वैदिकी वर्णश्रमव्यवस्था

वैदिकी वर्णश्रमव्यवस्था

आचार्य यज्ञवीर

समस्त विश्व की विभिन्न प्राचीन एवं अर्वाचीन-संस्कृतियों में समाज को वर्गों में विभाजित किया जाना समुपलब्ध होता है। परन्तु ‘‘सा प्रथमा संस्कृतिः विश्ववारा’’ के रूप में प्रसिद्ध एवं समृद्ध वैदिक संस्कृति में जो वर्णाश्रमव्यवस्था का सुन्दर स्वरुप समुपलब्ध है वैसा किसी भी अन्य संस्कृति में दृष्टि-गोचर नहीं होता। वैदिकी वर्णाश्रमव्यवस्था के प्रारम्भिक संगठित रुप में समाज में प्रत्येक व्यक्ति की इकाई को महत्वपूर्ण समझते हुए, कार्य श्रम तथा योग्यता को मुख्य आधार स्वीकार किया है तथा व्यक्तियों को विभिन्न वर्णों में विभाजित कर व्यष्टि एवं समष्टिका अति सुन्दर समन्वय समुपस्थित किया है जो विश्व की अन्य संस्कृतियों में उपलब्ध नहीं है। इसीलिए कहा भी गया है कि

यूनान मिश्र रोमां सब मिट गये जहाँ से

कुछ बात है कि हस्ति मिटती नहीं हमारी

सदियों रहा है दुश्मन दोरे जहां यहाँ पर

तब भी बचा है बाकी नामों निशां हमारा

सर्गादि से लेकर परवर्ती समस्त भारतीय साहित्य में वर्ण शब्द का प्रयोग समुपलब्ध है। वर्ण शब्द वृज वरणे धातु से सम्पन्न होता है अथवा वर्ण धातु से घञ प्रत्यय से सम्पन्न किया जा सकता है वर्ण के अन्य अर्थ भी कोशकारों ने संकलित किये है परन्तु इस प्रकरण में ब्राहमण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र का बोध हो रहा है उनके इस वर्गीकरण को वर्ण व्यवस्था कहेंगे और वेद के अनुसार होने से उसे वैदिकी से अभिहित किया जा रहा है। इस प्रकार इस समस्त पद में वर्ण साथ आश्रम व्यवस्था भी जुड़ा है आश्रम शब्द भी आत्र पुर्वक श्रमु धातु से निष्पन्न होता है। जो कि ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास इन चार वयोवर्गों में विभक्त और प्रत्येक अवस्था में विद्या, बल, धन, ब्रहम धर्मार्थकाममोक्षादि प्राप्त्यर्थ आ समन्तात श्रम क्रियते इति आश्रम वर्णाश्चाश्रमाश्च ते वर्णाश्रमास्तेषां व्यवस्था वर्णाश्रमव्यवस्था। वैदिक साहित्य में इस विषय में बहुत ही गहन एवं विस्तृत चिन्तना प्रस्तुत की है परन्तु संक्षेप में इस लघु निबन्ध में निबद्ध करने का प्रयास रहेगा।

ब्राह्मण

वैदिक मान्यता अनुसार गुण कर्म के आधार पर वर्णों का निर्धारण रहा है। देव दयानन्द ने वेदों का भाष्य और ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में स्पष्ट निर्देश दिया कि वेद के अनुसार वर्ण व्यवस्था करने पर समाज की सम्यक् समुन्नति सम्भव है। वेद ही सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है तथा ईश्वर ही सब सत्य विद्याओं का मूल है। अतः वैदिक मन्त्र के आधार पर देखें तो मिलता है

‘‘ब्राहमणोऽस्य मुखमासीत् ’’   यहाँ वेद ने प्रश्नोत्तर विधि द्वारा समझाया है। जब हम इस मन्त्र का अर्थ जानने का प्रयास करते हैं, तो इससे पूर्व का मन्त्रार्थ भी देखना चाहिए जो इस प्रकार है ‘‘मुखं किमस्यासीत् कीं बाहू किमुरू पादा उच्यते’’ अब इसके अर्थ बोध के लिए पाणिनीय सूत्र अनुसार धात्वर्थानां सम्बन्धे सर्वकालेष्वेते वा स्युः ‘‘छन्दसि लुङ्लिङ्लिटः’’ को ध्यान में रखते हुए अर्थ हुआ -अस्य -इसका, मुखम्- मुख किम्- कौन आसीत्- है, था, और रहेगा?  किम् बाहू? दोनों बाहु कौन है? किम् उरू? उरू कौन है, पादौ उच्यते! इसके दो पैर कौन है? ये चार प्रश्न किये गये है? इनके उत्तर वेद मन्त्र ने दिये है?

