद के अनुसार व्यक्ति समाज का एक अंग है और इसलिए समाज की उन्नति के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को लगा देना सबका प्रधान धर्म है। वेद में मनुष्य के लिए ‘व्रात’ शब्द का अनेक स्थानों पर प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ समुदाय अथवा संघप्रिया है। इससे मनुष्य

सामाजिक प्राणी है इस प्रसिद्ध उक्ति का ही समर्थन होता है। ऋगवेद के दशम मण्डल के अन्तिम सूक्त में संगतिकरण अथवा संघ बनाकर उन्नति करने का अत्युत्तम उपदेश किया गया है, जिनमें मिलकर जाने अर्थात् उद्देश्य की पूर्ति करने के लिए सामूहिक यत्न करने, परस्पर मधुर वाणी बोलने और मन को उत्तम

शिक्षा के द्वारा सुसंस्कृत करने व ज्ञान सम्पन्न बनाने का भाव पाया जाता है। वैदिक समाज व्यवस्था का दूसरा आधार है त्यागपूर्वक उपभोग। संसार के उपभोग के दो प्रकार है, एक तो उसमें लिप्त हो कर और दूसरा उससे अलिप्त रहकर उपभोग करो। इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए वैदिक ऋषियों ने मानव जीवन को चार आश्रमों तथा मानव समाज को चार वर्णों में विभक्त किया था तथा इन आश्रमों और वर्णों के कर्तव्य निश्चित किये थे। यही वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था सब प्रकार के वर्ग भेदों को समाप्त कर लोकसंग्रह और व्यष्टि की सर्वविध उन्नति के मार्ग खोलती है।

समाज अपने आप में व्यवस्था सापेक्ष है। व्यवस्था रहित जन समूह ऐसा समूह है, जिसमें न विवेक है और न

विचार करने की शक्ति। इसी कारण व्यवस्था रहित पशु समूह को ‘समाज’ कहा जाता है। ‘समाज’ से ऊँपर उठकर व्यवस्थित होने की प्रक्रीया ही ‘समाज’ का आधार है। वेद में ऋषियों ने मानव समूह को व्यवस्थित

करने के लिये तीन प्रकार के प्रयास किये हैं, प्रथम गुण और कर्म आधार पर, द्वितीय राजनीति के आधार पर तथा तृतीय आयु के आधार पर। इनका क्रमशः निम्न नामकरण किया गया है

१. वर्णव्यवस्था, २. शासन व्यवस्था, ३. आश्रम व्यवस्था

ये तीनों व्यवस्था एक दूसरे की विरोधी न होकर पूरक हैं। इनमें से वर्णव्यवस्था शासन व्यवस्था का तथा शासन व्यवस्था आश्रम व्यवस्था का आधार बनती है। उक्त तीनों का आधार अभ्युदय मूलक धर्म है, उसका

प्रयोजन मोक्ष है तथा अर्थ और काम इस यात्रा के पड़ाव हैं, जहाँ रुक कर मानव आगे बढ़ने के लिये शक्ति का सन्जय तथा अपनी गन्तव्य दिशा को पहचानने का प्रयास करता है। दूसरे शब्दों में पुरुषार्थ चतुष्टय की उपलब्धि ही वैदिक समाज व्यवस्था का मूल है।

