ओ३म्
वर्तमान समय में हमने व हमारे देश ने आंग्ल संवत्सर व वर्ष को अपनाया हुआ है। इस आंग्ल वर्ष का आरम्भ 2015 वर्ष पूर्व ईसा मसीह के जन्म वर्ष व उसके एक वर्ष बाद हुआ था। अनेक लोगों को कई बार इस विषय में भ्रान्ति हो जाती है कि यह आंग्ल संवत्सर ही सृष्टि में मनुष्यों की उत्पत्ति व उनके आरम्भ का काल है। अतः इस लेख द्वारा हम निराकरण करना चाहते हैं कि अंग्रेजी काल गणना दिन, महीने व वर्ष की गणना के आरम्भ होने से पूर्व भी यह संसार चला आ रहा था और उन दिनों भारत में धर्म, संस्कृति व सभ्यता सारे संसार में सर्वाधिक उन्नत थी और इसी देश से ऋषि व विद्वान विदेशों में जाकर वेद और वैदिक संस्कृति का प्रचार करते थे। अब से 5,200 वर्ष हुए महाभारत युद्ध के कारण संसार के अन्य देशों में वेदों के प्रचार व प्रसार का कार्य बन्द हो जाने और साथ ही भारत में भी अध्ययन व अध्यापन का संगठित समुचित प्रबन्ध न होने के कारण भारत व अन्य देशों में विद्या व ज्ञान की दृष्टि से अन्धकार छा गया। इस अविद्यान्धकार के कारण ही भारत में बौद्ध व जैन मतों के आविर्भाव सहित विश्व के अन्य देशों में पारसी, ईसाई व मुस्लिम मतों का आविर्भाव हुआ।
1 जनवरी सन् 0001 का आरम्भ वर्ष ईसा मसीह के अनुयायियों द्वारा प्रचलित ईसा संवत है। इससे पूर्व वहां कोई संवत् प्रचलित था या नही, ज्ञात नही है। हमें लगता है कि इससे पहले वहां संवत् काल गणना किसी अन्य प्रकार से की जाती रही होगी। उसी से उन्होंने सप्ताह के 7 दिनों के नाम, महीनों के नाम आदि लिये और उन्हें प्रचलित किया। अंग्रेजी संवत् अस्तित्व में आने से पूर्व भारत में संवत्सर की गणना लगभग 1.960853 अरब वर्षों से होती आ रही थी। भारत में सप्ताह के 7 दिन, बारह महीने, कृष्ण व शुक्ल पक्ष, अमावस्या व पूर्णिमा आदि प्रचलित थे। नये वर्ष का आरम्भ यहां चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से होता था व अब भी यह परम्परा अबाध रूप से जारी है जिसे भारत के ब्राह्मण कुलों में जन्में विद्वान व आर्य लोग मानते चले आ रहे हैं। ऐसा लगता भी है और यह प्रायः निश्चित है कि भारत से से ही 7 दिनों का सप्ताह, इनके नाम, लगभग 30 दिन का महीना, वर्ष में बारह व उनके नाम आदि कुछ उच्चारण भेद सहित देश देशान्तर में प्रचलित थे। उन्हीं को अपना कर वर्तमान में प्रचलित आंग्ल वर्ष व काल गणना को अपनाया गया है। हमारे सोमवार को उन्होंने मूनडे (चन्द्र-सोम वार) व रविवार को सनडे (सूर्य वार) बना दिया। यह हिन्दी शब्दों का एक प्रकार से अंग्रेजी रूपान्तर ही है।