‘‘ब्रा२णोऽस्य मुखमासीत् बाहू राजन्य कृत :।

ऊरू तदस्य यद् वेश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत।।

इसका मुख ब्राहमण है। इसके दोनों बाहु क्षत्रिय हैं। जो वैश्य है वह इसके दोनों उरु हैं अर्थात् सरीर का मध्य भाग दोनों पैर शूद्र हैं। पूर्व लिखित प्रश्नों में चार उत्तर इस मन्त्र में उपस्थित कर दिये हैं। कुछ विद्वान् इसके विपरीत अर्थ प्रस्तुत करते हुए कहते हैं इस परम पुरुष के मुख से ब्राहमण उत्पन्न हुआ इत्यादि यह चिन्त्य एवं अनर्गल प्रलाप मात्र हैं। ब्राहमण ग्रन्थों में कहीं भी मुखादिक से वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन नहीं मिलता है क्योंकि यह सृष्टि विरुद्ध एवं अवैज्ञानिक है। काव्य शास्त्र मर्मज्ञ जानते हैं कि अलंकार काव्य के शोभा वर्द्धक होते हैं। वेदों में भी अलंकारिक वर्णन बहुत आता है। यहा भी वेद भगवान् का अभिप्राय है कि सर्वप्रथम संसार में जीवनोपाय निमित्त मनुष्यों को चार भागों में विभक्त करना चाहिए- जो मुख का कार्य करे वह ब्राहमण, जो बाहु का काम करे वह राजन्य, जो शरीर के मध्य भाग का काम करे वह वैश्य और जो पैर का काम करे वह शूद्र नाम से अभिहित किया जाए। तो आइये अब मुखादि के कार्यो पर दृष्टिपात करें-

मुख का कार्य

यहा गीता से उपरि भाग शिर का नाम मुख अभिप्रेत है। इस भाग में ज्ञान प्राप्ति करने वाली सभी इन्द्रिया विद्यमान हैं इन्हें सप्त ऋषि कहते हैं जैसे ऋषि सत्यासत्य के निर्णायक हैं तद्वत – ये भी सत्यासत्य भले बुरे आदि का निर्णय करके क्षत्रियादि को आज्ञाएं प्रेषित करते हैं। श्रवण मनन निदिध्यासन विवेक आदि जो भी कुछ विचार करते है सब शिर में ही करते हैं। जैसे शरीर में शिर शरीर का मुख्य भाग उहनीय कार्य करता है वैसे ही विवेकपूर्वक निःस्वार्थ और परोपकारी बनकर जो मस्तिष्क से समाज का काम करता है उसे ब्राहमण कहते हैं। वह मानों इस विराट विश्व का मानवसमूह का मुख सदृश है अतः वह मुख्य है।

बाहु का कार्य

सम्पूर्ण शरीर की रक्षा का दायित्व दानों बाहुओं पर आश्रित है। एड़ी से चोटी तक शरीर में कहीं भी आपदा आने पर बाहु झटिति कृत्वा तन्निवारणार्थ उद्यत हो जाते हैं। युद्ध क्षेत्र में शत्रुओं से दो दो हाथ बाहु ही करते हैं इसी तरह इस समाजरूपी पुरुष शरीर पर संकटापन्न स्थिति में अपने बाहुबल से क्षत्रिय उसका त्राण करते हैं ‘‘क्षतात् किल त्रायत इत्युदग्रक्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रुढः’’ अतः इस मन्त्र में राजन्य कहकर बाहु रूप में देश विकास की और अग्रसर होता है क्योंकि कहा है ‘‘शस्त्रेण रक्षिते रास्त्रे शास्त्र चिन्ता प्रवर्तते’’

ऊरु के कार्य

इस मन्त्र में उरु का तात्पर्य शरीर के मध्य भाग से है। इसीलिए अथर्ववेद में उरु के स्थान पर मध्य शब्द का प्रयोग किया है।

‘‘ मध्यं तदस्य यद् वैश्य:’’

