ओ३म्
‘मैं इष्ट वरदान देने वाली वेदमाता की स्तुति करता हूं’
–मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
अथर्ववेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है। सृष्टि के आरम्भ में अंगिरा ऋषि को ईश्वर ने अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। 20 काण्डो वाले अथर्ववेद में कुल 731 सूक्त और 5977 मन्त्र हैं। उन्नीसवीं शताब्दी व उसके बाद अथर्ववेद के हिन्दी भाष्यकारों में पं. क्षेमकरणदास त्रिवेदी, पण्डित विश्वनाथ विद्यालंकार, पं. जयदेव शर्मा विद्यालंकार, पद्मविभूषण डा. दामोदर सातवलेकर आदि भाष्यकार प्रमुख हैं। स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती और स्वामी ब्रह्ममुनि जी ने भी अर्थववेद का आंशिक भाष्य किया है। अथर्ववेद का अंग्रेजी में अनुवाद डा. सत्यप्रकाश सरस्वती और पंडित उदयवीर विराज ने संयुक्त रूप से किया है। अथर्ववेद के पाश्चात्य अंग्रेजी अनुवादकों में व्हिटनी, ब्लूमफील्ड और ग्रिफीथ महानुभाव सम्मिलित हैं। आज हम इस लेख में अथर्ववेद के उन्नीसवें काण्ड के इकहत्तरवें सूक्त का प्रथम वा एकमात्र मन्त्र प्रस्तुत कर उसका हिन्दी मे पदार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। वेदों के अनेक शब्द हिन्दी में ज्यों के त्यों व कुछ पाठ व प्रकार भेद से प्रचलित हैं जो अत्यन्त सरल एवं सुबोध हैं। यदि संस्कृत का व्याकरण जान लिया जाये तो वेद के मन्त्रों का अर्थ जानना व समझना सरल हो जाता है। हिन्दी भाष्यों के माध्यम से भी प्रत्येक हिन्दी पठित व्यक्ति वेदों का अध्ययन कर सकता है। अथर्ववेद का 19/71/1 मन्त्र निम्न हैः
ओ३म् स्तुता मया वरदा वेदमाता प्र चोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्।
आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्।
मह्यं दत्तवा व्रजत ब्रह्मलोकम्।।
इस मन्त्र के प्रत्येक पद वा शब्द का पं. विश्वनाथ विद्यालंकार कृत अर्थ हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। (मया) मैंने (वरदा) इष्टफल देनेवाली (वेदमाता) वेदरूपी माता का (स्तुता) स्तवन अर्थात् अध्ययन कर लिया है। (प्र चोदयन्ताम्) हे गुरुजनो ! इस का मुझे और प्रवचन कीजिये। (द्विजानाम् पावमनी) द्विजन्मों वा द्विजों को यह वेदमाता पवित्र करती है। (आयुः) स्वस्थ और दीर्घ आयु, (प्राणम्) प्राणविद्या, (प्रजाम्) उत्तम सन्तानों, (पशुम्) पशुपालन, (कीर्तिम्) पुण्य और यश, (द्रविणम्) धनोपार्जनविद्या, (ब्रह्मवर्चसम्) ब्रह्म के तेजस्वरूप का परिज्ञान व इनका सदुपदेश (मह्यं दत्तवा) मुझे देकर, हे गुरुजनों ! (ब्रह्मलोकम्) आलोकमय ब्रह्म तक (व्रजत=वाज्रयत) मुझे पहुंचाइये।
