ओ३म्
उपासना का उल्लेख आने पर पहले उपासना को जानना आवश्यक है। उपासना का शब्दार्थ है समीप बैठना। हिन्दी में हम अपने परिवार, मित्रों व विद्वानों आदि के पास बैठते हैं परन्तु इसे कोई उपासना करना नहीं कहता, यद्यपि यह उपासना ही है। उपासना शब्द सम्प्रति रूढ़ हो गया है और इसका अर्थ जन साधारण द्वारा ईश्वर की पूजा वा उपासना के अर्थ में लिया जाता है। ईश्वर की पूजा व उपासना भी वस्तुतः उपसना है परन्तु अपने परिवार, मित्रों व विद्वानों आदि के समीप उपस्थित होना व उनसे संगति करना भी उपासना ही है। अब यदि सब प्रकार की उपासनाओं पर विचार कर यह जानें कि सर्वश्रेष्ठ उपासना कौन सी होती है तो इसका उत्तर इस सृष्टि को बनाने व चलाने वाले सर्वगुण, ऐश्वर्य व शक्ति सम्पन्न ईश्वर की उपासना करना ही ज्ञात होता है। यदि मनुष्य ईश्वर की यथार्थ उपासना करना सीख जाये व करने लगे तो मनुष्य का अज्ञान, दुर्बलता व दरिद्रता दूर होकर वह भी ईश्वर की ही तरह गुणवान, बलवान व ऐश्वर्य से सम्पन्न हो सकता है। यह भी जान लें कि उपासना एक साधना है जिसके लिए तप वा पुरुषार्थ करना होता है जिसका विस्तृत निर्देश योगदर्शन व महर्षि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों में मिलता है।
पहला प्रश्न है कि उपासना क्या है, दूसरा श्रेष्ठ उपासना किसकी की जानी चाहिये और तीसरा प्रश्न होता है कि उस श्रेष्ठ उपासना की विधि क्या है? पहले प्रश्न का उत्तर जानने के लिए, यह जानकर कि उपासना समीप बैठने व उपस्थित होने को कहते हैं, हमें यह जानना है कि पास बैठने का तात्पर्य क्या है? हम किसी के पास जाते हैं तो हमारा इसका अवश्य कोई प्रयोजन होता है। उस प्रयोजन की पूर्ति ही उपासना के द्वारा अभिप्रेत होती है। हम अपने परिवार के सदस्यों के पास बैठते हैं तो वहां भी प्रयोजन है और वह है संगतिकरण का। संगतिकरण में हम एक दूसरे के बारे में वा उनके सुख-दुःख वा उनकी शैक्षिक, सामाजिक स्थिति आदि की जानकारी प्राप्त करते हैं और वह भी हमारी जानकारी प्राप्त करने के साथ अपने बड़ों से उपदेश व अपनी समस्याओं का समाधान प्राप्त करते हैं। पुत्र ने पुस्तक खरीदनी है, वह अपनी माता व पिता के पास जाता है और उनसे पुस्तक खरीदने की बात बताकर धन प्राप्त करता है। यह एक सीमित उद्देश्य से की गई उपासना, प्रार्थना व उसकी सफलता का उदाहरण है। इसी प्रकार विद्यार्थी अपने विद्यालय में अपनी कक्षा में अपने गुरुओं व अन्य विद्यार्थियों की उपासना व संगति कर इच्छित विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है। वेद, ऋषियों व विद्वानों के ग्रन्थों के अध्ययन से हमने जाना कि ईश्वर ज्ञानस्वरुप, प्रकाशस्वरुप, आनन्दस्वरुप, सर्व-ऐश्वर्य-सम्पन्न, सर्वशक्तिमान तथा आदि-व्याधियों से रहित है। हमें भी अपना सम्पूर्ण अज्ञान, दरिद्रता, निर्बलता, रोग, आदि-व्याधियों, भीरुता व दुःखों का निवारण करना है और इसको करके हमें ज्ञान, ऐश्वर्य, आरोग्य वा स्वास्थ्य तथा वीरता, दया, करुणा, प्रेम, सत्य, अंहिसा, स्वाभिमान, निर्बलों की रक्षा आदि गुणों को धारण करना है। इन सब अवगुणों को हटाकर गुणों को धारण करानेवाला सर्वाधिक सरलतम व मुख्य आधार सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, निराकार, सर्वऐश्वर्यसम्पन्न