वर्ण-चेतना

 

वर्ण-चेतना

डॉ. अमिता आर्या…..

वर्ण व्यवस्था के प्रति हमारी वर्तमान समझ और- इसके केन्द्रीय उद्देश्यों में अब बहुत बड़ा अन्तर पैदा हो चुका है। यद्यपि इस व्यवस्था को हम अभी भी बहुत सहजता से जी रहे हैं, बल्कि सारा विश्व जी रहा है। फिर भी अधिकांश लोग इसका विरोध करते हैं। दुर्भाग्य से वर्ण व्यवस्था के सही स्वरूप की जानकारी का अभाव इसका कारण है। हमें वर्णों के प्रति अपनी समझ अर्थात्चेतना को परिष्कृत करना होगा । इसके बाह्य और आभ्यन्तर दोनों स्वरूपों को समझने के पश्चात् ही हमें इस महान् व्यवस्था की पूर्णता का भान होगा और इसे लागू करने की आवश्यकता अनुभव होगी।वस्तुतः हमारी समस्या ये है कि इस शब्द को सुनते ही हम अपने वर्तमान समाज, जिसमें विभिन्न वर्ण सदैव विद्यमान रहते हैं, उसे छोड़कर किसी दूसरे ही लोक में पहुच जाते हैं। ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के नाम पर हमारे मस्तिष्क में कुछ पूर्व निर्धारित ऐतिहासिक व पौराणिक

आकृतिया जीवन्त होने लगती हैं, माथे पर शिकन पड़ने लगती है। अतः स्पष्ट है कि समस्या तो है, लेकिन वो हमारी समझ में है, वर्ण व्यवस्था में नहीं। शास्त्रों में कहा है- ‘वर्णो वृणोतेः भाव यह है कि जिसके जैसे गुण कर्म हों, वैसा ही उसको अधिकार देना चाहिए। हम अपने समाज के किसी भी क्षेत्र से जुड़े प्रतिष्ठान को देखें। क्या उनमें कार्यरत सभी व्यक्ति समान अधिकार और वेतन के भोगी हैं ? क्या उनमें पद विभाजन नहीं है ? अधिकारों का बंटवारा नहीं है ? शासन, प्रशासन, सेना, आन्तरिक सुरक्षा बल, चिकित्सकीय संस्थान,

आर्थिक संस्थान, न्यायिक संस्थान इत्यादि में कार्यरत सभी कार्यकर्ताओं को एक से अधिकार प्राप्त हैं ? सर्वथा नहीं हैं। लेकिन इस भेद-विधान को देखकर किसी के मन में प्रश्न नहीं उठता, किसी के माथे की त्यौरियां नहीं चढ़तीं और हम इसे नितान्त सहज मानकर व्यवहार करते हैं। ये वर्ण-व्यवस्था है और इसपर आश्चर्य करने की आवश्यकता भी नहीं है।