वर्णव्यवस्था

इस वर्णव्यवस्था के सम्बन्ध में दो प्रकार के मत देखने को मिलते हैं। एक पक्ष वर्णव्यवस्था को जन्मना और दूसरा गुणतः और कर्मतः मानने के पक्ष में है। उक्त दोनों बातों के समर्थन में पर्याप्त प्रमाण मिल जाते हैं। वेद में पुरुष सूक्त तथा एक स्थान पर अथर्ववेद को छोडकर किसी अन्य स्थल पर चारों वर्णों का एक साथ उल्लेख नहीं मिलता है। वेद तथा ब्राहमणग्रन्थों में बहुलता से ब्रहम और क्षत्र का एक साथ उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वैदिक ऋषि की दृष्टि में ब्राहम और क्षात्र धर्म का समन्वय अधिक महत्वपूर्ण है। कहीं ब्राहमण के द्वारा तीनों वर्णों को नियन्त्रित किया गया है और कहीं क्षत्रिय के द्वारा। पुरुष सूक्त के ‘ब्राहमणोऽस्य मुखमासीद्’ मन्त्र के आधार पर स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वर्ण व्यवस्था को गुणतः और कर्मतः माना है। विराट् पुरुष के मुख, बाहू, उरु, और पाद का अर्थ वे दल अड्गों के गुण कर्म लेते हैं अर्थात् जो मुख के समान विद्यादि गुणों से युक्त होता है, वह ब्राहमण है। भुजा के समान जो बल, वीर्य से सम्पन्न होता है, वह ‘क्षत्रिय’ है। उरु के समान जो कृषि आदि कार्यों को करता है, वह ‘वैश्य’ है और जो पैरों के समान जडता आदि से युक्त होता है, वह ‘शूद्र’ है। आचार्य यास्क ‘वर्ण’ शब्द का निर्वचन करते हैः ‘वर्णो वृणोतेःइसका नाम वर्ण इसलिये है कि जैसे जिनके गुण कर्म हों, वैसा ही उसको अधिकार देना चाहिये।

उपर्युक्त श्रुति और स्मृति के विवेचन के आधार पर बिना किसी सन्देह के यह कहा जा सकता है कि वेद में प्रतिपादित वर्णव्यवस्था का आधार गुण और कर्म है। वैदिक काल में गुणवत्ता के आधार पर वर्ण का निर्धारण

तथा कर्मशीलता के आधार पर उस वर्ण में बना रहना सम्भव था।उपर्युक्त विवेचन के प्रसन्ग यह स्पष्ट कर

देना आवश्यक है कि वैदिक काल के पश्चात् ब्राह्मणग्रन्थों के काल से ही वर्णव्यवस्था को जन्म से माना जाना प्रारम्भ हो गया था, परन्तु फिर भी, इस काल तक यह व्यवस्था जन्मना बहुत अधिक रुढ़ नहीं हो पायी थी। स्मृतिकाल में, जहाँ कि वेद के प्रति प्रतिबद्धता बहुत अधिक थी, एक ओर व्रत, यज्ञ, स्वाध्याय और तीनों वेदों का अध्ययन करने से मनुष्य ब्राहमण बनता है, का प्रतिपादन किया गया है। दूसरी ओर जन्म लेते ही ब्राहमण देवताओं का देवता तथा जाति के नाम पर जीनेवाला नाममात्र का ब्राहमण भी धर्म प्रवक्ता हो सकता है, का विधान किया गया। ये दोनों घोषणायें एकदम विरोधी हैं। यदि मनु के शब्दों में कहा जाये तो द्वितीय विधान श्रुति के अनुकूल होने से अप्रामाणिक है, लेकिन इस प्रकार अप्रमाणिक कह देने से स्मृति के लोकसत्य को निराकृत नहीं किया किया जा सकता।ऐसा प्रतीत होता है कि जहाँ स्मृतिकार का चिन्तन वैदिक विचारधारा से प्रभावित है, वहाँ वह सभी पूर्वाग्रहों से निरपेक्ष होकर गुण और कर्म के आधार पर वर्णव्यवस्था का प्रतिपादन करता है, जहाँ वह लोक के पूर्वाग्रहों से ग्रसित है, वहाँ वह लोक के अनुसार व्यवस्था देता है।

