वर्ण-विचार
श्री गणेश कुमार पेटकर…..
भारतीय संस्कृति और समाज में आर्यों की वर्ण व्यवस्था सामाजिक और राष्टीय एकता के लिए थी, विभाजन के लिए नहीं। वेद में कहा गया है चारो वर्ण एक ही शरीर के अंग है। उनके अनुसार अल्पज्ञ व्यक्ति इसका
अर्थ और स्वरुप ठीक से न समझने के कारण भ्रांति उत्पन्न करते हैं। ‘‘ऊँच नीच का भाव सम्पूर्ण मिथ्या’’ ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारों आर्य जाति के अभिन्न अंग है यदि आर्यजाति श्रेष्ठ है तो ये चारों वर्ण भी श्रेष्ठ है।किसी भी श्रेष्ठ और पूज्य पुरुष के किसी अंग अपूजनीयता का भाव नहीं रहता।व्यवहारिक सत्य तो यह है कि सर ही चरणों पर नवाया (झुकाया) जाता है। आज चारों वर्णों के लोग समान रुप से सभी कार्यों में लगे हुए है। ऐसा कोई भी कार्य नहीं जहाँ ये चारों न हो इसलिये यह कहना सर्वथा मिथ्या है कि एक वर्ण ऊँचा है और दुसरा नीच। महर्षि चाणक्य के अनुसार आर्यजाति के प्राण स्वरुप किसी शूद्र को यदि कोई दास बनाता है तो उसे मृत्युदण्ड दिया जाना चाहिए।हिन्दू धर्म में वर्णव्यवस्था मूलतः कर्म और गुण के आधार पर ही स्वीकार की गई थी ना कि जन्म के आधार पर। यही कारण है कि शास्त्रों में कई स्थानों पर उल्लेख
आता है कि आचारहीन ब्राहमण से राजा को शूद्र का कर्म करवाना चाहिए। आज न तो साम, दाम, विद्या, तपआदि से युक्त ब्राहमण ही दिखाई देते है, न ही धृति शौर्य आदि और कमजोरों के लिए प्राण अर्पित करने वाले क्षत्रियों का ही कहीं पता है, और न उदर के समान सम्पूर्ण शरीर का पोषण करनेवाले वे वैश्य ही नजर आते हैं कि समाज के प्रत्येक वर्ग अथवा वर्ण का पालन करने के लिए उदारता से धन व्यय करें। ऐसी
परिस्थिति में अन्य वर्णों द्वारा शूद्रों को अपने से नीचा मानने का विचार, दम्भ एवं आत्मश्लाघा से अधिक कुछ भी नहीं है। हिन्दू धर्म की यह भी मान्यता रही है कि विभिन्न देश काल में समाज के युग धर्म के
अनुरुप ही वर्णाश्रम धर्म के नियम भी बदल जाते हैं। यही कारण था कि मध्ययुग धर्म के अनुरुप ही वर्णाश्रम धर्म के नियम भी बदल जाते हैं। यही कारण था कि मध्य युग के सन्तों ने यह क्रान्तिकारी सन्देश दिया कि ‘‘जाति पाँति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई’’ बदलते युग-धर्म के आधार पर ही हिन्दू समाज में समानता और एकता का सिद्धान्त मानव मात्र के कल्याण हेतु प्रतिपादित किया गया है।
राज्य द्वारा समान अधिकार–
हिन्दू समाज में यह भारी भ्रम व्याप्त है कि शूद्र को शासन एवं सामाजिक कार्यों में कभी समान अधिकार
नहीं दिया गया था। सत्य तो इसके विपरीत है।महाभारत के शान्तिपर्व में मन्त्रि परिषद के गठन की व्यवस्था बड़े स्पष्ट रुप से दी गयी है। उसमें पितामह भीष्म के अनुसार मन्त्रियों की संख्या ३७ होनी चाहिए जिसमें ४ ब्राह्मण, ४ शूद्र, ८ क्षत्रिय, २१ वैश्य होने चाहिए। वैश्यों की इतनी अधिक संख्या सम्भवतः इसलिए थी कि उस समय कृषि, उद्योग एवं व्यापार काफी उन्नत अवस्था में थे।ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि ब्राहमण और शूद्रों की संख्या एक समान रखी गई थी।
