वानप्रस्थ और संन्यास विषयक शंका-समाधान
श्रीउदयनाचार्य.
वेदिकों को वेद परम प्रमाण है। वेद जो कहता- है वही प्रामाणिक है, वैदिक है, मान्य है अन्यथा वह अप्रामाणिक है, अवैदिक, अमान्य है। परन्तु इस मान्यता के साथ वेद की वर्ण-शैलियों पर गौर करना होगा और उन्हें जानना भी होगा। केवल किसी एक शैली के आधार पर किसी विषय को अवैदिक व अप्रामाणिक
कहना शीघ्रता वा अज्ञता होगी। वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम के विषय में कुछ ऐसा ही दीखता है। क्योंकि
ब्रहमचर्य एवं गृहस्थ का नामतः जैसा स्पष्ट उल्लेख वेद में मिलता है, वैसा वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रम का
उल्लेख नहीं मिलता । इतने मात्र से इन्हें अवैदिक कहना उचित न होगा। वैसे तो आश्रम शब्द भी वेदों में नहीं मिलता। तो क्या आश्रम व्यवस्था को ही अवैदिक माना जाये? कदापि नहीं। बौधायन-धर्मसूत्र में कहा गया है कि-
‘आश्रमादाश्रममुपनीय ब्रहमपूतो भवतीति विज्ञायते’
(बौ.धर्म.सू. २.१०.१५ )अर्थात् एक आश्रम से दूसरे आश्रम में प्रवेश करते हुए पुरुष ब्रहम के साथ एक हो जाता है, ऐसा वेदों में कहा गया है। वेदों में कहीं भी आश्रम शब्द ही उपलब्ध नहीं होता, पुनरपि कहा जा रहा है कि आश्रम व्यवस्था वेदों में विद्यमान है। क्योंकि केवल श्रुति मात्र ही प्रमाण नहीं, अपितु लिन्गादि भी प्रमाण हैं, मान्य हैं-
श्रुतिलिवाक्यप्रकरणस्थानसमाख्यानां समवाये…
(मीमांसा.३.३.१४)। केवल श्रुति को ही प्रामाणिक माना जाय, लिन्गादि को नहीं, तो पाणिनि के सूत्रों में
प्रतिपादित बहुत से महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों (परिभाषा आदियों) को भी अप्रामाणिक मानना होगा। जो कि इंगित,
चेष्टित मात्र हैं, शब्द-प्रतिपादित नहीं हैं। सो कदापि सम्भव नहीं है।
वेद को सब सत्य विद्याओं का पुस्तक माना जाता है और उसमें आध्यात्मिक, योग, दर्शन, व्याकरण,
निरुक्त, सृष्टि विज्ञान, परमाणु विज्ञान आदि अनेक विद्यायें विद्यमान हैं, ऐसा माना जाता है। तो क्या वे सब (सत्य) विद्याएँ नामतः स्पष्ट रूप से प्रतिपादित हैं वा संकेतित हैं? वेद रहस्यमय हैं, इनमें अधिकांश विषय परोक्षतः गूढ रूप से प्रतिपादित हैं, संकेतित हैं, ऐसा सभी विद्वानों की मान्यता है, पुनरपि केवल वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम के विषय में उन शब्दों को ढूँढने का आग्रह क्यों किया जाता है? यदि प्रत्येक विषय वेदों में शब्दशः प्रतिपादित हो, तो पुनः ब्राहमण, निरुक्त, व्याकरणादि शास्त्रों की आवश्यकता ही क्या है? वेद के शब्द रूढि नहीं हैं, अतः वेद में मिल नहीं सकते।कहा भी गया है –
‘अवधूताश्रमो देवि कलौ संन्यास उच्यते’
(महानिर्वाणतन्त्र- ८.२२१)। यहाँ यह भी ज्ञात होता है कि संन्यास शब्द कलियुग से ही प्रचलित हुआ है। अतः
उससे पूर्वकालिक साहित्य में संन्यास शब्द के स्थान पर परिव्राट, यति आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं। संन्यास एवं
वानप्रस्थ शब्द नवीन होते हुए भी इन आश्रमों का अस्तित्त्व, कर्तव्य, नियम, धर्मआदि तो वेदों में उपलब्ध होते हैं। इतना ही नहीं संन्यास के समानार्थक यति, मुनि, तुरीय (यजु.१८.३) शब्द एवं वानप्रस्थ के वाचक मुनि, तपः आदि शब्द वेदों में मिलते ही हैं, उन्हीं से इनकी वैदिकता सिद्ध होतीहै।
