वैदिक वर्णव्यवस्था
श्रीमती वर्षा भाटी…..
भारतीय संस्कृति का मूलस्रोत वैदिक परम्परा है। इस प्रसंग में ऐसा भी कह सकते हैं कि भारतीय संस्कृति और वैदिक परम्परा पर्यायरूप में प्रयुक्त होते हैं। इस परम्परा में मानव जीवन एक अमूल्य निधि है। इस अमूल्य निधि को व्यर्थ न खोकर सौ वर्ष तक जीने की अद्वितीय व्यवस्था ही वर्णव्यवस्था है। वर्णव्यवस्था व्यक्ति को एक प्रतिस्पर्धी रूप में उन्नति करने का अवसर प्रदान करती है। अनेक समाजशास्त्री एवं विचारक कई बार ऐसा कहते हैं कि वर्णव्यवस्था एक अत्यन्त जटिल परम्परा है। इस परम्परा में व्यक्तित्व विकास असम्भव है। परन्तु उनका यह कथन अत्यन्त अस्वीकार्य है। क्योंकि यदि हम वर्णव्यवस्था का विश्लेषण
करते है तो पता चलता है कि यह तो रास्त्रोथान, समाजोत्थान एवं आत्मोत्थान की बहुत सुन्दर व्यवस्था है। क्योंकि वर्तमान में हम देखते हैं कि जो व्यक्ति जिस कुल में पैदा हो जाता है वह सदा उसी कुल का माना जाता है। जैसे कुछ सामाजिक उदाहरणों से समझने का प्रयास करते हैं। यदि कोई चतुर्वेदी है तो उसका बेटा भी चतुर्वेदी ही कहा जाता है, क्योंकि वह उसकुल में पैदा हुआ है। इसी प्रकार कोई यदि शूद्रकूल में पैदा हुआ है तो वह भी शूद्र ही माना जाता है चाहे वह कितनी भी उन्नति क्यों न कर ले। जबकि वर्णव्यवस्था में इसके विपरीत व्यवस्था है। यहाँ जन्म से वर्ण प्राप्त नहीं होता है अपितु कर्म से प्राप्त होता है। शूद्र भी यदि प्रयत्न कर अध्ययन- अध्यापन कराता है तो वह समाज में उच्चवर्ण प्राप्त कर सकता है। इसके विपरीत यदि ब्राहमण भी शूद्र के कार्य करता है तो वह शूद्रवर्ण को प्राप्त हो जाता है। यहाँ वर्ण उसके कर्म व प्रयास से प्राप्त होता है। जिसके कारण अपने उच्च वर्ण को बचाने के लिए तथा निम्न वर्ण से उच्च वर्ण को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति निरन्तर परिश्रम करता था। जिसके कारण परस्पर निरन्तर प्रतिस्पर्धा होती थी और समाज का सर्वागीण विकास होता था। आज जन्म के आधार पर वर्णव्यवस्था होने के कारण किसी को कोई भी कम नहीं रहता है। यहाँ सब जन्म से सब अपने उच्च या निम्न समझते हैं। वेद कर्म आधारित व्यवस्था
को स्वीकार करते हैं न कि जन्म आधारित व्यवस्था को स्वीकार करते हैं। उपर्युक्त विचारों से वर्णव्यवस्था को
संक्षिप्त रूप समझने में निश्चित ही सरलता होगी। अब वर्ण शब्द का क्या अर्थ है? इसको समझने का प्रयास
करते हैं।
वर्ण–
यास्क ने निरुक्त में कहा है कि ‘‘वर्णो वृणोतेः’’ (निरु. अ. २ पाद ३)अर्थात् वर्ण उसे कहते हैं जो वरण अर्थात् चुना जाये वर्ण शब्द के अर्थ से ही स्पष्ट है कि यहाँ व्यक्ति को स्वतन्त्रता थी कि वह किस वर्ण को चुनना चाहता है। वैदिक वर्णव्यवस्था जबरदस्ती थोपी गयी व्यवस्था नहीं अपितु एक वैज्ञानिक पद्धति है जीवन को
जीने की। आज देश भर में हजारों शैक्षिक सलाहाकार अथवा मनोवैज्ञानिक इस बात को कहते हैं कि बच्चे को