सम्भवतः, इसी लोकसत्य से प्रभावित होकर महर्षि पाणिनी जैसा व्यक्तित्व भी निरवसित (जिनके खालेने पर पात्र संस्कार से भी शुद्ध नहीं होता ) तथा अनिरवित शूद्र के भाषा सम्बन्धी विधान का उल्लेख करता है। इस प्रकार निष्कर्ष रुप में कहा जा सकता है कि वैदिककाल में वर्णव्यवस्था ने आकार लेना प्रारम्भ कर दिया था। इस परिवर्तन के पीछे, सम्भवतः उच्च वर्णों का अपने अयोग्य पुत्रों के अन्धकारमय भविष्य को सुरक्षित एवं महत्वपूर्ण स्थान पर बनाये रखना की भावना निहित थी।

शासनव्यवस्था

शासनव्यवस्था के सम्बन्ध में वैदिक ऋषियों की अपनी एक सत्र्कल्पना है। उनकी दृष्टि में स्वराज्यमूलक शासन प्रजा को मिलना चाहिए। ऐसा कोई भी राज्य जिस में स्वत्व का भाव न हो, स्वीकार्य नहीं हो सकता। यह स्वत्व का भाव तभी आ सकता है, जब शासन का चयन प्रजा के द्वारा हो।

‘त्रीणि राजाना विदथे पुरणि’ इस मन्त्र के आधार पर महर्षि दयानन्द सरस्वती कहते हैं कि तीन प्रकार की सभा को ही राजा मानना चाहिये एक मनुष्य को कभी नहीं। इस कथन के मूल में ऋषि का यह आशय प्रतीत होता है कि प्रजा निरपेक्ष राजा स्वेच्छाचारी हो जाता है। शतपथ ब्राहमण कहता है कि स्वेच्छाचारी राजा प्रजा का नाश करने वाला होता है तथा वह प्रजा को खा जाता है और किसी को अपने से अधिक नहीं होने देता। मन्त्र में आये ‘त्रीणि सदांसि’ का आशय है कि शासन तीन सदनों वाला होना चाहिये; 1. राजसभा, 2.धर्मसभा, 3. विधान सभा इनमें से प्रथम ‘राजसभा’ में विशेष रुप से राजकार्य, विधान सभा में विशेष रुप से अध्ययन की उन्नति से सम्बन्धित कार्य तथा ‘धर्मसभा’ में धर्म की उननति और अधर्म की हानि के कार्य किये जाने चाहिये। जहाँ ये तीनों सभायें मिलकर प्रजा के कार्यों को विचार करके करती हैं, वहाँ प्रजा निश्चित रुप से

सुखी होती है। अथर्ववेद का ऋषि कहता है कि उपर्युक्त तीनों सभायें तथा सत्र्ग्राम की व्यवस्था करने वाली समीति और सेना मिलकर शासन व्यवस्था का सनचालन करें। इसके अतिरिक्त राजा सभा के सदस्यों का तथा सभा के सदस्य राज्यव्यवस्था का पालन करें। इस प्रकार राजा तथा सभा के सभासद अन्योन्याश्रित रहें अर्थात् राजा के अधीन सभा और सभा के अधीन राजा को रहना चाहिये। जिसप्रकार राजा प्रजा की रक्षा करे, उसी प्रकार राजा के घर, शरीर तथा राज्य की रक्षा प्रजा को करनी चाहिये। राजा कहीं स्वेच्छाचारी न हो जाये, इसलिये दस सदस्यों वाली समीति राज्य कार्यों को सम्पन्न करें, ऐसा मनु मानते हैं। ऋगवेद के ऋषि के अनुसार राजा और प्रजा का परस्पर सम्बन्ध गुरु शिष्य अथवा पिता पुत्र के समान होना चाहिये। गुणों से सम्पन्न व्यक्ति का राजा के रुप में चयन प्रजा करती है, इसलिये राजा और प्रजा में परस्पर सख्यभाव रहना चाहिये। (ऋषि कहीं गुरु शिष्य, कहीं पिता पुत्र के सख्यभाव की ओर इन्गित करके यह स्पष्ट कर देना चाहता है कि राजा और प्रजा के सम्बन्ध मधुर नहीं रह सकते। यह विश्वास ही किसी राज्य का आधार हो सकता है। इस प्रकार के शासन तन्त्र का वेद में उपदेश किया गया है। इस मार्ग पर चलने से चक्रवर्ती राज्य और पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति होती है। उपर्युक्त शासन तन्त्र का पालन सत्य, नियम, तेज, तपस्या, क्षात्र धर्म और व्रत के द्वारा किया जाता है। प्रजातन्त्र ही प्रजा का राज्य होता है, इसलिये प्रजा सर्वगुण सम्पन्न व्यक्ति को राज्यकर्म सम्पन्न करने के लिये चुनती है।दूसरे देश के अधीनस्थ राजा, सचिव, सूत, ग्राम प्रधान उस चुने हुए राजा का अभिषेक करते हैं। वह राजा सर्वदा संसद में प्रजा के प्रतिनिधियों के मत के अनुरुप प्रजा को ऐश्वर्यवान् बनाने का प्रयास करे।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि वैदिक शासन व्यवस्था में जो बुद्धिमान, बलिष्ठ, धार्मिक एवं न्यायप्रिय है, वही राजा हो सकता है और प्रजा की रक्षा करने में असमर्थ राजा राजपद पर आसीन नहीं रह

