विज्ञान और परमात्मा
-डॉ. स्वामी सत्यप्र्रकाश ‘सरस्वती’
प्रस्तुत लेख श्री क्षितीश वेदालंकार जी की पुस्तक ‘‘ईश्वर’’ में स्वामी सत्यप्रकाश जी द्वारा लिखित भूमिका से लिया गया है, इस भूमिका में लेखक ने ईश्वर की सत्ता को बड़े ही दार्शनिक और वैज्ञानिक तथ्यों से सिद्ध किया है। ‘‘परोपकारी’’ के सुधी पाठक भी इसका लाभ ले सकें, एतदर्थ यह भूमिका लेख के रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत है। -सम्पादक
हम सब एक बृहद् सृष्टि के परिवार हैं। बसे हमने आँखें खोलीं, हमने अपने शारीरिक तन्त्र को रचा हुआ पाया, और जिस वातावरण में हमने अपने पहले श्वास लिये, उसे भ्ज्ञी पहले से विद्यमान पाया। हमारे अवतरण से पूर्व हमारे ही ऐसे अनेक सदस्य इस संसार में थे-हम अकेले न थे। जिस सृष्टि में हम आये वह भी बदलती हुई एक सत्ता थी, और हमारे शरीर का समस्त तन्त्र भ्ज्ञी बदलता हुआ एक यथार्थ, भावपूर्ण तथ्य था। हमारा समस्त परिवार एक-दूसरे के साथ ग्रथित था। यदि हमारे शरीर पर दो छोटी-सी आँखें थीं, तो उन आँखों को सार्थकता प्रदान करने वाला लाखों मील दूर हमारा सूर्य था, और उससे भी कहीं दूर टिमटिमाते हुए तोर थे, जिन्हें हमने अपनी छोटी-छोटी आँखाों से देखा हमारे शरीर के दायें-बायें दो कान थे, जिन्हें सार्थक करने के लिए दूर-दूर से आती हुई हमें ध्वनि सुनाई पड़ने लगी-मानों जिसने हमारे कानों को रचना है, उसकी ने धवनि-उत्पादक स्रोतों में ध्वनि के आविर्भाव की क्षमता भी दी हो। हमारे पास एक जिह्वा थी, जिसकी चमत्कारी रचना उन स्वादों से सम्बद्ध थी, जो वृक्षों के फलों में विद्यमान थे। ऐसा लगता है कि जिस सत्ता के कारण स्वादों का निर्माण हुआ, उसी सत्ता ने इन स्वादों की स्पष्ट अनुभूति के लिए यह रसनेन्द्रिय बनाई हो। यही अवस्था हमारे घ्राणेन्द्रिय की थी। इस इन्द्रिय की सार्थकता के लिए गुलाबादि में सुगन्ध और अनेक पदाथर्ों में दुर्गन्ध अभिव्यक्त हुई। माता के जिस गर्भ में अन्धकार ही अन्धकार था उसमें बैठा हुआ कोई कुशल तत्वदर्शी इन इन्द्रियों का निर्माण कर रहा था। और स्पष्ट है कि उस कलाकार को बाहर के जगत् का पूर्ण या पर्याप्त परिचय प्राप्त था। क्यों न हम यह कहें कि जिसने बाहर के जगत् में हमारे अवतरसण से पूर्व विविध संवेदनाओं को झंकृत करने की सामर्थ्य रखने वाली भावपूर्ण सृष्टि का निर्माण किया हो, उसी कुशली ने इन संवेदनाओं को अभिव्यक्ति करने वाली हमारी इन्द्रियों को भी जन्म दिया।
