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वैदिक पशुबन्ध इष्टि (यज्ञ) का वैज्ञानिक विवेचन (एक संक्षिप्त नोट) – डॉ. पुष्पा गुप्ता

 

श्री आर.बी.एल. गुप्ता बैंक में अधिकारी रहे हैं। आपकी धर्मपत्नी डॉ. पुष्पा गुप्ता अजमेर के राजकीय महाविद्यालय संस्कृत विभाग की अध्यक्ष रहीं हैं। उन्हीं की प्रेरणा और सहयोग से आपकी वैदिक साहित्य में रुचि हुई, आपने पूरा समय और परिश्रम वैदिक साहित्य के अध्ययन में लगा दिया, परिणामस्वरूप आज वैदिक साहित्य के सबन्ध में आप अधिकारपूर्वक अपने विचार रखते हैं।

आपकी इच्छा रहती है कि वैज्ञानिकों और विज्ञान में रुचि रखने वालों से इस विषय में वार्तालाप हो। इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर इस वर्ष वेदगोष्ठी में एक सत्र वेद और विज्ञान के सबन्ध में रखा है। इस सत्र में विज्ञान में रुचि रखने वालों के साथ गुप्त जी अपने विचारों को बाँटेंगे। आशा है परोपकारी के पाठकों के लिए यह प्रयास प्रेरणादायी होगा।

-सपादक

वैदिक पशुबन्ध इष्टि को लेकर भारतीय समाज में अनेक मिथ्या भ्रांतियां उत्पन्न हो गई है।

‘‘वैदिक यज्ञों में पशुओं की बलि दी जाती थी’’ यह सर्वथा मिथ्या भाषण प्रचारित हो रहा हैं।

सर्वप्रथम इस बात को समझना आवश्यक है- ये सृष्टि में होने वाले यज्ञ हैं जो महाप्रलय/प्रलय की अवस्था में प्रजापति द्वारा प्रारभ किये गये थे। महाप्रलय की वैज्ञानिक स्थिति क्या होगी? नासदीय सूक्त उस स्थिति को बता रहा है परन्तु हमारी वैज्ञानिक दृष्टि न होने से हम उस स्थिति की ठीक से कल्पना नहीं कर पा रहे हैं। सलिल अवस्था का अर्थ है- जिसमें सब कुछ लीन हो गया था अर्थात् भौतिक सृष्टि बिल्कुल नष्ट हो गई थी तथा सब कुछ आग्नेय स्थिति में था – करोड़ों डिग्री के तापमान पर केवल ऊर्जा ही ऊर्जा (Heat Energy)थी। सब कुछ ऊर्जा द्वारा ही व्याप्त था इससे इसे आपः अवस्था भी कहा गया। सलिल तथा आपः का अर्थ जल ले लिया जाता है जो कि पूर्णतया मिथ्या अर्थ है।

आधिभौतिक सृष्टि के प्रारंभ करने का मूल सिद्धांत है करोड़ों डिग्री के तापमान में व्याप्त ऊर्जा को संहित कर(Condensation Process) विभिन्न प्रकार की तरंगों एवं मूल भौतिक कणों में परिवर्तित करना तथा परमाणुओं का निर्माण करना। इतने अधिक तापमान पर क्या कोई पशु – अश्व, ऋषभ, गौ आदि हो सकते हैं?

पशु क्या है? शतपथ ब्राह्मण 6.2.1.2-4 के अनुसार अग्नि ने 5 पशुओं – पुरुष, अश्व, गौ, अवि, अज को देखा। यत् पश्यति तस्मात् पशवः। प्रजापति ने इन 5 पशुओं को अग्नि में देखा आश्चर्य है कि ब्राह्मण वचनों पर ध्यान दिये बिना हमने पशुओं का अर्थ आज के लौकिक प्रचलित शदों के आधार पर करके कितना बड़ा अनर्थ कर दिया है?

पशुबन्ध का अर्थ होगा- पशु का बन्धन- पशु को बांधना(Bonding of Animal) – आश्चर्य है कि पशु बन्ध को – पशुवध कहके  बहुत ही सरल हास्यास्पद अर्थ कर दिया गया- पशु का वध करना (Killing of Animal)यही अर्थ वैदिक पशु बन्ध यज्ञ के यथार्थ अर्थ को न समझने के कारण भ्रांतियां पैदा कर रहा है। कुछ ब्राह्मणों / विद्वानों ने – पशुबन्ध के स्थान पर पशुवध करके वेदों के वास्तविक अर्थ का अनर्थ ही कर दिया ।