इन दोनों आश्रमों की अवैदिकता की पुष्टि में एक प्रबलतम प्रमाण के रूप में मन्त्र उपस्थित किया जाता है कि ‘ (इहैव स्तम्) हे वर-वधू! तुम दोनों यहाँ (गृहाश्रम में) ही रहो, (मा वि यौष्टम्) कभी वियुक्त मत होओ, (स्वस्तकौ) उत्तम घरवाले तुम दोनों (क्रीडन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ) पुत्र, पौत्र आदि के साथ खेलते हुए, प्रसन्न होते हुए, (विश्वमायुर्व्यश्रुतम्) पूर्ण आयु (सारी) को प्राप्त करो (अथर्व. १४.१.२२ ,ऋ १०.८५.४२ )। अथर्व. १४.२.६४ में भी यही भाव निहित है।
इन मन्त्रों को देखने से एक स्वाभाविक सन्देह वा आक्षेप उठता है कि सारी आयु अर्थात् विवाह से लेकर आजीवन गृहस्थाश्रम में ही रहना है, वानप्रस्थ एवं संन्यास की दीक्षा नहीं लेनी है। अर्थात् ये दोनों ही आश्रम अवैदिक हैं, वेदविरुद्ध हैं। यह आक्षेप ‘विश्वमायुः’ के कारण ही उठता है, नहीं-नहीं उसके अर्थ-एक देश से। क्योंकि यह सर्व सम्मत मत है कि जन्म से मृत्युपर्यन्त की कालावधि को आयु कहा जाता है। अतः यहाँ
आक्षेप यह उठना चाहिए कि जन्म से मृत्युपर्यन्त का काल गृहाश्रम की अवधि है और आयु शब्द के साथ सर्वशब्दार्थक विश्वशब्द के प्रयोग से यह भी ज्ञापित होता है कि आजन्म-मरण की कालावधि में गृहाश्रम के
अतिरिक्त अन्य ब्रहमचर्याश्रम आदि को कोई अवकाश ही नहीं है। अतः शेष तीनों आश्रम अवैदिक हैं। परन्तु ऐसा समझना सर्वथा अविवेकता होगी। यतोहि विवाहार्थ ब्रहमचर्याश्रम नितान्त आवश्यक ही नहीं अपितु वेदों में स्पष्ट रूप से विहित भी है। अतः इसका अपलाप किया जाता है। तो आक्षेपकर्त्ताओं को भी यह संकुचित अर्थ अभीष्ट ही है। जब अर्थ का संकोच स्वीकृत हो गया तो उसे और भी अधिक संकुचित किया जा सकता है। क्योंकि वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रमों की भी विधियाँ वेदादियों में मिलती हैं। उनका भी अपलाप नहीं किया जा सकता। अतः ‘विश्वमायुः’ का अर्थ गृहाश्रम की कालावधि सम्बन्धित सारी आयु ही करना चाहिए। यही अर्थ आर्ष परम्परा के अनुकूल है। अब आगे विश्व व सर्वशब्दों के संकुचित अर्थ का औचित्य निरूपित किया जाता है।
सर्व व विश्वशब्दों को समझने में अत्यन्त सावधान रहना चाहिए। अन्यथा महान् अनर्थ घटित हो सकते हैं। क्योंकि ये शब्द सोपाधिक व प्राकरणिक हैं। महर्षि जैमिनि मुनि ने कहा भी है ‘सर्वत्वमाधिकारिकम्’
(मीमांसा.१.२.१६) अर्थात् (सर्वत्वम्) सर्वपन, सम्पूर्णता (आधिकारिकम्) औपचारिक, प्राकरणिक है। जैसे-
‘पूर्णाहुत्या सर्वान् कामानवाप्नोति’ (तै.ब्रा.३.८.१०.५) अर्थात् पुर्णाहुति से सभी कामनाओं को प्राप्त करता है।इससे शेष यागों की अननुष्ठान आपत्ति आवेगी। जैसे कि प्रकृत प्रसंग में ‘विश्वमायु’ के कारण अग्रिम आश्रमों का अभाव हो रहा है। इसके विना प्राप्त नहीं होता। ऐसा कहकर पूर्णाहुति की स्तुति की गई है और वह वाक्य
‘पूर्णाहुत्या जुहोति’ (तै.ब्रा.३.८.१०.५) का शेषभूत वाक्य, न कि विधि वाक्य। स्पष्टता के लिए और एक उदाहरण