विज्ञान का मूलबिन्दू हम स्वयं हैं। न जाने किसके अनुग्रह से हम ज्ञाता बन गए, और समस्त सृष्टि ज्ञेय बन गयी। जिसके ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, वह पशु है-जो देखे सो पशु है-पशुः पश्यतेः (निरुक्त, ३.१६), पदपश्यत् तस्मादेते पशवस्तेष्वेतमवश्यत् तस्मादधेवैते पशवः (शत. ६.२.१.४), पश् धातु का अर्थ देखना है, अतः जो देखे सो पशु। समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ हमें दिखााती हैं अर्थात् बताती हैं कि कौन चीज कैसी है और कहाँ है। समस्त इन्द्रियों के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान का नाम प्रत्यक्ष है। आँखाते इस इन्द्रियों में सबसे प्रधान है। अतः सभी पशु अपनी ज्ञानेन्द्रियों से काम लेते हैं, इस अर्थ में वे सब ज्ञाता हैं, और उनके लिए भी यह जगत् कुछ अर्थों में ज्ञेय है।
किन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि मनुष्यको ही-केवल मनुष्य को-यह गौरव प्राप्त है कि उसका ज्ञान ‘‘ज्ञान, तत्वज्ञान या विज्ञान’’ कहलावे, और एक मात्र मनुष्य ही ‘‘ज्ञानी, तत्वदर्शी और वैज्ञानिक’’ कहला सकता है। मनुष्य जाति के सभी मनुष्य ज्ञानेन्द्रियों का सम्यक् प्रयोग करते हुए भी ज्ञानी या वैज्ञानिक नहीं हैं-लाखों में दो-चार ही व्यक्ति कठिनता से ऐसे निकलेंगे जिन्हें हम यथार्थता से वैज्ञानिक कह सकते हें। ज्ञानेन्द्रियों की सहायात से कुछ अनुभूमितयों या संवेदनाओं केा प्राप्त कर लेना ही ज्ञान नहीं है, ज्ञान में एक सम्यक् दृष्टि होती है, सम्न्वयात्मक, ऊहापोह से परिपुष्ट, कृति के भीतर छिपी हुई कला केा कलाकार तक प्रेरित करने वाली। ऐसी ही दृष्टि मनुष्य को वास्तविक अर्थ में द्रष्टा या तत्वदर्शी बनाती है। कला की जो विवेचना विवेचक को कलाकार तक न पहुँच सके, वह अधूरी या एकांगी है। इसी प्रकार सृष्टि का जो विवेचन या अध्ययन सृष्टि कर्त्ता तक हमको न पहुँचा सके वह भी एकांगी है। ऋषि, दार्शनिक, वैज्ञानिक या तत्ववेत्ता वस्तुतः वही है जो सृष्टि के सौन्दर्य से, उसके भीतर छिनपी गम्भीर कला से परिचित होने का प्रयास करे और कला के निमित्त-कारण-परम कलाकार या सृष्टि-रचियता-से हमारा परिचय करावे जिस सृष्टि में हम रहते हें वह प्रत्येक विभा या आयाम (डाइमेंसन) में महीयसी है, सृष्टि से भी महीयसी वह कला हे जो सृष्टि की नियामिका है, और इस कला से भी अधिक महान् वह कलाकार है जिसने प्रकृति कू उपादानत्व पर इस महीयसी रचना की अभिव्यक्ति की है। वैज्ञानिक की आस्था ऐसी ही आस्तिकता में है। पूर्व के समस्त ऋषि और आज के भी वैज्ञानिक इसी आस्था का सहारा लेकर नये-नये रहस्यों का उद्घाटन करते आ रहे हैं।
वैज्ञानिक आस्तिकता ही आस्तिकता है, शेष आस्तिकतायें अन्धविश्वास हैं। हमने अभी कहा कि प्रकृति की उपादनता पर सृष्टि-रचयिता की कला का अध्ययन करने वाला व्यक्ति वैज्ञानिक है। सीमित क्षेत्र में यह वैज्ञानिक साधारण जिज्ञासु की संज्ञा प्राप्त करताहै। उसके लिए सृष्टि ज्ञेय है, यह सत् है। इसी भ्ज्ञावना से प्रेनिरत होकर वह जिज्ञासा के क्षेत्र में अवतरित होता है। उसकी परम आस्था है कि सृष्टि में क्रम है, सम्बद्धता है, सृष्टि रचना में अभिप्राय भी है और प्रयोजन भ्ज्ञी। सृष्टि उन नियमों से सञ्चालित होती