वर्णधारण और वर्णपरिवर्तन आदि की प्रक्रिया: डॉ सुरेन्द्र कुमार

यहां प्रश्न उपस्थित होता है कि वैदिक या मनु की वर्णव्यवस्था में वर्णधारण, वर्णनिर्धारण, वर्णपरिवर्तन, वर्णपतन और वर्णबहिष्कार की क्या प्रक्रिया थी?

    (क) वर्णधारण-सर्वप्रथम, आचार्य, आचार्या अथवा शिक्षासंस्था का मुखिया निर्धारित आयु में विधिवत् शिक्षा प्राप्त कराने के लिए गुरुकुल में आने वाले बालक या बालिका का उपनयन संस्कार (विद्या संस्कार) करके उसे इच्छित वर्ण में दीक्षित करता था, अथवा वर्ण धारण कराता था। यह वर्णधारण बालक-बालिका की रुचि या लक्ष्य, अथवा माता-पिता की इच्छा के अनुसार होता था, जैसे आज भी प्राथमिक विद्यालयों में माता-पिता बालक-बालिका को अपनी इच्छा के अनुसार विषयों का अध्यापन करवाते हैं। किन्तु, शिक्षा प्राप्त करते समय जैसे बड़े बच्चों की रुचि बदल जाती है और वे स्वयं अपना व्यावसायिक लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैं, उसी प्रकार गुरुकुल में अध्ययन करते समय बालक भी वर्णशिक्षा में परिवर्तन कर सकते थे। वर्णशिक्षा के लिए प्रवेश की सर्वसामान्य आयु इस प्रकार निश्चित थी- ब्राह्मणवर्ण की शिक्षार्थ प्रवेश की आयु 5-7 वर्ष, क्षत्रियवर्ण की शिक्षा के लिए 6-10, वैश्यवर्ण की शिक्षा के लिए 8-11 वर्ष (मनुस्मृति 2.36-37)। शिक्षार्थ प्रवेश की अधिकतम आयु ब्राह्मण वर्ण की शिक्षा के लिए 16 वर्ष तक, क्षत्रियवर्ण की शिक्षा के लिए 22 वर्ष, वैश्यवर्ण की शिक्षा के लिए 24 वर्ष तक थी (मनु0 2.38)। इस आयु तक भी शिक्षार्थ प्रवेश न लेने वाले व्यक्ति निन्दित समझे जाते थे, और वे आर्यों के समाज में बहिष्कृत या शूद्र स्तर के माने जाते थे, क्योंकि शिक्षा आर्यों के समाज में महत्त्वपूर्ण एवं अनिवार्य थी। विधिवत् शिक्षा न प्राप्त करने वाला ही ‘शूद्र’ होता था, अर्थात् दूसरा विद्याजन्म न होने के कारण ही वह ‘एकजाति’ अर्थात् ‘केवल माता-पिता से ही जन्म लेने वाला’ कहाता था। उसी का नाम ‘एकजाति’ या ‘शूद्र’ होता था (10.4), जन्म के आधार पर नहीं।

कुछ पाठक मनुस्मृति के इस प्रकरण पर शंका प्रस्तुत करते हैं कि प्रवेश-प्रकरण में ‘शूद्र’ का उल्लेख क्यों नहीं है? वे इसका अभिप्राय यह निकालते हैं कि शूद्र को विद्याप्राप्ति का अधिकार नहीं था। यह शंका भी भूल में भूल से हो रही है। जो अपने मस्त्तिष्क में वर्णों को जन्म से मान लेने का भ्रम पाले हुए हैं, उन्हें यह शंका होती है। वास्तविक प्रक्रिया यह थी कि चारों वर्णों के बालक जिस द्विज-वर्ण में दीक्षा लेना चाहते थे, उसमें ले सकते थे। विद्या प्राप्त करके द्विज बनने वाले तीन वर्ण हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य। इन्हीं में प्रवेश का औचित्य है। शूद्र बनने के लिए प्रवेश की आवश्यकता ही नहीं है। शूद्र तो वह था जो इन तीनों वर्णों में प्रवेश नहीं लेता था, अथवा प्रवेश लेकर विधिवत् शिक्षा पूर्ण नहीं करता था। इसी प्रकार शूद्र माता-पिता से उत्पन्न बालक-बालिका भी उच्च तीन वर्णों में से इच्छित वर्ण में दीक्षित हो जाते थे। इन श्लोकों में पठित ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के प्रवेश की आयु से अभिप्राय है इन वर्णों में प्रवेश के इच्छुक विद्यार्थी की आयु से; जन्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य बालक की आयु से नहीं। यह मनुस्मृति के निनलिखित श्लोक से स्पष्ट है-

