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सृष्टि का रचयिता ईश्वर ही है’

ओ३म्

सृष्टि का रचयिता ईश्वर ही है

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

हम मनुष्य हैं और पृथिवी पर जन्में हैं। पृथिवी माता के समान अन्न, फल, गोदुग्ध आदि पदार्थों से हमारा पोषण व रक्षण करती है। हमारे शरीर में दो आंखे बनाई गईं हैं जिनसे हम संसार की वस्तुओं को देखते  वा उन्हें अनुभव करते हैं। हम पृथिवी व उसकी सतह के ऊपर स्थित वायु, जल, भूमि, आकाश, अग्नि आदि पदार्थों को भी देखते वा उनका अनुभव तो करते ही हैं, अपनी इन दो छोटी सी आंखों से लाखों किमी. दूरी पर स्थिति चन्द्र, सूर्य एवं अन्य लोक लोकान्तरों की उपस्थिति को भी देखते व अनुभव करते हैं तथा उपलब्ध साहित्य को पढ़कर उनकी उपस्थिति-स्थिति व अस्तित्व का अनुमान भी लगाते हैं। यह समस्त रचना सृष्टि या ब्रह्माण्ड कहलाती है। प्रश्न उत्पन्न होता है कि इसका बनाने वाला कौन है? इस प्रश्न में यह प्रश्न भी सम्मिलित है कि क्या यह सृष्टि सदा से ही बनी हुई है या फिर अपने आप बनी है? यदि इन तीनों प्रश्नों पर विचार किया जाये तो हमें लगता है कि सृष्टि की रचना का रहस्य ज्ञात हो सकता है। उपलब्ध ज्ञान व विज्ञान भी इन प्रश्नों पर विचार करने और प्रश्न का सही उत्तर खोजने में सहायक हो सकता है।

 

प्रथम तो यह विचार करना उचित है कि क्या यह सृष्टि सदा से बनी चली आ रही है? इसका अर्थ यह है कि इसका कभी निर्माण नहीं हुआ है। यह दर्शन का तर्क संगत सिद्धान्त है कि जो चीज बनती है उसका आदि अवश्य होता है और सभी वस्तुयें वा पदार्थ जो आदि उत्पत्तिधर्मा होते हैं उनका अन्त विनाश भी अवश्य होता है। विचार करने पर ज्ञात होता है कि यह सृष्टि सदा अथवा अनन्तकाल से बनी हुई नहीं है। इसका कारण हमें यह लगता है कि जब हम किसी ठोस व द्रव पदार्थ के टुकड़े करते हैं तो वह छोटा होता जाता है। एक स्थिति ऐसी आती है कि वह छोटे-छोटे कणों के रूप में विभाजित हो जाता है। विज्ञान ने इसका अध्ययन किया तो पाया कि सभी पदार्थ अणुसमूहों का संग्रह हंै। यह अणु परमाणुओं से मिलकर बने हैं। परमाणु की संरचना को भी विज्ञान ने जाना है। किसी भी तत्व के परमाणु ऊर्जा कणों, धन आवेश, ऋण आवेश व आवेश रहित कणों से मिलकर बनते हैं जिन्हें प्रोटोन, इलेक्ट्रोन व न्यूट्रोन कहा जाता है। प्रत्येक परमाणु की एक नाभि व केन्द्र होता है जिसमें प्रोटोन व न्यूट्रोन, विभिन्न तत्वों में, अलग-अलग संख्या में होते हैं। इलेक्ट्रोन इस नाभि के चारों ओर घूमते रहते हैं जैसा कि पृथिवी सूर्य की और चन्द्रमा पृथिवी की परिक्रमा कर रहा है। यह एक परमाणु की रचना विषयक सत्य ज्ञान है। विज्ञान के संयोजकता के सिद्धान्त से इन परमाणुओं के परस्पर मिलने वा रासायनिक क्रियाओं के होने से अणु बनते हैं। इन विभिन्न प्रकार के तत्वों के परमाणुओं व अणुओं का समूह ही तत्व, वस्तु वा पदार्थ होता है। यह पदार्थ तीन अवस्थाओं में हो सकते हैं ठोस, द्रव व गैस। अग्नि, जल, वायु व पृथिवी आदि पदार्थ इसी प्रकार से अणुओं का समूह हैं। परमाणु से अणु और अणु के विभाजित होने से परमाणु बनते हैं। अतः किसी भी पदार्थ का अणु अनादि काल व सदा से रहने वाला पदार्थ नहीं है, यह परमाणुओं के संयोग से बना है। परमाणु भी विभाज्य है। अणु बम, परमाणु व हाइड्रोजन बम आदि सब एक प्रकार से परमाणु में विघटन व परमाणु के नष्ट होने से ही होते हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि परमाणु भी सदा से निर्मित न होकर सुदीर्घकाल पूर्व बनाया गया पदार्थ है। इससे यह सिद्ध होता है कि परमाणु की उत्पत्ति का मूल कारण ऊर्जा है जो परमाणु के विघटन वा नष्ट होने से उत्पन्न होती है। दर्शनों में सम्भवतः इसी को सत्व, रज तम गुणों वाली मूल प्रकृति कहा गया है जो नित्य, अनादि अविनाशी है। अतः सिद्ध है कि यह सृष्टि वा ब्रह्माण्ड सदा से बना हुआ नहीं है।

