Tag Archives: vamanavatar ki kalpna

वामनावतार की कल्पना

वामनावतार की कल्पना

– शिवपूजन सिंह कुशवाहा

दयानन्द वैदिक शोध संस्थान से प्रकाशित ‘वामनावतार की कल्पना’ नामक पुस्तिका परोपकारी के पाठकों के समक्ष लेख रूप में प्रस्तुत है। यह ‘इदं विष्णुर्विचक्रमे.’ ऋ. 1-22-17 की ऋचा के सदाशय को न समझकर विविध पौराणिक भाष्यकारों ने जो तर्कासंगत व प्रकरणाननुमोदित ‘वामनावतार’ की मिथ्या कल्पना की है, उसका युक्ति-युक्त व प्रमाणान्वित खण्डन है। वेद-मन्त्रों से अवतारवाद को सिद्ध करने की पौराणिक बुद्धि को जानने हेतु यह शास्त्रीय लेख उपयोगी होगा।                                                     -सपादक

वैदिक-युग में अवतार की कोई कल्पना न थी, पर पौराणिक-युग में अवतार की कल्पना की गई और मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, कृष्ण, राम प्रभृति अवतार वेद से सिद्ध किये जाने लगे।

अवतार का अर्थ उतरना है। यह ‘अव’ पूर्वक ‘तृ’ धातु से बनता है, जिसका अर्थ उतरना होता है। यह प्रयोग सर्वव्यापक में नहीं घट सकता है। यदि परमात्मा कहीं ऊपर बैठा हो तो अवश्य उसका अवतार कहना उचित कहा जा सकता है, परन्तु सर्वव्यापक में इसका प्रयोग ही अविद्या और अज्ञान है। वेदक्रान्तदर्शी महर्षि दयानन्द जी महाराज ने स्पष्ट लिखा है-

प्रश्न-ईश्वर अवतार लेता है वा नहीं?

उत्तर-नहीं, क्योंकि ‘अज एकपाद्’ (34-53) ‘‘स पर्य्यगाच्छुक्रमकायम्’’ (40-8) ये यजुर्वेद के वचन हैं, इत्यादि वचनों से सिद्ध है कि (परमेश्वर जन्म नहीं लेता) अतएव अवतार की कल्पना निर्मूल है, फिर भी पौराणिक वर्ग निम्नांकित वेद -मन्त्र से वामनावतार सिद्ध करने का प्रयास करते हैं।

‘‘इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधेपदम्। समूढ़मस्यपा सुरे स्वाहा’’ (ऋग्वेदमण्डल 1, सूक्त 22, मन्त्र 17। यजु. अ. 5 मन्त्र 15, सामवेद पूर्वार्चिकः 9) (222)

पं. रामगोविन्द त्रिवेदी ‘वेदान्त शास्त्री’ समपादक ‘गंगा’ पत्रिका तथा पण्डित गौरीनाथ जी झा ‘व्याकरण तीर्थ’ अपनी ऋग्वेदसंहिता, सरल हिन्दी टीका सहित, प्रथम अष्टक, प्रथम संस्करण पृष्ठ 28-29 की पाद टिप्पणी में लिखते हैं-

‘‘17 वें मन्त्र के समबन्ध में भी बड़ा मतद्वैध है। रमानाथ सरस्वती ने लिखा है कि मध्य एशिया से भारतवर्ष आते समय आर्यों के अग्रगन्ता विष्णु नामक आर्यपुरुष थे। उन्होंने रास्ते में तीन स्थानों पर विश्राम किया था और उनकी तथा अनुगामियों की पद-धूलि से संसार आवृत हो चला था।’’ इस अर्थ का रेवरेण्ड कृष्णमोहन बनर्जी ने अपने aryan wirness  में जोरों से अनुमोदन किया है। इनके मत के ही अधिकांश पाश्चात्य लेखक अनुमोदक हैं, परन्तु आर्य-साहित्य इनकी कल्पना का अनुमोदन नहीं करता। युक्ति भी इसका साथ नहीं देती।

शाकपूणि आचार्य का मत है कि विष्णु ने पृथिवी, अन्तरिक्ष और आकाश में तीन प्रकार से पैर रखे थे। ऐतरेय ब्राह्मण (6-15) में लिखा है कि देवों और असुरों के बीच जब संसार का बंटवारा होने लगा, तब इन्द्र ने कहा कि अपने तीन पैरों से विष्णु जितना नाप सकें, उतना संसार देवों के हिस्से, शेष असुरों के। असुर भी इससे सहमत हो गए और विष्णु ने अपने पाद विक्रम से जगत् के साथ ही वेद और वाक्य को भी व्याप्त कर लिया।