आध्यात्म के क्षेत्र में समानताः–
आध्यात्म के क्षेत्र में तो हिन्दू धर्म में वर्णव्यवस्था की बात तो दूर रही, कुल, जाति, धन, रूप, विद्याआदि की श्रेष्ठता के अभिमान को भी परमार्थ सिद्धि में बाधक माना गया है। परमार्थ सिद्धि के प्रसंग में वर्ण, कुल, जाति की कल्पना आकाश गमनागमन के लिए सड़को और फुटपाथों की भाँति ही हास्यास्पद लगती है। जैसे आकाश में निश्चित संकेतो पर निर्भर रहकर ही सही रूप से दिशा और लक्ष्य का ज्ञान होता है उसी प्रकार
हिन्दू धर्म में परमात्मा की ओर बढ़ने के लिए ये नियम तो केवल चित्त शुद्धि के आधार है, वास्तविक प्रगति के लिए तो ईश्वर और गुरु की कृपामार्ग का कार्य करते हैं। यही कारण था कि अपने समय के सबसे महान वंश की कुलवधु मीरवाई ने सन्त रैदास जी के चरणों में बैठकर ज्ञान प्राप्त किया।
मध्यकालीन युग, जिसे भक्ति युग भी कहते हैं, जब सारा देश विदेशी आक्रमणकारी मुस्लिम शक्तियों से
आक्रान्त था, उस समय सन्तों एवं भक्तों ने ही मुख्यतः देश के दलित एवं पीड़ित समाज की रक्षा की थी और इन सन्तों में से लगभगं ८० प्रतिशत संत गैर ब्राहमण वर्ण के थे। ये सभी संत देश की समस्त जनता के
लिए श्रद्धा और भक्ति के पात्र थे और आज भी हैं। आध्यात्म के क्षेत्र में एसी समानता का उदाहरण विश्व के इतिहास में कहीं भी नहीं मिलेगा। उपर्युक्त चिंतन से यह स्पष्ट है कि हिन्दू समाज का गठन गुणों और कर्मों के आधार पर हुआ था और प्राशासनिक एवं सामाजिक कार्यों में सभी वर्णों का समान रुप से योगदान रहा है। राष्ट के विपत्ति काल के समय शूद्र एवं वैश्य वर्णों का जो अभूतपूर्व योगदान रहा है उसके उदाहरणों से भारत का इतिहास भरा पड़ा है। मैं यहाँ पर पाठकों का ध्यान शास्त्रों एवं पुराने इतिहास से हटाकर पिछले ३०० वर्षों में हुई ऐसी दो महान घटनाओं की ओर आकर्षित करना चाहूँगा जिन्होने हिन्दू धर्म में दो महान क्षत्रिय जातियों को जन्म दिया और देश की रक्षा की। पहली घटना के प्रवर्तक क्षत्रपति शिवाजी थे जिन्होने
१७ वीं शताब्दी में महाराष्ट के अन्दर अपने अदम्य शौर्य रणकौशल, त्याग एवं बलिदान के बल पर वहाँ की
साधारण हिन्दू जनता को एक शस्त्र जीवी क्षत्रिय के रुप में परिवर्तित कर दिया। इस प्रबल शक्ति ने अपने समय के विश्व के सबसे अन्यायी विदेशी मुगल साम्राज्य को उखाड़ फेंका। दूसरी ऐसी ही महान ऐतिहासिक घटना कुछ ही वर्षों बाद १८ वीं शताब्दी के शुरु में पंजाब में हुई। इसके जन्मदाता थे गुरु गोविन्द सिंह जी, जिन्होनें जान हथेली पर रखकर आये हुए पाँच शिष्यों को लेकर महान खालसा की स्थापना की थी जिसके अन्तर्गत आज शौर्य सम्पन्न सिख समाज विश्व के सामने प्रस्तुत है।
ईश्वरीय व्यवस्था–
वर्णव्यवस्था वैदिक धर्म की अपनी रचना नहीं अपितु ईश्वरीय रचना है। इस रचना के बिना किसी राष्ट का स्वरुप, सुखी सम्पन्न तथा प्रगतिशील होना सर्वथा असम्भव है और संसार का कोई राष्ट ऐसा नहीं है जिसमें
वह व्यवस्था न पाई जाती हो। भले ही अन्य राष्ट इस व्यवस्था को वर्णव्यवस्था और इसके अंगो को ब्राहमण,