देता हूँ – ‘सर्वः ओदनो भुक्तः, सर्वेब्राहमणा भुक्तवन्तः’ (मीमांसा-शाबरभाष्यम्.३.५.१०) अर्थात् ‘सारा चावल खाया गया, सभी ब्राहमणों ने भोजन कर लिया है। इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं होता है कि संसार भर का सारा चावल खाया गया और संसार के सारे ब्राहमणों ने भोजन कर लिया। यदि कोई ऐसा ही अर्थ समझता है तो उसे बालबुद्धि ही कहा जायेगा। इससे स्पष्ट है कि असर्व में सर्वशब्द का प्रयोग प्राकरणिक है
– ‘असर्वेषु सर्ववचनमधिकृतापेक्षम्’
(शाबरभाष्यम्.१.२.१६ )
सर्वशब्द का व्यापक अर्थ कारणान्तरों से कैसे-कैसे संकुचित किया जाता है, एतदर्थ अन्य एक प्रसंग प्रस्तुत करता हूँ। राजाओं के लिए विहित ‘विश्वजित्’ याग में कहा गया है कि ‘विश्वजिति सर्वस्वं ददाति’
(द्र.आप.श्रौत.१७.२६.१२,१३) अर्थात् विश्वजित याग में सर्वस्व दान करें। तो यहाँ सन्देह होता है कि क्या
अपना सर्वस्व अर्थात् माता-पिता आदि आत्मीयजन, भूमि (सम्पूर्णराज्य), घोड़े, शूद्रादि सेवक और भूत एवं
भविष्यत् का सम्पूर्ण ऐश्वर्य का दान करना चाहिए? इसका समाधान मीमांसा दर्शन (६.७.१. से ३० तक).में
किया गया है कि माता, पिता, भूमि, घोड़े, सेवक आदि नहीं देने चाहिए, वहीं देने चाहिए जो दक्षिणा काल में
विद्यमान है – ‘दक्षिणाकाले यत् स्वम् तत् प्रतीयते तद्छान संयोगात्’ (सूत्रम्-७)। कोई (कृपण यजमान)
दक्षिणा-काल में एक ही गाय ४ को रखकर न देने लग जाय, इसके लिए आगे फिर कहा कि ११२ गाय ४ अथवा उससे अधिक देवें। जिसके पास ११२ गाय नहीं है, उसे विश्वजित् याग करने का अधिकार ही नहीं है
(सूत्र १९) । यहाँ अनेकों कारणों से सर्वस्व दान को ११२ गाय तक सीमित कर दिया गया है। वैसे ही प्रकृत प्रसंग में ‘विश्वमायुः’ का अर्थ ब्रहमचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों की कालावधि को छोड़कर अवशिष्ट अर्थात् २५ वर्ष की अवस्था सें ५० वें वर्ष तक (यह एक सामान्य कथन है, न्यूनाधिक हो सकता है) ही लेना चाहिए।
उनके भाष्यों में तो संन्यासाश्रम का अस्तित्व स्पष्ट रूप से दीखता है। परन्तु लोगों को अन्धानुकरण
को छोड़कर निष्पक्ष भाव से विचार करना होगा, देखना होगा। अस्तु, प्रकृतमनुसरामः।
पाँच अपराधों के कारण देवताओं ने इन्द्र को यज्ञों में आना प्रतिषिद्ध कर सोमपान का वर्जन किया था
(द्र.ऐ.ब्रा.७.२८)। उन्हीं अपराधों में से एक अपराध है कि इन्द्र ने यतियों को मारकर, उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर,
भेड़ियों, जंगली कुत्तों को खिला दिया था। यही प्रसंग बहुत्र आता है। उनमें से कुछ स्थल सायण भाष्य के साथ उपस्थित किये जा रहें हैं –
१.इन्द्रो यतीन् साला वृकेभ्यः प्रायच्छत्;
२. वेदविरुह्नियमोपेतान् यतीन्
३. (यतीन्=) कर्मविरोधजनान् सालावृकीपुत्रेभ्यःइन्द्रो दत्तवान् ;
४. (यतीन्=) ज्योतिष्टोमाद्यकृत्वा प्रकारान्तरेण वर्तमानान् ब्रह्मणान् सालावृकेभ्यः= अरण्यश्वभ्यः प्रायच्छत् ।
५. (यतीन्=) यतिवेषधरानसुराञशस्त्रेणच्छित्त्वा……;
६. परमहंस्यरूपं (पारमहंस्यरूपं) चतुर्थाश्रमं प्राप्तानां
येषां यतीनां मुखे ब्रहमत्मप्रतिपादको वेदान्तशब्दो
नास्ति तान् यतीनिन्द्र आरण्येभ्यः श्वभ्यः प्रायच्छत्…..
