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स्तुता मया वरदा वेदमाता-12

ज्यायस्वन्तश्चित्तिनो मा वि यौष्ट संराधयन्तः सधुराश्चरन्तः

अन्योऽन्यस्मै वल्गु वदन्त एत सध्रीचीनान्वः संमनसस्कृणोमि।।

– अथर्व. 3/30/5

परमेश्वर कहता है मनुष्यों इस घर में रहने के लिए रहने वालों के हृदय विशाल होने चाहिए। मनुष्य का दिल बड़ा होने पर ही सबका उसमें समायोजन  हो सकता है। मनुष्य शरीर से लबा-चौड़ा होने पर हृदय भी उसका विशाल हो यह अनिवार्य नहीं है। आकार प्रकार में छोटे लगने वाले मनुष्य का दिल बड़ा हो सकता है, बड़े शरीर का मन छोटा हो सकता है। मनुष्य को उसके पास विद्यमान सामग्री थोड़ी लगती है, तब उसका हृदय संकुचित होता है। उसे भय लगता है मेरी वस्तु समाप्त हो जायेगी। मैं दरिद्र या अभावग्रस्त हो जाऊँगा। मनुष्य संकुचित विचारों वाला होता है, तब स्वार्थी बन जाता है। उसका स्व का घेरा छोटा होता है। व्यक्ति का स्व जितना छोटा होगा, मनुष्य उतना ही अधिक अन्याय और पक्षपात करता है। जब वह अपने को केवल अपने तक सीमित करता है, तब वह अपने से अधिक नहीं सोच पाता। घर परिवार में रहता हुआ भी व्यक्ति केवल अपनी चिन्ता करता है, अपने परिवार के अन्य सदस्यों के विषय में नहीं सोचता। मनुष्य स्वार्थी होता है, तो वह अपनी वस्तुओं का उपयोग केवल स्वयं करता है। ऐसे में एक मानसिकता ऐसे लोगों में देखी जाती है। वह अकेले ही भोजन करता है। वह दूसरे से भयभीत होकर औरों से छिपकर भोजन करना पसन्द करते हैं। साधनों का अपने लिये ही संग्रह करता है। मनुष्य अपने संस्कारों से व्यवहार करता है। यह संस्कार उसके पहले विचारों का परिणाम होता है। इन संस्कारों को श्रेष्ठ बनाकर सुधारा जा सकता है। यह विद्या व ज्ञान के प्राप्त करने से किया जाता है। इसके साथ उदार लोगों के संसर्ग से साधु-सन्तों के उपदेश से चित्त के संस्कारों में अन्तर लाया जा सकता है। मनुष्य के मन में विचारों की उदारता से ही मनुष्य सबको साथ लेकर चल सकता है। सब मनुष्य एक से नहीं होते हैं। सब अच्छे नहीं होते तो सब बुरे नहीं होते। मनुष्य के अन्दर अच्छा बुरा बनने की अपार सभावना होती है। अतः मनुष्य को बुराई से बचाकर अच्छाई की ओर ले जाने का प्रयत्न करना चाहिए, इसका उपाय है जो अपने से कम है उसको साथ लेकर चलना इसके लिए मनुष्य को सहनशील होना पड़ता है। अपनी वस्तु उनको बांटनी पड़ती है, जिनके पास नहीं है। जो अभाव-ग्रस्त है, उसकी सेवा सहायता करना, हमारे द्वारा तभी सभव है जब हमारा हृदय विशाल हो।

मनुष्य के विस्तार की सीमा उसके विचारों के साथ घटती बढ़ती है। एक मनुष्य जो केवल अपने लिए सोचता था, उससे वह बड़ा है, जो अपने परिवार के लिए सोचता है। परिवार में कोई पति-पत्नी बच्चे को ही अपना परिवार समझता है, तो दूसरा माता-पिता को भी समिलित करता है। तीसरा अपने माता-पिता जी अपने भाई-बहन, उनके परिवार सगे सबन्धियों को भी अपने परिवार में मानता है। इसमें कितने बड़े रूप में अपने परिवार को स्वीकार करना चाहिए। उसका एक ही नियम है, विचारों की दृ`िष्टि से सभी मनुष्य और प्राणिमात्र मनुष्य के परिवार में आते हैं। साधनों के विचार से जितने अधिक साधन जिसके पास है, वह अपने परिवार केा उतना विस्तार दे सकता है, उतना बड़ा बना सकता है। कम साधन होने पर परिवार के कर्त्तव्य, उत्तरदायित्व के साथ निश्चित होते हैं, परिवार में सदस्यों की आवश्यकता और साधनों की प्राप्ति और उनके वितरण में मनुष्य के हृदय की विशालता का पता चलता है। संकुचित हृदय बहुत साधन होने पर भी देने में भरोसा नहीं करता। विशाल हृदय कम साधन होने पर भी वितरण में कष्ट अनुभव नहीं करता। हृदय की विशालता का अभिप्राय अपना सब कुछ सब में बांट देना नहीं है। अपने परिवार के लिए साधन जुटाना अपने बच्चों को पढ़ाना-लिखाना व्यक्ति का कर्त्तव्य है। उनको छोड़कर अन्य को पढ़ाना ये हृदय की विशालता नहीं है। अपनों के प्रति उत्तरदायित्व का निर्वाह करते हुए भी दूसरे का सहयोग करना, न कर पाने की स्थिति में सहयोग की भावना रखना, हृदय की विशालता का परिचायक है। सहयोग, सहानुभूति, समर्थन मनुष्य के विशाल हृदय का परिचायक है।