व स्वयंभू गुणों से युक्त परमेश्वर है। अतः इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए हमें ईश्वर के पास जाकर अर्थात् उसकी उपासना को प्राप्त होकर इन गुणों वा शक्तियों के लिए उसकी स्तुति व प्रार्थना करनी है। इस प्रक्रिया को सम्पन्न करने का नाम ही ईश्वर की उपासना है और यही संसार व विश्व में सर्वश्रेष्ठ उपासना है। ईश्वर की उपासना से पूर्व एक महत्वपूर्ण कार्य यह करना आवश्यक है कि हमें ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति के यथार्थ स्वरुप का ज्ञान प्राप्त करना है। यह ज्ञान वेदाध्ययन, ऋषि-मुनियों के ग्रन्थों 4 ब्राह्मण-ग्रन्थ, 6 दर्शन, 11 उपनिषद्, मनुस्मृति, चरक व सुश्रुत आदि आयुर्वेद के प्राचीन ग्रन्थ, वाल्मीकि रामायण व व्यासकृत महाभारत सहित महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, संस्कारविधि, व्यवहारभानु आदि ग्रन्थों का अध्ययन करने से प्राप्त होता है। इन ग्रन्थों के अध्ययन के बाद ईश्वर की उपासना करना सरल हो जाता है और इच्छित परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। माता-पिता, अन्य विद्वानों व महिमाशाली व्यक्तियों की उपासना करना सरल है जिसे हम अपने माता-पिता व बड़ों से जान सकते हैं व सभी जानते ही हैं।
मनुष्य को सभी उपासनाओं में श्रेष्ठ ईश्वर की उपासना करनी है जिससे वह मनुष्य जीवन के लक्ष्य को जानकर व उसके अनुरुप साधन व उपाय कर ईश्वर को प्राप्त होकर ज्ञान, बल व ऐश्वर्य आदि धनों को प्राप्त कर अपने जीवन के उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कर सके। ईश्वर की उपासना के लिए ईश्वर के सत्य व यथार्थ स्वरुप का ज्ञान होना अनिवार्य है अन्यथा हम मत-मतान्तरों व कृत्रिम अज्ञानी गुरुओं के चक्र में फंस कर अपने इस दुर्लभ मानव जीवन को नष्ट कर सकते हैं व अधिकांश कर रहे हैं। अतः हमें मत-मतान्तरों में न फंस कर उनसे दूरी बनाकर ईश्वर प्रदत्त वेद और उस पर आधारित सत्य वैदिक साहित्य को पढ़कर ही जानने योग्य सभी प्रश्नों के उत्तर जानने चाहिये और उनको स्वयं ही तर्क व वितर्क की कसौटी पर कस कर जो अकाट्य मान्यता, युक्ति व सिद्धान्त हों, उसी को स्वीकार कर उसका आचरण, उपदेश व लेखन आदि के द्वारा प्रचार करना चाहिये।
हमें यह तो ज्ञात हो गया कि हमें मनुष्य जीवन के श्रेष्ठ धन वा रत्न ज्ञान व कर्मों की प्राप्ति के लिए ईश्वर की उपासना करनी है, परन्तु ईश्वर उपासना की सत्य व प्रभावकारी तथा लक्ष्य को प्राप्त कराने वाली विधि क्या है, इस पर भी विचार करना है। यद्यपि यह विधि हमारे पास उपलब्ध है फिर भी हम उस तक पहुंचने के लिए भूमिका रुप में कुछ विचार करना चाहते हैं। ईश्वर की उपासना करने के लिए हमें ईश्वर के पास बैठना है। ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होने से सदा-सर्वदा सबको प्राप्त है और इस कारण से हर क्षण ईश्वर व सभी जीवात्माओं की ईश्वर के साथ उपासना सम्पन्न हो रही है। यह उपासना तो है परन्तु यह ज्ञान व विवेक रहित उपासना है अतः इसका परिणाम कुछ नहीं निकलता। हमारे शरीर ने ईश्वर ने हमें बुद्धि व मन दिया है। मन एक समय में एक ही विषय का चिन्तन कर सकता है, दो व अधिक का नहीं। हम प्रायः दिन के 24 घंटे ससार वा सांसारिक कार्यों से