अंग्रेजी संवत्सर की यह कमी है कि इससे सृष्टि काल का ज्ञान नहीं होता जबकि भारत का सृष्टि संवत् सृष्टि के आरम्भ से आज तक सुरक्षित चला आ रहा है। विज्ञान के आधार पर भी सृष्टि की आयु 1.96 अरब लगभग सही सिद्ध होती है। क्या हमारे यूरोप के विदेशी बन्धुओं को आर्यों व वैदिकों के इस पुष्ट सृष्टि सम्वत् को नहीं अपनाना चाहिये था? इसे उन्होंने पक्षपात व कुण्ठा के कारण नहीं अपनाया। उनमें यह भी भावना थी कि उन्हें अपने मत ईसाई मत का प्रचार व लोगों का धर्मान्तरण करना था, इसलिए उन्होंने भारतीय ज्ञान व विज्ञान की जानबूझकर उपेक्षा की और इसके साथ ही अपने मिथ्या विश्वासों को दूसरों पर थोपने का प्रयास भी किया। यदि महर्षि दयानन्द जी का प्रादुर्भाव न हुआ होता तो उनके द्वारा फैलाये गये सभी भ्रम विश्व में प्रचलित हो जाते परन्तु महर्षि दयानन्द ने अपने अपूर्व पुरुषार्थ से वैदिक काल के अनेक सत्य रहस्यों को खोज लिया और उनका डिण्डिम घोष कर भारत व यूरोप के विद्वानों को हतप्रभ कर दिया।
भारतीय नव वर्ष चैत्र महीने की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ होता है। यही दिवस नव वर्ष के लिए सर्वथा उपयुक्त व सर्वस्वीकार्य है। यह ऐसा समय होता है जब शीत का प्रभाव समाप्त हो गया होता है। ग्रीष्म और वर्षा ऋतुओं का आरम्भ इसके कुछ समय बाद होता है। इस नव वर्ष के अवसर पर पतझड़ व शीत ऋतु समाप्त होकर ऋतु अत्यन्त सुहावनी होती है। वृक्ष नये पत्तों को धारण किये हरे-भरे होते हैं तथा प्रायः सभी प्रकार के फूल व फल वृक्षों में लगे होते हैं, सर्वत्र फूलों की सुगन्ध से वातावरण सुगन्धित व लुभावना होता है जिसे प्रकृति का श्रृंगार कहा जा सकता है। ऐसी अनेक विशेषताओं से युक्त यह समय ही नव वर्ष के उपयुक्त होता है। हमें लगता है कि विदेशी विद्वानों के पक्षपात के कारण हम अनेक सत्य मान्यतओं को विश्वस्तर पर मनवा व अपना नहीं सकें। आज तो सर्वत्र पूर्वाग्रह व पक्षपात दृष्टिगोचर हो रहे हैं। सर्वत्र सभी क्षेत्रों में प्रायः रूढि़वादित छाई हुई है। अब किसी पुरानी कम महत्व की परम्परा को छोड़ कर उसमें सुधार व परिवर्तन कर उसे विश्व स्तर पर आरम्भ करना कठिन व असम्भव ही है।
वैदिक सन्ध्या व यज्ञ दो ऐसे महत्ता से युक्त मनुष्यों के दैनिक आवश्यक कर्तव्य हैं जिनका आचरण व व्यवहार करने से मनुष्यों को अनेकानेक लाभ होते हैं। महर्षि दयानन्द जी ने बताया है कि सन्ध्या में ईश्वर का ध्यान सहित उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना की जाती है। शुद्ध शाकाहारी भोजन और विचारों की शुद्धता-पवित्रता पर ध्यान दिया जाता है। सुखासन में लगभग 1 घंटा बैठकर ईश्वर की ध्यान पद्धति द्वारा स्तुति की जाती है। स्तुति का अर्थ है ईश्वर के गुणों का ध्यान व उल्लेख करना। इससे ईश्वर से प्रेम व प्रीति होती है। प्रेम व प्रीति से मित्रता होती है और इससे वरिष्ठ मित्र से कनिष्ठ मित्र को स्तुति के अनुसार लाभ प्राप्त होता है। स्तुति से अहंकार का नाश भी होता है। स्तुति करने से मनुष्य के गुण, कर्म व स्वभाव सुधरते हैं और वह ईश्वर के कुछ-कुछ व अधिंकाश समान हो जाते हैं। हमारे सभी ऋषि व मुनि ईश्वर के गुण-कर्म व स्वभाव के अनुरूप गुणों वाले ही होते थे। स्तुति को जानने समझने व करने के लिए वेदों व वैदिक साहित्य का ज्ञान व अध्ययन भी आवश्यक है। बिना इसके ईश्वर की भलीप्रकार