मन्त्र में परिवार को साथ लेकर चलने के लिये सन्देश दिया है। उपाय बताया है ज्यायस्व अन्तश्चित्तिनो बनना है। ज्यायस्व बनने का अर्थ है- समर्थ बनना। समर्थ कैसे बन सकते हैं, उसके लिए वेद कहता है- अन्तश्चित्तिनः बनना होगा। बड़े बनने का उपाय है, चित्त को अन्दर से विकसित करना है। चित्त को अन्दर से विकसित करने का उपाय चित्त को विद्या से युक्त करना, चित्त को सज्ञान करना-कराना। सामान्य प्रकृति के प्राणी में संकोच, स्वार्थ संकीर्णता होती है, विद्या, शास्त्र अध्ययन, उपदेश से ही इस संकीर्णता को स्वार्थ को दूर किया जा सकता है, इसीलिए वेद ने कहा परिवार में समझ को विकसित करके मनुष्य को हृदय बड़ा करना होगा, कहा गया है-

ज्यायस्वान्ताश्चित्तिनो।।

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता-११

येन देवा न वियन्ति नो च विद्वषते मिथः।

तत्कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः।।

अथर्व. ३.३०.४

मन्त्र में घर के बढ़ाने की बात है। यहाँ इसके लिए ब्रह्म शब्द  कर प्रयोग किया गया है। ब्रह्म शब्द ईश्वर का भी वाचक है, क्योंकि वह सबसे बड़ा है। इसी प्रकार ज्ञान को भी ब्रह्म कहा जाता है। जो ज्ञान में सबसे बढ़कर है, उसे ब्रह्मा कहा गया है। इसी कारण संसार के प्रारम्भ में जो सबसे ज्ञानी पुरुष हुआ, उसका भी नाम ब्रह्मा है। इसके लिए उपनिषद् में कहा गया है, ब्रह्मा देवानां प्रथमः संबभूव। देवताओं में प्रथम ब्रह्मा हुआ। आज भी यज्ञ आदि कर्मों में जो अधिक जानकार होता है, उसे ही हम अपना मार्गदर्शक चुनते हैं। उसे ब्रह्मा बनाते हैं।

मन्त्र में घर को भी बड़ा बनाने की बात की गई है। मन्त्र कहता है- मैं तुम्हारे घर को बड़ा बनाना चाहता हूँ। घर बड़ा होता है, समृद्धि से। घर को समृद्ध करने का उपाय इस मन्त्र में बताया गया है। उपाय क्या हो सकता है? उपाय है संज्ञानम्। संज्ञान का शास्त्रीय अर्थ ज्ञान है, चेतना है। हम इसे सामान्य भाषा में कहें तो समझ कह सकते हैं। घर को बड़ा बनाने के लिए, सम्पन्न या समृद्ध बनाने के लिए घर में रहने वाले सदस्यों को समझदार बनना होगा। सभी सदस्य समझदार होंगे, तभी घर परिवार समृद्ध होगा। घर में सबका समझदार होना आवश्यक है। एक भी नासमझ व्यक्ति घर की व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करके रख देता है। घर में सबकी समझदारी से ही व्यवस्था बनी रह सकती है। आजकल समझदार का अर्थ चालाक या स्वार्थी भी हो जाता है। लोग कहते हैं- यह व्यक्ति बड़ा समझदार है, उसे अपना काम बनाना आता है। ऐसे शब्द श्रेष्ठ अर्थ को नहीं देते, इसलिये दुनियादार, समझदार, व्यावहारिक आदि शब्द सदा उचित और श्रेष्ठ अर्थ में ही प्रयोग में नहीं आते, परन्तु वेद में इस समझदारी की कसौटी भी दी है। वेद कहता है- समझदार देव होते हैं। मनुष्यों को समझदार बनने के लिए देवों के गुण अपने में धारण करने होंगे। देवों का देवत्व जिन गुणों से आता है, उसे देवों के कर्म से समझा जा सकता है। देवों का एक पर्यायवाची शब्द है- अनिमेष। ऐसा माना जाता है कि देवता लोग कभी पलक नहीं झपकाते। क्यों नहीं झपकाते, इसे समझाने के लिये पुराण में कथा आती है। देवताओं ने और असुरों ने मिलकर समुद्र मन्थन किया। जो पहले मिला वह असुरों ने लिया, जो बाद में मिला वह देवताओं ने लिया। पहले मिलने वाली वस्तुओं में विष था, जिसे बाँटने के लिए कोई तैयार ही नहीं था, जो शिव के कण्ठ का अलंकरण बन गया। अन्त में अमृत का कलश निकला, जिस पर देवताओं ने अधिकार कर लिया। इसी अमृत के कारण देवता अमरता को प्राप्त हुए। असुर इस अमृत को पाने के लिए सतत संघर्षरत हैं, इस कारण देवताओं को अमृत की रक्षा के लिए सतत् जागना पड़ता है। वे इतने सावधान हैं कि पलक भी नहीं झपकाते। पलक झपकने की असावधानी भी उनसे अमृत कलश के छीने जाने का कारण बन सकती है। देवताओं के पास अमृत ही नहीं रहा तो देवत्व कैसे रहेगा? संस्कार विधि में बालक की दीर्घायु की कामना करते हुए जो मन्त्र पढ़े गये हैं, उनमें एक मन्त्र में कहा गया है- देवताओं की दीर्घायु का कारण अमृत है। उनके पास अमृत है, इसलिए वे दीर्घजीवी हैं- देवा आयुष्मन्तः ते अमृतेनायुष्मन्तः। अतः देव दीर्घजीवी अमृत से हैं। इसका अभिप्राय है कि जो मनुष्य समृद्ध होना चाहता है, उसे सावधान रहना होगा। सावधानी हटते ही दुर्घटना घटती है।