तथा च स्मर्यते ‘नित्यकर्म परित्यज्य
वेदान्तश्रवणं विना। वर्तमानस्तु संन्यासी पतत्येव
न संशयः’ इति।।….वेदान्तश्रवणवाञछां विना
नित्यकर्म परित्यक्तवतां भवतामपीदृशीगतिरिति
दर्शयितुं वेदिसमीपे (सालावृकैः) भक्षणम्
७. केचन् यतयः सर्वकर्मसंन्यासं कृत्वा कदाचिदपि
स्वमुखे वेदान्तशब्दोच्चारणरहिताः
काष्ठदण्डमात्रधारिणो विवेकज्ञानरहिता यत्र
तत्रान्नं भक्षयन्तो नरकयोग्या वर्तन्ते। यथा चान्यत्
श्रूयते ज्ञानदण्डो धृतो येन एक दण्डीसः (संन्यासी)
उच्यते। काष्ठदण्डो धृतो येन संन्यासी
ज्ञानवर्जितः। स याति नरकान् घोरान्
महारौरवसंज्ञकानिति। सालावृका आरण्यश्वानः,
तेषामपत्यभूता बालकाः श्वानः
सालवृकेयास्तेभ्यस्तान् यतीन् इन्द्रो मारणार्थं
प्रायच्छत्। तेच यतयो वेदान्तशब्दरहिता
इत्ये तदर्थ मिन्द्र वाक्यरूपेण कौशीतकिन–
श्चामनन्ति। अत्युन्मुखान् यतीन् सालावृकेयेभ्यः
प्रायच्छदिति। तथादत्तवन्तं तमिन्द्रं अश्लीला
निन्दारूपा काचिद् वागभ्यवदत्। इन्द्रो ब्रहमहत्यां
कृतवानित्येवं निन्दा लोके सर्वत्र प्रसूता। ततःस
इन्द्रः स्वयमशुद्धोऽस्मीत्यमन्यत।
सोऽशुह्पिरिहारोपायं वेदेष्वपि स्थिते
शुद्धाशुद्धियनामके द्वे सामनी अपश्यत्। ताभ्यां
सामभ्यां सर्वः शुद्धोभूतः ;
इन्द्र द्वारा यतियों का मारा जाना आदि एक आख्यान मात्र है। इसके अभिप्राय का स्पष्टीकरण सायण
ने तै.तं. २.४.९.२ पर दिया है और ताण्डय ने तो इस आख्यान को शुद्धाशुद्धिय साम का प्रशंसात्मक माना है।
उद्धृत वचनों से सायण का मत विस्पष्ट है कि जो कालाक्षर भैंस बराबर हो, निरक्षर भट्टाचार्य हो, भोजन भट्ट
हो और पवित्र ब्रहमसंस्थ ज्ञानवान् सन्यासियों का वेष धारण कर लोगों को ठगता हो, झूठे संन्यासी बनकर
वैदिक कर्म-धर्मों को छोड़ दिया हो और आलसी बनकर यज्ञों को त्यागना ही नहीं, अपितु यज्ञों का विरोध भी
करता हो, ऐसी आसुरी प्रवृत्ति वाला यति है। नहीं-नहीं वह तो यति वेषधारी मात्र है। यथार्थ में संन्यासाश्रम के
धर्मों का पूर्णनिष्ठा एवं श्रद्धा से पालन करने वाले, ज्ञानरूपी दण्डधारी, सच्चे संन्यासी विद्यमान होने पर ही
उनके नकल करने वाले तथा कथित संन्यासियों (यतिवेषधारियों) का कथन सम्भव होगा, अन्यथा नहीं। जैसे कि रामायण के रावण प्रसंग पर लिख चुका हूँ। ‘चतुर्थाश्रमं प्राप्तानां येषां यतीनां मुखे’ यहाँ क्या यति
का अर्थ संन्यासी किया नहीं गया है ? तां. ब्रा.१९.४.७ के उद्धरण में भी स्पष्टरूप से यति का अर्थ संन्यासी ही
माना गया है। अब कोई विचार करें – सायण ने कहाँ लिखा है कि यति का मतलब इन्द्रविरोधी संगठन है वा
कोई जाति विशेष है। सायण ने तो इन वचनों में मुक्तकण्ठ से सच्चे संन्यासाश्रम को स्वीकारा है और साथ में झूठे संन्यासियों को लताड़ा भी है। पुनरपि कोई सायण को संन्यासाश्रम का विरोधी बतावें और उनके भाष्य के आधार पर संन्यासआश्रम को अवैदिक कह दें तो उनके लिए ‘अन्धेन नीयमानो यथान्धः’ के अतिरिक्त और
कुछ कहने को शेष नहीं रहता। सो प्रकृत मन्त्र का अर्थ निम्न प्रकार समझना चाहिए-