सारगर्भित व पूर्णता से युक्त स्तुति नहीं हो सकती। इसी प्रकार से ईश्वर से प्रार्थना का भी महत्व है। इससे भी स्तुति के समान सभी लाभ प्राप्त होते हैं और इच्छित वस्तु की ईश्वर से प्राप्ति होती है। प्रार्थना अहंकार नाश में सर्वाधिक लाभप्रद होती है। अहंकारशून्य मनुष्य ही समाज, देश व विश्व का कल्याण कर सकता है। अहंकारयुक्त मनुष्य तो अपनी ही हानि करता है, उससे दूसरों को किसी प्रकार के लाभ का तो प्रश्न ही नहीं होता। उपासना भी स्तुति व प्रार्थना को सफल करने में सहायक व अनिवार्य है। महर्षि दयानन्द इसका यह फल बताते हैं कि ईश्वर की स्तुति करने से उससे प्रीति, उस के गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाव का सुधारना, प्रार्थना से निरभिमानता, उत्साह और सहाय का मिलना, उपासना से परब्रह्म से मेल और उसका साक्षात्कार होना उद्देश्य पूरे होते हैं। स्तुति, प्रार्थना, उपासना वा समाधियोग से अविद्यादि मल नष्ट होते हैं। जिस मनुष्य ने आत्मस्थ होकर परमात्मा में चित्त को लगाया है उसको जो परमात्मा के योग अर्थात् सान्निध्य वा समीपता का सुख होता है, वह वाणी से कहा नहीं जा सकता क्योंकि उस आनन्द को जीवात्मा अपने अन्तःकरण से ग्रहण करता है। उपासना शब्द का अर्थ समीपस्थ होना है। अष्टांग योग से परमात्मा के समीपस्थ होने अर्थात् उपासना करने से सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामीरूप से प्रत्यक्ष करने के लिये जो-जो काम करना होता है वह वह सब को करना चाहिये। महर्षि दयानन्द एक सिद्ध व सफल योगी थे। इनके ये शब्द स्वानुभूत हैं। इसके शंका व संदेह का कोई कारण नहीं। यदि मनुष्य जन्म में ईश्वर व जीवात्मा के सत्य स्वरूप को जानकर उसकी योग विधि से उपासना नहीं की और ईश्वर का साक्षात्कर करने का प्रयत्न नहीं किया, तो मनुष्य कितनी ही भौतिक उन्नति कर लें, उपासना व समाधि सुख की तुलना में वह अपार भौतिक सुख हेय व निम्नतर हैं। अतः हमें विदेशी मान्यताओं को गुण-दोष के आधार पर मानने के साथ अपने पूर्वजों, ऋषि-महर्षियों की विरासत को भी, सम्भालना है वह उसे भावी पीढि़यों को सौंपना है। इस कार्य के लिए हमारे आदर्श राम, कृष्ण, दयानन्द, चाणक्य आदि हैं। उनका अध्ययन व अनुकरण कर हमें अपने जीवन को सफल करना चाहिये। यही महापुरूष विश्व-वरणीय भी हैं। यज्ञ के बारे में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि इससे वायुमण्डल व पर्यावरण शुद्ध बनता है। जीवन में सुख व आरोग्य की वृद्धि व प्राप्ति होती है। यज्ञ से हम ही नहीं अपितु यज्ञ स्थान से दूर-दूर तक के सभी प्राणी लाभान्वित व सुखी होते हैं। यज्ञ-अग्निहोत्र-हवन एक शुभ कर्म है और इसे ऋषियों द्वारा श्रेष्ठतम कर्म कहा गया है। यज्ञ न केवल हमारे वर्तमान जीवन में अपितु भावी जन्मों में भी जीवात्माओं को लाभ पहुंचाता है और इसके कर्त्ता को अगले जन्म में उन्नत मनुष्य योनि मिलने की गारण्टी देता है।