विवाह संस्कार में सप्तपदी कराते हुए चौथे कदम को मयोभवाय चतुष्पदी भव कहा है। यहाँ यह तो कह दिया, परन्तु कोई वस्तु नहीं बताई। अन्न के लिये पहला कदम, बल के लिये दूसरा, समृद्धि के लिये तीसरा, वैसे ही सुख के लिए चौथा। अब समझने की बात है कि समृद्धि के लिये जब तीसरा कदम कह दिया था तो चौथा कदम सुख के लिये कहने की क्या आवश्यकता थी? इससे पहले अन्न, बल और धन प्राप्त करने की बात कह चुका है, फिर पृथक् से सुख के लिये प्रयास करने की आवश्यकता कहाँ पड़ती है? परन्तु पृथक् कहने का अभिप्राय है, इन सब साधनों के होने के बाद भी घर-परिवार में सुख हो, यह आवश्यक नहीं है। भौतिक साधनों का अभाव कष्ट देता है, परन्तु वे मुख्य रूप से शरीर तक ही सीमित रहते हैं। उन कष्टों के रहते हुए भी मनुष्य सुखी रह सकता है, परन्तु साधनों के रहते सुख का होना आवश्यक नहीं। सुख मानसिक परिस्थिति है, जबकि सुविधा शारीरिक वस्तु के अभाव में शारीरिक श्रम बढ़ जाता है, इतना ही है। सुख पाने के लिए मनुष्य के मन में देवत्व के भाव जगाना आवश्यक है, अतः मन्त्र में देवत्व के बाधक भावों को दूर करने के लिए कहा गया है।

 

ऋग्वेद का दसवा मंडल क्या बाद में जोड़ा गया – मिथक से सत्यता की ओर

पश्चिम में कोई एक तथाकथित विद्वान हुए थे – नाम था मैकडोनाल्ड – इन महाज्ञानी व्यक्ति ने अपने साहित्य में लिखा था की ऋग्वेद का दसवा मंडल बाद में जोड़ा गया – अनेको भारतीयों ने भी इस किताब को उस समय पढ़ा था – और बिना जाने सोचे समझे – तथ्य की जांच किये मान लिया की हाँ ऋग्वेद का दसवा मंडल बाद में जोड़ा गया – भाई दिक्कत ये है की मेकाले की अघोषित भारतीय संताने ही इस देश की जड़ खोदने में लग गयी – क्योंकि मेकाले की शिक्षा पद्धति ही यही थी – और ईसाइयो को विश्वास था की यदि वो आर्यो को उनकी ही धार्मिक पुस्तको से नीचे दिखा दे तो ईसाई आसानी से इस देश का इसाईकरण कर सकते हैं।

मगर भारतीय मानव समाज में आर्यो का “ज्ञान सूर्य” उदय हुआ था – जिसका नाम था ऋषि दयानंद – उसने इन ईसाइयो की ऐसी पोल खोली थी – और वैदिक सिद्धांतो का ऐसा डंका बजाया की आज तक और आने वाले भविष्य में भी वेदो का मंडन होता रहेगा – हर आक्षेप का जवाब ऋषि ने दिया – बस जरुरत है उस पुस्तक को सही से पढ़ने की – पुस्तक का नाम –

“सत्यार्थ प्रकाश”