 

अब इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि क्या यह सृष्टि अपने आप बिना किसी चेतन सत्ता की सहायता के बन सकती है। प्रश्न उपस्थित है कि मूल प्रकृति जो सत्व, रज व तम गुणों की साम्यावस्था है, उससे परमाणु व अणु जो वर्तमान संसार में हैं, उनकी रचना वा बनना सम्भव नहीं है। भिन्न भिन्न तत्वों के परमाणु अपने आप बन ही नहीं सकते और यदि इस असम्भव कार्य का होना मान भी लिया जाये तो उनका वर्तमान सृष्टि में जो अनुपात है अर्थात् हाईड्रोजन, आक्सीजन, नाईट्रोजन आदि 100 से अधिक तत्व हैं, तो वह एक निश्चित अनुपात में तो कदापि नहीं बन सकते। अब फिर मान लीजिए कि यह असम्भव कार्य भी हो गया तो इसके बाद समस्या इन पदार्थों से सूर्य, चन्द्र व पृथिवी आदि अनेक लोक लोकान्तर बनाने व उन्हें अपनी अपनी कक्षाओं में स्थापित करने की है। यह सभी परमाणु वा अणु अपने आप एक निश्चित अनुपात वा परिमाण में बन कर व घनीभूत होकर स्वतः अपनी-अपनी कक्षाओं में कदापि स्थापित नहीं हो सकते। यह सर्वथा असम्भव है। हमारे ब्रह्माण्ड में सूर्य, चन्द्र व पृथिवी तथा अन्य सोम, मंगल, बुद्ध, बृहस्पति, शुक्र व शनि आदि ग्रह व इन सबके उपग्रह आदि ही नहीं हैं अपितु ऐसे असंख्य वा अनन्त लोक लोकान्तर हैं। अतः यह सिद्ध है कि यह सब अपने आप बनकर अपनी अपनी कक्षाओं में स्थापित नहीं हो सकते। यह होना असम्भव है और ऐसा मानने वाले ज्ञानी नहीं अपितु अज्ञानी कहलायेंगे। वैज्ञानिक वही कहला सकता है जो कभी इस असम्भव तथ्य को स्वीकार न करे, यदि करता है तो वह पूर्ण वैज्ञानिक नहीं। खेद व दुःख की बात है कि वैज्ञानिकों ने अपनी एक पूर्व धारणा बना रखी है कि ईश्वर के समान कोई निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सच्चिदानन्द गुणों वाली सत्ता सृष्टि में हो ही नहीं सकती। यह हमारे वैज्ञानिकों का मिथ्या विश्वास ही कह सकते हैं। रचना को देखकर रचयिता का ध्यान, ज्ञान व प्रत्यक्ष होता है। जिस प्रकार पुत्र व सन्तान को देखकर उसके माता-पिता के होने ज्ञान, कहीं चोरी हो जाने पर उस चोरी को अंजाम देने वाले चोर का निश्चयात्मक ज्ञान होता है अथवा नदी में अचानक जलस्तर वृद्धि हो जाने पर कहीं दूर तेज व भारी वर्षा होने का ज्ञान होता है, इसी प्रकार से सृष्टि आदि रचना विशेष कार्य को देखकर सृष्टिकर्ता ईश्वर का ज्ञान व प्रत्यक्ष होता है। वैदिक धर्मी भाग्यशाली हैं कि उन्हें ईश्वर के सत्यस्वरूप का सृष्टि के आरम्भ काल 1.96 अरब वर्षों से ज्ञान है जो उन्हें ईश्वरीय ज्ञान वेदों से हुआ था। हम संक्षेप में यह भी कहना चाहते हैं कि जिस प्रकार रसोई घर में सब प्रकार का खाद्य सामान होने पर भी घर के सदस्यों की आवश्यकता के अनुरूप भोजन स्वतः तैयार नहीं हो सकता, इसी प्रकार से कारण प्रकृति के होने पर भी ईश्वर के बनाये बिना, इस सृष्टि का निर्माण अपने आप कदापि नहीं हो सकता।