हे वर-वधु! तुम दोनों का इस गृहाश्रम में वियोग न होवे और गृहाश्रम की जो अधिकृत, नियत आयु
(कालावधि) है, उसमें तुम्हारी मृत्यु (वियोग) न हो अर्थात् गृहाश्रम की सम्पूर्ण आयु (काल) को प्राप्त करो।
इस मन्त्र का सामान्यतया जो शाब्दिक अर्थ सभी लोग करते हैं, उसी का आदर करते हुए उक्त समाधान दिया
गया है। परन्तु इस मन्त्र का महर्षि दयानन्द कृत अर्थ (सं.विधि के गृहाश्रम.मन्त्र-२) भी द्रष्टव्य है। वहाँ स्पष्ट
ही लिखा गया है कि विवाह में कृत प्रतिज्ञा में तत्पर रहो, उस प्रतिज्ञा से वियुक्त मत होओ और ब्रहमचर्यादि व्रतों का पालन करते हुए अपनी सम्पूर्ण आयु (१०० वर्ष) को प्राप्त करो। न कि यह लिखा गया है कि इसी गृहास्थाश्रम में रहो, इस आश्रम से वियुक्त मत होओ और इसी आश्रम में सम्पूर्ण आयु को प्राप्त करो। विवाह में कृत प्रतिज्ञा का भी स्पष्टीकरण अनुपद ही लिखा जाएगा।
आक्षेप – गृहस्थाश्रम को त्याग कर वानप्रस्थादि को यदि स्वीकार करना है तो निम्न पंक्तियों की संगति
कैसे लगेगी? अथवा निम्न पंक्तियों से सिद्ध होता है कि गृहस्थाश्रम को त्यागना नहीं चाहिए अर्थात् वानप्रस्थआदि की दीक्षा नहीं लेनी चाहिए। वे पंक्तियाँ हैं – पाणिग्रहण (प्रतिज्ञाविधि) का तृतीय मन्त्र ‘ममेयमस्तु’ (अथर्व.-१४.१.५२) कहता है कि ‘मया पत्या प्रजावति सं जीव शरदः शतम्’ इसका अर्थ महर्षिदयानन्द लिखते हैं- ‘तू मुझ पति के साथ सौ शरद् ऋतु अर्थात् शतवर्ष पर्यन्त सुखपूर्वक जीवन धारण कर……….हे भद्रवीर! आप (पति) मेरे (पत्नी के) साथ सौ वर्ष पर्यन्त आनन्द से प्राण धारण कीजिए’
(संस्कारविधिः)। वैसे ही अरुन्धती-दर्शन के पश्चात् ध्रुवीभाव-आशंसन के द्वितीय मन्त्र –ध्रुवमसि ध्रुवं त्वा…’ (पा.गृह.१.८.१९) के भाष्य में स्वामी जी लिखते हैं कि ‘हे स्वामिन्!……सदा के लिए मेरे साथ आप दृढ़ रहियेगा……मुझ पत्नी के साथ…….सौ वर्ष पर्यन्त जीविये, तथा हे वरातने पत्नी!….तू मुझ पति के साथ….सौ वर्ष पर्यन्त आनन्दपूर्वक जीवन धारणकर’ (संस्कारविधिः)। गृहाश्रम प्रकरण के मन्त्र-६ (आरोह तल्पं….) के अर्थ में स्वामी जी लिखते हैं- (इह) इस गृहाश्रम में स्थिर रहकर….’।
समाधान– इसका समाधान देने से पूर्व यह जानना चाहूँगा कि मानलिया यदि हम इन पंक्तियों की
संगति नहीं लगा पाये तो क्या वेद, ब्राहमण, उपनिषद् और मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में इन दो आश्रमों की पुष्टि में जो वचन मिलते हैं, वे सबके सब अप्रामाणिक हैं? क्या महर्षि याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का वह आदर्शभूत संवाद, ब्रहमतत्वबोधक संवाद व्यर्थ का वार्तालाप (गप्प) मात्र है? जिसमें संन्यास लेने का स्पष्ट उल्लेख है। सं.विधि के वानप्रस्थ एवं संन्यास प्रकरण में ‘अत्र प्रमाणानि’ कहकर जिन मन्त्रों को उद्धृत कर महर्षि ने उनका जो अर्थ किया है, क्या वह प्रमादजन्य है? स्वामी जी ने अपने वेदभाष्य में तथा अन्य ग्रन्थों में पचासों जगह इन दोनों आश्रमों वा धर्मों का उल्लेख किया है, क्या वे सब प्रलाप मात्र हैं? क्या महर्षि के कथनों में परस्पर विरोध है?