है, जिनमें देश और काल का बाँध नहीं है। वैज्ञानिक अपनी समस्त सीमाओं, और निर्बलताओं केा लेकर सृष्टि का अध्ययन आरम्भ करता है, सृष्टि भी वैज्ञानिक की तपस्या और आस्था पनर विभोर होकर धीरे-धीरे अपने समस्त गुह्य रहस्य वैज्ञानिक के समक्ष अभिव्यक्त करने लग जाती है, हरण्यमय पात्र ढँका हुआ सत्य नग्न रूप में वैज्ञानिक से प्रति अनवृत होने लगता है। ऋषियों ने भ्ज्ञी तपस्या, सत्य, श्रद्धा और दीक्षा द्वारा इन रहस्यों का साक्षात्कार किया। वे आदि वैज्ञानिक थे और उनकी परम्परा में आज के वैज्ञानिक भी सृष्टि-सम्बन्धी जिज्ञासाओं के समाधान में लगे हुए हैं। इस श्रृंखला का अन्तिम छोर कभी नहीं मिलेगा- सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। ब्रह्म सत्यस्वरूप है, जो सत्य है वही ज्ञान है, वही विज्ञान है, और यह ज्ञान अनन्त है, असीम है, ओर सृष्टि का आदि कारण प्रभु इसी अर्थ में अनन्त है, और ब्रह्म है। प्रभु के असीम, अनन्त और ब्रह्म (या बृहत्) होने का अनुमान करना हो, तो विज्ञान की उपलब्धियों को देखिए। विज्ञान ने ज्ञानोपार्जन के अनेक युगों में जो कुछ थोड़ी-सी उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं (अणु और महान् दोनों की दिशाओं में), वे प्रभु रचना के विराट् भाव का कुछ भी आभास कराती हैं। कितनी दूर तक हमने आँखों से देखा, आँखों से भी अधकि दूर हमने दूरबीनों से देखा, दूरबीनों की विमाओं से भी अधिक दूर हमने अपने अत्याधुनिक यन्त्रों से देखा, सब जगह एक-से ही नियमों श्पर आधारित प्रभु की कला को पाया, और प्रभु के असीम और अनन्त होने की छोटी-सी झांकी हमने ली। वैज्ञानिक जिन-जिन क्षेत्रों में आगे बढ़ता गया, वहाँ उसने प्रभु के सत्य-समीचीन नियमों और प्रयोजनों को पहले से ही विद्यमान पाया। सूक्षमता के क्षेत्र में भ्ज्ञी कपिल और कणाद से लेकर आज तक के वैज्ञानिक ने जो कुछ पता लगाया है, वह भी उतना ही विस्मसयकारक है, जितना कि बृहद् परिणाम के जगत् के सम्बन्ध में। किसी युग में कहा जाता था कि ‘‘जहाँ न जाय रवि, वहाँ जाय कवि’’ पर कवि की कल्पनाओं के भी पार आज का क्रान्तिदर्शी तत्वदर्शी वैज्ञानिक पहुँच गया है।
विज्ञान की यह उपलब्धियाँ यदि किसी को प्रभु का साक्षात् नहीं करा सकतीं,ाते ऐसे नादान व्यक्तियों को मनुष्य की रची मूतियों और चित्रकारों के चित्र कैसे दर्शन करायेंगे, और उनकी किसी तर्क से सन्तुष्टि होगी।
अंकुरण, विकास, उत्सर्ग और लय इन चार की श्रृंखलाओं का नाम हीतो सृष्टि है। इसी अर्थ में सृष्टि गतिशील या परिवर्तनशील है-पैदा हुई, बढ़ी, और फिर नष्ट हुई (इनिशिएशन, ग्रोथ एण्ड डिके), यह प्रतिक्षण की घटना है, और चेतन जगत् में प्रति कण की, अर्थात् सृष्टि का प्रत्येक कण प्रतिक्षण परिवर्तनशील, अस्थिर या गतिमान है। सृष्टि के प्रवाह में ये तीन चरण हैं, तीनों का परस्पर सम्बन्ध है। बीज बोया गया, कुछ उसमें से नष्ट हुआ, कुछ उसमें निकला और बढ़ा, और यही बीजांकुरण से लेकर विशाल वृक्ष तक के जीवन का इतिहास है। अन्त में यह विशाल वृक्ष भी कारणभाव में आकर विलुप्त हो गया।