क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के नाम से न पकार रहे हो अपितु उन्हें शिक्षक, सैनिक, व्यापारी तथा मजदूर नाम से पुकारते हैं। परन्तु यह बात सत्य है। कि इन चारों वर्णों के अतिरिक्त किसी भी समाज में अन्य कोई वर्ग नहीं है। वर्ण-व्यवस्था ईश्वरीय व्यवस्था कैसे हो? इसका पहला प्रमाण तो यही है कि सृष्टि के आदि में मानव जाति के कल्याणार्थ किये गए उपदेश वेद में इसका उल्लेख इस प्रकार है-
ब्राहमणोऽस्य मुखमासीत् बाहु राजन्यः कृताः।
उरु तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शुद्रोऽजायत्।।
वेद को न मानने वाले यह कहते हैं कि वे वेद की बात स्वीकार करने को तैयार नहीं है।परन्तु इस तथ्य को तो सभी धर्मावलम्भी स्वीकार करते हैं कि वेद इतिहास में पुरानी ईश्वरीय रचना है।वास्तव में मान वही राष्ट का छोटा स्वरुप है। ईश्वर ने स्वयं मानव तथा मानव समाज को कल्याणार्थ वेद के रुप में अपना ज्ञान दिया है, वहाँ अपनी रचना द्वारा अपने इस उपदेश को क्रीयात्मक रुप में उपस्थित कर दिया है। मानव अपनी
समस्त समस्याओं का समाधान ईश्वरीय रचना अथवा अपने अन्दर दी गई शक्ति के द्वारा प्राप्त कर सकता है। योग-साधना से सभी कुछ साध्य हो जाता है। मानव शरीर में शरीर के चारों अंश सिर, भुजा, उदर तथा जंघाये अपने कर्तव्य के कारण ही अपना-अपना अलग महत्व रखते हैं। परन्तु आपसी सम्बन्ध में सब समान हैं। इनके अन्दर भेद उत्पन्न करना या किसी को छोटा-बड़ा या छूत-अछूत समझना मूर्खता है। सब अंग मिलकर ही राष्ट बनाते हैं। किसी एक की भी उपेक्षा करना घातक है। दुर्भाग्यवश वर्तमान समय में भारत में यह वर्ग-भेद व्यक्तियों के गुण-कर्म और स्वभाव पर आधारित न होकर जन्म पर आधारित हो गया है। और इसके जन्मगत् जात पात अवैदिक तथा ईश्वरीय विधान के विपरीत है, इसलिए समाज के लिए घातक तथा विनाशकारी हैं। इसे किसी भी रुप में मान्यता देना ईश्वर के आदेश के विपरीत आचरण करना है। वैदिक धर्म का मन्तव्य यह है है कि जन्म से सभी शूद्र होते है। परन्तु बाद में माता पिता गुरु आदि की कृपा से पढ़ने-
लिखने के पश्चात् ही व्यक्ति अपना वर्ण ग्रहण करता है। उससे पूर्व नहीं।
ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्ण के कर्तव्य संक्षिप्त में इस प्रकार हैं-
ब्रा२ण– चरित्रवान्, धर्मात्मा तथा ज्ञानी व्यक्ति, जो समाज में अविद्या के नाश और विद्या की वृद्धि करने का व्रत लेते हैं वह ब्राहमण कहलाता है।
क्षत्रिय– जो व्यक्ति चरित्रवान्, ज्ञानी, राष्ट की स्वतन्त्रता की रक्षा करने का व्रत लेते हैं वे क्षत्रिय कहलाते है देश का शासन करने का भी ऐसे ही व्यक्तियों को अधिकार है।
वैश्य– आर्थिक दृष्टि से देश को समृद्ध बनाने की प्रतिक्षा कर मुख्यतया कृषि, व्यापार आदि कार्य करने वाले
व्यक्तियों को वैश्य कहा जाता है
शूद्र– जो व्यक्ति मानव समाज की सुख-शान्ति के प्रमुख शत्रु अज्ञान अन्याय, अभाव से लड़ने में अपने को असमर्थ पाते हैं और कला कोशल, दस्तकारी आदि शारीरिक परिश्रम से राष्ट की सेवा करते हैं उन्हें शूद्र नाम से पुकारा जाता है।