वर्तमान जाति-व्यवस्था का विरोध तो ठीक है परन्तु वर्ण एक भिन्न संस्थान है। यह किसी को बिना मूल्य के कदापि नहीं मिलता। इसे अर्जित करना पड़ता है। जैसे डॉक्टर के घर उत्पन्न हुआ व्यक्ति व्यवसायगत विशेषज्ञता हासिल किये बिना डॉक्टर नहीं बन सकता। वैसे ही ब्राहमण का पुत्र बिना विद्वत्ता अर्जित किए ब्राहमण नहीं कहला सकता। वर्णव्यवस्था की दौड़ शून्य बिन्दु से आरम्भ होती है। अगर इससे आगे जाना है तो दौड़ना पड़ेगा। बैठे-बैठे तो केवल शूद्रत्व उपलब्ध है। इसकी और भी बड़ी विशेषता यह है कि ये दौड़ प्रतियोगिता नहीं है। दौड़ पूरी करने वाला हर प्रतिभागी उच्चवर्ण का अधिकारी है। जितना दौड़ेंगे, जब भी दौडेंगे उतना उसी समय प्राप्त होता जायेगा। इसलिए इस व्यवस्था में किसी के अधिकार को छीनने जैसी तो अवधारणा ही नहीं है। परन्तु दुर्भाग्य से कालान्तर में वर्ण व्यक्ति की अर्जित विशेषताओं का परिचायक नहीं रहा। परिणामस्वरूप एक न्यायपूर्ण व्यवस्था अन्यायपूर्ण होती चली गई। इसकी अत्यन्त प्रगतिशीलता भयानक जड़ता में परिवर्तित हो गई और फिर हमने उसे त्यागना ही उचित समझा। हम वर्ण वाचक शब्दों का प्रयोग चाहे न करें, फिर भी ये वर्ण गुण-कर्म के अनुसार समाज में सदैव विद्यमान रहते ही हैं। किन्तु एक संगठित संस्था के रूप में मान्यता प्राप्त न होने से ऐसे वर्ण विभाजन का कोई लाभ नहीं है। अपितु सबसे बड़ी हानि यह है कि अपने-अपने स्तर के अनुकूल मर्यादाओं और नियमों का पालन करने के लिए स्मृतिआदि शास्त्रों में जो अनुशासन बनाया गया था वो वर्ण-व्यवस्था की अनुपस्थिति में अप्रासंगिक हो गया है। अलग-अलग समूहों के लिए- उल्लिखित अलग अलग शास्त्रीय नियम यथासामर्थ्य उनके स्तर को बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं। ये नियम उच्च अधिकारों के साथ-साथ वर्णों को उच्च कर्त्तव्यों से बांधते हैं। अधिकारों को कर्त्तव्यों पर

अधिमान देने की स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति से हम सभी परिचित हैं। इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए

कोई अंकुश तो होना ही चाहिए। केवल नैतिक उपदेशों से काम नहीं चलेगा। ‘दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वाः’   ये एक सार्वकालिक सत्य है। लेकिन सूक्ष्म व्यक्तिगत कर्त्तव्यों की अवहेलना को रोकने के लिए अगर राज्य दण्ड-व्यवस्था को हाथ में ले तो कुछ अव्यावहारिक ही लगता है। मूल कर्त्तव्यों की अवहेलना को संविधान में

दण्डनीय अपराधों से पृथक रखना इसी असहजता को दर्शाता है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि राज्य अपने

नागरिकों को कर्त्तव्य परायण बनाना चाहता है। परन्तु उसके लिए बाध्यता का प्रावधान नहीं कर पा रहा। ऐसे

में समस्या यह है कि इससे कर्त्तव्यों की प्रेरणा प्रभावशाली नहीं बन पाएगी। प्राचीन वर्ण-व्यवस्था में इसका

समाधान उपलब्ध है। इसके लिए हमें सोवियत संघ से सीखने की आवश्यकता नहीं थी। वर्ण क्रम से निर्धारित

आचार संहिता वे मौलिक कर्त्तव्य हैं जिनके पालनार्थ नागरिकों को बाध्य करने के लिए एक व्यावहारिक

दण्ड-व्यवस्था विद्यमान है क्योंकि इनके उल्लंघन पर दण्ड देने का दायित्व मुख्यतया राज्य का नहीं अपितु

समाज का है। इसका दण्ड देने का अपना प्रकार है। ये आपको जेल में तो नहीं डालेगी परन्तु निश्चितकालिक

बहिष्कार और अधिकारों की कटौती आदि से नियन्त्रित अवश्य करेगी, जिसमें एक बार अपराध करने के बाद

सुधरना मना नहीं है। यहा जितनी शीघ्र अपराधी अपने शुद्ध आचरण से समाज के विश्वास को जीत लेगा उतनी ही शीघ्रता से वो अपने खोए अधिकारों को फिर से प्राप्त कर लेगा। यह एक उत्तम दण्ड-व्यवस्था है, जहा प्रताड़ना तो है परन्तु अपराधी का समय दिशाहीन कैद में व्यर्थ नष्ट नहीं होता। यह एक ऐसा कारागार है जिसकी चाबी जेलर के नहीं बल्कि अपराधी के हाथ में है। वो जब चाहे स्वयं को परिष्कृत कर प्रतिबन्धों