पचति क्रिया का अर्थ कर दिया पशु को पकाना परंतु यह तात्पर्य यहाँ नहीं हैं। पचति का अर्थ पचाना किसको? करोड़ों डिग्री की ऊर्जा को संहित करना। अश्व का अर्थ अश्नुते अर्थात् व्याप्त करना। पुरुष – जो पुर में शयन करता है। अर्थात् जो भी भौतिक कण या तरंग का निर्माण होगा उसका केन्द्रीय बिन्दु। गौ गति का प्रतीक है। अवि रक्षा करने के अर्थ में है। अज अजन्मा((Heat Energy)है। प्रजापति ने इन 5 पशुओं को अर्थात् 5 गुण धर्मों को अग्नि में देखा।

शमिता से अभिप्राय है शमन करने वाला। त्वष्टा रूप अग्नि ही शमिता है जो पशुओं को तराश करके एक निश्चित रूप (आकृति) में लाता है – अत्यधिक ताप की ऊर्जा का शमन करते हुए, काट-छाँट कर एक निश्चित प्रकार की प्रकाश तरंग को बनाना। ब्राह्मण वचन है- पशु अग्नि है , पशु छंद है। छंद अर्थात् तरंग(ङ्खड्डक्द्ग)। वैज्ञानिक दृष्टि से एक निश्चित प्रकाश तरंग को 5 गुणों से जाना जाता है –

(1) तरंग दैर्घ्य (Wave Length) (2) तरंग का विस्थापन (Amplitude) (3) आवृत्ति (Frequency) (4) काल (Time Period) (5) वेग (Velocity) ये 5 अवयव (गुणधर्म)ही एक तरंग का निर्धारण करते हैं। पशु बन्ध प्रक्रिया में कुल 11 पशुओं का उल्लेख पशु एकादशिनी के रूप में मिलता है। अर्थात् सृष्टि करते समय प्रजापति ने 11 प्रकार की तरंगों का निर्माण किया था।

शमिता द्वारा विशसन करने का अर्थ – पशु को मारना नहीं है अपितु अग्नि को संहित एवं शमित करते हुए – पशु रूप (छंदरूप) तरंग को  निश्चित आकृति प्रदान करना है।

पशु का संज्ञपन करना – सं ज्ञपन- सयक् रूप से पशु को पहचान लेना अर्थात् जिस प्रकार की आकृति प्रजापति पशु की चाहता था, वह आकृति बन गयी है।

पशु बन्ध प्रक्रिया में आप्री सूक्त का पाठ किया जाता है। अर्थात् प्रजापति की ‘‘रिरिचान् इव आत्मा’’ को आप्यातित करना। अन्त में स्वाहकृत आहुति दी जाती है। स्वाहकृत प्रतिष्ठा है। स्वाहकृत का तात्पर्य है कि – ‘‘सु आहुतं हविः जुहोति’’। तात्पर्य यह है कि प्रजापति जिस प्रकार की तरंग (पशु) का निर्माण करना चाहता था वह कार्य पूरा हो गया।

पशु बन्ध में चार प्रकार की आहुतियाँ दी जाती हैं – (1) वपा आहुति (2) आज्य आहुति (3) अग्नया आहुति (4) सोम आहुति। वपा रेतः रूप है। आज्य देवों का प्रिय धाम हैं। पशु आज्य हैं। रेतः आज्य है। अनेक ब्राह्मण वचन स्पष्ट बताते हैं कि आज्य का, घृत का, हवि के जो प्रचलित अर्थ है, वह वैदिक अर्थ नहीं हो सकता । आज्य, घृत, हवि, पयः, मधु आदि जितने भी शद वेदों में प्रयुक्त हैं – जिनकी अग्नि में आहुति दी जाती है – ये विभिन्न प्रकार के अत्यधिक लघु मात्रा में अग्नि को संहित एवं शमित कर बनाये गये भौतिक कण ((Quantas, Photones)  हैं जो दशपूर्णमास, चार्तुमास्य यज्ञ प्रक्रियाओं में निर्मित किये गये थे।

अग्नि एवं सोम – उष्णता एवं शीत के प्रतीक हैं। करोड़ों डिग्री तापमान पर जब ऊर्जा संहित हुई तो जो स्थान ऊष्मा के संहित होने से खाली हो गया वह स्थान सोमात्मक अर्थात् उस तापमान की तुलना में काफी ठण्डा हो गया। एक उदाहरण – दस करोड़ डिग्री तापमान पर, एक लाख घन मीटर ऊर्जा (Heat Energy) को यदि संहित करके – एक घन मीटर में इकट्ठा कर दिया जाये तो 99 हजार घन मीटर आकाश रिक्त हो जायेगा – सोमात्मक हो जायेगा तथा संहित ऊर्जा को और आगे संहित करेगा तथा शम् करेगा अर्थात् तापमान क ो कम करेगा।

इससे यह स्पष्ट है कि पशु बन्ध यज्ञ द्वारा प्रजापति ने 11 प्रकार के पशुओं अर्थात् तरंगों का निर्माण किया था। पशु को मारना या पशु की बलि देना यह एकदम मिथ्या है तथा वैदिक अर्थ के सर्वथा प्रतिकूल है।

– 176 आदर्श नगर, अजमेर