खैर ये बात हुई ईसाइयो की धूर्तता की जिसका खंडन ऋषि ने किया।

अब हम आते हैं मैकडोनाल्ड के आक्षेप पर – वो कहते हैं – ऋग्वेद का दशम मंडल बाद में जोड़ा गया है – जिसके लिए वो दो तर्क देते हैं :

1. भाषा की साक्षी अनुसार ऋग्वेद में पहले ९ मंडल थे बाद में दसवा जोड़ा गया।

2. पद की साक्षी अनुसार ऋग्वेद में पहले ९ मंडल थे बाद में दसवा जोड़ा गया।

अब इनके आक्षेपों पर एक पुस्तक “वैदिक ऐज” जो एक भारतीय स्वघोषित विद्वान ने ही लिखी थी – इनके तर्कों का बिना खोजबीन किये समर्थन किया –

लेकिन ये भूल गए की ऋषि दयानंद, सत्यार्थ प्रकाश और उसके अनुयायी सभी आक्षेपों का जवाब देने में सक्षम हैं। लिहाजा एक पुस्तक वैद्यनाथ शास्त्री जी ने लिखी थी जो ऐसे अनेक पाश्चात्य लोगो के अनैतिक विचारो को खंड खंड कर देती है – ऐसे मूर्खता पूर्ण विचारो का शास्त्री जी ने बहुत ही उत्तम रीति से जवाब दिया था देखिये :

दशम मंडल और अन्य मंडल में कोई भी ऐसा भाषा – पद नहीं पाया जाता है जो यह सिद्ध करे की दशम मंडल पश्चात में जोड़ा गया। जबकि वैदिकी परंपरा में ऋग्वेद का दूसरा नाम दाश्तयी है। यास्क मुनि ने 12.80 “दाश्तयीषु” शब्द का प्रयोग किया है। यह साक्षात प्रमाण है की ऋग्वेद में १० मंडल सर्वदा ही रहे। अन्यथा दाश्तयी नाम का अन्य कोई कारण नहीं।

त्वाय से अंत होने वाला पद केवल दशम मंडल में ही पाया जाता है यह भी वैदिक एज के कर्ताका कथन मात्र है। ऋग्वेद 8.100.8 में ‘गत्वाय’ पद आया है जो त्वाय से अंत हुआ है। ‘कृणु’ और ‘कृधि’ प्रयोग भी पहले मंडलों में पाये जाते हैं। ‘कुरु’ का प्रयोग पाया जाना यह नहीं सिद्ध करता की यह प्राकृतिक क्रिया भाग हिअ। प्राकृत का यह प्रयोग है – इसका कोई प्रमाण नहीं। कृञ धातु का ही वेद कृणु, कृधि प्रयोग भी है और उसी का कुरु भी प्रयोग है। ‘प्रत्सु’ पद का प्रयोग न होने से कुछ बिगड़ना नहीं। ‘पृतना’ पद को भी व्याकरण के नियमनुसार अष्टाध्यायी 6.1.162 सूत्र पर पढ़े गए वार्तिक के अनुसार ‘पृत’ आदेश हो जाता है। ‘पृत्सु’ भी निघन्टु में संग्राम नाम में है और ‘पृतना’ भी (निघन्टु 2.17) । ‘पृतना’ निघण्टु 2.3 में मनुष्य नाम से भी पठित है। ‘पृतना’ पद ऋग्वेद 10.29.8, 10.104.10 और 10.128.1 में आया है। ‘पृतनासु’ 10.29.8, 10.83.4 और 10.87.19 में पठित है। ऐसी स्थिति में यदि ‘पृत्सु’ पद का प्रयोग न भी आया तो कोई हानि नहीं। निघण्टु 2.3 में में ‘चर्षणय’ मनुष्य नाम में पठित है। ऋग्वेद 10.9.5, 10.93.9, 10.103.1,10.126.6, 10.134.1 और 10.180.3 में ‘चर्षणीनाम’ पद आया है। 10.89.1 में चपणीधृत पद भी आया है। यदि ‘विचपणी, प्रयोग नहीं है तो इससे कोई परिणामांतर निकालने का अवकाश नहीं रह जाता है।

लेखक ने आक्षेप लगाये अनेक पदो पर विस्तृत जानकारी देते हुए सिद्ध किया है की ऋग्वेद का दशम मंडल अथवा अन्य भी कोई मंडल बाद में नहीं जोड़ा गया।

लेखक ने एक जगह पाश्चात्य विद्वानो और भारत में मौजूद मेकाले की बढ़ाई करने वाली अवैध संतानो को ताडन करते हुए स्पष्ट बात लिखी है :

पाश्चात्य विचारको ने पूर्व से ही एक निश्चित अवधारणा बना ली है अतः उस लकीर को बराबर पीटते रहते हैं। यही बात वैदिक ऐज के लेखक ने भी की है। वेद के आंतरिक रहस्य का ज्ञान तो किसी को है नहीं – अपनी तुक मार रहे हैं।