से मुक्त हो समाज की मुख्यधारा में सम्मिलित हो सकता है। ये काल्पनिक बातें नहीं हैं, यथार्थ हैं। नियमों का उल्लंघन हो जाने पर अलग-अलग वर्णों द्वारा करने योग्य प्रायश्चित्तीय विधानों का विशाल जखीरा

सामाजिक आत्मानुशासन प्रणाली की व्यापक विद्यमानता का प्रमाण है। ऐसी सुलझी हुई दण्ड-व्यवस्था समाज

और व्यक्ति दोनों के लिए हितकर है। इस प्रकार से समूह के प्रति व्यक्ति के कर्त्तव्यों को सुनिश्चित करने का सर्वोत्तम उपाय है वर्ण-व्यवस्था। बस आवश्यकता इस बात की है कि हम इस व्यवस्था को इसके मूलरूप में स्वीकार करें, विकृत रूप में नहीं। वह मूलरूप जिस में वर्णों की दीक्षा पात्रता के आधार पर दी जाए, जन्म के आधार पर नहीं। जहा एक वर्ण दूसरे वर्ण का शोषक न हो।जहा सामाजिक भ्रातृभाव और संवेदना किसी भी प्रकार से बाधित न हो। ऐसा तभी सम्भव है जब हम ये समझ पाएं कि कोई भी व्यवस्था इंसानियत से बड़ी नहीं होती। व्यवस्थाएं मानव धर्म को निभाने का संसाधन हैं। हाथ के लिए हथियार बनते हैं, हथियारों के लिए हाथ नहीं। इसी प्रकार वर्ण-व्यवस्था समाज में समभाव बनाए रखने के लिए बनी है। उसकी एकता को भंग करने के लिए नहीं, ना ही मानव-मानव में भेद उत्पन्न करने के लिए। महर्षि दयानन्दजी ने इसी बात को ध्यान में रखते हुए ऋगवेदादिभाष्यभूमिका में वर्णाश्रम विषय की शुरुआत जिस संवेदनशीलता के साथ की है वो दुर्लभ है- ‘प्रथम मनुष्य जाति सबकी एक है, सो भी वेदों से सिद्ध है। ….. मनुष्य जाति के ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये वर्ण कहाते हैं। वेद रीति से इनके दो भेद हैं– एक आर्य और दूसरा दस्यु। …. वे चार भेद गुण कर्मों से किए गये हैं।

अपने बाह्य स्वरूप में विभेदनकारी दिखते हुए भी अन्ततोगत्वा यह एक समावेशी व्यवस्था है। यहा शूद्र को मुख्य समाज से काटकर अलग नहीं फेंका गया है अपितु उसे भी चारों वर्णों में से एक के रूप में चिन्हीत

किया गया है। इस प्रकार से वो उसी समाज का एक भाग है जिसका अंग बाकी तीनों वर्ण हैं। ये सभी वर्ण

अन्तः सम्बन्धित व एक दूसरे पर आश्रित हैं। सभी को सभी की आवश्यकता है। यजुर्वेद के पुरुष सूक्त में इन

चारों वर्णों को एक ही अवयव संस्थान के अभिन्न अंगों के रूप में स्वीकार किया गया है। इसलिए इनमें

छुआ-छूत और ऊँच-नीच जैसी तुच्छ भावना के लिए स्थान नहीं है। वर्ण व्यवस्था के इस विशुद्ध स्वरूप से

