महर्षि दयानन्द अपने समय के प्रमुख समाज सुधारक थे। उन्होंने अपने समय में जन्मना जातिवाद का विरोध किया था और सृष्टि की आदि से प्रचलित गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित वैदिक वर्ण व्यवस्था को व्यवहारिक घोषित कर उसका ही प्रचार व प्रसार किया था। इस सम्बन्ध में उन्होंने अपने विस्तृत साहित्य, मुख्यतः सत्यार्थ प्रकाश के चौथे समुल्लास में, अनेक स्थानों पर चर्चा की है। वेद आदि प्राचीन साहित्य के आधार पर वह वेदाध्ययन करने कराने, यज्ञ करने वा करवाने तथा दान देने व लेने को ब्राह्मण के मुख्य कर्तव्यों में शामिल करते थे। यदि किसी विप्र ब्राह्मण की सन्तान वेद ज्ञान से शून्य है तो वह वेदाध्ययन न करने व कराने सहित अन्य कर्तव्यों की पूर्ति में भी अक्षम होने से ब्राह्मण नहीं हो सकती। इसी प्रकार से यदि किसी अज्ञानी शूद्र का पुत्र व वा पुत्री ज्ञान की दृष्टि से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के तुल्य हो, तो वह शूद्र न होकर गुण-कर्म-स्वभावानुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ही होगा। यदि किसी घोर अज्ञानी में कोई विशेष योग्यता न हो तो फिर वह सन्तान शूद्र ही होगी। स्वामी दयानन्द के समाज सुधार का देशवासियों पर व्यापक प्रभाव पड़ा था। लोगों ने वर्णव्यवस्था के गुण-कर्म-स्वभाव के सिद्धान्त को युक्ति व तर्क संगत होने के कारण सैद्धान्तिक रूप में स्वीकार कर किया था। यह बात और है कि आज तक भी यह सिद्धान्त पूर्ण व्यवहारिक रूप नहीं ले सका। गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित वर्ण व्यवस्था वेदों पर आधारित उन्नत सामाजिक व्यवस्था है और जन्मना जाति व्यवस्था इस व्यवस्था के विपरीत कृत्रिम व अव्यवहारिक व्यवस्था है। जब तक यह जन्मना व्यवस्था समाप्त नहीं हो जाती, इसके विरूद्ध समाज सुधार प्रेमियों को निरन्तर प्रयत्न करने चाहिये। इससे देश व समाज को भारी क्षति हो रही है। जो लोग एक ही जाति में विवाह करते हैं, उस कारण उनसे कई योग्य सन्तानें जन्म लेने से वंचित होती हैं। यह दुःख का विषय है कि आर्य समाज ने महर्षि दयानन्द के अन्य कई आन्दोलनों की तरह ही वर्णव्यवस्था के प्रचार कार्य से स्वयं को न केवल दूर व पृथक किया है अपितु इस विषय पर सोचना भी छोड़ दिया है।
महर्षि दयानन्द का गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित वर्ण व्यवस्था के महत्व, योगदान, उपयोगिता व प्रभाव के विषय में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के डा. रघुवंश ने श्री यदुवंश सहाय लिखित महर्षि दयानन्द की जीवनी में ‘पुनरुत्थान युग का द्रष्टा’ शीर्षक से अपने प्राक्कथन में चर्चा की है। उनके इससे सम्बन्धित महत्वपूर्ण विचारों को हम पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि ‘भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के नेताओं ने, मुख्यतः गांधी जी ने देश का आह्वान करते समय अपने समाज की जिन समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है और समाज के जिन क्षेत्रों में रचनात्मक कार्य के द्वारा गति प्रदान करने की चेष्टा की है, उन सभी समस्याओं को स्वामी दयानन्द ने बहुत बल देकर सामने रखा था और सभी क्षेत्रों में कार्य करना शुरू किया था। एक भी ऐसी समस्या नहीं है, जिसकी ओर उन्होंने संकेत न किया हो और कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जिसे उन्होंने छोड़ा हो। समाज के वर्ण–भेद, उनकी असमानता, उनमें छूआछूत, जन्म से वर्णों के विभाजन आदि के बारे में दयानन्द ने अपने प्रखर विचार रखे थे। उन्होंने इस प्रकार की असमानता को, छुआछूत को, जन्म से वर्ण के निर्धारण को धर्म–विरुद्ध और असत्य प्रतिपादित किया। परन्तु उन्होंने कर्म पर आश्रित वैदिक वर्ण–व्यवस्था की स्वीकृति दी है। हम आधुनिकता के समर्थक यह कह सकते हैं कि कर्म (गुण-कर्म-स्वभाव) पर आश्रित