पण्डित विश्वनाथ जी ने मन्त्रस्थ वेदमाता पद पर विचार करते हुए लिखा है कि ‘‘वेदमाता” शब्द द्वारा वेदरूपी माता अर्थात् ‘‘वेदवाणी” ही अभिप्रत है। वेदवाणी मातृसदृश उपकारिणी है। इस वेदमाता का ही स्तवन अर्थात् अध्ययन अथर्ववेद के 1 से 19 काण्डों तक अभिप्रत प्रतीत होता है जिसकी ओर कि निर्देश ‘‘स्तुता मया वरदा वेदमाता” द्वारा किया गया है। उनके अनुसार मन्त्रस्थ शब्द ब्रह्मलोकम् का अर्थ ब्रह्म का दर्शन है। दर्शन शब्द का अर्थ साक्षात् ज्ञान लेना समीचीन है। आंखों से निराकार वस्तुओं को नहीं देखा जा सकता। इसी प्रकार सूर्यसम व उससे अधिक प्रकाशवान् पदार्थों को भी आंखों से समुचित रूप से नहीं देखा जा सकता व देखें तो आंखों को हानि की सम्भावना होती है। अतः ब्रह्म का साक्षात् ज्ञान ही ब्रह्मलोकम् शब्द से अभिप्रेत प्रतीत होता है। पं. विश्वनाथ जी ने यह भी लिखा है कि अभी तक मन्त्र के स्तोता वा उपासक ने आयुः, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, द्रविणं का प्रवचन गुरुमुख से सुना है। बह्मदर्शन (=ब्रह्मलोक) का वह मुख्यरूप से प्रवचन अभी तक नहीं सुन पाया, जिसका कि वर्णन अथर्ववेद के बीसवें काण्ड में है।
मन्त्र को साधारण व्यक्ति की भाषा मे इस प्रकार भी कह सकते कि मैंने वरदान देने वाली वेदमाता की स्तुति अर्थात् उसका यथोचित गुण कीर्तन व अध्ययन किया है। यह वेदवाणी अध्ययन करने वालों को प्रेरणा देने वाली है और उन अध्ययनकर्ता द्विजों को पवित्र करती है। इस वेदमाता वेदवाणी के अध्ययन से अध्येता को लम्बी आयु, स्वस्थ प्राण वा जीवन, प्रकृष्ट योग्य सन्तानें, दुग्ध देने वाली गाय, भेड़, बकरी व अश्व आदि पशु, यश व कीर्ति, भौतिक व आध्यात्मिक साधना रूपी धन सहित ब्रह्मवर्चस प्राप्त होता है। ब्रह्मवर्चस् हमें सब प्रकार के ज्ञान जिसमें आध्यात्मिक ज्ञान प्रमुख है, प्रतीत होता है जो कि वेदमाता के अध्ययनकर्ता को ही प्राप्त होता है। अन्त में वेदमाता के स्तोता की मृत्यु के समय वेदमाता अर्थात् परमात्मा अपने उस प्रिय अध्ययनकर्ता पुत्र को अपने पास ब्रह्लोक वा मोक्ष में ले जाती है। हमने यह अर्थ साधारण लोगों के लिए किया है। इतने अधिक लाभ वेदों को पढ़ने, अध्ययन, स्वाध्याय व स्तुति आदि प्रशंसा करने से मनुष्यों को प्राप्त होते हैं। अतः संसार के प्रत्येक मनुष्य को वेदमाता का स्वाध्याय नित्य प्रति अधिक से अधिक समय करना चाहिये जिससे उसे मन्त्रस्थ सभी प्रकार के लाभों व धनों की प्राप्ति हो।
इन पंक्तियों को लिखने का हमारा प्रयोजन वेदमाता विषयक वेदमन्त्र के अर्थ को पाठकों को परिचित कराना है जिससे पाठक वेदमन्त्र निहित विचारों से लाभान्वित हो सकें। अपनी जन्मदात्री माता से भी इसी प्रकार के अनेकानेक लाभ सन्तान को प्राप्त होते हैं। अतः हमें अपनी माता की भी सेवा व प्रशंसा तथा उसको अपना सर्वस्व अर्पण कर उसकी स्तुति करनी चाहिये। आशा है कि पाठक इससे लाभान्वित होंगे।
–मनमोहन कुमार आर्य
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