       ब्रह्मवर्चसकामस्य   कार्यं विप्रस्य पञ्चमे।

       राज्ञो बलार्थिनः षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोऽष्टमे॥ (2.37)

अर्थ-माता-पिता की अपेक्षा से यह कथन है कि जो अधिक विद्या और ब्रह्मचर्य की कामना रखते हों, ऐसे ब्राह्मण बनने के इच्छुक बालक का उपनयन पांचवें वर्ष में करावें। अधिक बल की इच्छा रखने वाले क्षत्रिय बनने के इच्छुक बालक का छठे वर्ष में और अधिक धन की इच्छा रखने वाले वैश्य बनने के इच्छुक बालक आठवें वर्ष में उपनयन करावें।

यहां ‘बालक’ भी उपलक्षक पद है। इससे बालक और बालिका दोनों का ग्रहण होता है। कानून की भाषा में जैसे यह कहा जाता है कि ‘जो चोरी करेगा उसको दण्ड मिलेगा’, इसका अभिप्राय यह कदापि नहीं होता कि केवल पुरुषों को ही दण्ड मिलेगा, स्त्रियों को नहीं। ऐसे वाक्यों से दोनों का ग्रहण होता है। इसी प्रकार धर्मशास्त्रों में पुल्लिंग प्रयोग दोनों का उपलक्षक है, उससे पुरुष और स्त्री दोनों का ही ग्रहण होता है।

वर्णव्यवस्था में स्त्रियों का उपनयन संस्कार होता था और वे ऋषिकाएं बनती थीं। उनके पृथक् गुरुकुल थे। वह परपरा उक्त अर्थ को पुष्ट करती है। (द्रष्टव्य ‘नारी की स्थिति’ शीर्षक पंचम अध्याय)

    (ख) वर्णनिर्धारण-गुरुकुल में साथ-साथ दो प्रकार की शिक्षाएं चलती थीं- एक, वेदादिशास्त्रों एवं भाषा प्रशिक्षण की शिक्षा, जो तीनों वर्णों के लिए समान थी। दूसरी, अपने-अपने स्वीकृत वर्ण की व्यावसायिक शिक्षा थी। कम से कम एक वेद की आध्यात्मिक शिक्षा अर्जित करने तक की शिक्षा सबके लिए अनिवार्य थी। आयु के अनुसार, पुरुषों के लिए 25 वर्ष तक और बालिकाओं के लिए 16 वर्ष तक शिक्षा प्राप्त करनी अनिवार्य थी। उसे पूर्ण न करने वाला शूद्र घोषित हो जाता था। इससे अधिक कितनी भी शिक्षा प्राप्त की जा सकती थी। गुरुकुल से स्नातक बनते समय आचार्य बालक-बालिका के वर्ण का निर्धारण करके उसकी घोषणा करता था, जो बालक प्राप्त वर्ण शिक्षा के अनुसार होता था। जैसे, आजकल प्राप्त शिक्षा के अनुसार विद्यालय और विश्वविद्यालय कलास्नातक, वाणिज्य-स्नातक, विज्ञान-स्नातक, कानूनस्नातक आदि की उपाधियां प्रदान करते हैं और जैसे, अग्रिम आयु में व्यक्ति उन उपाधियों के अनुसार ही व्यवसाय को सपादित करता है, उसी प्रकार वर्णव्यवस्था में गुरु द्वारा निर्धारित वर्ण के अनुसार ही व्यवसाय, पद आदि ग्रहण करता था। मनुस्मृति में कहा है-

आचार्यस्त्वस्य यां जातिं विधिवद् वेदपारगः।

उत्पादयति सावित्र्या सा सत्या सा जराऽमरा॥

(2.148)

    अर्थ-‘वेदों में पारंगत आचार्य सावित्री=गायत्री मन्त्रपूर्वक उपनयन संस्कार करके, विधिवत् शिक्षण देकर जो बालक के वर्ण का निर्धारण करता है, वही वर्ण उसका वास्तविक और स्वीकार्य है अर्थात् उसको कोई अस्वीकार नहीं कर सकता।’ इसको ब्रह्मजन्म कहा जाता है। इसी ब्रह्मजन्म को पाकर व्यक्ति द्विजाति बनते हैं। इस प्रकार बालक-बालिका का वर्णनिधारण होता था।