वर्ण-व्यवस्था को स्वीकार कर लेना एक प्रकार का समझौता है, क्योंकि इस प्रकार हम दूसरे मार्ग से परम्परित वर्ण-व्यवस्था का समर्थन करते हैं। परन्तु स्थिति का यथार्थ-विवेचन करने से पता चलता है कि जिन्होंने वर्ण-व्यवस्था को पूरी तरह अस्वीकार करने का घोषणा की है, उन्होंने अपने जीवन में अभी तक जातिवाद को बहुत महत्व दे रखा है। भारतीय राजनीति के विभिन्न स्तरों पर जातिवाद का कितना प्रभाव है, इससे यह प्रमाणित हो जाता है। गांधी जी ने सन्त भाव से निम्न जातियों को ‘हरिजन’ कहा, पर ‘हरिजन’ शब्द ‘अछूत’ के समान एक पर्याय मात्र बन कर रह गया। इसकी तुलना में दयानन्द की दृष्टि अधिक स्पष्ट थी। पहले तो उन्होंने (स्वामी दयानन्द ने) कहा कि समाज के विविध अंग रूप उसके वर्णों में ऊंच-नीच का भाव ही अधर्म हैं, क्योंकि अंगों का ऊंचा-नीचा स्थान उनकी श्रेष्ठता का निर्धारक नहीं हो सकता। यह कहना नितान्त मूर्खता है कि पैरों से हाथ इसलिए श्रेष्ठ हैं, क्योंकि प्राणी के खड़े होने पर वे ऊपर स्थित होते हैं। समाज की व्यवस्था और सन्तुलन के लिए कार्यों का विभाजन किसी न किसी रूप में अनिवार्य है पर कार्य के सम्पादन की क्षमता जन्मतः सिद्ध नहीं हो सकती। अतः वर्ण का जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार के तर्क और व्यवस्था में कितना बल है, यह स्पष्ट है। साथ ही दयानन्द ने वर्ण–व्यवस्था के नाम पर जो सामाजिक अन्याय हो रहा था, उसका बड़ा विरोध किया था और इस विद्रोह भाव को समाज की नई रचना में समाहित करने का प्रयत्न भी किया था। बाद के समन्वयवादियों के दृष्टिकोण से उनका विचार कहीं अधिक क्रान्तिकारी रहा है। यह अलग बात है कि आधुनिक ज्ञान–विज्ञान के प्रयोग से जिस प्रकार की आद्योगिक और यांत्रिक प्रगति हो रही है, उसमें समाज–रचना का स्वरूप ऐसा बदल रहा है, जिसमें पिछली कर्माश्रित वर्ण–व्यवस्था असंगत हो गई है।’
डा. रघुवंश जी ने सामाजिक व्यवस्था का विश्लेषण कर अपना जो मन्तव्य प्रस्तुत किया है वह यथार्थ है। उन्होंने स्वामी दयानन्द के विचारों व कार्यों का स्तुति गान किया है जो कि सत्य व ग्राह्य है। आज जन्मना जाति व्यवस्था अप्रासंगिक हो गयी है। वर्तमान में गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित प्राचीन वर्ण व्यवस्था अपने मूल स्वरूप से परिवर्तित होकर आधुनिक रूप में विद्यमान है। आज की व्यवस्था में वर्ण समाप्त हो गये हैं और इनका स्थान डाक्टर, इंजीनियर, पुलिस, सेना, सरकारी कर्मचारी, निजी व्यवसायी, कृषक, श्रमिक आदि शब्दों ने ले लिया है। आशा है कि भविष्य में जन्मना जातियां इसी व्यवस्था में विलीन हो जायेगी। यह भी उल्लेख करना उचित होगा कि आज समाज में गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित प्रेम विवाह और परिवारजनों द्वारा आयोजित विवाह भिन्न भिन्न जन्मना जातियों के वर-वधुओं में हो रहे हैं जिन्हें अन्तर्जातीय विवाह कहते हैं। समाज के एक बड़े भाग ने इन्हें स्वीकार भी कर लिया है। इससे जन्मना जातिवाद काफी शिथिल हुआ है। दुःख का विषय है कि आज भी लोग अपने अपने नामों के साथ जन्मना जाति सूचक शब्दों का प्रयोग करते हैं जिससे समाज में एकरसता उत्पन्न होने में बाधा होती है। यह जन्मना जाति लिखने की प्रथा यदि समाप्त हो जाये और केवल गोत्रों का ही प्रयोग विवाहार्थ किया जाये तो यह समाज, देश व मनुष्यता के लिए उत्तम हो सकता है। यही स्वामी दयानन्द जी को भी अभीष्ट था। हम आशा करते हैं कि भविष्य में यह व ऐसी सभी कृत्रिम प्रथायें दूर होंगी। लेख समाप्ति पर हम यह कहना चाहते हैं कि सामाजिक व्यवस्था में जो आज परिवर्तन देख रहे हैं, उसमें महर्षि दयानन्द का प्रमुख योगदान है जिससे आज का समाज परिचित नहीं है। स्वामीजी के अनेक देश व समाज हित के कार्यों के लिए उनका कोटि कोटि वन्दन है।
–मनमोहन कुमार आर्य
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