तप से मेरा ह्रदय विशाल हो

तप से मेरा ह्रदय विशाल हो
डा. अशोक आर्य
मैं अपनी राक्षसी आदतों को छोडकर दनशील बनूं । सदा तप करता रहूं तथा इस तप से अपनी इन बुराईयोण को जला कर राख कर अपने ह्रदय को विशाल करुं । इस भावना क उप्देश यह मन्त्र इस प्रकार कर रहा है :-
प्रत्युष्टंरक्श: प्रत्युष्टाऽअरातयो निष्टप्तंरक्शो निष्ट्प्ताऽअरातय: ।
उर्वुन्त्रिक्शमन्वेमि ॥ रिग्वेद १.७ ||
इस मन्त्र मे चार बिन्दुओं पर प्रकाश डालते हुये उपासक प्रभु से इस प्रकार प्रार्थना कर रहा है :-
१. राक्षसी प्रवृतियों का नाश हो :-
राक्षसी प्रव्रतिया प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर खैंचती हैं । यह प्रव्रतियां बहुत खतरनाक होती हैं ,जिस में भी घुसती हैं ,जिसे भी घेरती हैं , उसका अल्प काल में ही नाश हो जाता है । उसका अपना ही नाश नहीं होता , जो इस के आसपास होते है या जो इस के परिजन व मित्र होते हैं वह भी कलह – कलेष में फ़ंसकर नष्ट हो जाते हैं । इस लिए प्रभु से विनती की है कि हे प्रभु यह जो राक्शसी प्रव्रतियां हैं यह मेरे अन्दर न घुसने पावें तथा आप की सहायता से मैं इन्हें जला कर नष्ट कर दूं । इन्हें अपने अन्दर प्रवेश न करने दूं ।
भाव यह है कि अपने हित के लिए ओरों को हानि देने वाली जितनी भी भावनाएं हैं , वह मुझ में प्रवेश न कर सकें , मुझ में पैदा ही न होने पावें । मैं अपने सुख साधनों को बटाने के लिए किसी भी रूप में दूसरों को हानि न होने दूं । सब के हित का ही सदा ध्यान रखूं ।
२. दान देने के पश्चात ही खाऊं :-
इस मन्त्र में जिस दूसरे बिन्दु पर विचार किया गया है , वह है दान की वृति । जीव नहीं चाहता कि वह सदा अपने ही हित साधन में लगा रहे । वह पर हित का भी ध्यान रखना चाहता है । इस लिए प्रभु से प्रार्थना करता है कि , वह उसे इतनी शक्ति दे कि वह अपनी दान न देने वाली आदतों को नष्ट करदे तथा अपने ही हित का ध्यान न रखते हुए अपनी सब सम्पति अपने ही हित में व्यय न कर ओरों के ह्त का भी ध्यान रखे , ओरों को भी उपर उटाने का यत्न करे । जीव चाहता है कि वह सदा त्यागपूर्वक प्रभु की दी हुई सम्पतियों का भोग करे, उपभोग करे । इसके लिए वह अपने जीवन को यग्य मय बनाने की इच्छा रखता है । जिस प्रकार यग्य में डाला पदार्थ दूर दूर तक न जाने कितने लोगों का ओर न जाने किस किस का हित करता है । उस प्रकार भी जीव चाहता है कि उसके द्वारा किस किस का हित हुआ है , इसका भी उसे पता न चले , वह जो भी दे गुप्त रुप से ही दे , गुप्त दन्के रुप से ही दे ।
इस प्रकार जीव चाहता है कि जिस प्रकार यग्य शेष को सब में बांट कर फ़िर बचा हुआ ही अपने लिए उपभोग किया जाता है । इस प्रकार मैं सब में बांटने के पश्चात बचे हुए धन का ही अपने लिए प्रयोग करूं । जो मेरे पास है उससे जन हित के कार्य करूं तथा बचे हुए शेष को ही अपने लिए प्रयोग करुं ।
३. तप से दान की वृतियां आती हैं :-
मन्त्र कहता है कि तप दो कार्य करता है (क) यह रक्शी तथा अदान की आदतों को जला कर राख कर देता है तथा (ख) दान की आदतों को बटाता है । इसे ही ध्यान में केन्द्रित कर मन्त्र कह रहा है , उपदेश कर रहा है कि राक्शसी व्रतियों को दूर करने के लिए तपश्चर्या करें तथा दान न देने की आदतों का भी विनाश करने के लिए तप करें । तपश्चर्या, प्रभु का स्मरण , प्रभु के समीप आसन लगाने से हमारी जितनी भी रक्शसी आदतें हैं, वह जल कर नष्ट हो जाती हैं , दान न देने की भावना भी दूर हो जाती हैं तथा हम दूसरों के सहायक बन कर उन्हें भी अपने ही समान उपर उटाने के लिए सहयोग करते हैं , अपने धन को दान स्वरुप ,सहयोग के लिए उन्हें दे देते हैं । जब हमारे अन्दर की भोग की , वासना की व्रतियां ही नष्ट हो जावेंगी तो ओरों को हानि देने का तो कभी सोच भी नहीं सकते ।
४. ह्रदय की विशालता से देव बनते हैं :-
ह्रदय की विशालता हमें देवत्व की ओर ले जाती है , उन्नति की ओर ले जाती है । इस कारण ही तप करने वाला व्यक्ति सदा अपने ह्रदय को विशाल बनाने का प्रयास करता है । उस के जीवन का कोई भी कार्य कभी भी स्वार्थी बनकर , ह्रदय को संकुचित करके नहीं किया जाता । वह सदा खुले मन से , दूसरे के हित को सामने रखते हुए सब कार्य काता है । उस के अन्दर की यह विशालता ही उसके ह्रदय को पवित्र बनाती है , पवित्र रखती है । यह ही कारण है कि उसके अन्दर भोग की इच्छाएं कभी जन्म ही नहीं ले पातीं । जब हम अपने से पहले दूसरे का हित चाहते हैं तो हम पवित्र हो जाते हैं तथा एसा पवित्र व्यक्ति ही मानवत्व से उपर उटकर देव बनता है । अत: हम भी देव अर्थात दूसरों को कुछ देने वाले बन जाते हैं ।

डा. अशोक आर्य

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