उद्धृत वचनों में सन्देहजनक शब्द तीन हैं – १.सदा, २. ध्रुव (दृढ़रहना), ३.सौ वर्ष तक मिलकर रहना।
अब इन पर क्रमशः विचार करते हैं। ‘सदा’ शब्द ‘सर्व’ शब्द से बनता है – सर्वस्मिन् काले=सर्वदा, सदा। और सर्व शब्द प्राकरणिक है, प्रासंगिक है, यह पहिले ही विस्तृत रूप से लिख चुका हूँ। प्रकृत संगत के लिए भी पुनः एक उदाहरण उद्धृत करता हूँ – ‘सः सदा हसति, सः सदा जल्पति’ अर्थात् वह सदा हँसता है, वह सदा बातें (गप्प) करता रहता है। इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि वह सदां अनादिकाल से अनन्तकाल तक अथवा जीवन भर अहर्निश हँसता ही रहता है, बोलता ही रहता है, खाना, पीना, सोना आदि नहीं करता। अपितु अपेक्षाकृत अधिक हँसता है, अधिक बोलता है, यही उसका अर्थ है। वैसे ही प्रकृत प्रसंग में भी ‘सदा’ का अर्थ अनाद्यनन्तकाल तक अथवा यावज्जीवन (मिलकर रहना) नहीं है, अपितु गार्हस्थ्य जीवन (काल) में वर-
वधुओं का वियोग न हो, मिलकर रहने का दृढ़ संकल्प दोनों में हो।
ध्रुव (स्थिर,दृढ़) शब्द विषयक सन्देह का समाधान उसी प्रसंग के प्रथम मन्त्र में ही है। मन्त्र है –‘ध्रुवा द्यौर्ध्रुवा पृथिवी ध्रुवं विश्वमिदं जगत्। ध्रुवासः पर्वता इमे…..(मन्त्रब्रा२ण-१.३.७)। क्या इस मन्त्र का अर्थ यही है कि द्यौ, पृथिवी, सम्पूर्ण जगत् और ये पर्वत सभी ध्रुव अर्थात् अनादिकाल से अनन्तकाल तक ऐसे ही स्थिर वा दृढ़ रहते हैं, वैसे ही तुम दोनों वर-वधू स्थिर रहो। जहाँ तक समझता हूँ, पाठकों का समाधान नहीं में ही रहेगा। तो इसका तात्पर्य यह है – जैसे द्यौ आदि का प्रलय (नाश) होने तक अपने अस्तित्व में स्थिर, ध्रुव
रहते हैं, अपने नियमों से विचलित नहीं होते हैं, वैसे ही तुम (वर-वधु) भी अपने गार्हस्थ्य जीवन में, प्रतिज्ञा में स्थिर रहो, कृत प्रतिज्ञाओं से विचलित मत होना। यहाँ स्वामी जी के ये शब्द विशेषतः ध्यान देने योग्य हैं – ‘ये प्रत्यक्ष पहाड़ अपनी स्थिति में स्थिर हैं….।….वधू-वर ऐसी दृढ़ प्रतिज्ञा करें कि जिससे कभी उलटे विरोध में न चलें’ (सं.विधिः)|
सौ वर्ष तक मिलकर रहने की संगति के विषय में कुछ कहने से पूर्व मैं यह जानना चाहूँगा कि विवाह के
समय तक वधू-वरों का लगभग २०-२५ वर्ष (आयु का एक प्रथम चरण) बीत चुके होते हैं। फिर यहाँ आक्षेपकर्त्ता सौ वर्ष की संगति कैसे लगायेंगे? वस्तुतः यहाँ ‘तलकौण्डिन्यन्याय’ से सारी विसंगतियाँ दूर हो जायेंगी। अर्थात् ‘ब्राहमणेभ्यो दधि दीयताम्, कौण्डिन्याय तु तक्रं दीयताम्’ – सभी ब्राहमणों को भाजन में दही परोसा जाय, परन्तु कौण्डिन्यब्राहमण को छाछ दिया जाय। पहिले सामान्य रूप से दधि-परिवेषण की विधि है और बाद में तल-परिवेषण की विशेष विधि। तो विशेष विधि द्वारा सामान्य विधि बाधित हो जाती है। इसी को व्याकरण की भाषा में कहा जाता है उत्सर्ग (सामान्यविधि) अपवाद (विशेषविधि) के द्वारा बाधित होता है अर्थात् अपवाद के कार्य क्षेत्र को छोड़कर उत्सर्ग की प्रवृत्ति होती है।ंवैसे ही यहाँ ‘सौ वर्ष तक मिलकर रहना’ यह उत्सर्ग विधि है,जो कि वक्ष्यमाण वानप्रस्थ एवं संन्सास की अपवाद विधि से बाधित हो जाती है। अर्थात् सौ वर्ष का कथन अग्रिम आश्रमों के कालावधि को छोड़कर अवशिष्ट गार्हस्थ्य काल को ही लक्षित करता है। इस सम्पूर्ण समाधान का आशय यही है कि स्वामी जी के उद्धृत वचनों का तात्पर्य गार्हस्थ्य जीवन व गृहाश्रम
की मर्यादा में ही है। उन वचनों का वाचनिक अर्थ अभिप्रेत नहीं है, अन्यथा महर्षि के कथनों में परस्पर
विरोधदोष अपरिहार्य हो जायेगा।
आक्षेप– संन्यास की दीक्षा पद्धति बौद्धो से आई है, अतः यह आश्रम अवैदिक है।
समाधान– पहिले तो यहाँ यह जानना चाहूँगा कि इस आक्षेप का तात्पर्य क्या बाह्यचिन्ह अर्थात् शिखाच्छेदन, यज्ञोपवीत का त्याग, काषायवस्त्रधारण आदि बौद्धो से आये हैं, यह है? अथवा यह आश्रम बौद्धो से पूर्व नहीं था, नूतनतया उन्हीं से प्रारम्भ हुआ? यदि आपेक्षकर्ताओं को पहिला तात्पर्य अभिप्रेत है तो यह एक
सर्वथा गलत धारणा है। क्योंकि इन आश्रमों का प्रधानतया अन्तः साधना से सम्बन्ध है, न कि बाह्यचिन्हो
से। वे तो केवल तत्तदाश्रमों के द्योतक मात्र हैं। भागवत पुराण में कहा भी गया है-
मौनानीहानिलायामा दण्डा वाग्देहचेतसाम्।
न ह्येते यस्य सन्त्यग वेणुभिर्न भवेद् यतिः।।
(११.१८.१७.)
