व्याकरण की भाषा में कहें तो वर्णों के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नाम यौगिक पद हैं और गुणवाचक हैं। इन नामों में ही इनके कर्त्तव्यों का संकेत निहित है। वैदिक संस्कृत के इन शदों की रचना और व्युत्पत्ति इस प्रकार है-
(क) ब्राह्मण-‘ब्रह्मन्’ पूर्वक ‘अण्’ प्रत्यय के योग से ‘ब्राह्मण’ पद बनता है। ब्रह्म के वेद, ईश्वर, ज्ञान आदि अर्थ हैं। ब्रह्मणा वेदेन परमेश्वरस्य उपासनेन सह वर्तमानः ब्राह्मणः=ब्रह्म अर्थात् वेदपाठी, परमेश्वर के उपासक और ज्ञानी गुण वाले वर्ण या व्यक्ति को ‘ब्राह्मण’ कहा जाता है। जिसमें ये गुण नहीं, वह ब्राह्मण नहीं है।
(ख) क्षत्रिय-‘क्षत’ पूर्वक ‘त्रै’ धातु से ‘उ’ प्रत्यय होकर ‘क्षत्र’ पद बनता है। क्षत्र ही क्षत्रिय कहलाता है। ‘क्षदति रक्षति जनान् सः क्षत्रः’ = जो प्रजा की सुरक्षा, संरक्षा करता है, उस गुणवाले को ‘क्षत्रिय’ या ‘क्षत्रियवर्ण’ कहते हैं। आज उसे राजा, राजनेता, सेनाधिकारी या सैनिक कहते हैं।
राजन्य-यह क्षत्रिय का पर्याय है। ‘राजन्’ पूर्वक ‘यत्’ प्रत्यय से यह सिद्ध होता है। प्रजाओं की रक्षा करने वाले ‘राजन्य’ कहलाते हैं। ये प्रजाओं की रक्षा के लिए सदा उद्यत रहते हैं।
(ग) वैश्य-‘विश’ से ‘यत्’ और ‘अण्’ प्रत्यय होकर ‘वैश्य’ पद की रचना होती है। ‘विशति पण्यविद्यासु सः वैश्यः’ = जो वाणिज्य विद्याओं में प्रविष्ट रहता है, संलग्न रहता है, उस गुण वाले को वैश्यवर्ण या वैश्य कहते हैं। आज उसे व्यापारी कहते हैं। जिसमें ये गुण नहीं वह वैश्य नहीं कहला सकता।
(घ) शूद्र-‘शु अव्यय पूर्वक ‘द्रु गतौ’ धातु से’ ‘ड’ प्रत्यय के योग से ‘शूद्र’ बनता है ‘शु द्रवति इति’= जो स्वामी की आज्ञा से इधर-उधर आता-जाता है अर्थात् जो सेवा या श्रम का कार्य करता है। अथवा, ‘शुच्-शोके’ धातु से औणादिक ‘रक्’ प्रत्यय और च को द होकर शूद्र शब्द बनता है [उणादि0 2.19]। ‘शोच्यां स्थितिमापन्नः’ = जो अपनी निन जीवन स्थिति से चिन्तायुक्त रहता है कि मैं निन वर्ण का क्यों रहा, उच्च वर्ण का क्यों नहीं हुआ! इस कारण चतुर्थ वर्ण का नाम ‘शूद्र’ है। यह ‘एक-जाति’ अर्थात् एक जन्म वाला (दूसरे ‘विद्या जन्म’ से रहित) होने से अनपढ़ या विधिपूर्वक अशिक्षित होता है। आज उसे सेवक, चाकर, परिचारक, अर्दली, श्रमिक, सर्वेंट, पीयन आदि कहते हैं। विधिवत् शिक्षित और उपर्युक्त तीन वर्णों का कार्य करने वाले शूद्र नहीं कहे जा सकते
(ङ) डॉ0 अबेडकर का मत-डॉ0 अबेडकर ने मनुस्मृति के श्लोक ‘‘वैश्यशूद्रौ प्रयत्नेन स्वानि कर्माणि कारयेत्’’ (8.418) का अर्थ करते हुए शूद्र का ‘मजदूर’ अर्थ स्वीकार किया है-
‘‘राजा आदेश दे कि व्यापारी तथा मजदूर अपने-अपने कर्त्तव्यों का पालन करें।’’ (अबेडकर वाङ्मय, खंड 6, पृ. 61)
डॉ0 अबेडकर का यह सही अर्थ है। ऐसी मान्यता स्वीकार कर लेने पर ‘शूद्र’ शब्द को घृणास्पद मानने का कोई औचित्य नहीं।