शतपथ ब्राह्मण (1-2-5) में उल्लेख है कि, ‘‘असुरों ने कहा कि वामनरूप विष्णु के शयन करने पर जितना स्थान आवृत होगा, उतना देवों का, शेष असुरों का। इस प्रस्ताव का देवों ने समर्थन किया और विष्णु ने सारे संसार को आवृत कर उसे देवों को दिलवा दिया।’’ इस तरह अनेक प्रमाण हैं। जिनसे रमानाथ सरस्वती आदि की कल्पना खण्डित होती है।

मध्य एशिया से भारतवर्ष आने में विष्णु ने तीन ही स्थानों पर विश्राम किया? क्या इतनी लमबी यात्रा में तीन ही पड़ाव संभव हैं? क्या विष्णु और उनके चन्द आर्य-अनुगामियों की पद-धूली से संसार का छिप जाना संभव है? इन सब प्रश्नों का कोई भी  उत्तर नहीं है। सत्य तो यह है कि विष्णु नामक रक्षक भगवान् के तीन पैरों से समस्त जगत् का व्याप्त होना, विष्णु द्वारा संसार की रक्षा होना और विष्णु के वामनावतार की मूल कथा स्पष्ट ही वैदिक-मन्त्रों में है। उनके अर्थों की खींचातानी करना समय नष्ट करना है।

आप लोगों ने स्वयं इस मन्त्र की टीका की है-वामनावतारधारी विष्णु ने इस जगत् की परिक्रमा की थी, उन्होंने तीन प्रकार से अपने पैर रखे थे और उन धूलीयुक्त पैर से जगत छिप-सा गया था।

विद्या वारिधि पं. ज्वाला प्रसाद मिश्र लिखते हैं-‘अब वामनावतार की सुनिए, सामवेदे छन्द आर्चिके।’

‘‘इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्। समूढ़मस्यापा सुरे।’’ 2 प्र. 1-1-9

(विष्णु) त्रिविक्रमावतारधारी (इदम्) प्रतीयमानं सर्वं जगदुद्दिश्य (विचक्रमे) विभज्य क्रमतेस्म (त्रेधा) त्रिभिः प्रकारैः (पदं निदधे) स्वकीयं पादप्रक्षिप्तवान् (अस्य) (विष्णोः) पांसुले पांसुरे वा धूलियुक्तकेपादस्थाने (समूढ़म्) इदं जगत् सयगन्तर्भूतम् (सेयमृग् यास्केनैव व्यायाता विष्णुर्विशतेर्वाप्नोतेर्वा) शतपथ में भी वामनावतार का वर्णन है।

यथा ‘‘वामनोह विष्णुरास’’ (श. 1-2-2-5)

वामन साक्षात् विष्णु ही थे। यहाँ वामन अवतार की पूरी कथा लिखी है।

भाषार्थ-अमरेश त्रिविक्रमावतारी वामन जी इस विश्व को उल्लंघन करते हैं, तीन पग धरते हैं। एक भूमि, दूसरा अन्तरिक्ष, तीसरा स्वर्ग में। इनके चरण में चतुर्दश ब्रह्मांड सयक् अन्तरभूत होता है।

पं. कालूराम शास्त्री लिखते हैं-

विष्णु ने इस दृश्यमान ब्रह्माण्ड को नापा और तीन प्रकार से पग रखा, इस के पद में समस्त संसार स्थित है।

इसकी पुष्टि में कठोपनिषद् लिखता है कि-‘‘मध्ये वामनमासीनं विश्वेदेवा उपासते’’। (कठ. वल्ली. 5 श्रु. 3)

मध्य में बैठे हुए वामन की विश्वेदेव उपासना करते हैं। इसकी पुष्टि में शतपथ लिखता है कि-

‘वामनोह विष्णुरास।’ शत. 1-2-2-5

विष्णु ही वामन थे।

पं. माधवाचार्य शास्त्री, ‘हिन्दी प्रभाकर’ वेदवाचस्पति महामहोपदेशक लिखते हैं-

‘‘….वामनावतारधारी विष्णु ने इस जगत् को तीन चरणों से आक्रान्त कर पग धरे हैं और इनके धूलीधूसर पद में यह भूमि आदि समस्त लोक अन्तर्हित हो गए।’’ ()

पं. ब्रह्मदेव शास्त्री काव्यतीर्थ, समपादक ‘‘ब्राह्मण सर्वस्व’’ इटावा लिखते हैं।

वामनावतार का वर्णन भी वेद में बहुत स्पष्ट-रीत्या पाया जाता है। यजुर्वेद अध्याय 5 का पांचवां मन्त्र है।

इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्। समूढ़मस्यपा सुरे स्वाहा।

अर्थ-(विष्णुः) ब्रह्म (इदम्) इस जगत् का (विचक्रमे) पैर से नापता भया (पदम्) पैर के (त्रेधा) तीन प्रकार से (निदधे) रखा। (अस्य) इसका (पांसुरे) धूलीयुक्त स्थान में पैर (समूढ़म्) समयक् प्रकार से अन्तर्हित हुआ।

प्रसिद्ध वेद-भाष्यकार महीधर ने इस मन्त्र का भाष्य भी अवतारपरक ही किया है। वे लिखते हैं-

‘विष्णुः त्रिविक्रमावतारं कृत्वा इदंविश्वंविचक्रमे विभज्य क्रमतेस्म। तदेवाह। त्रेधा पदं निदधे भूमावेकं पदमन्तरिक्षे द्वितीयं दिवि तृतीयमिति क्रमादग्निवायुसूर्यरूपेणेत्यर्थः। पांसवो भूयादिलोकरूपा विद्यन्ते यस्य तत्पांसुरमस्मिन् पांसुरे, अस्य विष्णोः पदं सयगन्तर्भूतम् विश्वमितिशेषः। यद्वायमर्थः यस्य विष्णोःपदं पद्यते त्रायत इति पदमद्वैतायं स्वरूपं समूढ़मन्तर्हितमज्ञातमकृतात्मभिः। कस्मिन्निव। पांसुरे इव लुप्तोपमान पांसुरे रजस्वले प्रदेशे हितं यथा न ज्ञायते तद्वत् तदुक्तं (अध्याय.) 6-5 क., तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरय इति। स्वाहा तस्मै विष्णवे हविर्दत्तम्।। 15।।’

इस भाष्य का अर्थ करने की जरूरत नहीं। क्योंकि ऊपर जो अर्थ दिया गया है वह भी महीधर भाष्य के अनुकूल ही है। अब देखिये निरुक्तकार क्या कहते हैं। निरुक्त ही वेदार्थ की प्रक्रिया बताता है। इसीलिये निरूक्त को वेदांग माना है। आर्यसमाजी भी निरुक्त को मानते हैं। देखिये वह निरुक्तकार इस मन्त्र पर क्या लिखते हैं-

‘‘यदिदं किञ्चतद्विक्रमते विष्णुस्त्रेधा भावाय पृथिव्यामन्तरिक्षे दिवीति शाकपूणिः। समारोहणे विष्णुपदे गयशिरसीत्यौर्णनाभः। समूढ़हमस्यपांसुरेप्यायनेऽन्तरिक्षे पदे न दृश्यते। अपिबोपार्थे स्यात् समूढ़मस्य पांसुल इव पदं न दृश्यत इति। पांसवः पादैः सूयन्त इति वा पन्ना, शेरते इति वा पिंशनीया भवन्तीति वा।’’

(यत्) जो (किञ्च) कुछ (इदम्) यह है (तत्) उसको (विष्णुः) व्यापक ईश्वर (विचक्रमेते) पैर से नापता भया और (त्रेधा) तीन प्रकार से (पदम्) पैर (निधत्ते) रखा (पृथिव्याम्) पृथिवी में (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (दिवि) द्युलोक में (इति) यह (शाकपूणिः) शाकपूणिः का मत है।

(समारोहणे) समारोहण में (विष्णुपदे) विष्णुपद में (गयशिरसि) गयशिर में (इति) यह (और्णनाभः) औैर्णनाभ का मत है। (समूढ़स्य) समयक् बढ़े हुए ब्रह्म का (पांसुरे) धूली रेत में जैसे (अपि) वैसे ही (आयने) अन्तरिक्ष में (पदम्) पैर (न) न (दृश्यते) दिखलाई दिया। यहाँ पर अपि अव्यय उपमा में है। (समूढ़स्य पांसुल इव पदं न दृश्यते) रेत में जैसे पग दिखलाई नहीं देता। वैसे ही दिखाई नहीं देता। वैसे ही न दिखलाई दिया। (पांसवः पादैः सूयन्त इति) पैरों से धूली पैदा होती है, इसी कारण धूली को ‘पांसु’ कहते हैं।

अब बतलाइये आर्यसमाजी कहाँ जायेंगे? वेद, निरुक्त सभी तो वामनावतार की गवाही दे रहे हैं। अर्थ बदलने से भी काम न चलेगा, पाणिनि जी ने ‘क्रमु’ धातु को जिन-जिन अर्थों में आत्मनेपद किया है, वहाँ कुछ नियम बना दिये हैं। किस उपसर्ग के होने पर किस अर्थ में ‘क्रमु’ धातु से आत्मनेपद होगा। इसका नियम है (वेः पाद विहरणे) यह सूत्र है। इसमें नियम कर दिया है कि ‘वि’ उपसर्ग उपपद हो तो ‘क्रमु’ धातु से तभी आत्मनेपद होगा, जब ‘उठा-उठा कर रखता’ अभिप्रेत हो। वामनावतार में भगवान् ने पैर उठा-उठा कर रखे थे, इससे और कुछ भी अर्थ नहीं किया जा सकता। इस वामनावतार को उपनिषद् भी कहता है-

मध्येवामनमासीनं विश्वेदेवा उपासते। (कठ. उप. वल्ली. 5 मन्त्र 3)

अर्थ(मध्ये) मध्य में (आसीनं) बैठे हुए (वामनम्) वामन को (विश्वेदेवाः) विश्वेदेव (उपासते) उपासना करते थे।

शतपथ भी वामन अवतार को लिखता है-‘वामननोह विष्णुरास’ (शत. 1-2-2-5)

अर्थवामन साक्षात् विष्णु थे। शतपथ भी साक्षात् वेद है ‘मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्’।

स्वामी आसाराम सागर संन्यासी धर्मोपदेशक लिखते हैं-

‘‘नमो ह्रस्वायच वामनायच.’’ (य. अ. 16 मन्त्र 30)

इस मन्त्र में ईश्वर के वामनाऽवतार का वर्णन है।

‘वामनो हि विष्णुः।’ (शत. 1 ब्रा. 3 क . 5)

इस प्रमाण से भी विष्णु-परमात्मा का वामनावतार सिद्ध हो चुका है।

समीक्षाइदं विष्णुर्विचक्रमे. मन्त्र का अर्थ महीधर, सायण, श्री ज्वालाप्रसाद मिश्र, श्री कालूराम जी, श्री ब्रह्मदेव जी प्रभृति वामनावतार परक करते हैं, जिससे साधारण जनता भ्रम में पड़ जाती है कि इस मन्त्र का वास्तविक अर्थ क्या है? यहाँ ‘विष्णु’ का अर्थ ‘वामनावतार’ नहीं है, वरन् परमात्मा है। यथा-

‘विष्णुः परमात्मा इति’ यजु. 4-17।

‘‘विष्णुः परमात्मा’’

– (स्कन्दनिरुक्त टी. भा. 2 पृष्ठ 55)

‘विष्णुर्व्यापक इति शत्रुघ्नाचायः’

– (मन्त्रार्थ दीपिका पृष्ठ 7)

विष्णुर्व्यापक इति देवपालः।

विष्णवे=परमेश्वराय (ऋषि दयानन्द यजु. 4-17 भाष्यम्)

अब (इदं विष्णु)……..का अर्थ अपने यजुर्वेद भाष्य में महर्षि दयानन्द जी करते हुए महीधर के सिद्धान्त का खण्डन करते हैं यथा-

(इदम्) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षं जगत्। (विष्णुः) यो वेवेष्टि व्याप्नोति चराचरं जगत् स जगदीश्वरः। (विः) विविधार्थे। (चक्रमे) क्रान्तवान् निक्षिप्तवान् क्रायति क्रमिष्यति वा। अत्र सामान्येऽर्थे लिट्। (त्रेधा) त्रिप्रकारम्। (नि) नितराम्।

(धधे) हितवान् दधाति धारयति वा। (पदम्) पद्यते गयते यत्तत्। अत्र घञर्थे कविधानम्। (अ. 3-3-58 भा. वा.) इति क प्रत्ययः। (समूढम्) सयगुह्यते ऽनुमीयते शद्यते यत्तत्। (अस्य) त्रिविधस्य जगतः। (पांसुरे) पांसवो रेणवो रजांसि रमन्ते यस्मिन्नतरिक्षे तस्मिन्। (स्वाहा) सुहुतं जुहोत्यर्थे। इमं मन्त्रं यास्कमुनिरेव व्यायातवान्-यदिदं किंच तद्विक्रमते विष्णुस्त्रिधानिधत्ते पदं त्रेधा  भावाय पृथिव्यामन्तरिक्षे दिवीति शाकपूणिः समारोहणे विष्णुपदे गयशिरसीत्यौण नामं समूढ़मस्य पांसुरेप्यायनेऽन्तरिक्षे पदं न दृश्यतेऽपिवोपमार्थे स्यात् समूढ़मस्य पांसुल इव पदं न दृश्यत इति पांसवः पादैः सूयन्त इति वा पन्ना शेरत इति वा पिंशनीया भवन्तीति वा। निरु. 12-19।। अयंम् मन्त्रः शत. 3-5-3-13 व्यायातः।। 15।।

भावार्थ-परमेश्वरेण यत् प्रथमं प्रकाशवत् सूर्यादि द्वितीयमप्रकाशवत् पृथिव्यादि प्रसिद्धं जगद्रचितमस्ति, यच्चतृतीयं परमाण्वाद्यदृश्यं सर्वमेतत्करणावयवैः रचयित्वाऽन्तरिक्षे स्थापितं, तत्र औषध्यादि पृथिव्याम्, अग्न्यादिकं सूर्ये, परमाण्वादिकमाकाशे निहितं सर्वमेतत् प्राणानां शिरसि स्थापितवानस्ति। साहैषा गयास्तत्र। प्राणा वै गयास्तत्प्राणांस्तत्रेतद्यद्गायत्रेतस्माद्गायत्री नाम।  (शत. 14-8-15-67)। अनेन गय शदेन प्राणानां ग्रहणम्। अत्र महीधरः प्रभृति त्रिविक्रमावतारं कृत्वेत्यादि तदशुद्धं सज्जनैर्बोध्यम्।। 15।।

पदार्थ-‘‘(विष्णुः) जो सब जगत् में व्यापक जगदीश्वर जो कुछ (इदम्) यह जगत् है उसको (विक्रमे) रचता हुआ इस प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जगत् को (त्रेधा) तीन प्रकार का (निदधे) धारण करता है। (अस्य) इस प्रकाशवान्, प्रकाशरहित और अदृश्य तीन प्रकार के परमाणु आदि रूप (स्वाहा) अच्छे प्रकार देखने और दिखलाने योग्य जगत् का ग्रहण करता हुआ इस (समूढ़म्) अच्छे प्रकार विचार करके कथन करने योग्य अदृश्य (पदम्) जगत् को (पांसुरे) अन्तरिक्ष में स्थापित करता है, वही सब मनुष्यों को उत्तम रीति से सेवन करने योग्य है।। 15।।’’

भावार्थ-‘‘परमेश्वर ने जिस प्रथम प्रकाश वाले सूर्यादि, दूसरा प्रकाशरहित पृथ्वी आदि और जो तीसरा परमाणु आदि अदृश्य जगत् है। उस सब को करण से रचकर अन्तरिक्ष में स्थापन किया है, उनमें से औषधी आदि पृथ्वी में, प्रकाशादि सूर्य लोक में, और परमाणु आदि आकाश और इस जगत् को प्राणों के शिर में स्थापित किया है। इस लिखे हुए शतपथ के प्रमाण से ‘गय’ शबद से प्राणों का ग्रहण किया है, इसमें ‘महीधर’ जो कहता है कि त्रिविक्रम अर्थात् वामनावतार को धारण करके जगत् को रचा है, यह उसका कहना सर्वथा मिथ्या है ।। 15।।’’

इस अर्थ की पुष्टि करते हुए पं. तुलसीराम जी स्वामी शास्त्री अपने ग्रन्थ में लिखते हैं-‘‘…अन्वित पदार्थः-(विष्णुः) यज्ञः परमेश्वरो वा (इदम्) जगत् (त्रेधा) पृथ्वी अन्तरिक्ष द्यौश्चेति त्रिभिः प्रकारैः (विक्रमे) विक्रमते विक्रान्तवान्वा। तथा (अस्य)जगतः (पा सुले) रजसी प्रतिपरमाणु (समूढ़म्) अन्तर्हितम् (पदम्) स्वरूपं (निदधे) नितरां दध्यात् दधाति वा।’’

अनुष्ठीयमानो यज्ञः। परमेश्वरश्च पृथिव्यामन्तरिक्षे दिवि चेति त्रिषु लोके षु व्याप्नोति। अन्तर्हितमदृश्यं स्वरूपञ्च अस्य जगतः प्रतिपरमाणु निदधाति इति भावः।

यज्ञोवै विष्णुः। अत्र सायणाचार्येण विष्णु शदेन त्रिविक्रमावतार ग्रहणं निर्मूलमेव कृतम्। परमेश्वरस्याऽकायत्वान्निराकारत्वात्क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टत्वात् न च निरुक्तकारेणाऽपितादृशव्यायानस्यकृतत्वात्। यथा-यदिदम्……निरुक्त 12-19

गयशिरसीत्यत्र गय इत्यपत्यनाम। निघं. 2-10

शेष भाग अगले अंक में………….