बहुत ही सैद्धांतिक बात करते हुए लेखक ने सभी आक्षेपों का बहुत सुन्दर और तार्किक जवाब दिया है।

पारसी मत का मूल वैदिक धर्म(vedas are the root of parsiseem)

वेद ही सब मतो व सम्प्रदाय का मूल है,ईश्वर द्वारा मनुष्य को अपने कर्मो का ज्ञान व शिक्षा देने के लिए आदि काल मे ही परमैश्वर द्वारा वेदो की उत्पत्ति की गयी,लैकिन लोगो के वेद मार्ग से भटक जाने के कारण हिंदु,जेन,सिख,इसाई,बुध्द,पारसी,मुस्लिम,यहुदी,आदि मतो का उद्गम हो गया। मानव उत्पत्ति के वैदिक सिध्दांतानुसार मनुष्यो की उत्पत्ति सर्वप्रथम त्रिविष्ट प्रदेश(तिब्बत) से हुई (सत्यार्थ प्रकाश अष्ट्म समुल्लास) लेकिन धीरे धीरे लोग भारत से अन्य देशो मे बसने लगे जो लोग वेदो से दूर हो गए वो मलेच्छ कहलाए जैसा कि मनुस्मृति के निम्न श्लोक से स्पष्ट होता है “
शनकैस्तु  क्रियालोपादिमा: क्षत्रियजातय:।
वृषलत्वं गता लोके ब्रह्माणादर्शनेन्॥10:43॥  –
निश्चय करके यह क्षत्रिय जातिया अपने कर्मो के त्याग से ओर यज्ञ ,अध्यापन,तथा संस्कारादि के निमित्त ब्राह्मणो के न मिलने के कारण शुद्रत्व को प्राप्त हो गयी।
” पौण्ड्र्काश्र्चौड्रद्रविडा: काम्बोजा यवना: शका:।
पारदा: पहल्वाश्र्चीना: किरात: दरदा: खशा:॥10:44॥
पौण्ड्रक,द्रविड, काम्बोज,यवन, चीनी, किरात,दरद,यह जातिया शुद्रव को प्राप्त हो गयी ओर कितने ही मलेच्छ हो गए जिनका विद्वानो से संपर्क नही रहा।  अत: यहा हम कह सकते है कि भारत से ही आर्यो की शाखा अन्य देशो मे फ़ैली ओर वेदो से दूर रहने के कारण नए नए मतो का निर्माण करने लगे। इनमे ईरानियो द्वारा “पारसियो” मत का उद्गम हुआ।पारसी मत की पवित्र पुस्तक जैद अवेस्ता मे कई बाते वेदो से ज्यों की त्यों ली गयी है। यहा मै कुछ उदाहरण द्वारा वेदो ओर पारसी मत की कुछ शिक्षाओ पर समान्ता के बारे मे लिखुगा-   1 वैदिक ॠषियो का पारसी मत ग्रंथ मे नाम-
पारसियो की पुस्तक अवेस्ता के यास्ना मे 43 वे अध्याय मे आया है ” अंड्गिरा नाम का एक महर्षि हुवा जिसने संसार उत्पत्ति के आरंभ मे अर्थववेद का ज्ञान प्राप्त किया।
 एक अन्य पारसी ग्रंथ शातीर मे व्यास जी का उल्लेख है-“

“अकनु बिरमने व्यास्नाम अज हिंद आयद  !                                दाना कि  अल्क    चुना  नेरस्त  !!

अर्थात  :- “व्यास नाम का एक ब्राह्मन हिन्दुस्तान से आया . वह बड़ा ही  चतुर  था और उसके सामान अन्य कोई बुद्धिमान नहीं हो सकता  ! ”    पारसियो मे अग्नि को पूज्य देव माना गया है ओर वैदिक ॠति के अनुसार दीपक जलाना,होम करना ये सब परम्परा वेदो से पारसियो ने रखी है।