स्वतन्त्र रूप से अपना भविष्य चुनना चाहिए कि उसे क्या बनना है। माता पिता या अन्य किसी के दबाव में आकर उसे किसी भी क्षेत्र में आने का प्रयास नहीं करना चाहिए। क्योंकि बच्चा जब अपने मनपसन्द क्षेत्र को चुनकर आगे बढ़ता है तो उसका विकास अधिक होता है। जैसे अगर बच्चा अध्यापक बनना चाहता है और माता पिता आई. ए. एस. बनना चहाते हैं तो निश्चित है कि ऐसी परिस्थिति में बच्चे को आई. ए. एस. बनना बहुत कठिन होगा और यदि माता-पिता भी उसे अध्यापक बनने के लिए प्रेरित करे तो निश्चित ही वह अत्यन्त प्रसन्नता से से ओर अधिक परिश्रम कर लक्ष्य को प्राप्त करेगा। वर्तमान में वर्णव्यवस्था इसी प्रकार जन्म से थोपी जा रही है न कि स्वतन्त्रता से चुनने का अवसर दिया जा रहा है वर्ण शब्द का अर्थ ही इस बात को पुष्ट करता है कि व्यक्ति किस वर्ण में जाना चाहता है उसे यह पूर्ण स्वतन्त्रता है। आज समाज का आधा विकास इसी कारण से नहीं हो रहा हैं क्योंकि यहाँ स्वतन्त्रता से भविष्य का चयन नहीं अपितु किसी दुसरे को सन्तुष्ट करने के लिए उसी वर्ण का चयन करना पड़ता है।
वैदिककाल में यह वर्णव्यवस्था जन्म आधारित नहीं थी। स्वयं मनु महाराज ने प्रतिपादित किया है कि यह वर्णव्यवस्था जन्म से नहीं अपितु कर्म से प्राप्त होती थी। यदि कोई अपने अपने वर्ण के कर्तव्यों का यथावत्
पालन न करें तो वह अपने वर्ण से पतित भी हो सकता है। यथा-
शूद्रो ब्राहमणतामेति ब्राहमणश्चैति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च।। (मनु0 १०/६५)
अर्थात् श्रेष्ठ – अश्रेष्ठ कर्मों के अनुसार शूद्र ब्राहमण और ब्राहमण शूद्र हो जाता है।अर्थात् गुणकर्मों के अनुकूल
कोई ब्राहमण हो तो ब्राहमण रहता है। तथा जो ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के गुणवाला हो तो वह क्षत्रिय,
वैश्य और शूद्र हो जाता है। इसी प्रकार शूद्र के घर उत्पन्न भी मूर्ख हो तो वह शूद्र रहता है और जो उत्तम गुणयुक्त हो तो यथा योग्य ब्राहमण क्षत्रिय और वैश्य हो जाता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य का भी वर्ण
परिवर्तन सम्भव है। एक स्थल पर मनु इस विषय में और कहते हैं कि
योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।
स जीवन्नेव शूत्वमाशु गच्छति सान्वयः।।
अर्थात् जो ब्राहमण, क्षत्रिय या वैश्य वेदादिशास्त्रों का पठन-पाठन छोड़ अन्यत्र परिश्रम करता है वह जीवित ही
सपिरवार शूद्रता को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार अनेक स्थलों पर मनुस्मृति में यह कहा गया है कि उच्चवर्ण यदि अपने कर्मों का यथावत् पालन नहीं करते है तो वह शूद्रत्व को प्राप्त हो जाते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि वर्ण किसी भी व्यक्ति का निश्चित नहीं है। वर्तमान में जो वर्ण निश्चितता का प्रचलन है। यह वेद विरुद्ध एवं समाज को अधोगति में ले जाने वाला है।
ब्रा२णकेकर्तव्य–
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राहमणानामकल्पयत्।।