सकता। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि वैदिक शासन व्यवस्था प्रजा सापेक्ष है, प्रजा ही राजा का चयन

करती है और वही संसद के सदस्यों का भी। राजा सदस्यों के मत के अनुरुप प्रजा को सुख पहुँचाने वाले कार्य

करता है। जहाँ राज्य के स्थायित्व और समृद्धि के लिये ब्राहमण और क्षत्रिय वर्ग का उचित समन्वय आवश्यक है, वहीं पूँजीपति और श्रमजीवी वर्ग के मध्य मधुर सम्बन्ध बने रहना भी अनिवार्य है। ब्राहमण, क्षत्रिय आदि का अस्तित्व प्रजा पर आश्रित है। इस प्रकार प्रजा सर्वोपरि है, परन्तु प्रजा की उचित और अनुचित इच्छा का नियमन धर्म से होता है, इसलिये किसी भी राज्य का सुदृढ आधार धर्म ही हो सकता है। भगवान् सत्यराजन् की जत्र्घा और पादों को धर्म बताने का उद्देश्य यही है कि शरीर को गतिमान् और स्थिर रखने के लिये जिस प्रकार जत्र्घा और पाद आवश्यक हैं, उसी प्रकार राज्य की उन्नति और स्थिरता के लिये धर्म आवश्यक है जिस राज्य के आधार धर्म और सत्य होते हैं वहाँ सुख, शान्ति और समृद्धि विराजती है।

आश्रम व्यवस्था

विभिन्न आयु वर्गों के आधार पर ‘श्रम’ का उचित विभाजन आश्रम व्यवस्था का मूल है। वैदिक कालीन आश्रम व्यवस्था उपनिषद्कालीन आश्रम व्यवस्था से भिन्न है । वैदिककालीन आश्रम व्यवस्था चतुर्धा न होकर द्विधा है। वेद में मात्र दो आश्रमों का उल्लेख प्राप्त होता है ब्रहमचर्य और गृहस्थ। इन दो आश्रमों में भी ब्रहमचारी और ब्रहमचर्य का वर्णन अथर्ववेद में हुआ है। इससे यह निष्कर्ष सरलता से ग्रहण किया जा सकता है। कि गृहस्थाश्रम सभी आश्रमों का मूल है। इस आश्रम के सम्यक् रुप से स्थिर हो जाने के पश्चात् ही अन्य आश्रमों