जुड़े रहते है, अतः संसार, समाज व परिवार की उपासना ही कर रहे होते हैं। ईश्वर की उपासना के लिए हमें इन उपासनाओं से स्वयं को पृथक कर अपने मन को सभी विषयों से हटा कर केवल और केवल ईश्वर पर ही केन्द्रित करना होता है। मन चंचल है अतः मन को साधने अर्थात् उसे ईश्वर के गुणों व कर्मों में लगाने अर्थात् उनका ध्यान करने के लिए निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है। नियत समय पर प्रातः सायं अभ्यास करने से मन धीरे-धीरे ईश्वर के गुणों व स्वरुप में स्थिर होने लगता है। इसके लिए शरीर का स्वस्थ होना और मनुष्य का अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, वेद व सत्य वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय तथा ईश्वर-प्रणिधान से युक्त जीवन व्यतीत करना भी आवश्यक है। इसकी अनुपस्थिति में हमारा मन ईश्वर में निरन्तर स्थिर नहीं होता व रहता। अतः योगदर्शन का अध्ययन कर इस विषय में विस्तृत ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुरुप जीवन व्यतीत करना चाहिये। ऐसा करने पर जब हम ईश्वर की उपासना के लिए आसन में स्थित होकर ईश्वर के गुणों व कर्मों के ध्यान द्वारा उपसना करेंगे और ऐसा करते हुए उससे जीवन को श्रेष्ठ मार्ग में चलाने और गलत मार्ग से हटाने की प्रार्थना सहित सभी दुर्गुण, दुव्यस्न और दुःखों को दूर करने और जो कुछ भी हमारे लिए श्रेष्ठ और श्रेयस्कर गुण-कर्म और स्वभाव हैं, उनको प्रदान करने की प्रार्थना करेंगे तो हमारी प्रार्थना व उपासना निश्चय ही सफल होगी। ईश्वर की इसी स्तुति-प्रार्थना-उपासना को यथार्थ रुप में सम्पादित करने के लिए महर्षि दयानन्द ने ‘‘सन्ध्योपासना विधि” लघु ग्रन्थ की रचना की है जो आकार में लघु होने पर भी मनुष्य के जीवन के लक्ष्य को पूरा करने में कृतकार्य है। इसका अध्ययन कर व इसके अनुसार ही सन्ध्योपासना अर्थात् ईश्वर का भली-भांति ध्यान व उपासना सभी मनुष्यों को करनी चाहिये और अपने जीवन को सफल करना चाहिये। यह सन्ध्याविधि वेद व ऋषि-मुनियों के प्राचीन ग्रन्थों पर आधारित है। महर्षि दयानन्द जी के बाद इस संध्योपासनाविधि में विद्वानों द्वारा कहीं कोई न्यूनता व त्रुटि नहीं पाई गई और न भविष्य में इसकी सम्भावना ही है। अनेक पौराणिक विद्वानों ने भी इस विधि को अपनाया है। अतः स्तुति, प्रार्थना व उपासना के ज्ञान व विज्ञान को जानकर सभी मनुष्यों को एक समान विधि, वैदिक विधि से ही ईश्वर की उपासना करने में प्रवृत्त होना चाहिये जिससे लक्ष्य व आशानुरुप परिणाम प्राप्त हो सके। अशिक्षित, अज्ञानी व साधारण बुद्धि के लोग, जो उपासना को ज्ञान, चिन्तन–मनन–ध्यान पूर्वक सश्रम नहीं कर सकते, वह गायत्री मन्त्र के अर्थ की धारणा सहित एक मिनट में 15 बार मन में बोल कर उपासना कर किंचित लाभान्वित हो सकते हैं। यह कार्य दिन में अनेक अवसरों पर सम्पन्न किया जा सकता है। यह भी सरलतम व अल्पकालिक उत्तम उपासना ही है जो भविष्य में दीर्घावधि की उपासना की नींव का काम कर सकती है। मनुष्य जीवन में ईश्वर को प्राप्त करने का उपासना ही एक वैदिक व सत्य मार्ग हैं जिससे सभी को लाभ उठाना चाहिये। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य
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