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सत्यव्रती बन देवत्व पा प्रभु दर्शन के अधिकारी बनें

सत्यव्रती बन देवत्व पा प्रभु दर्शन के अधिकारी बनें
डा. अशोक आर्य
प्रभु क उपदेश है इ हम सत्य का व्रत लें ,इसका पालन्कर देवत्व को प्राप्त करें । देवत्व को प्राप्त कर ही हम प्रभु प्रप्ति के अध्करी बनते हैं । यह मन्त्र इस तथ्य पर इस प्रकार प्रकाश डालता है :-
अग्ने व्रतपते व्रतं चरिश्यामि तच्छेकेयं तन्मे रध्यताम ।
इदमहम्न्रतात सत्मुपैमि ॥यजुर्वेद १.५ ॥
यजुर्वेद के प्रथम अध्याय के चतुर्थ मन्त्र पर विचार करते हुए बताया गया था कि वेदवणी हमारे सब प्रकार के कर्तव्यों का प्रतिपादन करती है । प्रस्तुत मन्त्र इस तथ्य को ही आगे बटाते हुए तीन बिन्दुओं के माध्यम से उपदेश काते हुए बताता है कि :-
१.हमारे सब कर्य सत्य पर आश्रित हों :-
मन्त्र कहता है कि विगत मन्त्र के अनुसार जो स्पष्ट किया गया थ कि हमारा अन्तिम ध्येय परम पिता की प्राप्ति है । इस पित को पाने का माध्यम वेदवाणियों के अनुरुप अपने आप को चलाना है , इसके आदेशों को मानना है । इस के बिना हम प्रभु तक नहीं जा पाते । वेद में इस मार्ग के अनुगामी व्यक्ति के लिए कुछ कर्तव्य बताए हैं । इन कर्तव्यों में एक है सत्य मार्ग पर आश्रित होना ,सत्य मार्ग पर चलना ।
मन्त्र के आदेशानुसार प्रभु की समीपता पाने के लिए हमारे सब कर्तव्यों के अन्दर एक सूत्र का ओत – प्रोत होना बताया गया है तथा कहा गया है कि हमारे सब कर्तव्य सत्य पर ही आधरित हों । सत्य के बिना हम किसी भी कर्तव्य की इति श्री न कर सकें , पूर्ति न कर सकें । भाव यह है कि हम सदैव सत्य का आचरण करें , सत्य का ही प्रयोग करें ओर सत्य मार्ग पर ही चलें ।
सत्य के इस कर्तव्य को सम्मुख रखते हुए हम प्रार्थना करते हैं कि हे इस संसार के संचालक !, हे पग पग पर सांसारिक प्राणी को मार्ग दर्शन देने वाले , रास्ता दिखाने वाले प्रभो ! मैं एक व्रत धारण करूंगा , मैं एक प्रतिग्या लेता हूं कि मैं लिए गए व्रतों का सदैव पालन कर सकूं , उस लिए गए व्रत के अनुरुप अपने आप को टाल लूं , तदनुरुप अपने आप को चलाउं । जो व्रत मैने लिया है , उसके अनुसार ही कार्य व्यवहार करुं । इस प्रकार प्रभु मेरा यह व्रत सिद्ध हो , जो मैंने प्रतिग्या ली है उस पर चलते हुए मेरी वह प्रतिग्या पूर्ण हो । मैं उसे सफ़लता पूर्वक इति तक ले जा सकूं ।
इस प्रकार हे प्रभो ! मैं सदा व्रती रहते हुए , उस पर आचरण करते हुए , इस सत्य मार्ग पर चलते हुए मैं अन्रत को , मैं गल्त मार्ग को , मैं झुट के मार्ग को छोड कर इस सत्य मार्ग का , इस सज्जनों के मार्ग का आचरण करूं ओर इस में विस्त्रत होने वाले , इस मार्ग पर व्यापक होने वाले सत्य को मैं अति समीपता से , अति निकटता से प्राप्त होऊं ।
२. सत्य की प्राप्ति व्रस्त का स्वरुप :-
प्रश्न उटता है कि हमने जो व्रत लिया है , जो प्रतिग्या ली है , उसका स्वरुप क्या है ? विचार करने पर यह निर्णय सामने आता है कि हम ने जो व्रत लिया है इस व्रत का संक्शेपतया स्वरूप यह है कि हम अन्रत को छोड दें, हम पाप के मार्ग को छोड दें । हम बुरे मार्ग पर चलना छोड दें । यह अन्रत का मार्ग हमें उन्नति की ओर नहीं ले जाता । यह मार्ग हमें ऊपर उटने नहीं देता । यह सुपथ नहीं है । यह गल्त मार्ग है । हमने अपने जिस ध्येय को पाने की प्रतिग्या ली है , यह पाप का मार्ग हमें उस ध्येय के निकट ले जाने के स्थान पर दूर ले जाने वाला है । इसलिए हमने इस मार्ग पर न जा कर सत्य के मार्ग पर चलना है । मानो हम ने गाजियाबाद से दिल्ली जाना है । इसके लिए आवश्यक है कि हम दिल्ली की सडक पकडें । यदि हम मेरट की सडक पर चलने लगें तो चाहे कितना भी आगे बटते जावें , चलते जावें, कभी दिल्ली आने वाली नहीं है । इस लिए हम ने जो उस पिता को पाने की प्रतिग्या ली है , उसकी पूर्ति के लिए आवश्यक है कि हम असत्य मार्ग को छोड सत्य मार्ग को प्राप्त हों , तब ही हमें उस पिता की समीपता मिल पावेगी ।
३.सत्य से उत्तरोत्तर तेज बटता है :-
परमपिता परमात्मा को व्रतपति कहा गया है । वह प्रभु हमारे सब्व्रतों के स्वामी हैं । हमारे किसी भी व्रत की इति श्री , हमारे कीसी भि व्रत की पुर्ति , उस प्रभु की दया द्रष्टि के बिना, उस प्रभु की क्रपा द्रष्ट के बिना पूर्ण होने वाली नहीं है । जब प्रभु की दया हम पर बनेगी तो ही हम अपने किए गए व्रतों को सिद्ध कर सकेंगे । इस लिए हमने जो सत्य पथ का पथिक बनने का जो व्रत लिया है , उसको सफ़लता तक ले जाने के लिए हमने सत्य – व्रत का पालन करना है तथा सुपथ गामी बनना है । प्रभु का उपासन , प्रभु की समीपता , प्रभु के निकट आसन लगाना ही हमारी शक्ति का स्रोत है । इसलिए हमने प्रभु के निकट जाकर बैटना है । तब ही हम अपने लिए गए व्रत का पालन करने में सफ़ल हो सकेंगे । जब हम सत पर चलते हैं , जभम सत्य्व्रती हो , इस व्रत की पूर्ति का यत्न करते हैं तो धीरे धीरे हमारा तज भी बटता है जब कि अन्रत माअर्ग पर चलने से , बुराईयों के , पापों के माग पर चलने से हमारा तेज क्शीण होता है , नष्त होता है । इसलिए अपने तेज को बटाने के लिए हमें सत्य मार्ग पर ही आगे बटना है । यह उपदेश ही यह मन्त्र दे रहा है ।
डा. अशोक आर्य