गर्दन से नीचे ऊरू ;जंघा से उपर के इस मध्य भाग को वैश्य कहा गया है। अब सोचिए इस शरीर में उदर का क्या काम है? जो भी मानव द्वारा पीत भुक्त वस्तु उदर में जाती है उसको सुन्दर पुष्ट रस निर्मित कर शरीर के अन्य सभी अवयवों को यथा योग्य वितरित कर देता है। तथा अन्य मलिन अपशिष्ट पदार्थ को बाहर कर देता है। इसी प्रकार जगत् पुरुष को व्यष्टि रुप वैश्य वर्ण का व्यक्ति उदर के समान नाना प्रकार के भोज्य चोष्य पेय लेहवदि पदार्थ अपने यहा एकत्रित करके उन पर उचित लाभ लेते हुए अखिल विश्व को उपलब्ध कराया करता है वह वैश्य है। मध्य भाग में रक्तादिशोधन प्रकिया होती है यह भी वैश्य का कार्य है ।

पैर का कार्य

पैर के अभाव में हमारा शरीर पत्र्गु हो जाता हैं। गमनागमन की सारी प्रकिया बाधित हो जायेगी तब लोग संग्राम में भुज बल क्या बिन पैरों के दिखा पायेंगे? कदापि नहीं इसी भाति समाज रूपी पुरुष सेवक बिना पत्र्गु हो जायेगा और ऐसी अवस्था में समाज का समग्र विकास कदापि संभाव्य नहीं हो पायेगा। पैर की तरह कार्य करने वाला शूद्र कहलायेगा आचार्य ने तो उसे अध्यापन द्वारा ब्राहमणदि बनाने का प्रयास किया परन्तु वह कुछ पढ नहीं पाया अतः अन्त में उसे सेवा का कार्य सौपा गया उसका निर्वचन करते हुए मनीषी लिखते है- ‘‘शूचा द्रवति इति शूद्रः’’ एक तथ्य यह भी इसके साथ समझना चाहिए कि अजायत क्रिया का अपादान उससे पैदा हुआ इस अर्थ में नहीं है अपितु इस मन्त्र में पंचमी विभक्ति यहाँ निमित्त अर्थ में जाननी चाहिए- पैरों के निमित्त अर्थात् पैरो के कार्य के निमित्त ऐसे अर्थ करने पर अन्यत्र भी कहीं दोष नहीं आयेगा इसी सूक्त में आगे निमित्तार्थ में पंचमी प्रयोग देखा जा सकता है-

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः  सूर्यो अजायत।

श्रोत्राद् वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत।।

अर्थात् मनोविनोद निमित्त चन्द्रमा को, चक्षु से देखने निमित्त सूर्य को, कान में शब्द पहुँचाने निमित्त वायु को और प्राण को, मुख में बल पहुँचाने के निमित्त अग्नि को जठराग्नि रूप में, इन सभी वस्तुओं को तत् तत् कार्य निमित्त ईश्वर ने प्रकट किया। इसी प्रकार ‘‘पद्भ्यां शूद्रो अजायत’’ में भी निमित्त पंचमी है अर्थात् पैरो के निमित्त, पैरों के कार्य निमित्त शूद्र होता है। यह वेद में मूल रूप में वर्ण धर्म का वर्णन उपलब्ध है। इसीलिए स्वामी दयानन्द लिखते हैं कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। इसके उपरान्त वेदों में आश्रम धर्म पर संक्षिप्त प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है। वर्णवत् आश्रम भी चार ही हाते है – ब्रहमचर्य गृहस्थ वानप्रस्थ तथा संन्यास।

ब्रहमचर्य

ब्रहमचर्य आश्रम प्रथम आश्रम है यही सब आश्रमों का आधार भूत आश्रम है इसी आद्य आश्रम में विद्याभ्यास आचार्य चरणों में करके विद्या बल का अर्जन किया जाता है। नीतिकार लिखते हैं-

आद्ये वयसि नाधीतम्, द्वितीये नार्जितं धनम्।

तृतीये न तपस्तप्तं चतुर्थे किं करिष्यति

चतुराश्रम योजना का प्रयोजन यही था कि मानव जीवन में सतत सौख्य भी बना रहे और जीवन के समस्त प्रयोजन भी पूर्ण हो जाए। इन चार आश्रमरूपी पड़ावों पर मनुष्य अपनी लोकयात्रा पूर्ण कर लेता था यह वर्णा श्रमव्यवस्था ही उसे पूर्ण बनाकर धर्मार्थ काम मोक्ष पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति कराती थी।