अर्थात् वाणी, देह और मन का क्रमशः मौन, अनिच्छा और प्राणायाम ही दण्ड (दण्डा) हैं। दण्डरूप
मौनादि जिसके पास नहीं है, वह बाँस के दण्डधारणमात्र से संन्यासी नहीं होता।
यदि द्वितीय तात्पर्य अभिप्रेत है तो निम्न प्रश्नों का उत्तर देना होगा। १. आश्रमों को गृहस्थ व वानप्रस्थ
तक ही सीमित करने में क्या प्रमाण है? २. ‘आश्रम दो वा तीन ही हैं’ ऐसा कहीं उल्लेख है? ३. चतुर्थाश्रम
बौद्धो से ही प्रारम्भ हुआ है, उससे पूर्व नहीं था, इसमें क्या प्रमाण है? ४. क्या बुद्ध के समय से ही प्रारम्भ हुआ या बाद में? ५. यदि बाद में हुआ तो कब से? ६. बुद्ध के जन्मे लगभग ढाई हजार वर्ष हुए, उससे बहुत पूर्वकाल से ही प्रचलित ब्राहमण एवं उपनिषद् आदि ग्रन्थों में उपलब्ध स्पष्ट वचन क्या असत्य हैं? अथवा ७. ब्राहमणादि ग्रन्थ बुद्ध के बाद के हैं?
इस आक्षेप के समाधानार्थ मैं यहाँ उन प्रमाणों को प्रस्तुत करता हूँ, जो बुद्ध से पर्याप्त प्राचीन हैं।
त्रेतादौ केवला वेदा यज्ञा वर्णाश्रमास्तथा।।
(महा.शान्ति.-२३८.१४)
ऋषयो यतयो ऽेतन्नहुषे प्रत्यवेदयत्।।
(महा.शान्ति.-२६५.४५)
यहाँ ‘ऋषयः’ के ‘यतयः’ विशेषण से प्रकृत आक्षेप तो परिहृत होता ही है, साथ में ‘कोई भी ऋषि संन्यासी नहीं था’ इसका भी परिहार हो जाता है। ऐसे ही महर्षि याज्ञवल्क्य के प्रसंग (बृ.उप.२.४.१,४.५.२) से भी दोनों आक्षेपों का समाधान जानना चाहिए। ‘तदासाद्य दशग्रीव क्षिप्रमन्तरमास्थितः। अभिचाम वैदेही परिव्राजकरूपधृत्।। श्लक्ष्णकाषायसंवीतः शिखी छत्री उपानही। वामे चांसेऽवसज्याथ शुभे यष्टिकमण्डलू। परिव्राजकरूपेण वैदेहीं
समुपागमत्।।’ (रामायण, अरण्य.-४६.२-३)। ये सीतापहरण प्रसंग के श्लोक हैं। यहाँ स्पष्ट रूप से रावण
के बहूदक संन्यासी………. के रूप में आने का वर्णन है। जिसमें काषायवस्त्रों का भी उल्लेख है। रामायण के
काल में भी संन्यासाश्रम का प्रचलन था, तभी तो रावण उसी वेष में आया और सीता को भी संन्यासी का भ्रम हो गया। फलतः सीता ने संन्यासी (रावण) को अन्दर बुलाकर………….ब्राहमणवद् पाद्य, अर्घ्य आदि से आतिथ्य किया था (द्र.वहीं-४६.३४-३५)।
आक्षेप-संन्यासाश्रम का अन्तर्भाव वानप्रस्थ के अन्तर्गत ही हो सकता है। क्योंकि संन्यासी के जो भी
धर्म, नियम, कर्तव्यादि होते हैं, वे सब वानप्रस्थी को भी करनापड़ता।अतःसंन्यासाश्रमकोएकपृथक्आश्रम
मानने की आवश्यकता ही नहीं है।
समाधान- धर्मसूत्रों एवं स्मृतिग्रन्थों में इन दोनों आश्रमों के लिए प्रायः समानधर्म, नियमादि का विधान किया गया है। इसीलिए बौधायन-धर्मसूत्र के भाष्यकार गोविन्द स्वामी के मन में भी उक्त आशंका उत्पन्न हुई थी- ‘वानप्रस्थसंन्यासभेदः किमर्थमाचार्यकृत इति असाववेव द्रष्टव्यः’ (बौ.धर्म.-३.३.१४-१७)। परन्तु साम्यता के कारण संन्यासाश्रम का ही अभाव क्यों मानें? यह क्यों न मानें कि दोनों आश्रमों की समानता को देखते हुए लोगों ने गृहस्थ से सीधा अन्त्याश्रम को ही स्वीकार किया करते थे, वानप्रस्थी नहीं बना करते थे? कहा भी गया है कि जिस दिन वैराग्य उत्पन्न हो, उसी दिन गृहस्थ से सीधा संन्यासी बन जावें –‘यद् अहरेव विरजेत्तदहरेव