यहाँ पर बात याद रखने योग्य है कि चारों वर्णों का नाम साझा है अर्थात् चारों वर्ण सेवक के नाम से पुकारे जायें तो अत्युक्ति नहीं रहेगी। चारों वर्ण अपनी योग्यता व क्षमतानुसार राष्ट के सेवक पुकारे जाते हैं। सेवक
होने के नाते राष्ट की दृष्टि में सभी समान हैं। अतः व्यक्ति विशेष से अलग-अलग न बुलाकर उसके कार्य
के अनुसार कह सकते हैं।
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते–
प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है उसके पश्चात् संस्कारों के आधान से गुण-कर्म के द्वारा वह द्विजत्व को
प्राप्त होता है।
-हेड. एन सहायक प्रोफेसर
संस्कृत विभाग संजीवनि महाविद्यालय चापोलि
लातूर (महाराष्ट)
मान्य श्री गणेशकुमार पेटकर जी,
मान्यवर! आपने लिखा – “हिन्दू धर्म में वर्णव्यवस्था मूलतः कर्म और गुण के आधार पर ही स्वीकार की गई थी ना कि जन्म के आधार पर।” परन्तु, यदि ऐसा है; तो निश्चय ही तदानुरूप वचन शास्त्रों में विद्यमान होने चाहियें। उनमें से कतिपय आपने उद्धृृत क्यों नहीं किये? क्या अब करेंगे?
आपने यह भी लिखा है कि – “हिन्दू धर्म की यह भी मान्यता रही है कि विभिन्न देश काल में समाज के युग धर्म के अनुरुप ही वर्णाश्रम धर्म के नियम भी बदल जाते हैं।”
जब ऐसा है और हिन्दु धर्म की यह मानयता रही है; तो अवश्य ही इसके अनुरूप आदेश/ निर्देश भी हिन्दुधर्म के शास्त्रों में रहे होंगे; नहीं तो ऐसी मानयता कैसे हो सकती थी? क्योंकि हमें ऐसे कोई निर्देश किसी भी शास्त्र में मिले नहीं/ उपलब्ध नहीं हुए; तो क्या आप उन्हें प्रस्तुत करने की कृपा करेंगे? उनपर प्रकाश डालेंगे? साथ ही साथ यह भी बतलाँयगे कि कौन कौन से नियम थे जो मध्य युग में बदल दिये गये?
आपका यह कथन कि – “वैदिक धर्म का मन्तव्य यह है कि जन्म से सभी शूद्र होते है। परन्तु बाद में माता पिता गुरु आदि की कृपा से पढ़ने-लिखने के पश्चात् ही व्यक्ति अपना वर्ण ग्रहण करता है। उससे पूर्व नहीं” – भी प्रामाण्य सापेक्ष है। क्या वह शास्त्र वचन उद्धृत करेंगे कि जन्म से सभी शूद्र होते हैं और शिक्षा प्राप्त करने ले उपरान्त ही व्यक्ति अपना वर्ण ग्रहण करता है? कारण, उसके बिना/ उसके अभाव में यह कैसे मान लिया जा सकता है?
यह जो आपने श्लोक उद्धृत किया और लिखा – “जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते – प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है उसके पश्चात् संस्कारों के आधान से गुण-कर्म के द्वारा वह द्विजत्व को प्राप्त होता है”; हमें तो न किसी श्रुति में मिला न स्मृति और न ही सूत्रग्रन्थ में। फिर कैसे इसे प्रामाणिक माना जा सकता है? यूँ भी, यह श्लोक सत्य एवं प्रामाणिक प्रतीत नहीं होता क्योंकि शूद्र के लिये संस्कार (उपनयन) के लिये जब कोई विधान ही नहीं; तो उसका संस्कार कैसे हो सकेगा और क्योंकर वह द्विजत्व को प्राप्त हो सकेगा?
कृपाकर सप्रमाण उत्तर देकर अनुगृहीत करें और शङ्काओं का समाधान करें। कृपा होगी।
डा० रणजीत सिंह (यू०के)