 इनकी प्रार्थ्नात की स्वर ध्वनि वैदिक पंडितो द्वारा गाए जाने वाले साम गान से मिलती जुलती है।
 पारसियो के ग्रंथ  जिन्दावस्था है यहा जिंद का अर्थ छंद होता है जैसे सावित्री छंद या छंदोग्यपनिषद आदि|
 पारसियो द्वारा वैदिक वर्ण व्यवस्था का पालन करना-
पारसी भी सनातन की तरह चतुर्थ वर्ण व्यवस्था को मानते है-
1) हरिस्तरना (विद्वान)-ब्राह्मण
2) नूरिस्तरन(योधा)-क्षत्रिए
3) सोसिस्तरन(व्यापारी)-वैश्य
 4) रोजिस्वरन(सेवक)-शुद्र
संस्कृत ओर पारसी भाषाओ मे समानता-
यहा निम्न पारसी शब्द व संस्कृत शब्द दे रहा हु जिससे सिध्द हो जाएगा की पारसी भाषा संस्कृत का अपभ्रंश है-
 कुछ शब्द जो कि ज्यों के त्यों संस्कृत मे से लिए है बस इनमे लिपि का अंतर है-
 पारसी ग्रंथ मे वेद- अवेस्ता जैद मे वेद का उल्लेख-
1) वए2देना (यस्न 35/7) -वेदेन
अर्थ= वेद के द्वारा
 2) वए2दा (उशनवैति 45/4/1-2)- वेद
 अर्थ= वेद
वएदा मनो (गाथा1/1/11) -वेदमना
अर्थ= वेद मे मन रखने वाला
अवेस्ता जैद ओर वेद मंत्र मे समानता:- वेद से अवेस्ता जैद मे कुछ मंत्र लिए गए है जिनमे कुछ लिपि ओर शब्दावली का ही अंतर है, सबसे पहले अवेस्ता का मंथ्र ओर फ़िर वेद का मंत्र व अर्थ-                                        1) अह्मा यासा नमडंहा उस्तानजस्तो रफ़ैब्रह्मा(गाथा 1/1/1)
मर्त्तेदुवस्येSग्नि मी लीत्…………………उत्तानह्स्तो नमसा विवासेत ॥ ॠग्वेद 6/16/46॥
=है मनुष्यो | जिस तरह योगी ईश्वर की उपासना करता है उसी तरह आप लोग भी करे।
   2) पहरिजसाई मन्द्रा उस्तानजस्तो नम्रैदहा(गाथा 13/4/8)
 …उत्तानहस्तो नम्सोपसघ्………अग्ने॥ ॠग्वेद 3/14/5॥
 =विद्वान लोग विद्या ,शुभ गुणो को फ़ैलाने वाला हो।
 3) अमैरताइती दत्तवाइश्चा मश्क-याइश्चा ( गाथा 3/14/5)
-देवेभ्यो……अमृतत्व मानुषेभ्य ॥ ॠग्वेद 4/54/2॥
 =है मनु्ष्यो ,जो परमात्मा सत्य ,आचरण, मे प्रेरणा करता है ओर मुक्ति सुख देकर सबको आंदित करते है।  4) मिथ्र अहर यजमैदे।(मिहिरयश्त 135/145/1-2)
-यजामहे……।मित्रावरुण्॥ॠग्वेद 1/153/1॥
जैसे यजमान अग्निहोत्र ,अनुष्ठानो से सभी को सुखी करते है वैसे समस्त विद्वान अनुष्ठान करे।        उपरोक्त प्रमाणो से सिध्द होता है कि वेद ही सभी मतो का मूल स्रोत है,किसी भी मत के ग्रंथ मे से कोई बात मानवता की है तो वो वेद से ली गई है बाकि की बाते उस मत के व्यक्तियो द्वारा गडी गई है।
संधर्भित पुस्तके :-(१)भारत का इतिहास -प्रो.रामदेव जी 
(२) zend avstha (gatha):- english translation by prof.ervand maneck furdoonji kanga M.A.
(3)zend avstha (yastha):- english translation by prof.______________kanga M.A.
(4)वेदों का यथार्थ स्वरूप :-धर्मदेव विध्यावाचम्पति 
(5) ऋग्वेद :-आर्य समाज जामनगर भाष्य 
(6) मनुस्म्रती:- आर्यमुनी जी  
http://bharatiyasans.blogspot.in/2014/04/vedas-are-root-of-parsiseem.html

शासन पद्धति और इसकी समस्याएँ : डा. अशोक आर्य

laksh

 

आज भारत सहित विश्व में अनेक शासन व्यवस्थाएं चल रही हैं | इन में एकतंत्र ,सीमित एकतंत्र,प्रजातंत्र,गणतंत्र आदि कुछ शासन पद्धतियाँ हमारे सामने आती हैं | इन पद्धतियों में से हम किस पद्धति को उत्तम मानते हैं तथा वेद किस पद्धति को अपनाने के लिए हमें प्रेरणा देता है | इन बातों पर यहाँ हम विचार करते हैं | यजुर्वेद में कहा गया है कि विशी राजा प्रतिष्ठित: यजुर्वेद २०.९ || अर्थात राजा का सब कुछ प्रजा पर ही आधारित होता है | प्रजा जब तक खुश है तब तक ही राजा कार्य कर सकता है | प्रजा के विरोध में आते ही राजा के हाथ से सत्ता चली जाती है | इस से स्पष्ट होता है कि राजा का चुनाव करने की प्रथा वेद ने ही दी है | वेद प्रजातंत्र व्यवस्था में शासन चलाने के लिए स्पष्ट आदेश देता है | आज के मानव ने अनेक बार वेद के विरुद्ध शासन व्यवस्था की है , जिससे अनेक समस्याएँ पैदा हो रही हैं | इन सब समस्याओं का समाधान केवल वेद ही देता है | अत: अमारे लिए आवश्यक है कि वेद में इन समस्याओं का समाधान खोज कर तदनुरूप शासन चला कर समस्या दूर करें | वेद तो कहता है कि जब राजा प्रजा को प्रसन्न नहीं रख पाता तो उसे तत्काल हटा देना चाहिए | ऋग्वेद में इस प्रकार बताया गया है :
आ त्वाहार्षमन्त्रेधि ध्रुवस्तिष्ठाविचाचलि: |
विशस्त्वा सर्वा वान्छ्न्तु मा त्वद्राष्टमधि भ्रशट ||ऋग्वेद १०.१७३.१ ||


