वर्णाश्रमधर्म-स्वतन्त्र-चिन्तन का परिणाम
डॉ. बद्रीप्रसाद पंचोली…..
भारतीय परम्परा स्वतंत्रता में विश्वास करती है जिसका अर्थ है – साध्य चुनने और उसके लिए साधन अपनाने की स्वतन्त्रता। स्वातंञयं परमं सुखम् का अर्थ है स्वतन्त्रता ही परम सुख है।गोस्वामी तुलसीदास ने कहा – पराधीन सपनेहुँ सुख नाही।
इस स्वतन्त्रताप्रियता का ही सुफल है – वर्णाश्रमधर्म। यह मनुप्रवर्तित मानव धर्म है जिसका परिणाम होता है – मनुष्य को मनुष्य के रूप में ढालना। वेद मानवता का संविधान है। विचार और विश्वास सभी परम्पराओं का जन्म वेद से हुआ है – वेदात् सर्वं प्रसिद्धयति। मनुआदि की स्मृतियाँ श्रुति की अनुगामिनी होती है। कहीं मतभेद लगे तो श्रुति को प्रामाणिक माना जाय।
वर्ण का अर्थ है – वरण करना। अपने गुण-कर्म-स्वभाव के अनुकूल ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में से किसी एक को चुनना पड़ता है – वरण करना पड़ता है। वेद ने कहा – ऋणं ह वै जायमानः अर्थात् माता के गर्भ से पैदा होने वाला ऋणस्वरूप होता है।ब्राहमणी माता का जाया ऋण ब्राहमण, क्षत्रिय जननी का बेटा ऋण क्षत्रिय, वैश्य माता का बेटा ऋण वैश्य और शूद्रा माता का बेटा ऋण शूद्र होता है। उन सबका लक्ष्य है स्वयं को ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र बनाना।चारों वर्ण इसी प्रक्रीया से निर्धारित होते हैं। ऋण ब्राहमण धन शूद्र या ऋण वैश्य का पुत्र क्षत्रिय बन सकता है।
स्पष्ट है कि वर्ण जन्मना नहीं कर्मणा निर्धारित होता है। श्रम के आधार पर निर्भर होता है। ब्रहम श्रम करे
वह ब्राहमण, क्षत्र श्रम करें वह क्षत्रिय, विट्श्रम करे वह वैश्य और केवल सेवाधर्म अपनाए वह शूद्र होता है।
जिसमें पूरी तरह से श्रम व्याप्त हो उसे आश्रम कहा जाता है – आ समन्तात् श्रमः व्याप्यते यम्।
पिछले दिनों देश में परिवर्तन आया तो अभियान चला श्रम एव जयति। अभियान भारतीय परम्परा के अनुसार था – इसलिए लोगों ने इसे स्वीकार किया और इसकी प्रशंसा की। श्रम करके देश को बदलने का संकल्प लिया जाने लगा। श्रम का यथेच्छ रूप चुनने और तदनुकूल जीवन जीने की स्वतंन्त्रता भारत में सबको प्राप्त है –
परम्परा से भी और वेद से भी।
वर्ण धर्म और आश्रम धर्म का निर्धारण स्मृतिकारों ने किया है, पर उनका पालन होता है परिवार में। परिवार
भारत का सबसे बड़ा अविष्कार है। परिवार का अर्थ है जिसमें व्यक्ति को अपने दोषों को निवारित करने का
अवसर प्राप्त हो – परितः वारयति स्वदोषान् यस्मिन् इति। परिवार संसार का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय होता है, सबसे बड़ा चिकित्सालय है, सबसे बड़ी प्रशिक्षणशाला है, सबसे बड़ी कार्यशाला है।
परिवार का निर्माण कुलवधू करती है। वेद के अनुसार जायेदस्तम्-जाया इत् अस्तम्-जाया ही घर है। इसी को आधार मान कर मनु ने कहा – गृहिणी गृहम्उच्यते। परिवार अनुशासित हो तो समाज अनुशासित होता है। परिवार में कुलधर्म सुरक्षित रहता है। उसी कुलधर्म का पालन करने से अपने-पराये के भेद को छोड़कर व्यक्ति को उदार चरित होने का अवसर मिलता है, जिसके लिए वसुधा ही कुटुम्ब हो जाती है-
अयं निजः परोवेति गणनालघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।
