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वेद एवं वैदिक साहित्य के अर्थ-ज्ञान का प्रकार

वेद एवं वैदिक साहित्य के अर्थ-ज्ञान का प्रकार

प्रस्तुत समपादकीय प्रो. धर्मवीर जी के द्वारा उनके निधन से पूर्व लिखा था। इसे यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है।

-समपादक

शास्त्र को समझने के लिये प्राचीन शास्त्रकारों ने एक कसौटी बनाई है, उसका नाम है- ‘अनुबन्ध चतुष्टय’। इसमें चार बातों का परस्पर समबन्ध जाना जाता है, जिससे किसी भी प्रकार के सन्देह की सम्भावना नहीं रहती। अनुबन्ध चतुष्टय है- विषय, अधिकारी, समबन्ध और प्रयोजन। विषय– शास्त्र, अधिकारी- जिसमें शास्त्र को समझने की योग्यता हो, समबन्ध- शास्त्र और उसे पढ़ने वाले के बीच समबन्ध, प्रयोजन- शास्त्र को पढ़ने वाले का उद्देश्य। ये चार बातें स्पष्ट हों तो  .पढ़ने-पढ़ाने वालों में शास्त्र को लेकर किसी प्रकार का संशय नहीं रहता।

वेद और वैदिक साहित्य को लेकर जो समस्या आज हमारे सामने उपस्थित है, उसका मूल कारण है- शास्त्र और पढ़ने-पढ़ाने वाले का परिचय न होना। ऐसी स्थिति में अकस्मात् जब कोई शास्त्र को पढ़ना प्रारमभ करता है तो वह  अपनी बुद्धि से उसे समझता है, पर शास्त्र-बुद्धि उसके पास नहीं होती। ऐसी परिस्थिति में हमारे पास न ज्ञान होता है, न परमपरा, फिर शास्त्र के साथ न्याय कोई कैसे कर सकता है?

वर्तमान में जो शास्त्र पढ़ते हैं, उनमें भी शास्त्र का ज्ञान कम और परमपरा का ज्ञान अधिक होता है। हर पढ़ने वाला शास्त्र में अपने विचारों की पहचान का प्रयास करता है।

वर्तमान में संस्कृत और वेद का सामान्य ज्ञान न होने से अर्थ करना समभव नहीं होता। आज अर्थ करने वाले कैसे-कैसे अर्थ वेद-मन्त्रों के करते हैं, उनको देखकर यह बात समझ में आती है। ईसाई लोगों का मानना है कि यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के प्रथम मन्त्र में ‘ईशावास्यम्’ पद आया है, उनका कहना है कि यह ‘ईशा’ पद ईसा का वाचक है। इसे बोलकर ईसा की वेद में उपस्थिति प्रमाणित करने में कोई कठिनाई नहीं होती। सामान्य जनता में इस पर कोई प्रश्न आने की समभावना नहीं।

इसी प्रकार एक समप्रदाय के प्रचारक ने ‘कविर्मनीषी’ वैदिक पद में ‘कविर्’ को कबीर बोलकर वेद में कबीर की उपस्थिति सिद्ध कर दी। यह कोई अनुसन्धान नहीं है, परन्तु सामान्य मनुष्य की बुद्धि को भ्रमित करने का साधन तो है। एक बार सनातन धर्म के विद्वान् स्वामी करपात्री से हिन्दू शबद की प्राचीनता सिद्ध करने की माँग हुई, तो उन्होंने यजुर्वेद के मन्त्र की दो पंक्तियों के आदि अक्षरों को जोड़कर हिन्दू शबद वेद में उपस्थित कर दिया। प्रथम पंक्ति से हिहिङ्कृण्वन्ति तथा दूसरी पंक्ति से दूदूहाना। इस प्रकार वेद-मन्त्रों से अभिप्राय की सिद्धि की जाती रही है। इस्लाम के शोधकर्त्ता तो इससे भी आगे पहुँच गये, उन्होंने एक विद्वान् से शोध कराया और मोहमद की उपस्थिति वेद में बता दी। उनका कहना था कि एक सफेद वस्त्र धारण कर घोड़े जैसे जानवर पर चढ़कर आने वाले का वर्णन वेद में है, तो वह वर्णन मोहमद का ही है, क्योंकि उनका व्यक्तित्व ऐसा ही था। इसमें कल्पना को यथार्थ तक पहुँचा दिया।

विद्वत्ता व अनुसन्धान की दृष्टि से अपने प्रयोजन सिद्ध करने वालों की भी कमी नहीं है। सायण, उव्वट आदि यज्ञपरक अर्थ करते हैं, तो महीधर वेदार्थों को अश्लीलता तक पहुँचाने वाला भाष्यकार है। फिर पाश्चात्य विद्वान् भी  पीछे क्यों रहें, उन्होंने भी बहती गंगा में हाथ धोने में कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने भाषा-विज्ञान का अपना ही मानदण्ड बना लिया। अपने प्रमाण से प्रमाणित कर जो इच्छित परिणाम प्राप्त करने थे, कर लिये। उनकी दृष्टि में वेद एक नहीं, रचना एक साथ नहीं, परस्पर कोई समबन्ध नहीं, किसी एक सिद्धान्त या विचार का प्रतिपादन नहीं। अच्छा-बुरा, नया-पुराना सब कुछ वेद में बताकर सिद्ध कर दिया कि भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन के उपयोग में आने के अतिरिक्त इसका कोई विशेष महत्त्व नहीं है।