असहमत नहीं हुआ जा सकता। इस विषय में तो सम्यक् जानकारी का अभाव ही प्रतिरोध को उत्पन्न कर सकता है। कालान्तर में प्रविष्ट हुई विकृतियों को यदि इस व्यवस्था से अलग कर दिया जाये तो यह व्यवस्था सर्वथा निरापद है। इस व्यवस्था के पुनः प्रचलन का सबसे बड़ा लाभ यही होगा कि समाज के भय से स्ववर्णानुकूल आचरण के लिए बाध्य हुआ व्यक्ति क्षुद्रताओं को पीछे छोड़कर अपने और राष्ट के कल्याण के लिए प्रस्तुत रहेगा। इससे राज्य पर पड़ने वाला अनुशासनात्मक व्यवस्था सम्बन्धी बोझ हल्का होगा। अच्छे नागरिक प्रशासन के कार्य को सुगम बनाते हैं और निरंकुश नागरिक प्रशासन का सिरदर्द बनते हैं। वर्णों की यह ठोस सामाजिक व्यवस्था राज्य को अच्छे नागरिक प्रदान करती है।

प्राचीनकाल में वर्ण का निर्धारण जन्म के आधार पर नहीं बल्कि व्यक्ति की पात्रता के आधार पर करने की प्रथा थी। इसके निर्धारण का क्या प्रकार था ये भी जानना आवश्यक है। वस्तुतः मानव समाज में चार

समस्याएँ सदा विद्यमान रहती हैं- अज्ञान, अन्याय, अभाव और आलस्य। शिक्षा समाप्ति तक गुरु ये पहचान जाता था कि उसका कौन सा शिष्य किस समस्या का समाधान बन सकता है। इसलिए जो अज्ञान को मिटा सके वो ब्राहमण, जो अन्याय को समाप्त कर सके वो क्षत्रिय, जो अभाव की पूर्ति करने में समर्थ हो वह वैश्य और जो इन सब में कुशल न होकर शारीरिक सक्रीयता में बढ़कर होता है वह शूद्र। इस प्रकार से वर्णों की दीक्षा दी जाती थी। यह तो हुई वर्णव्यवस्था की बाह्य जानकारी। अब हमें इसके आन्तरिक पहलू को भी समझना चाहिए। अपनी-अपनी पात्रता के अनुसार वर्णों की दीक्षा ग्रहण करने के साथ ही व्यक्ति की पुरुषार्थ चतुष्टय की यात्रा प्रारम्भ हो जाती है। वस्तुतः पुरुष अपने अर्थ को अथवा अपनी सार्थकता को जिसमें ढूंढता है वही उसका पुरुषार्थ है। व्यावसायिक स्तर पर हम जिस भी वर्ण से सम्बन्ध रखते हों लेकिन अपनी चेतना में किस वर्ण को साकार कर रहे हैं ये इसका दूसरा पक्ष है। जो मात्र देह की चेतना में जीता है वह शूद्र है।

कामनाओं का उपभोग ही संसार का परमतत्व है, इससे परे कुछ है ही नहीं जो ये मान कर जीते हैं वो काम के पुरुषार्थ को चुनते हैं। अतः शिक्षित होते हुए भी वे चेतना के स्तर पर शूद्रत्व में ही वास कर रहे हैं। जो अकुशल श्रमिक है वो तो व्यवसाय के स्तर पर शूद्र है, परन्तु शिक्षित व्यक्ति यदि काम को अपना पुरुषार्थ चुनेगा तो चेतना में शूद्र बनता जाएगा। इसी प्रकार अर्थोपलब्धि जिसका पुरुषार्थ बन जाता है, वह वैश्य कहाता है। क्षत्रिय का पुरुषार्थ धर्म है। वह संकल्पवान् है। धर्म के लिए वह मर मिटेगा। जहा अन्याय का प्रसंग आयेगा वहां सर्वस्व स्वाहा कर देगा। ब्राहमण धर्म, अर्थ और काम तीनों से ऊँपर उठकर मोक्ष को अपना पुरुषार्थ मानता है। यहा धर्म से ऊँपर उठने का अर्थ धर्म की अवमानना नहीं है, इसका आशय है कि अब वह स्वभावतः ही धर्म में वास कर रहा है। काम, अर्थ और धर्म इन तीनों से आगे की यात्रा है मोक्ष। मोक्ष में संस्कारों के साथ प्रवेश नहीं कर सकते। जो संस्कार सहायक थे उनकी सीढ़ी से भी मुक्त होना होता है। बुद्धि भी हमें आबद्ध कर ही रही थी चाहे धर्म से ही सही, अतः उसका परित्याग भी आवश्यक है। तभी मोक्ष घटित होगा। हम किसी भी वर्ण के किसी भी आश्रम से सम्बन्ध रखते हों फिर भी मानव जीवन का चरम गन्तव्य मोक्ष ही है। इस विषय में वेदादिशास्त्रों में अनेक प्रमाण हैं। उन्हीं के सार को वानप्रस्थ और संन्यास के प्रसंग में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने इस प्रकार कहा है- the stature of man is not be reduced to the requirements of the society. Man is much more than the custodian of its culture or protector of his country or producer of its wealth. इससे भी आगे उसकी नियति है। हमारी