संसार परिवर्तनशील है, इसकी उत्पत्ति हाती है, फिर विकास और फिर विनाश, और इसीलिए यह ज्ञेय है, यह वैज्ञानिक की आस्था है। वैज्ञानिक इन परिवर्तनों का ही अध्ययन करता है, चाहे वह रसायनज्ञ हो, या भौतिकी-विद्, चाहे वह प्राणिशास्त्री हो, और चाहे ज्योतिर्विद। वह ऐसी नियामक सत्ताा में विश्वास करता है, जो समस्त परिवर्तनों को एक सूत्र में बाँधती है-‘‘सूत्रं सूत्रस्य यो विद्यात् स विद्यात् ब्राह्मणं महत्’’ (अथर्व. १०.८.३७)। वह सृष्टिरचना को भी प्यार करता है और उसका यह प्यार आकस्मिक नहीं है, भावुकता से भ्ज्ञी उत्पन्न नहीं। यह प्यार उसके निरन्तर अध्ययन का परिणाम है। यही उसकी आस्तिकता है।
संसार परिवर्तनशील है, इसीलिए उसकी अनुभूति हो सकती है। जिसमें किसी प्रकार का परिवर्तन न हो, वह इन्द्रियों की अनुभूति से परे है। हम देखते या सुनते ही तब हैं, जब अणु में से ऊर्जा का विसर्जन होता है, और यह विर्सजन तब ही होगा, जब परिवर्तन होगा।
वैज्ञानिक की आस्था इन्द्र में भी है, इन्द्रिय में भी, और इन्द्रियजन्य ज्ञान में भी। इन्द्रियजन्य ज्ञान का आधार परिवर्तन है। वैज्ञानिक के लिए परिवर्तन परमात्मा की परम चेतना से ही अनुप्राणित होते हैं। उस प्रेरणा की ओर ही छोटा-सा संकेत ‘केन उपनिषद्’ में प्रश्नों की सुन्दर श्रृंखला में घोषित किया गया है-‘केनेषितं पंतति प्रेषितं मनः केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः’ पुराने ऋषियों की आस्तिकता भी ‘जगत्यां जगत्’के अध्ययन पर अवलम्बित थी।
अद्वैतवादियों या नवीन वेदान्तियों का यह तर्क है कि जो परिवर्तनशील है, वह मिथ्या है, तुच्छ है, हेय है। वैदिक तत्त्वज्ञान की यह आस्था नहीं है। यह सृष्टि-रचना अभ्यास, या स्वप्न नहीं है यह यथार्थ सत्य है, इसका प्रयोजन है, प्रभु द्वारा प्रदत्त ये इन्द्रियाँ भ्रमोन्मूलक नहीं हैं, इनके द्वारा भी तत्वज्ञान प्राप्त करना है, और यह तत्वज्ञान आस्तिकता से परिपुष्ट होने पर हमें बन्धन से मुक्ति दिलाने में सहायक और श्रेष्ठ कारण बनेगा। वेद का समस्त ज्ञान ‘‘इहलोक’’ में रहने वाले बुद्ध प्राणि के लिए ही है, और अन्ततोगत्वा मानव-शरीर का यह बन्धन ही परम पद की प्राप्ति और मुक्ति में सहायक बनेगा। वैज्ञानिक भी अपने-अपने क्षेत्र में प्रभु के इस रहस्यमय ज्ञान को समझने का छोटा-सा प्रयास कर रहा है।