कवि कुल गुरु कालिदास रघुवंशीय नायकों के चतुराश्रम पालन का वर्णन प्रस्तुत करते है।

शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयेषिणाम्।

वार्ह्क्ये मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम्

महाभारते चापि-

चतुष्पदी हि निःश्रेणी, ब्रहमण्येषा प्रतिष्ठिता।

एतामारूह्य निःश्रेणीं ब्र२लोके महीयते`

आश्रम व्यवस्था एक चार पैर वाली सीढी है जो मनुष्य को ब्रहम की ओर ले जाती है। एक एक पद पहुँचाता हुआ व्यक्ति अगली अवस्था के लिए तत्पर हो जाता है। सत्य विद्याओं के पुस्तक वेद में भी ब्रहमचारी का वर्णन करते हुए लिखा है-

‘‘ ब्रहमचारी चरति वै विषद् विषः स देवानां भवत्येकमम्’’

ब्रहमचारी विचरण करता हुआ प्रजा जनों में जाता हुआ देवों विद्वानों का एक अंग बन जाता हैं

अन्यत्र चापि-

युवां सुवासा परिवीत आगात् स उ श्रेयान् भवति जायमानः।

तं धीरसः कवय उन्नयन्ति स्वाध्यो३मनसा देवयन्तः| १|

आधेनव धुनयन्तामशिश्वीः सबर्दुघा शशय अप्रदुग्घाः।

नव्यानव् युवतयो भवन्तीर्महद्देवानामसुरत्वमेकम् |२|


 

इन मन्त्रों का अर्थ स्वामी दयानन्द कृत प्रस्तुत है

‘‘ जो पुरुष (परिवीतः) सब ओर से यज्ञोपवीत, ब्रहमचर्य सेवन से उत्तम शिक्षा और विद्या से युक्त, (सुवासा) सुन्दर वस्त्र धारण किया हुआ ब्रहमचर्य युक्त (युवा) सम्पूर्ण जवान हो के विद्या ग्रहण कर गृहाश्रम में (आगात्) आया है (सः) वही दूसरे विद्या जन्म में (जायमान) प्रसिद्ध होकर (श्रेयान्) अतिशय शोभायुक्त विज्ञान से मंगलकारी (भवति) होता है, (स्वाध्य) अच्छी प्रकार से ध्यान युक्त (मनसा) विज्ञान से (देवयन्तः) विद्या वृद्धि की कामना युक्त, (धीरास) धैर्ययुक्त (कवयः) विद्वान् लोग (तम्) उसी पुरुष को (उन्नयन्ति) उन्नतिशील करके प्रतिष्ठित करते हैं। और जो ब्रहमचर्य धारण, विद्या, उत्तम शिक्षा का ग्रहण किये बिना अथवा बाल्यावस्था में विवाह करते हैं, वे स्त्री पुरुष नष्ट भ्रष्ट हो कर, विद्वानों में अप्रतिष्ठा को प्राप्त होते हैं

जो (अप्रदुग्धा) किसी दुही न हो, उन (धेनवः) गोओं के समान, (अशिश्वी) बाल्यावस्था से रहित सब (सबर्दुघा) गोंओं सब प्रकार के उत्तमव्यवहारो की पूर्ण करनेहारी (शशयाः) कुमारावस्था को उल्लंघन करनेहारी, (नव्यानव्यां) नवीन नवीन शिक्षा और अवस्था से पूर्ण (भवन्तीः) वर्तमान (युवतयः) पूर्ण युवावस्थास्थ स्त्रियां (देवानां) ब्रहमचचर्य सु नियमों से पूर्ण विद्वानों के (एकम्) अद्वितीय (महत्) बड़े (असुरत्व) प्रज्ञा शास्त्र शिक्षायुक्त प्रज्ञा में रमण के भावार्थ को प्राप्त होती हुई जवान पतियों को प्राप्त हो के (आघुनयन्ताम) गर्भ धारण करें। कभी भूल के भी बाल्यावस्था में पुरुष का मन से भी ध्यान न करें क्योंकि यही कर्म इस लोक और परलोक के सुख का साधन है। बाल्यावस्था में विवाह से जितना पुरुष का नाश, उससे अधिक स्त्री का नाश होता है ||२|| सत्यार्थप्रकाश

इस प्रकार इन मन्त्रों का अर्थ बोध करने के बाद यह तो सिद्ध हो ही गया की ब्रह्मच्चर्य एवं गृहस्थ आश्रमों के आदेश मूलतः वैदिक मन्त्रों में है। वानप्रस्थ संन्यास के लिए अन्य शब्द वेदों में हैं। ये शब्द उपनिषद्काल तक आते-आते प्रचलित हुए है? परन्तु आश्रम व्यवस्था का आधार वैदिक है क्योंकि वेदों में ब्राहमण ग्रन्थों में ब्रह्म्च्चर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ से सम्बद्ध ब्रहमचारी, गृहपति वैखानश आदि शब्द समुपलब्ध होते हैं अतः स्पष्ट है कि उपनिषत काल तक आते आते जो आश्रम व्यवस्था अत्यन्त रुचिरा एवं सर्वागीण जीवन योजना रूप में स्थापित हुई उसका प्रारम्भ वैदिक काल से अवश्य हो चुका था। ब्राहमण ग्रन्थ में प्राप्त प्रसंग से विद्वान् स्पष्टरुप में आश्रम संकेत स्वीकारते हैं- ‘‘ मलसे, मृगचर्म से दाढ़ी एवं तप से क्या लाभ? हे ब्राहमण पुत्र की इच्छा करो वह लोक है जो अति प्रशस्य है।’’

किं नु मलं किमजिनं किमु श्मश्रूणि किं तपः।

पुत्रं ब्राहमण इच्छध्वं स वै लोको वदावदः||

इस श्लोक में आए अजिन शब्द से ब्रह्मच्चर्य, मल शब्द से गृहस्थ, शूश्रूणि से वानप्रस्थ तथा तप से संन्यास का अर्थ ग्रहण किया जाना चाहिए। इसी प्रकार गत शताब्दि में भी स्वामी दयानन्द सरस्वती ने संस्कारविधि में वानप्रस्थ संस्कार की विधि में इसको अनेक प्रमाणों से पुष्ट किया है। स्थालीपुलाक न्याय से एक प्रमाण प्रस्तुति ही पर्याप्त होगी।

‘‘ब्र२चर्य्याश्रमं समाप्य गृही भवेत् गृही भूत्वा वनी भवेत् वनी भूत्वा प्रव्रजेत् ||

शतपथ ब्राहमण अर्थ- मनुष्य को चाहिए कि ब्रह्म्च्चार्याश्रम की समाप्ति करके गृहस्थ होवे |

तुरीयाश्रम सेवी- संन्यासी को कहते है। चतुर्थ आश्रम के विषय में भी ऋषिवर देवदयानन्द ने संस्कार विधि में संन्यास संस्कारविधि में वैदिक प्रमाणों से विस्तृत प्रकाश डाला है। संन्यासी का निर्वचन करते हुए लिखा है

‘‘सम्यङ् न्यस्यन्त्यधर्माचरणानि येन वा सम्यङ् नित्यं सत्यकर्मस्वास्त उपविशति येन स संन्यासः संन्यासो

विद्यते यस्य सः सन्यासी’’

अर्थात् जिसके द्वारा अधर्माचरण अच्छी प्रकार छोड़ दिये जाए, अथवा सत्य कमरें में स्थित रहता है, बैठता है जिससे अस्थिरता को छोड स्थिर हो जाए वह संन्यास है और संन्यास है जिसका वह संन्यासी कहलाता है।

इसी संस्कार प्रकरण में वैदिक प्रमाण स्वामी जी ने प्रस्तुत किए हैं। वे संस्कारविधि में देखे जा सकते हैं किमधिकेन विस्तरेण। अन्ततः निष्कर्ष यह कि मानव की औसत आयु १०० वर्ष मान कर २५ वर्ष प्रति आश्रम विभक्त की है। इसके आगे संन्यास का क्रम कहा है। परन्तु द्वितीय प्रकार भी ब्राहमण ग्रन्थ में उपलब्ध है

‘‘यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रवृजेत् वनाद् वा गृहाद् वा’’ जिस दिन दृढ वैराग्य हो जाए उसी दिन संन्यास ले लें गृहस्थ से या वानप्रस्थ से।

तृतीय प्रकार है – ‘‘ ब्रहमचर्य्यादेव प्रव्रजेत्’’ यह भी ब्राहमण वचन है।इनके आधार पर तीनों प्रकार के संन्यासी भारत में हुए है। तृतीय प्रकार के आचार्य शंकर और आचार्य दयानन्द हुए हैं। इस आश्रम व्यवस्था से प्राचीन भारत सुव्यवस्थित रहा है, शिक्षा विद्या ज्ञान विज्ञान का भी प्रचार प्रसार जीवन के अनुभव पूर्ण काल वानप्रस्थ में सभी करते रहे हैं इस प्रकार ज्ञान का अजस्र स्रोत सर्वदा प्रवाहित रहा है। इस प्रकार सभी वैदिक विद्वान् वेद शास्त्र वेदागों का अपना ज्ञान वनी बनकर निःस्वार्थ भाव से वितरित करते रहे है। इसी भाँति सभी प्रकार की साहित्य सगीतकलाओं को प्रचारित करते रहे हैं। जिससे प्राचीन भारत ज्ञान-विज्ञान एवं सर्वविधकलाओं का समृद्धतम संसार रहा है तथा वर्ण व्यवस्था पूर्णतः गुण कर्म पर आश्रित रही है। कोई वर्ण उच्च या निम्न नहीं माना। सभी की समान प्रार्थना रहीं है।

रुचं नो धेहि ब्राहमणेषु रुचं राजसु नस्कृधि।

रुचं वैश्येषु शूद्रेषु मयि धेहि रुचा रुचम्।।

अर्थात् परमेश्वर हमारे ब्राहमणों में प्रकाश स्थापित कीजिए, हमारे राजाओं में तेज स्थापित कीजिए। वैश्यों और शूद्रों में तेज स्थापित कीजिए, मुझमें प्रकाश के साथ प्रकाश अर्थात् अविच्छिन्न प्रकाश प्रवाह स्थापित कीजिए।

रुचं का अर्थ ऋषि दयानन्द ने प्रेम प्रीति किया है तथा महीधर ने दीप्ति अर्थ किया है। इसी प्रकार वेद पढ़ने का अधिकार सभी वर्णों को प्रदान किया है –

यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।

ब्रहमराजन्याभ्यां शूद्राय चार्य्याय च चारणाय च।।

अर्थ – ईश्वर मानवमात्र से कहता है – जैसे दया के वशीभूत होकर जनोपकार हेतु इस कल्याणी चतुर्वेदमयी वाणी का इस जगत् में सबके लिए मैं उपदेश करता हूँ इसी भाँति आप सब भी इस कल्याणी वेदवाणी का उपदेश किया कीजिए। मैं ब्राहमण और राजाओं के लिए शूद्र और वैश्यों के लिए और अपने प्रिय अरण-दस्यु दासादि के लिए मैं उपदेश देता हूँ। इसमें आये अर्घ्याय का अर्थ पाणिनि ने भी वैश्य स्वामी किया है।

सभी वर्णों का खान-पान बराबर कहा है-

‘समानी प्र पा सहवोऽन्नभागाः’

अर्थात् तूम्हारा प्याऊ बावड़ी कुंआ आदि समान हो तथा खाद्य अन्न भोज्य चोष्य लेह्य सब समान हों।

    निष्कर्ष– इन सबका निष्कर्ष यह है कि वर्णाश्रम व्यवस्था जो वैदिक थी उसके अनुसार वह गुण कर्म पर आधारित थी। ब्राहमण क्षत्रिय भी बन जाता था। द्रोणाचार्य, परशुरामवत् क्षत्रिय विश्वामित्र ब्रहमर्षि गुरु वशिष्ठ ने स्वीकृत किये वैवश्वत मनु पुत्र नभग राज्य त्यागकर ब्राहमण बना एवं स्वगुरुकुल स्थापित कर विद्याध्यापन किया। एक ही ऋषि के चारों पुत्र ब्राहमण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र भी रहे। मनुस्मृति अनुसार –

ब्राहमणो शूद्रतामैति…..जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते…..वेदपाठी भवेद विप्रः….

इत्यादि भी यही सिद्ध करते हैं। अलमतिविस्तरेण बुविमद्वर्येषु।

-गुरुकुल पौन्धा, देहरादून (उ0ख0)

 

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