उक्त श्लोक का स्वामी दयानन्द जी संस्कार विधि में अर्थ करते हैं कि पुरुष पुरुषों को और स्त्री स्त्रियों को पढ़ावे (दो) पूर्ण विद्या पढ़ें, (तीन)अग्निहोत्रादि यज्ञ करें, (चार)यज्ञ करावें, (पाँच) विद्या अथवा सुवर्ण आदि का सुपात्रों को दान लेवें भी। वर्तमान में यह सब तो छूट गया है। अब तो केवल नाम के ब्राहमण है।
क्षत्रिय के कर्तव्य–
प्रजानां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च।
विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः।।
(१/८९)
स्वामी दयाननद जी उक्त श्लोक का अर्थ सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं कि दीर्घ ब्रहमचर्य से, सांगोपांग
वेदादिशास्त्रों को यथावत् पढ़ना, अग्निहोत्र आदि प्रजा को अभयदान देना, प्रजाओं को सब प्रकार से सर्वदा
यथावत् पालन करना विषयों में अनासक्त होके सदा जितेन्द्रिय रहना, लोभ, व्यभिचार, मद्यपानादि नशा आदि दुर्व्यसनों से पृथक् रहकर विनय सुशीलता आदि शुभ कर्मों में सदा प्रवृत्त रहना। ये सब क्षत्रिय के कर्तव्य हैं।
वैश्य के लक्षण–
पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।
वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च।।
(1/10)
उक्त श्लोक का अर्थ सत्यार्थप्रकाश में स्वामी दयाननद जी लिखते हैं कि गाय आदि पशुओं का पालन वर्धन करना, विद्या धर्म की वृद्धि करने कराने के लिए धनादि का व्यय करना, अग्निहोत्रादि यज्ञों का करना, वेदादि शास्त्रों का पढ़ना, सब प्रकार के व्यापार करना, ब्याज का कार्य करना, खेती करना ये सब वैश्य के कर्म हैं।
शूद्र का कर्तव्य–
एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादितशत्
एतेषामेव वर्णानां शुश्रषामनसूयया।। (१/९१)
उपर्युक्त श्लोक का अर्थ स्वामी जी संस्कार विधि में लिखते है कि परमेश्वर ने जो विद्या विहीन जिसको
पढ़ने से विद्या न आ सके, शरीर से पुष्ट, सेवा में कुशल हो, उस शूद्र के लिए इन ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों की निन्दा से रहित प्रीति से सेवा करना, यही एक कर्म करने की आज्ञा दी है।
सार रूप में वर्णव्यवस्था के विषय में यही कहा जा सकता है कि समाज को उन्नत एवं विकासशील, बनाने की यह व्यवस्था वर्तमान में समाज को अधोगति में धकेल रही है। वर्तमान में आवश्यकता है कि यदि हम
समाज का सुव्यवस्थित विकास चाहते है तो हमें निश्चित ही इस वैदिक परम्परा का अनुसरण करना पडेगा। जो लोग वर्णव्यवस्था पर आरोप लगाते है कि यह व्यक्ति को कूपमण्डूक बनाती है। यह सर्वथा गलत है। वे लोग वर्णव्यवस्था को जानते ही नहीं है। वर्ण व्यवस्था के विषय में जो भ्रमक प्रचार हो रहा है उसका एक कारण यह भी है कि लोग वेदादिशास्त्रों के स्वाध्याय से दूर हो गये है। जिसके कारण सत्य सिद्धान्त का उन्हें ज्ञान नहीं होता है। हमें वर्णव्यवस्था की वैज्ञनिकता को समझना होगा और उसकी उपादेयता के आधार पर इसको अपनाना पड़ेगा। अन्यथा समाज की अधोगति को कोई नहीं रोक सकता है।
– हरिद्वार (उ.ख.)