अब विचार की बात यह है कि इनमें से किस मत को स्वीकार किया जाए और क्यों? यदि एक भी मत इसमें अनुचित है, तो सारे ही उस कसौटी पर अनुचित हैं और यदि किसी मत को उचित ठहराने का प्रयास करते हैं, तो सभी को उचित मानना पड़ेगा। उचित दृष्टिकोण से विचार करने का पहला आधार है- वेद की उपस्थिति। हमें उस ग्रन्थ के विषय में विचार करना है, जिसकी सत्ता है, उपस्थिति है। अतः जो कोई, जो कुछ कहता है, उसे उस ग्रन्थ में देखा जा सकता है, खोजा जा सकता है।

वेद ग्रन्थ कोई कल्पना नहीं है। वेद कोई नई पुस्तक भी नहीं है। जो पक्ष-विपक्ष हैं, उनकी भी परीक्षा की जा सकती है। बहुत सूक्ष्म विश्लेषण का यह अवसर नहीं है, परन्तु स्थाली पुलाक न्याय से कुछ बिन्दुओं पर विचार किया जा सकता है। वेद और वैदिक साहित्य को पढ़ने से इनके परस्पर समबन्ध का पता चल जाता है। आर्यों का धर्म वैदिक है अर्थात् वेद-प्रतिपादित है, अतः वेद आर्यों का धर्म-ग्रन्थ है। इसका कोई निषेध नहीं कर सकता। वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, शाखा-ग्रन्थ, उपवेद, वेदांग, इनमें गौण-मुखय सबन्ध है, अतः ये नितान्त पृथक् रचना नहीं हैं। जब उपवेद के साथ वेद, वेदांग के साथ कहीं श्रुति, कहीं आगम शबदों का प्रयोग आता है, तो आप इनको असमबद्ध कहकर अपनी स्थापना बलात् प्रतिपादित नहीं कर सकते।

वेद चार हैं, ब्राह्मण-ग्रन्थ अनेक हैं। शाखा-प्रातिशायों का सब कुछ समाप्त होने के बाद भी बहुत कुछ उपलबध है। भारतीय दर्शनों का नाम ही वैदिक-दर्शन या आस्तिक-दर्शन है। वेदांग साक्षात् वेद के अंग हैं। इनको वेदांग कहते हुए वेद से पृथक् किस प्रकार कर सकते हैं। अतः प्रथम बात है वेद और वैदिक-साहित्य पुस्तक रूप में अनेक होने पर भी प्रयोजन की अपेक्षा से एक ही है। यदि कोई कहता है कि इनमें परस्पर विरुद्ध कथन पाया जाता है, तो ये सब एक कैसे हो सकते हैं। इसका समाधान है- ‘स्वतः प्रमाण और परतः प्रमाण’ का सिद्धान्त। वेद स्वतः प्रमाण हैं और समस्त वैदिक-साहित्य परतः प्रमाण है, वेदानुकूल होने पर ही प्रमाण कोटि में आता है, अन्यथा नहीं। इसके लिये पाश्चात्य विद्वान् कह सकते हैं कि वे इसे प्रमाण नहीं मानते, न मानें, परन्तु जिनकी रचना है, उन्होंने ही इसको प्रमाण माना है। अत : विदेशी कथन केवल उनके कहने से प्रमाण कोटि में नहीं आता।

वेद का अर्थ होता है और ठीक से किया जा सकता है, क्योंकि वेद भाषा में है। भाषा में शबद होते हैं, शबदों का अर्थ होता है। अतः मनुष्य उन शबदों के द्वारा अपने अभिप्राय को व्यक्त करता है। यह भाषा का प्रयोजन है। वेद के शबदों का अर्थ न हो तो वेद का प्रयोजन ही सिद्ध नहीं होगा। अब प्रश्न उठता है कि वेद के शबदों का जो अर्थ किया जा रहा है, वही स्वीकार क्यों न कर लिया जाये। इस का उत्तर है- किसी भी शबद का प्रयोग अर्थरूप प्रयोजन की सिद्धि के लिये किया जाता है। यदि प्रयोजन सिद्ध होता है तो प्रयोग उचित है अन्यथा बुद्धिमान् का प्रयोग नहीं कहलायेगा। क्या वेद के शबदों का अर्थ किया जा रहा है? उससे वेद के प्रयोजन की सिद्धि हो रही है। यदि प्रयोजन सिद्ध है तो प्रयोग ठीक है, अन्यथा प्रयोग अनुचित है।

हम देखते हैं कि वेद का अध्ययन करने वाले वेद- मन्त्रों के जितने अर्थ करते हैं, उनमें सबसे बड़ा भाग परस्पर विरुद्ध कथन का होता है। परस्पर विरोधी कथन बुद्धिमान् व्यक्ति की रचना नहीं हो सकती। इस कारण अर्थ करने के लिये कसौटी बनाई गई है। अतः देशी या विदेशी विद्वानों ने जो अर्थ किये हैं, उन्होंने इन कसौटियों का पालन ही नहीं किया, न कोई मान्य कसौटी का प्रतिपादन ही किया।

हम बहुत स्थूल-बुद्धि से भी विचार करें तो वेदार्थ करते समय निमनलिखित बिन्दुओं पर विचार किये बिना वेद-मन्त्रों का उचित अर्थ नहीं हो सकता।

प्रथम बिन्दु है समस्त वेदों और वैदिक-साहित्य के कथन में परस्पर विरोध नहीं होना चाहिए। यदि विरोध दिखाई देता है तो इसके दो कारण हैं- विशेष रूप से वेद से भिन्न जो भी वैदिक-साहित्य है, उसमें या तो प्रक्षेप हैं, या वह अर्वाचीन वेद-विरुद्ध विचार है, जो ग्रन्थ में प्रक्षेप कहा जाता है। दूसरी परिस्थिति है- हमारे समझने, संगति लगाने में भूल है।

दूसरा बिन्दु है हम मन्त्रों का जो भी अर्थ करें, उसकी वहाँ संगति लगनी चाहिए। अर्थ प्रसंग के अनुकूल घटना चाहिए। बिना प्रसंग के किसी भी शबद, वाक्य को लेकर अर्थ करेंगे तो निश्चय ही अनर्थ करने का कारण बनेगा। इसलिये यास्काचार्य ने कहा है- प्रसंग से मन्त्रों का अर्थ करना चाहिए। इतना ही नहीं, वे बिना प्रसंग के मन्त्रों के अर्थ करने का निषेध करते हैं।

तीसरा बिन्दु है जब हम वेद-मन्त्रों का अर्थ करते हैं तो शबदों का वही अर्थ हमारे सममुख होता है, जो अर्थ हम जानते हैं। कालक्रम से शबदों के अर्थ बदल जाते हैं। वेद प्राचीन ग्रन्थ हैं, हम वैदिक शबदों के वर्तमान में प्रचलित अर्थों को लेकर मन्त्रार्थ करने का प्रयास करते हैं, जिससे मन्त्र के अनर्थ होने की समभावना अधिक होती है। अतः यदि वेद-मन्त्र का हमें अर्थ करना है, तो इसमें वेद और वैदिक-साहित्य की सहायता लेनी होगी। वैदिक शबदों के अर्थ के लिये वैदिक कोष का उपयोग करना चाहिए। वैदिक-साहित्य के नष्ट हो जाने से केवल एक कोष ही हमें आज उपलबध है, जिसे निघण्टु कहा जाता है। यह एकमात्र वैदिक-कोष है और इसकी व्याखया के रूप में हमें निरुक्त उपलबध है, जिससे वेदार्थ करने में सहायता उपलबध होती है।

चौथा बिन्दु है एक शबद के अनेक अर्थ होते हैं, प्रसंग में कौन सा अर्थ संगत होगा। इस पर भी वेदार्थ करते समय विचार करना चाहिए। उदाहरण के लिये-सारे आधुनिक वेदभाष्यकार ‘गौ’ का अर्थ गाय करते हैं। परन्तु निघण्टु के प्रथम अध्याय के प्रथम खण्ड का प्रथम शबद गौ = पृथ्वी का वाचक है, बाद में यह गाय पशु के अर्थ में भी आता है। अतः मन्त्र में ‘गौ’ शबद का अर्थ गाय होगा या भूमि होगा, इसको बिना जाने वेदार्थ करेंगे तो वह अर्थ न होकर अनर्थ ही होगा।

पाँचवाँ बिन्दु है वेद में शबदों के अर्थ यौगिक और योगरूढ़ हैं, उन्हें केवल रूढ़ अर्थ में ग्रहण किया जायेगा, तो मन्त्रार्थ में विचलन होगा। इसके अतिरिक्त भी वेद और वैदिक-साहित्य के प्रसंगों की तुलना से अर्थनिर्णय में सहायता मिलती है।

जितने भी अर्थ आज वेद-मन्त्रों के किये जाते हैं, उनमें इन बातों का विचार नहीं किया जाता, इसलिये वेदार्थ में कोई गौरव नहीं आता। यदि प्राचीन ऋषियों द्वारा प्रदर्शित मार्ग का अनुसरण किया जाए तो वेदार्थ में गति और उचित अर्थ की प्राप्ति हो सकती है। यह कार्य इस युग में ऋषि दयानन्द की अपूर्व देन है। इससे ही वेदार्थ का ज्ञान और वेदों की रक्षा समभव है, क्योंकि वेद की रचना को बुद्धिपूर्वक की गई रचना कहा गया है-

बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे।

– धर्मवीर