महात्मा ईसा मसीह बीसी 1 में पैदा हुए। उन्हीं के नाम से ईसा सम्वत् आरम्भ हुआ। 27 से 33 वर्ष का उनका जीवन होने का अनुमान है। उन्होंने जो धार्मिक विचार दिये उससे उनके देश व निकटवर्ती स्थानों पर सामाजिक परिवर्तन एवं सुधार हुए। इन सुधारों से ही उन्नति करते हुए वह आज की स्थिति में पहुंचे हैं। उनके अनुयायियों ने धर्म के अतिरिक्त अन्य जिन मान्यताओं को तर्क व युक्ति के आधार पर स्वीकार किया, वही उनकी प्रगति का आधार बना। उनकी उन्नति के प्रभाव ने ही उनके काल सम्वत् को विश्व स्तर पर स्वीकार कराने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत में भी सम्प्रति यही संवत् प्रचलित हो गया है। यत्र-तत्र कुछ प्राचीन वैदिक व सनातन धर्म के विचारों के लोग सृष्टि संवत् व विक्रमी संवत् का प्रयोग भी करते हैं जो जारी रहना चाहिये जिससे आने वाली पीढि़यां उसे जानकर उससे लाभ ले सकें। नये आंग्ल वर्ष के दिन सभी मनुष्य एक दूसरे को नये वर्ष की शुभकामनायें देते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है। शुभकामनायें तो हमें सभी को पूरे वर्ष देनी चाहिये। हमारे यहां संस्कृत का एक श्लोक खूब गाया व बोला जाता है। यह श्लोक ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।।’ हमें लगता है कि सबके प्रति शुभकामना करने का यह श्लोक सर्वाधिक भाव व अर्थ प्रधान वाक्य, कथन व पद्य है। पाठकों के लिए इसका पद्यानुवाद भी प्रस्तुत है। पहला पद्यानुवाद हैः ‘सबका भला करो भगवान्, सब पर दया करो भगवान्। सब पर कृपा करो भगवान्, सबका सब विधि हो कल्याण।।’ दूसरा पद्यानुवादः ‘हे ईश ! सब सुखी हों, कोई न हो दुखारी, सब हों नीरोग भगवन् ! धन–धान्य के भण्डारी। सब भद्रभाव देखें, सन्मार्ग के पथिक हों, दुखिया न कोई होवे सृष्टि में प्राणधारी।।’ एक अन्य तीसरा पद्यानुवाद है ‘सुखी बसे संसार सब, दुखिया रहे न कोय, यह अभिलाषा हम सबकी भगवन् पूरी होय।।’ इस श्लोक के प्रतिदिन उच्चारण सहित गायत्री मन्त्र व ईश्वर की स्तुति–प्रार्थना–उपासना के 8 मन्त्रों का अर्थ सहित पाठ करने से भी अनेक लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं।
निष्कर्ष में हम यह कहना चाहते हैं कि हमें समाज में रहना है अतः जो हमारे निकट हो रहा है हम उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते। हमें जो भी नये वर्ष की शुभकामना देता है, उसे स्वीकार करें और उसे भी अपनी शुभकामनायें दें। उनसे यह अनुरोध करें कि वह चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के भारतीय नव वर्ष को भी इसी प्रकार से सोत्साह मनायें और अपने सभी मित्रों को इसी प्रकार से शुभकामनायें दें। आज आंग्ल वर्ष 2015 के अंतिम दिन ३१ दिसम्बर को हमने कुछ समय चिन्तन किया, उसे लेखबद्ध कर प्रस्तुत कर रहे हैं। इस अवसर पर हम सभी बन्धुओं को नये आंग्ल वर्ष 2016 की शुभकामनायें देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
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