वैज्ञानिक इस सृष्टि को व्यवहारलोक और परमार्थलोक-इन दो वर्गों में विभाजित नहीं करता है। ज्ञान-विज्ञान का कितना भी विकास क्यों न हो, वह ज्ञाता और ज्ञेय के सापेक्ष्य से ऊपर नहीं उठ सकता। यह सापेक्षता ‘‘ज्ञेय’’ के अभाव को सिद्ध नहीं करती-यह ज्ञाता, ज्ञेय और एक तीसरी सत्ता जिसने ज्ञाता को ज्ञज्ञ्क्न के परिमित साधन दिए हैं- इन तीनों के सत्य अस्तित्व पर निर्भर है। समस्त वैज्ञानिक और इसी प्रकार प्राचीन-अर्वाचीन सभी ऋषि कितने बड़े ज्ञानी क्यों न हों, पूर्णता के सापेक्ष में छोटा-सा ही (अपूर्ण और अपरिमित) व्यक्तित्व रखते हैं-इन्हीं की शास्त्र में आत्मा या जीव संज्ञा है। प्रकृति के उपादानत्व पर परमस्रष्टा प्रभु की अभिव्यक्ति अनन्त एवं अपरिमित कला का नाम ही सृष्टि है, और प्रभु ही वह परम सत्ता है, जिसने जीव ऐसी लघु चेतनता को ज्ञान के इन्द्रियादि साधन (इन्द्रियों पर निर्भर प्रत्यक्षादि प्रमाण और अन्तःकरण की परिमित अनुभूतियाँ) प्रदान किये हैं। जीवन अपनी अल्प चेतना और परिमित साधनों से देश और काल की परिमित सीमाओं के भीतर ब्रह्म के अपरिमित ज्ञान की अति अल्पांश ही प्राप्त कर सकता है। प्रभु (परमात्व तत्व) के तारतम्य में जीव की पूर्णता का कोई भी अर्थ नहीं है। चाहे वह समाधि अवस्था में हो अथवा चाहे शरीर के बन्धन से मुक्त होकर। वह अल्पकालीन मोक्ष या मुक्ति ही क्यों न प्राप्त कर ले। न तो पुराने ऋषियों को पूर्ण पुरुष होने का अभिमान था, और न आज के वैज्ञानिक को।
आज के वैज्ञानिक और तत्वदर्शी पूर्व-ऋषियों में बड़ी समानता है-
(१) दोनों का सदा विश्वास रहा है, कि संसार में जिस तत्व की मीमांसा करनी है या जिज्ञासा करनी है, वह तत्व ‘‘सत्य’’ है। (२) सत्य और केवल सत्य की उपलब्धि ही ज्ञान का ध्येय है। (३) सत्य सर्वकालीन और सर्वदशीय तत्व है। (४) सत्य की जिज्ञासा और इसके सम्बन्ध में ऊहापोह की श्रृंखला मनुष्य की कोटि के व्यक्तियों के लिए एक परम वरदान है। (मनुष्येतर पशुओं के लिए ऐसा हम नहीं कह सकते)। (५) मनुष्य को ऐसे साधन प्राप्त हैं, जिनसे अपनी कुछ सीमाओं के भीतर वे इस सत्य की उपलब्धि कर सकते हैं। (६) समस्त सृष्टि ऋत या सतत सत्य के द्वारा आबद्ध है, सत्य द्वारा ही यह प्रतिभासित है, इस सत्य में देश काल, ज्ञाता और ज्ञान साधनों की अपेक्षा से एकरूपता है, अतः ज्ञान में अपवाद नहीं है। जो अपवाद प्रतीत होते हैं, वे हमारे अपर्याप्त और परिमित प्रयासों के कारण हैं, (७) सत्य का अनुशीलन आत्म-संतोष के लिए परम आवश्यक है, और जीवन का लक्ष्य ही इस आत्म-संतुष्टि की प्राप्ति है- ज्ञानोपार्जन के प्रयासों का अन्तिम लक्ष्य ज्ञान की उपलब्धि ही है, इस उपलब्धि में ही परम सन्तुष्टि है, अथवा दूसरे शब्दों में ज्ञानान् मुक्तिः, यह ज्ञानोपलब्धि ही मुक्ति या मोक्ष का साधन है। ज्ञान, ज्ञान के निमित्त (नॉलेज फार द सेक ऑफ नॉलेज)। ऋषि या वैज्ञानिक के हाथ में छोटा-सा भी तथ्य प्राप्त हो गया, तो वह प्रसन्न हो उठता। (८) सत्य की प्राप्ति ही ज्ञान का परम प्रयोजन है। किन्तु इतना ही नहीं। यह तत्वज्ञान व्यक्ति और समाज दोनों के लिए समान हितकर है यदि विवेकपूर्ण इस ज्ञान का उपयोग किया जाय।