जिस परिवार में विश्व समा सकता है उस पर आजादी के बाद सबसे अधिक आक्रमण हुए। सरकार में बैठे हुए सिरफिरों ने छोटे परिवार के नाम पर योजनाबद्ध ढंग से आक्रमण किया है। यह भारतीय संस्कृति पर सीधा आक्रमण है। परिवार संस्था नष्ट हो गई तो भारतीय समाज-परम्परा ही नष्ट हो जायगी।
श्रम का सम्बन्ध शरीर से होता है। महात्मा गाँधी कहा करते थे कि अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए श्रम करो। वेद का कथन है –
न ऋतेश्रान्तस्य सख्याय देवाः।
परिश्रम करके थके नहीं तब तक देवों को सखा नहीं बनाया जा सकता। मनुष्य तो कामना करता है कि
उसे देवता सखा भाव से प्राप्त हों। शरीर का श्रम भोजन को पचाता है। इससे शरीर सुपुष्ट होता है। भारत में
बालकों को पौष्टिक आहार नहीं मिलता – इसकी चिन्ता की जाती है, पर सच यह है कि बालकों को जो भी खाने को मिलता है वह उनको पचता ही नहीं है। उपयुक्त आहार और तदनुकूल व्यवहार को तो श्रीमद्भगवद्गीता में दुःखहा योग माना गया है –
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्यकर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।
वेद के अनुसार वर्तमान सृष्टि पूर्व कल्प के अनुसार ही चल रही है – यथापूर्वमकल्पयत्। गुण कर्म स्वभाव से लोग अपने वर्ण का वरण करने लगे। गुरु प्रत्येक विद्यार्थी को उसके वर्ण के अनुसार ही शिक्षा देने लगे। माता भी संस्कार के साथ ऐसी शिक्षा देती है।
मदालसा ने अपने तीन पुत्रों को ‘शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि’ की लोरियाँ सुना कर निवृत्ति मार्ग की शिक्षा प्रदान की। वे बचपन में ही संन्यासी हो गए। चौथे पुत्र को उसने प्रवृत्ति मार्ग की शिक्षा दी और वह चक्रवर्ती सम्राट् बना। माता-पिता घर में तो बालक की प्रवृत्तियों के विकास पर ध्यान देते ही थे, गुरुकुल में उपयुक्त गुरु के पास शिक्षा प्राप्त करने के लिए भी भेजते थे। राम के लिए कहा गया है – गुरुगृह गये बहुरि रघुराई– अल्पकाल शिक्षा सब पाई। श्रीकृष्ण को सान्दीपनि आश्रम में शिक्षा के लिए भेजा गया। श्रीकृष्ण
और सुदामा ने एक साथ शिक्षा प्राप्त की। शिक्षा से बालकों का व्यक्तित्व निखरता है।
वर्ण की दृष्टि से श्रम के ब्रहम, क्षत्र, विट् और सेवा चार रूप हैं उसी तरह आश्रम की दृष्टि से भी श्रम के चार रूप हैं। श्रमाधारित जीवन पद्धति को ब्रहमचर्य (विकासमानचर्या, प्रगतिशील जीवनचर्या) नाम दियागया।
ब्रहम का अर्थ है – ज्ञान, प्रथम आश्रम में ब्रहमचर्य का पालन ज्ञानार्जन के लिए किया जाता है। दूसरे आश्रम में गृहस्थ धर्म निभाते हुए कर्म ब्रहम की उपासना की जाती है। तीसरे वानप्रस्थ आश्रम में ईश्वर (ब्रहम) की उपासना की जाती है और चौथे आश्रम में सत्य-संज्ञक ब्रहम की उपासना की जाती है। स्वामी दयानन्द ने सत्य की खोज के लिए पूरा जीवन लगा दिया।
आश्रम धर्म प्रवृत्ति और निवृत्ति के समन्वय का मार्ग है। इसके समानान्तर श्रमण-मार्ग का विकास हुआ।
उसका आधार भी श्रम ही है, पर लोगों ने न जाने कैसे आश्रम और श्रमणमार्ग को एक दूसरे का विरोधी मान लिया। ‘ब्राहमणश्रमणौ’ का समास विग्रह करते हुए कहा गया कि एक-दूसरे के विरोधियों का भी द्वन्द्व समास होता है। सर्पनकुलौ इसका दूसरा उदाहरण है।