प्रव्रजेद् वनाद् वा गृहाद् वा’ (तु.जाबालोप.-४, अपिच द्र.मनु. ६.३९ )। अतः संन्यासाश्रम के अभाव में जो
साम्यता का हेतु दिया गया है, वह हेतु नहीं, अपितु हेत्वाभास मात्र है। यथार्थता यह है कि दोनों आश्रमों के नियमादि में अत्यधिक साम्यता होते हुए भी दोनों में मौलिक भेद भी हैं, जिसके कारण से दोनों को पृथक्-पृथक् आश्रम मानना ही पड़ता है। वे भेद इस प्रकार हैं – १.वानप्रस्थी साथ में अपनी स्त्री को रख सकता है, परन्तु संन्यासी नहीं रख सकता है।२.वानप्रस्थी गृह्य एवं श्रौत अग्नियों को रखकर सभी प्रकार के यज्ञ, याग करता है। पर संन्यासी सभी अग्नियों को आत्मा में समारोपित करता है अर्थात् बाह्य अग्नियों और यज्ञों का सर्वथा त्याग करता है। ३. वानप्रस्थी शिखी एवं यज्ञोपवीती होता है, परन्तु संन्यासी उनका भी त्याग करता है। ४. वानप्रस्थी वन में स्थिर निवास बना कर एक ही स्थान में रह सकता है तो संन्यासी एक स्थान पर नहीं रह सकता (वर्षाकालादि अपवादों को छोड़कर ) इत्यादि।
आक्षेप-वेदभाष्यों के आधार पर संन्यासाश्रम को वैदिक सिद्ध नहीं किया जा सकता। यदि महर्षि दयानन्द के भाष्य के अनुसार संन्यास वैदिक सिद्ध हो भी जाता है, तो जो उनके भाष्य को प्रामाणिक नहीं मानता और केवल सायण भाष्य को प्रामाणिक मानता हो, उसकी संन्तुष्टि कैसे होगी कि वेदों में संन्यासाश्रम का विधान
है?
समाधान-मैं भी प्रश्न करना चाहता हूँ कि जो लोग सायण को प्रामाणिक नहीं मानते और केवल दयानन्द को ही प्रामाणिक मानते हैं, उन्हें यह सन्तुष्टि कैसे होगी कि वेदों में संन्यासाश्रम का विधान नहीं है? भाष्यों पर
आधृत न होने की बात करते हुए भी पुनः सायण भाष्य पर केन्द्रित होना अज्ञता का द्योतक है। अतः प्रश्न ही निरर्थक है।
आक्षेप-सायण ने अपने वेदादिभाष्यों में कहीं भी यति शब्द का अर्थ संन्यासी नहीं किया। अपितु नियन्ता
(ऋ. ८.६.१८) दाता (ऋ ७.१३.१) अयष्टाजन (ऋ ८.३.९.) मेघ (ऋ १०.७२.७) ऋत्विक (ऋ ९.७१.७)आदि अर्थ किये हैं। इतना ही नहीं अनेकत्र तो उन्होंने एक जाति विशेष को यति माना है। जैस-यतीन्ं=एतत्संज्ञकान् यज्ञविरोधिं=जनान् (ताण्डव् ब्राहमण १३.४.१७)।अतः वेदादि में आगत यति शब्द का अर्थ संन्यासी नहीं है अर्थात् सन्यासाश्रम अवैदिक है।
समाधान-सायणादिभाष्यों के कारण ही लोगों की यह धारणा बन गयी थी कि वेद केवल यज्ञ के लिए ही प्रवृत्त हुए हैं, उनका यज्ञ से भिन्न अन्य कोई प्रयोजन नहीं है। अतएव विदेशियों ने कहा था कि वेद गडरियों
के गीत हैं। पुनरपि आश्चर्य है कि भारतीय वेद विद्वान् वेद को छोड़कर सायण के शब्दों से संन्यासाश्रम को अवैदिक सिद्ध करने का असफल प्रयत्न करते हैं। उन सायण-भक्त वेद मनीषियों के लिए मैं यहाँ उसी सायण के शब्दों से यह सिद्ध करता हूँ कि संन्यासाश्रम वैदिक है और उसमें सायण की भी अभिमति है।
यति शब्द का अर्थ संन्यासी न करने मात्र से यह कैसे सिद्ध होता है कि सायण संन्यासाश्रम का नहीं मानते
थे? उन्होंने कहीं भी इस आश्रम को निषेध किया हो वा इसे अवैदिक घोषित किया हो तो विद्वद्वृन्द बताने का कष्ट करें।
-निगमनीडम्, पिडिचेड़,
गज्वेल, मेदक, तेलंगाना-५०२२७८