सामाजिक दक्षता हमारी आध्यात्मिक नियति का गन्तव्य नहीं है। इस बात को ध्यान में रखते हुए शूद्रत्व की

चेतना से ऊँपर उठते हुए ब्राहमण की चेतना तक पहुचने का प्रयास करना चाहिए। सारे वर्ण अपने-अपने काम

करते हुए भी ब्राहमण की चेतना में जीने का अभ्यास कर सकते हैं। कर्म यदि यज्ञमय हो जाए तो शूद्र का कर्म भी ब्राहमण के कर्म के समान पावन बन जाता है। वहीं ब्राहमण का कर्म निम्न चेतना के साथ किया जाए तो वह कर्म पावन होते हुए भी शूद्र के समान हो जाता है। ब्राहमण और क्षत्रिय जब अपनी सेवा को अर्थ की लिप्सा से बेचते हैं तो वैश्य चेतना से युक्त हो जाते हैं। जबकि सामाजिक हित की भावना से व्यापार करता हुआ वैश्य उत्कृष्ट वर्ण की चेतना को प्राप्त कर लेता है। महर्षि मनु ने भी शूद्रादि की उत्कृष्ट वर्ण प्राप्ति का उल्लेख कर वर्णव्यवस्था के अन्दर निहित उन्नति की सम्भावनाओं पर बल दिया है। वर्ण चेतना का उत्तरोत्तर विकास ही वो सोपान है जिसके माध्यम से एक शूद्र भी ब्राहमणत्व को धारण कर सकता है।

वस्तुतः यह एक ऐसी व्यवस्था है जो अपार सम्भावनाओं को अपार अवसर उपलब्ध कराती है, एक ऐसा यन्त्र है जो अंकुश से आजादी, सामूहिक परार्थ से व्यक्तिगत स्वार्थ, अनेकता से एकता, त्याग से प्राप्ति सुख के रस को निचोड़ लाता है। हमें समझना चाहिए कि एक ऐसी संस्था जो विभिन्न विरोधाभासी तत्वों को परस्पर

गूंथकर शान्तिमय सहअस्तित्व प्रदान कर सकती है क्या वो व्यवस्था अनेक समानताओं से युक्त एक मानव जाति को सद्भावनामय परिवेश प्रदान करने का सामर्थ्य नहीं रखती होगी ? क्या हो गया है हमारे विश्वास को ? एक सुपरीक्षित प्राचीन व्यवस्था के प्रति इतने आश्वस्त तो हो ही सकते हैं हम।

– श्रीमद्दयानन्द कन्या गुरुकुल महाविद्यालय,

चोटीपुरा, अमरोहा (उ. प्र.)

 

2 thoughts on “वर्ण-चेतना”

  1. संदीप जी
    आपको लेख पसंद आया हमारा मेहनत सफल हुवा |
    धयवाद जी आपका |

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *