वैदिक वर्णव्यवस्था का आधार और महर्षि दयानन्द
डॉ. महावीर सिंह आर्य…..
वर्ण व्यवस्था का वास्तविक स्वरूप क्या है?- इसको न समझ पाना भी आज सर्वत्र फैली हुई उच्च और
नीच की भावना को बढ़ावा देता है। कुछ लोग वर्ण व्यवस्था के नाम से ही उत्तेजित हो जाते हैं, क्योंकि
साधारणतया समाज में वर्ण शब्द जातिवाद का द्योतक माना जाने लगा है, परन्तु वास्तविकता ठीक इसके विपरीत ही है। वर्ण शब्द अपने आप में ही अपना अर्थ लिये हुए है और न ही यह वर्णव्यवस्था किसी भी धर्म या मत विशेष के साथ बंधी हुई ही है। इसका निर्देश हिन्दू के लिए ही हो, ईसाई या मुसलमान आदि के लिए नहीं?..
…ऐसी भी कोई बात नहीं है। वर्णः यह शब्द किसी ‘जाति विशेष’ का सूचक न होकर एक वर्ग विशेष का सूचकमात्र है। वह भी मानव को मानव समाज से अलग न करते हुए, उस उसके कार्यों का सूचक मात्र है। निरुक्त- वर्णो वृणोते` कहकर वर्ण का निर्वचन करता है। महर्षि दयानन्द ऋगवेदादि भाष्य भूमिका में इसका अर्थ करते हैं – ‘जो गुण कर्म को देखकर यथा योग्य वरण किये जाते हैं, वे वर्ण कहाते हैं।’स्वामी महेश्वरानन्द गिरी तथा सत्यमित्र दुबे की भी यही मान्यता है।
वर्ण तथा जाति : वर्ण तथा जाति शब्द आजकल प्रायः समान अर्थ के द्योतक प्रतीत होते हैं किन्तु मूल रूप में इन शब्दों में अन्तर है, इस विषय में आज भी मत-वैभिन्य है।
राजा फतह सिंह वर्मा (चन्द्र) पुवादा… नरेश ने वर्ण तथा जाति को एक ही माना है, वे लिखते हैं – देखो,
अल्पाच्चतरम् (अष्टा.२.२.३४) इस सूत्र के वार्तिक में वर्ण शब्द के अर्थ में ब्राहमण क्षत्रियादि जातियों के उदाहरण महाभाष्यकार पतंजलि महर्षि ने दिये हैं और ‘जातिरप्राणिनाम’ (अष्टा.-२.४.६) इत्यादि सूत्र, वार्तिक
और महाभाष्य द्वारा पाणिनि कात्यायन और पतंजलि महर्षियों ने ‘जाति’ शब्द के अर्थ में ब्राहमण, क्षत्रिय,
वैश्य और शूद्र वर्णों को उदाहरण द्वारा बतलाया है। यदि वर्ण और जाति शब्दों से एक ही प्रयोजन न होता तो महर्षि लोग ऐसा क्यों लिखते। कवि रत्नअखिलानन्द शर्मा भी जाति शब्द से वर्णों का ग्रहण करते हैं। इसके विपरीत अन्य विद्वान् वर्ण तथा जाति को पृथक् मानते हैं। तथा वर्ण का सम्बन्ध जीविका के साधन से तथा जाति का सम्बन्ध जन्म से मानते हैं। यथा- डॉ. मंगलदेव शास्त्री इस विषय में कहते हैं कि – यह ध्यान देने की बात है कि जहाँ वर्ण शब्द का सम्बन्ध इस प्रसंग में स्पष्टतया पेशा या व्यवसाय से है। तुलना करें – ‘वर्णो वृणोतेः’ (निरुक्त-२.३) यहाँ जाति शब्द का सम्बन्ध स्पष्टतया जन्म से है (… जननेन या जायते सा
जाति-महाभाष्य-५.३.५५) दोनों शब्दों की मौलिक दृष्टियाँ भिन्न हैं।…तपःश्रुताभ्यां यो हीनो जातिब्राहमण एव सः (महाभाष्य-५.४.५५)
डॉ. पी.वी. काणे का कथन है कि ‘वर्ण की धारणा वंश, संस्कृति, चरित्र (स्वभाव) एवं व्यवसाय पर मूलतः
आधारित है। हममें युक्ति की नैतिक एवं बौद्धिक योग्यता का समावेश होता है और यह स्वभाविक वर्गों की व्यवस्था का द्योतक है। स्मृतियों में भी वर्णों का आदर्श है – कर्त्तव्यों पर, समाज या वर्ग के उच्च मापदण्ड
पर बल देना, न कि जन्म से प्राप्त अधिकारों एवं विशेषाधिकारों पर बल देना। किन्तु इसके विपरीत जाति
व्यवस्था जन्म एवं आनुवांशिकता पर बल देती है और बिना कर्त्तव्यों के आचरण पर बल दिये, केवल
विशेषाधिकारों पर ही आधारित हैं। वैदिक साहित्य में जाति के आधुनिक अर्थ का प्रयोग नहीं हुआ है।
वैदिक संहिताओं में जाति शब्द का प्रयोग नहीं मिलता किन्तु ‘सजात्य’ शब्द उपलब्ध होता है। जिसका
ब्राहमणत्वादि अर्थ संदिग्ध है। परवर्ती साहित्य में कहीं-कहींवर्ण के अर्थ में जाति शब्द का प्रयोग मिलता है। जो कदाचित व्यवसाय के आधार पर जन्म से ही जाति मानने के उपरान्त प्रचलित हुआ हो। महर्षि दयानन्द जहाँ वर्णों को चुनाव के आधार पर मानते हैं, वहाँ जाति को जन्म से मरणपर्यन्त रहने वाली मनुष्यत्व की भाँति मानते हैं।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह स्पष्ट है कि कुछ विद्वान् वर्ण तथा जाति को अभिन्न मानते हैं तथा
कुछ इन्हें पृथक्-पृथक् स्वीकार करते हैं। अतः वर्ण तथा जाति शब्द यद्यपि समानार्थक प्रतीत होते हैं किन्तु मूलरूप में इन दोनों शब्दों में अन्तर है। ‘जाति’ शब्द जहाँ ‘जनि प्रादुर्भावे’ धातु से निष्पन्न होने से जन्म अथवा योनि विशेष से सम्बन्ध रखता है वहाँ ‘वर्ण’ पद ‘वृञ वरणे’ धातु से निष्पन्न होने से चुनाव अर्थ को प्रकट करता है। जाति के निर्माण में वह परतन्त्र होता है तथा वर्ण के चुनाव में वह स्वतन्त्र है? यह भी स्मर्तव्यहै कि जाति मनुष्य से अतिरिक्त पशु-पक्षी आदि में भी होती है किन्तु वर्ण केवल मानव जाति में ही सम्भव है। अतः वर्ण तथा जाति शब्द मूलतः पृथक् हैं तथा इनको प्राचीन साहित्य में पृथक् ही माना है किन्तु वर्तमान समय में वर्ण शब्द प्रायःचर्चा का विषय रह गया है और उसका स्थान पूर्णतया जाति ने ले लिया है। जनगणना के समय भी वर्ण का उल्लेख न करके जाति का ही उल्लेख उपलब्ध होता है।
महर्षि दयानन्द और वर्णव्यवस्था का अधार : महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में जन्म से वर्णव्यवस्था को न
मानकर गुण-कर्म से ही वर्णव्यवस्था को स्वकीर किया है। उदाहरणार्थ-
१. वर्णाश्रम गुण कर्मों की योग्यता से मानता हूँ।
२. ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार भेद गुणकर्मों से किये गये हैं (वृणो.)। इन नाम वर्ण इसलिए है कि
जिसके गुणकर्म हो, वैसा ही उनको अधिकार देना चाहिए।
३. (प्रश्न) विवाह अपने-अपने वर्ण में होना चाहिए या अन्य वर्ण में भी?
(उत्तर) अपने-अपने वर्ण में होना चाहिए परन्तु वर्ण व्यवस्था गुणकर्मों के आधार पर होनी चाहिए जन्ममात्र
से नहीं। जो पूर्ण विद्वान्, धर्मात्मा, परोपकारी, जितेन्द्रिय, मिथ्याभाषणादि दोषरहित, विद्या और धर्मप्रचार में तत्पर रहे इत्यादि गुण जिसमें हैं। वह ब्राहमण, विद्या, बल, शौर्य, न्यायकारित्वादि गुण जिसमें हो वह क्षत्रिय, क्षत्रिय और विद्वान् हो के कृषि व्यापार पशुपालन, देश भाषाओं में चतुरादि गुण जिसमें हो वह वैश्य, वैश्य और जो विद्याहीन मूर्ख हो, वह शूद्र कहावें।
४. वर्ण-जो गुणकर्मों के योग से ग्रहण किया जाता है, वह वर्ण शब्दार्थ से लिया जाता है।