स्वतन्त्रता की प्रवृत्ति के कारण प्रत्येक व्यक्ति का एक अभीष्ट देवता हो – यह विचार भी पनपा। वेद में तो ‘एक ही सत् (तत्व) को अनेक प्रकार से कहने’ की प्रवृत्ति थी – एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति। पौराणिककाल में अनेक देवता बन गए। ‘यथा पिण्डे तथा ब्रहमाण्डे’ और ‘वेदे लोके च’ सूत्र सदैव चिन्तन के आधार बने।
यजुर्वेद के राष्टगीत में एक सम्पूर्ण रूप से विकसित, श्रेष्ठ समाज का चित्र मिलता है –
आ ब्रहमन ब्रह्मणो ब्रहमवर्चसी जायताम्। आ राष्टे राजन्यः शूरइषव्योतिव्याधीमहारथो जायताम्।
दोग्ध्रीर्धेनुर्वोढानड्वान् आशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठा सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायताम्।
निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नः ओषधयः पच्यन्ताम्। योगक्षेमो नः कल्पताम्।।
;यजु.-२२/२२
ऐसा समाज श्रम के बिना नहीं बन सकता। भारतीय चिन्तन परम्परा में भारत के सप्तकुलपर्वत, सप्तकुलनदी और सप्तकुलपुरियाँ हैं। श्रमण-परम्परा में २४ तिर्थंकर होते हैं। तीर्थ का अर्थ है – तैरने योग्य स्थान। उसको बनाये वह तीर्थकर। वेद के अनुसार जीवन पथरीली नदी है। उसे अकेले तैर कर पार करना असंभव है। पर ऐसी कठिन चुनौती है तो समारम्भ करो और सब सखा मिलकर पारकर जाओ-
अश्मन्वती रीयते सं रमध्वम् उत्तिष्ठत प्रतरत सखायः।
श्रमण चिन्तन में श्रम का पर्यवसान शम में माना गया है। रामायण में राम ने शबरी को महाश्रमणा कहा है। श्रम के दिव्यस्वरूप के व्याख्याता होने के कारण ही गोस्वामी तुलसीदास ने कवीश्वर वाल्मीकि और कपीश्वर हनुमान् को विशुद्ध विज्ञान स्वरूप कहा है –
सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
वन्देविशुह्विज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ।।
(रामचरितमानस)
महामात्य चाणक्य ने कहा है – वृद्धोपसेवायाः मूलं विज्ञानं विज्ञानेन पुरुषः जितात्मा भवति।
वेद में कहा गया है –
अग्ने! व्रतपते! व्रतम् चरिष्यामि।
यह अग्नि की साक्षी में लिया गया संकल्प श्रम करने के लिए प्रतिबद्धता प्रकट करता है। ऐसा श्रम करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करे –कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।(यजुर्वेद-४०/२)
वेदविहित कर्म ही कर्म होता है और वेदविहित श्रम ही श्रम। श्रम से कन्नी काटने वालों ने शारीरिक श्रम के साथ मानसिक श्रम की कल्पना की है। वस्तुतः श्रम शरीर से ही किया जाता है। मानसिक श्रम कुछ होता ही नहीं। श्रम को व्रत के रूप में अपना कर मनुष्य अनृत से सत्य की ओर जाता है। कर्मवीर – श्रमवीर युद्धवीर से श्रेष्ठ होता है।
देश की परम्परा के अनुसार विद्या नहीं बेची जाती उसी तरह श्रम नहीं बेचा जाता। श्रम का मूल्य श्रम करके ही दिया जाता है। तनखैया (तनख्वाह लेकर काम करने वाला ) गाली मानी जाती है। ‘कृषिमित् कृषस्व’
कृषि ही करो इस वेदोक्त के अनुसार लोक में कहावत है- उत्तमखेती, मध्यम वणिज, अधम चाकरी। जो कृषि नहीं करता वह जीवन को जुआँ बना कर जीता है। सारे मानवीय सम्बन्धों का विकास कृषि अर्थात् उत्पादक श्रम से ही होता है । परिवार और समाज का विकास भी उत्पादक श्रम से ही होता है। ‘चरैवेति’ की सार्थकता भी निरन्तर श्रम करते रहने से मिलती है।
-बी ६ दातानगर, अजमेर- ३०२००१