राज्य सता में एक पुरोहित होता है | यह पुरोहित सत्ता क्षेत्र में प्रजा का प्रतिनिधित्व करता है | चुनाव होने के पश्चात यह पुरोहित नवनिर्वाचित शासक को सम्बोधन करते हुए कहता है कि मैं तुझे प्रजा में से चुनकर लाया हूँ | प्रजा के आदेश से मैं तुझे राजा के पद पर आसीन कर रहा हूँ | इससे स्पष्ट होता है कि जिसे आज हम चुनाव अधिकारी कहते हैं , उसे वेद ने पुरोहित कहा है | आज के चुनाव अधिकारी इस पुरोहित का ही प्रतिरूप होते हैं | यह पुरोहित अथवा चुनाव अधिकारी जनता की प्रतिमूर्ति होने के कारण जनता की इच्छानुसार ही राजा को चलाते हैं , ज्योंही प्रजा किसी राजा के , किसी शासक के अथवा किसी शासक दल के विमुख होती है ,त्यों ही यह पुरोहित , यह चुनाव अधिकारी राजा को हटा कर दूसरा शासक चुनने के लिए जनता के पास जाता है | समस्या तो उस समय पैदा होती है , जब शासक अथवा राजा प्रजा की चिंता भी नहीं करता और पद को छोड़ने के लिए तैयार भी नहीं होता , जैसा की हम विगत कुछ वर्षों से भारत में देख रहे हैं | प्रजा ने वर्तमान शासक का भरपूर विरोध किया किन्तु यहाँ का शासक निरंकुश बनकर कहने लगा हम जनता के चुने हुए प्रतिनिधि हैं , अब जनता में से कोई भी हमारे विरोध में नहीं बोला सकता | जो बोलेगा , उसे हम कुचल कर रख देंगे | इससे देश में अव्यवस्था को बल मिला तथा समस्याएँ खडी हुई |
नए राजा को उपदेश करते हुए चुनाव अधिकारी अथवा पुरोहित आगे कहता है कि जनता के निर्णय के अनुसार मैं तुझे इस देश की सता का अधिकारी बना रहा हूँ | तु इस सता पर स्थिर हो , इस का अधिष्ठाता बन , इस पर बैठ कर जनता के लिए कार्य कर | इस शासन को संभालने के पश्चात तूं कभी भी अपने कर्तव्य से विचलित मत होना | बड़ी से बड़ी समस्या आने पर भी घबराना नहीं | तुझे उत्तम मान कर ही यह शासन की चाबी तेरे हाथ में दी गई है कि तेरे में तत्काल उत्तम निर्णय लेने की शक्ति है , तेरे में

उत्तम व्यवस्था करने के गुण हैं | यदि तूं ठीक से इस कार्य को करता रहेगा तो मैं तेरे साथ हूँ तथा यह जनता , यह प्रजा तेरा आदर करती है | ज्योंही तूने जनता को भुला दिया , जनता की इच्छा के विरुद्ध कार्य करने लगा त्यों ही तुझे इस सता से वंचित कर दिया जावेगा |
पुरोहित आगे कहता है कि इस सता को संभालने के पश्चात इस देश की सारी प्रजाएँ , सारी जनता तेरा आदर करेगी | अब तूं किसी एक समुदाय का , किसी एक दल का प्रतिनिधि नहीं है , अब पूरे देश की जनता का तू प्रतिनिधि है , शासक है | तूं ऐसे कार्य कर की देश की पूरी की पूरी प्रजा तुझे पसंद करे , तुझे चाहे तथा तेरी कामना करे | सारी प्रजा की सब कामनाएं जब तू पूरा करेगा तो इस सत्ता का अधिकारी बना रहेगा किन्तु प्रजा के रुष्ट होते ही तेरी यह सत्ता तेरे से छीन जावेगी | प्रजा तुझे हटा देवेगी | इसलिए तू सदा ऐसे कार्य करना कि यह सत्ता तेरे से कभी भी छीन न पावे | इसका एक मात्र उपाय है कि तूं प्रजा की इच्छा के अनुरूप शासन चला |
इस से स्पष्ट होता है कि वेद शासन व्यवस्था में प्रजा को सर्वोपरि मानता है तथा आदेश देता है की देश की सरकार का चुनाव प्रजा करे तथा यह सरकार तब तक ही कार्य करे , जब तक प्रजा प्रसन्न है | प्रजा के विरोध में आते ही यह सरकार सता के सूख को त्याग दे तथा नई सरकार को चुना जावे | इस से यह भी स्पष्ट होता है कि राजा का शासन प्रजा की दया पर ही निर्भर है | ज्यों ही राजा निरंकुश होता है , प्रजा के अनुरूप कार्य नहीं करता तो यह प्रजा तत्काल उसे पदच्युत करने की शक्ति रखती है , उसे इस शासन के पद से हटा सकती है अर्थात इस सरकार या उसके किसी भी अंग को , किसी भी अधिकारी को वापिस बुला कर , उसके स्थान पर नए व्यक्ति को, अथवा नए दल को बैठा सकती है |