 

अब यह स्पष्ट हो जाने पर कि सृष्टि सदा से विद्यमान नहीं है और यह अपने आप निर्मित नहीं हो सकती है, अन्तिम सम्भावना एकमात्र यही है कि इसको किसी सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान चेतन सत्ता ने बनाया है। वह सत्ता कौन, कैसी व कहां है? इसका उत्तर है कि वह सत्ता ईश्वर है और उसके द्वारा इस सृष्टि का निर्माण करना और इसका संचालन व प्रलय करना भी सम्भव है। वेदों, उपनिषदों व दर्शनों आदि अनेक प्राचीन ग्रन्थों में उसका स्पष्ट वर्णन है। महर्षि दयानन्द ने अपने समस्त वैदिक ज्ञान के आधार पर कहा है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्त्ता है। ईश्वर को पवित्र कहने का अभिप्राय है कि उसके गुण, कर्म व स्वभाव पवित्र हैं। सृष्टिकर्ता शब्द में ईश्वर का सृष्टि का रचयिता वा कर्त्ता होना, उसका धारण करना वा धर्त्ता होना तथा सृष्टि की प्रलय करना व उसका हर्त्ता होना भी सम्मिलित हैं। इसके साथ ही ईश्वर जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है। यह उस ईश्वर का स्वरूप है जिससे यह सृष्टि व ब्रह्माण्ड उत्पन्न होता है। अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि ईश्वर है तो वह आंखों व वैज्ञानिक उपकरणों से दिखाई क्यों नहीं देता? इसका उत्तर है कि ईश्वर सूक्ष्म से भी सूक्ष्म अर्थात् सर्वातिसूक्ष्म है। हम आंखों से वायु को नहीं देख पाते, बहुत दूर और बहुत पास की वस्तुओं को भी नहीं देख पाते तो फिर ईश्वर पर ही आंखों से दिखाई देने की धारणा क्यों बनाई है। वायु, अति दूर व अति पास की वस्तुओं तथा आंखों से न दिखने वाली अनेकानेक सूक्ष्म वस्तुओं के अस्तित्व को जब हम मानते व स्वीकार करते हैं तो ईश्वर को क्यों नहीं? अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या ईश्वर को जाना व अनुभव नहीं किया जा सकता? ईश्वर का ज्ञान तो वेद, वैदिक साहित्य व विद्वानों के लेखों से हो जाता है परन्तु यदि किसी को उसका साक्षात अनुभव करना ही है तो उसे योग विधि से उपासना करनी होगी। अष्टांग योग विधि का अभ्यास करने से समाधि की अवस्था प्राप्त होती है जिसमें ईश्वर साक्षात्कार अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। समाधि में ईश्वर साक्षात्कार से सभी संभय व भ्रम दूर हो जाते हैं। महर्षि दयानन्द सहित हमारे प्राचीन सभी ऋषि और आजकल भी दीर्घकाल तक योग साधना करने वाले साधको को ईश्वर का साक्षात्कार व प्रत्यक्ष ज्ञान होता आया है। हम अनुभव करते हैं कि हमारे वैज्ञानिकों को वेदाध्ययन कर, भले ही वह वेदों के अंग्रेजी आदि भाष्य को पढ़े, कुछ घण्टे प्रतिदिन योगाभ्यास भी करना चाहिये। इससे उनकी आत्मा के मल आदि दोष निवृत्त होकर कालान्तर में ईश्वर साक्षात्कार हो सकता है। यदि साक्षात्कार न भी हुआ तो कुछ अनुभूतियां तो अवश्य होंगी जिससे उनकी ईश्वर न होने की मान्यता समाप्त हो सकती है। सिद्धान्त है कि ईश्वर सदासर्वदा सबको प्राप्त है किन्तु सदोष अन्तःकरण में उसी प्रतीती नहीं होती। अन्तःकरण को निर्दोष, शुद्ध व पवित्र बनाने से स्वच्छ दर्पण के समाने ईश्वर का प्रत्यक्ष किया जा सकता है।

 

इस लेख में हमने यह बताने का प्रयास किया है कि सृष्टि में एक ईश्वर है और उसी के द्वारा यह समस्त सृष्टि वा ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया है। हम आशा करते हैं कि पाठक इस लेख के विचारों को उयोगी पायेंगे और इससे लाभान्वित होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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