वेदवर्णित इन मन्त्रों को आधार बनाकर पहले ब्रह्मा ने और फिर मनु ने चार वर्णों (समुदायों) के कर्तव्य -कर्म निर्धारित किये। इसका भाव यह है कि जो व्यक्ति जिस वर्ण का चयन करेगा उसको विहित कर्मों का पालन करना होगा। निर्धारित कर्मों का पालन न करने वाला व्यक्ति उस वर्ण का नहीं माना जायेगा। इसी प्रकार किसी वर्ण-विशेष के कुल में जन्म लेने मात्र से भी कोई व्यक्ति उस वर्ण का नहीं माना जा सकता। जैसे कोई अध्यापन बिना अध्यापक, चिकित्सा बिना डॉक्टर, सेना बिना सैनिक, व्यापार बिना व्यापारी, श्रमकार्य बिना श्रमिक नहीं कहला सकता, उसी प्रकार निर्धारित कर्मों के किये बिना कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नहीं माना जा सकता।
(क) ब्राह्मण वर्ण का चयन करने वाले स्त्रियों और पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म-
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजन तथा।
दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्॥ (1.88)
अर्थ-ब्राह्मण वर्ण में दीक्षा लेने के इच्छुक स्त्री-पुरुषों के लिए ये कर्तव्य और आजीविका के कर्म निर्धारित किये हैं-‘विधिवत् पढ़ना और पढ़ाना, यज्ञ करना और कराना तथा दान प्राप्त करना और सुपात्रों को दान देना।’ इन कर्मों के बिना कोई ब्राह्मण-ब्राह्मणी नहीं हो सकता।
(ख) क्षत्रिय वर्ण ग्रहण करने वाले स्त्रियों-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म-
प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।
विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः॥ (1.89)
अर्थ-विधिवत् पढ़ना, यज्ञ करना, प्रजाओं का पालन-पोषण और रक्षा करना, सुपात्रों को दान देना, धन-ऐश्वर्य में लिप्त न होकर जितेन्द्रिय रहना, ये संक्षेप में क्षत्रिय वर्ण को धारण करने वाले स्त्री-पुरुषों के कर्तव्य हैं। विस्तार से इनके कर्तव्य मनुस्मृति के अध्याय 7, 8, 9 में बतलाये हैं। वहां देखे जा सकते हैं।
महर्षि दयानन्द ने क्षत्रिय के कर्त्तव्यों के अन्तर्गत ‘इज्या’ शब्द के अर्थ ‘यज्ञ करना और कराना’ दोनों किये हैं (समु0 4)। यह वर्णव्यवस्था के अनुसार सही है। यज्ञानुष्ठान क्षत्रिय और वैश्य भी करा सकते हैं क्योंकि वे प्रशिक्षित और वेदवित् होते हैं, किन्तु वे इसको नियमित आजीविका नहीं बना सकते, क्योंकि वह केवल ब्राह्मण के लिए ही निर्धारित है। इसी प्रकार एक मतानुसार क्षत्रिय और वैश्य अपने तथा अपने से निन वर्ण का उपनयन संस्कार भी करा सकते हैं-
‘‘ब्राह्मणस्त्रयाणां वर्णानामुपनयनं कर्त्तुमर्हति, राजन्यो द्वयस्य, वैश्यस्य, शूद्रमपि कुल-गुण-सपन्नं मन्त्रवर्जमुपनीतमध्यापये-दित्येके।’’ (सुश्रुत संहिता, सूत्रस्थान, अ0 2)
अर्थात्-‘ब्राह्मण अपने सहित तीन वर्णों का, क्षत्रिय अपने सहित निन दो का, वैश्य अपने सहित निन एक वर्ण का उपनयन करा सकता है।’ यह संस्कार यज्ञपूर्वक ही होता है।
(ग) वैश्य वर्णेच्छुक स्त्री-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्तव्य –
पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।
वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च॥ (1.90)
अर्थ-पशुओं का पालन-पोषण एवं संवर्धन करना, सुपात्रों को दान देना, यज्ञ करना, विधिवत् अध्ययन करना, व्यापार करना, याज से धन कमाना, खेती करना, ये वैश्य वर्ण को ग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म हैं।
(घ) शूद्र वर्णधारक स्त्री-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म-
एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।
एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया॥ (1.91)
अर्थ-परमात्मा ने वेदों में शूद्र वर्ण ग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुषों के लिए एक ही कर्म निर्धारित किया है, वह यह है कि ‘इन्हीं चारों वर्णों के व्यक्तियों के यहां सेवा या श्रम का कार्य करके जीविका करना।’ क्योंकि अशिक्षित व्यक्ति शूद्र होता है अतः वह सेवा या श्रम का कार्य ही कर सकता है, अतः उसके लिए यही एक निर्धारित कर्म है।