की परिकल्पना की गयी।

जहाँ तक वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम के पूर्वापर का प्रश्न है, निःसंदिग्ध रुप से यह कहा जा सकता है कि वानप्रस्थाश्रम से पूर्व सन्यासाश्रम अस्तित्व में आ चुका था। ब्राहमणग्रन्थों से पूर्व वैदिक ऋषि भी इस प्रकार की भाषा बोलने लग गये थे, जिससे इस तृतीय स्थिति का आभास मिलना प्रारम्भ हो गया था, परन्तु इस काल तक उक्त स्थिति का नामकरण नही हो पाया था।ऐतरेय एवं तैत्तिरीय आरण्यकों में सर्वप्रथम संन्यासाश्रम के सत्र्केत मिलते हैं। उसके बाद उपनिषद्काल में सन्यासाश्रम, उसका समय धर्म, लक्षण, विघ्न, विधि, अधिकारी तथा सन्यास के सम्बधित अन्य विषयों का विशद प्रतिपादन किया गया।इसलिये संन्यासाश्रम की पूर्ण प्रतिष्ठा उपनिशद्काल में हुई, यह माना जा सकता है। वेद और ब्राहमणग्रन्थों के कर्मकाण्ड प्रधान युग के पश्चात् परवर्ती पीढ़ी में होना स्वाभाविक है। वेद और ब्राहमण ग्रन्थों के कर्मकाण्ड प्रधान युग के पश्चात् परवर्ती चिन्तक का अन्तर्मुखी होना अधिक स्वाभाविक है। उनसे सभी प्रकार के बाह्य कर्मकाण्ड का परित्याग करके, यहाँ तक कि बाह्य संसार का भी परित्याग करके वन में जाकर वानप्रस्थी बनना स्वीकार किया।वेद का ऋषि जहाँ परमात्मा को अनेक नामों और नामों के अनुरुप उनकी कर्मशक्ति की परिकल्पना में अधिक संलग्न था, वहीं उपनिषद्काल का ऋषि ईश्वर के सभी नामों के मूल अभिधेय, सृष्टि के मौलिकतत्त्व के चिन्तन में अधिक निमग्न है। कहने का आशय यह है कि ब्राहमण काल के पश्चात् अन्तर्मुखी होने की प्रक्रीया वानप्रस्थ और सन्यासाश्रम के अस्तित्व में आने का प्रमुख कारण प्रतीत होती है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि वानप्रस्थाश्रम के अस्तित्व में आने से, जहाँ पारिवारिक जीवनसुखी हुआ, वहीं आध्यात्मिक चिन्तन को एक नई दिशा मिली और तत्कालीन ऋषियों की बुद्धिमत्ता ने दोनों पीढ़ियों को कुण्ठित होने से बचा लिया। निष्कर्ष रुप में यह कहा जा सकता है कि वैदिक ऋषियों की समाज व्यवस्था का मूल गुण और कर्म के आधार पर वर्ण का वरण करना है। कर्मक्षेत्र का वरण करने के उपरान्त व्यक्ति अपनी भूमिका के अनुरुप शासन व्यवस्था में सहयोग प्रदान करता है।एक आयु विशेष और वैराग्य की प्रबलता के आधार पर,

कर्मक्षेत्र से निवृत्ति पाकर व्यक्ति, पूर्ण निवृत्ति (वैराग्य) के मार्गपर अग्रसर होता है। प्रवृति सायास होती है,

जबकि  आयास का अभाव ही निवृत्ति है। स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर अथवा बर्हिमुख से अन्तर्मुख की ओर

अथवा प्रवृति से निवृत्ति की ओर ले जाना वैदिक समाज व्यवस्था का प्रयोजन है। धर्म को आधार मानकर चली, इस समाजव्यवस्था की सुखद परिणति पुरुषार्थ चतुष्टय की उपलब्धि के साथ पूर्णता प्राप्त करती है।

– प्रोफेसर,

डी.एन.पी. आर्टस् कामर्स कॉलेज,

डीसा, (गुजरात)

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