    (ग) वर्णपरिवर्तन-एक बार वर्णनिर्धारण के बाद भी यदि कोई व्यक्ति वर्णपरिवर्तन करना चाहता था तो उसको उसकी स्वतन्त्रता थी और परिवर्तन के अवसर प्राप्त थे। जैसे, आज कोई कलास्नातक पुनः वाणिज्य की आवश्यक शिक्षा अर्जित करके, वाणिज्य की उपाधि प्राप्त कर व्यवसायी हो सकता है, उसी प्रकार वर्णव्यवस्था में अभीष्ट वर्ण का शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त करके व्यक्ति वर्णपरिवर्तन कर सकता था। आज भी उसकी अनुमति उपाधियों द्वारा शिक्षासंस्थान, या मान्यता द्वारा सरकार देती है; वर्णव्यवस्था-काल में भी शिक्षासंस्थान और शासन देते थे, अथवा धर्मसभा देती थी। (द्रष्टव्य हैं, इसी अध्याय के 3.8 ‘अ’ में ऐतिहासिक उदाहरण ‘वर्णपरिवर्तन’ शीर्षक में)

    (घ) वर्णपतन-एक बार वर्णग्रहण करने के बाद यदि व्यक्ति अपने वर्ण, पद, या व्यवसाय के निर्धारित कर्त्तव्यों और आचार-संहिता का पालन नहीं करता था तो उसको राजा या अधिकार प्राप्त धर्मसभा वर्णावनत या वर्ण से पतित कर देते थे। अपराध करने पर भी वर्ण से पतित हो जाते थे। जैसे, आजकल नौकरी, व्यवसाय या निर्धारित कार्यों में कर्त्तव्य या कानून का पालन न करने पर, नियमों का पालन न करने पर, अथवा अपराध करने पर उस नौकरी या व्यवसाय का कुछ समय तक अधिकार छीन लिया जाता है, या उससे हटा दिया जाता है, या पदावनत कर दिया जाता है। ऐसे ही वर्णव्यवस्था में प्रावधान था। (द्रष्टव्य हैं, इसी अध्याय के 3.8 ‘इ’ में ‘वर्णपतन’ शीर्षक में ऐतिहासिक उदाहरण)

(ङ) वर्ण-बहिष्कार-जैसे आजकल विद्यालयों या शिक्षा संस्थानों में निर्धारित आयु में या समय पर प्रवेश न लेने पर बालक वैधानिक शिक्षा से और शिक्षाधारित अधिकारों से वंचित रह जाते हैं, उसी प्रकार प्राचीन काल में अधिकतम निर्धारित आयु (ब्राह्मण बनने के लिए 16 वर्ष, क्षत्रिय बनने के लिए 22 वर्ष, वैश्य बनने के लिए 24 वर्ष) तक प्रवेश न लेने पर बालक या युवक उच्च वर्णों से पतित अथवा वर्णव्यवस्था से बहिष्कृत हो जाता था। यह आर्यों का वर्ण-बहिष्कार था। ऐसा व्यक्ति ‘‘व्रात्य’’=व्रत से पतित या अनार्य कहाता था (2.39)। अन्यत्र भी महर्षि मनु ने स्पष्ट कहा है-

वर्णापेतं………………………………..अनार्यम्॥  (10.57)

अर्थ-‘वर्णों की दीक्षा से रहित व्यक्ति ‘अनार्य’ है।’ उन्हीं लोगों को ‘दस्यु’ भी कहा है-

       मुखबाहूरूपज्जानां या लोके जातयो बहिः।

       लेच्छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः॥   (10.45)

अर्थ-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चार वर्णों से बाहर अर्थात् इनमें जो दीक्षित नहीं हैं, वे सब व्यक्ति और समुदाय ‘दस्यु’ संज्ञक हैं, चाहे वे आर्यभाषाएं बोलते हैं अथवा लेच्छ=विकृत भाषाएं। इसी प्रकार वेद में भी ‘दस्यु’, ‘आर्य’ का विपरीतार्थक प्रयोग है।

यदि वह पुनः वर्णग्रहण करना चाहता था तो प्रायश्चित्त करके पुनः किसी अभीष्ट वर्ण की दीक्षा ले सकता था। (प्रमाण पृष्ठ

81-82 पर द्रष्टव्य हैं)।

    (च) वर्ण-वरण में अपवाद – ऐसा भी अपवाद मिलता है कि रेभ नामक व्यक्ति वेदों का श्रेष्ठ विद्वान् था किन्तु उसने आजीविका के लिए स्वेच्छा से शूद्रवर्ण को ग्रहण किया (कूर्म पुराण अ0 10.2)। इससे यह संकेत मिलता है कि कभी-कभी व्यक्ति स्वेच्छा से भी निनवर्ण को ग्रहण कर लेता था।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *