कुछ तड़प-कुछ झड़प
– राजेन्द्र जिज्ञासु
उत्तर देने की कलाः– गत तीन चार मास में बिजनौर के आर्यवीर श्री विजयभूषण जी तथा कुछ अन्य नगरों के आर्य सज्जनों ने भी चलभाष पर दो बातें विशेष रूप से इस लेखक को कहीं। १. आपकी उत्तर देने की कला बहुत अनूठी है। २. आप तड़प-झड़प में इतिहास की ठोस सामग्री देते हैं। इसमें अलभ्य लेखों, पत्र-पत्रिकाओं तथा इस समय अप्राप्य साहित्य की पर्याप्त चर्चा होने से बहुत जानकारी मिलती है। अनेक बन्धुओं विशेष रूप से युवकों के मुख से ये बातें सुनकर उत्तर देने की कला पर दो-चार बार कुछ विस्तार से लिखने का विचार बना।
मैं गत दस-बारह वर्षों से मेधावी लगनशील युवकों से बहुत अनुरोध से यह बात कहता चला आ रहा हूँ कि वैदिक धर्म पर वार-प्रहार करने वालों को उत्तर देना सीखो। अब भी आर्य समाज में कुछ अनुभवी विद्वान् ऐसे हैं, जिनकी उत्तर देने की शैली मौलिक, विद्वतापूर्ण तथा हृदयस्पर्शी है। श्री डॉ. धर्मवीर जी को जब उत्तर देना होता है तो उनकी लेखनी की रंगत ही कुछ निराली होती है। श्री राम जेठमलानी ने श्री रामचन्द्र जी पर एक तीखा प्रश्न उठाया। संघ परिवार के ही श्री विनय कटियार ने उनके स्वर में स्वर मिला दिया।
राम मन्दिर आन्दोलन का एक भी कर्णधार श्रीयुत् राम जेठमलानी के आक्षेप का सप्रमाण यथोचित उत्तर न दे सका। मेरे जैसे आर्यसमाजी रामभक्त भी तरसते रहे कि उमा भारती जी, श्री मुरली मनोहर जी अथवा सर संघचालक आदरणीय भागवत जी इस आक्षेप का कुछ सटीक उत्तर दें, परन्तु ऐसा कुछ भी न हुआ। परोपकारी का सम्पादकीय पढ़कर अनेक पौराणिकों ने भी यह माँग की कि श्री धर्मवीर जी श्री राम के जीवन पर इसी शैली में २५०-३०० पृष्ठों की एक मौलिक पुस्तक लिख दें।
श्री डॉ. ज्वलन्त कुमार जी भी जानदार उत्तर देते हैं। परोपकारी में श्री आचार्य सोमदेव जी तथा आदरणीय सत्यजित् जी द्वारा शंका समाधान की शैली प्रभावशाली व प्रशंसनीय है।
आर्यसमाज में श्री राजवीर जी जैसे उदीयमान लेखक तथा अनुभवी गम्भीर विद्वान् डॉ. सुरेन्द्र कुमार जी ने भी इस विनीत से एक दो बार कहा, ‘आपने उत्तर देते हुए चुटकी लेना कहाँ से सीखा?’
मैंने कहा, ‘अपने बड़ों से और विशेष रूप से पूज्य पं. चमूपति जी से।’
प्रिय राजवीर जी तथा श्री धर्मेन्द्र जी ‘जिज्ञासु’ ने तो कुछ श्रम करके उत्तर देने की कला सीखी व विकसित की है, परन्तु बहुत से युवक इस दिशा में कुछ करके दिखा नहीं सके और राजवीर जी तथा धर्मेन्द्र जी भी समय के अभाव में जितना उन्हें बढ़ना चाहिये, बढ़ नहीं सके। कई युवक ऐसे भी मिले हैं, जो गुरु तो बनाने की ललक रखते हैं, परन्तु उनमें विनम्रता व श्रद्धा से सीखने की ललक नहीं। घर बैठे तो यह विद्या आती नहीं।
आइये, उत्तर देने की आर्यसमाजी कला का कुछ इतिहास यहाँ देते हैं। मैंने जो पूर्वजों (इस कला के आचार्यों) के मुख से जो कुछ सुना व पढ़ा है, इस कला के जनक तो स्वयं पूज्य ऋषिवर दयानन्द जी महाराज थे। उनके पश्चात् इस कला के सिद्धहस्त कलाकार पं. लेखराम जी मैदान में उतरे। यह मेरा ही मत नहीं है, लाला लाजपतराय जी ने भी अपनी लौह लेखनी से ऐसा ही लिखा है। बड़े-बड़े मौलवियों तथा सनातन धर्मी नेता पं. दीनदयाल जी का भी ऐसा ही मत था। मौलाना अ दुल्ला मेमार तथा मौलाना रफ़ीक दिलावरी जी का भी ऐसा ही मत था।
तनिक महर्षि जी की उत्तर देने की कला पर भी इतिहास शास्त्र का निर्णय सुना दें। आर्यसमाजी लेखक जो ऋषि जीवन की तोता रटन लगाते रहते हैं, वे इतिहास के इस निर्णय को जानते ही नहीं और परोपकारी में पढ़-सुनकर इसे आगे प्रचारित ही नहीं करते।
१. वैद्य शिवराम पाण्डे ऋषि के साथ प्रयाग रहे। वे काशी की पाठशाला में भी रहे। वे आर्यसमाजी तो नहीं थे, परन्तु ऋषि की संगत की रंगत मानते थे। आपका एक दुर्लभ लेख हमारे पास है। वे लिखते हैं कि ऋषि एक ही प्रश्न का उत्तर कई प्रकार से देना जानते थे। श्री गोस्वामी घनश्याम जी मुल्तान निवासी बाल शास्त्री की कोटि के विद्वानों में से एक थे। काशी शास्त्रार्थ के समय आप काशी में नहीं थे। जब काशी शास्त्रार्थ के पश्चात् मूर्तिपूजकों ने देशभर में यह प्रचार करना चाहा कि स्वामी दयानन्द शास्त्रार्थ में हारे तो गोस्वामी झट से काशी गये। बाल शास्त्री से मिलकर पूछा, सच-सच बताओ! क्या स्वामी दयानन्द हारे या काशी के पण्डित?
तब बाल शास्त्री जी ने वीतराग दयानन्द के गुणों का बखान करते हुए कहा था कि हम जैसे निर्बल संसारी उन्हें हराने वाले कौन?
चाँदापुर के शास्त्रार्थ में पादरी महोदय ने कहा था, ‘‘सुनो भाई मौलवी साहबो! पण्डित जी इसका उत्तर हजार प्रकार से दे सकते हैं। हम और तुम हजारों मिलकर भी इनसे बात करें तो भी पण्डित जी बराबर उत्तर दे सकते हैं, इसलिए इस विषय में अधिक कहना उचित नहीं।’’
पादरी जी का यह कथन आर्यसमाज में प्रचारित करने वाले चल बसे। पुस्तकों की सूचियाँ बनाने वाले सम्पादक लेखक शास्त्रार्थ कला (विधा) को समझ ही न सके।
पं. लेखराम जी की उत्तर देने की कला की एक घटना ‘आर्य मुसाफिर’ मासिक की फाईलों में छपे उनके एक शास्त्रार्थ से मिली। सीमा प्रान्त के एक नगर में प्रतिमा पूजन पर एक शास्त्रार्थ में पण्डित जी ने ‘न तस्य प्रतिमाऽअस्ति’ इस वेद वचन से अपने कथन की पुष्टि की तो विरोधी ने कहा कि यहाँ ‘नतस्य’ है अर्थात् प्रतिमा के आगे झुकने की बात है। यहाँ ‘तस्य’ शब्द नहीं। तब पण्डित जी ने कहा कि यदि यहाँ ‘तस्य’ शब्द नहीं तो फिर इस मन्त्र में ‘यस्य’ शब्द किसके लिए है? वहाँ पौराणिक पण्डितों ने भी पण्डित जी के इस तर्क व प्रमाण का लोहा माना। यह किसी भी शास्त्रार्थ में किसी संस्कृतज्ञ आर्य ने तर्क न दिया। श्रद्धेय पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने इस प्रसंग में हमें कहा था, ‘‘यह तो पं. लेखराम जी के जन्म-जन्मान्तरों का संस्कार और उनकी ऊहा का चमत्कार मानना पड़ेगा।’’
अब इस प्रसंग में इतिहास का एक और निचोड़ देना लाभप्रद होगा। पं. गणपति शर्मा जी तथा श्री स्वामी दर्शनानन्द जी की उत्तर देने की कला भी विलक्षण थी। इनके पश्चात् आर्यसमाज में अपनी-अपनी कला से उत्तर देने में कई सुदक्ष कलाकार विद्वान् हुए, परन्तु स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, श्री पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय, पं. रामचन्द्र जी देहलवी, पं. लक्ष्मण जी आर्योपदेशक, स्वामी सत्यप्रकाश जी- इन पाँच महापुरुषों के दृष्टान्त, तर्क व प्रमाण अत्यन्त प्रभावशाली, मौलिक व हृदयस्पर्शी होते थे। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज ने चार बार पूरे भारत का पैदल भ्रमण किया। उनके पास दृष्टान्तों का अटूट भण्डार व जीवन के बहुत अनुभव थे।
आचार्य रामदेव जी, मेहता जैमिनि जी तथा श्री पं. धर्मदेव जी को विश्व साहित्य के असंख्य उद्धरण कण्ठाग्र थे। इन तीनों की उत्तर देने की कला भी बड़ी न्यारी व प्यारी थी। मैं बाल्यकाल में अपने छोटे से ग्राम के आर्यों की परस्पर की चर्चा सुन-सुनकर ग्राम के एक आर्य युवक कार्यकर्ता से पूछा करता था कि आचार्य रामदेव जी की वक्तृत्व कला की क्या विशेषता है? उनका उत्तर था- उन्हें सब कुछ कण्ठाग्र है। मैं अपने निजी अनुभव से यह बताना चाहूँगा कि मैं सब पूज्य विद्वानों को ध्यान से सुना करता था। उनसे चर्चा किया करता था, फिर चिन्तन करने का अभ्यास हो गया। इससे मेरी भी उत्तर देने की कला विकसित हुई।
स्वामी वेदानन्द जी तीर्थ ने मेरे आरम्भिक काल में अत्यन्त प्यार से, कुछ डाँटकर कहा कि जो पढ़ो व सुनो, उसपर विचार कर स्वयं उत्तर खोजो, फिर उ उत्तर न सूझे तो आकर पूछा करो। अब इन उतावले युवकों का न गहन अध्ययन है, न बड़ों से कुछ सीखने की भूख है। प्राणायाम की चर्चा सुनकर तथा दो योग शिविरों में भाग लेकर ये सब नौ सिखिये योगाचार्य बनकर ध्यान शिविर लगाने व अपना आश्रम या अड्डा बनाने में लग जाते हैं। यह प्रवृत्ति धर्मप्रचार में बाधक रोड़ा बन रही है।