ऋग्वेद का यह मन्त्र स्पष्ट आदेश दे रहा है कि राजा तब तक ही सत्ता का अधिकारी है , कोई भी सरकार तब तक ही इस सत्ता की गद्दी पर आसीन है , जब तक वह प्रजा को प्रसन्न रख सकती है , अन्यथा नहीं | देश में अत्याचार बढ़ रहे हों , अनाचार का शासन हो जावे, महंगाई बढ़ने लगे किन्तु इसे रोकने की क्षमता सरकार के पास न हो या फिर जान बुझ कर इसे रोक न पा रही हो , भृष्टाचार बढ़ जावे , सरकार के अंगभूत सांसद या विधायक अथवा मंत्रिगण भ्रष्टाचार से अपना घर भर रहे हों , देश की सुरक्षा व्यवस्था गड़बड़ा रही हो , अन्याय का राज्य हो , जनता को अकारण ही परेशान किया जाने लगे, शिक्षा, बिजली , पानी आदि की ठीक से व्यवस्था न हो पा रही हो अथवा जनता की किसी मांग को सरकार स्वीकार करने को तैयार न हो तो जनता के पास एसी शक्ति हो कि वह तत्काल एसी सरकार को चलता करे तथा अपनी व्यवस्था के लिए नयी सरकार को चुने |

डा. अशोक आर्य
१०४ शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी २०१०१०
गाजियाबाद , भारत
दूरभाष ०१२०२७७३४००, ०९७१८५२८०६८

Mother’s Role in bringing up progeny RV10.153

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Mother’s Role in bringing up progeny RV10.153 Child Training by Mother
ऋषि: देवजामयो देवमातरो=देवताओं को जन्म देने वाली जिन की सन्तान में इन्द्र के गुण होते हैं ऐसी माताएं । देवता: इन्द्रो । गायत्री ।
1.ईङ्खयन्तीरपस्युव इन्द्रं जातमुपासते । भेजानस: सुवीर्यम् ।। 10.153.1
आस्तिक विश्वास रखने वाली माताएं क्रियाशील स्वयं सुव्यवस्थित संयमी जीवनशैलि द्वारा ही संतान को संयमी जितेंद्रिय बना पाती हैं.
Mother having faith –positive thinking, proactive living an orderly life only are able to imbibe the right attitudes in the infant child.
2.त्वमिन्द्र बलादधि सहसो जात ओजस: । त्वं वृषन् वृषेदसि ।। 10.153.2
ऐसी माता बालक को जीवन में जितेंद्रिय हो कर बल से, ओज से, उत्साह से शक्ति सम्पन्न बनाती हैं.
Mother instills the attitudes of self confidence, self reliance and action oriented life in the child .
3.त्वमिन्द्रासि वृत्रहा व्य1न्तरिक्षमतिर: । उद् द्यामस्तभ्ना ओजसा ।। 10.153.3
जिस प्रकार आकाश में मेघ को छिन्न भिन्न करके पृथ्वी पर उत्तम जीवन स्थापित होता है उसी प्रकार माता ही बालक के मस्तिष्क को संसार में विघ्नकारी शक्तियों का विध्वंस करके उत्कृष्ट ज्ञान सम्पन्न बना कर समाज में सुख शांति स्थापित करने का व्यक्तित्व स्थापित करती है.
Mother instils the confidence to never accept defeat and develop a mind to take the wider view of in life. Defeat all negative forces to bring welfare and health for society by taking lesson from the elements how the clouds in the sky are smashed to provide life and health on earth.
4.त्वमिन्द्र सजोषसमर्कं बिभर्षि बाह्वो: । वज्रं शिशान ओजसा ।।RV 10.153.4
माता ही संतान में शारीरिक शक्ति , स्वास्थ्य और मानसिक आत्मबल की नींव डालती है.
Mother has to cultivate in the child Physical strength to provide him with an aura of strong proactive and sharp personality.
5.त्वमिन्द्राभिभूरसि विश्वा जातान्योजसा । स विश्वा भुव आभव: ।।RV10.153.5
अपने ओज से समस्त शत्रुओं को पराभूत करता है.
He grows to achieve an incandescent aura overcome all the negative forces by his efforts , on earth and space.