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संस्कृत भाषा की उन्नति के अवसर प्रो धर्मवीर

आज भाषा मनुष्य के जीवन में काम चलाऊ साधन के रूप में उपयोग में आती है। भाषा के महत्व को आज के वैज्ञानिक और तकनीकी युग में गौण समझ लिया गया है, जबकि मनुष्य का जीवन विचारों पर ही निर्भर करता है। मनुष्य का शरीर जैसे भोजन से बनता है, उसी प्रकार मनुष्य का व्यक्तित्व विचारों से बनता है। विचारों की श्रेष्ठता, गम्भीरता, व्यापकता के लिए भाषा अनिवार्य है। भाषा के बिना चिन्तन, भाषण, लेखन, पठन कुछ भी सम्भव नहीं है।

संस्कृत पुरातन काल से विचार व व्यवहार की भाषा रही है, इसलिये उसके पास ज्ञान-विज्ञान का विशाल भण्डार है। इस ज्ञान-विज्ञान तक पहुँचने के लिए संस्कृत भाषा का ज्ञान अनिवार्य है। आज विद्याध्ययन जीविकोपार्जन के लिए स्वीकार किया गया है। विषय का अध्ययन सामाजिक व्यवहार और आजीविका के लिये आवश्यक है, परन्तु पारिवारिक, सामाजिक और व्यक्तिगत निर्णयों के लिए तो विचार की आवश्यकता है, ये विचार हम को भाषा से ही मिलते हैं। संस्कृत मनुष्य के व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक सम्बन्धों को कैसे परिभाषित करते हैं, उनका आदर्श उदाहरण तैत्तरीयोंपनिषद् की शिक्षावल्ली में देखने में आता है। वहाँ वेद पढ़ के आजीविका कैसी एवं क्या करनी है यह नहीं बताया, परन्तु व्यक्तिगत उन्नति और पारिवारिक व सामाजिक सम्बन्धों का सफलतापूर्वक निर्वहन करना, शिक्षा का उद्देश्य बताया गया है- जहाँ मातृदेवो भव, पितृदेवो भव आदि विचार व्यक्त किये गये हैं।

सामान्य रूप से इतिहास पढ़ा जाता है, संसार में बहुत सारी भाषायें उत्पन्न हुईं और व्यवहार में न आने के कारण उपयोगिता के अभाव में अतीत के गर्त में समा गईं, समाप्त हो गईं। हम संस्कृत को भी अनुपयोगी होने के कारण समाप्त हो गई है, ऐसा मानते हैं, परन्तु यह कथन सत्य नहीं है। संस्कृत उपयोगिता के अभाव में समाप्त नहीं हुई अपितु हमने संकीर्ण स्वार्थ के कारण उसे नष्ट किया है। महाभारत के पश्चात् हमने वेदों को और संस्कृत को केवल जन्मजात ब्राह्मण लोगों की भाषा बनाकर पूरे समाज को शिक्षा और वेदाध्ययन के अधिकार से वञ्चित कर दिया। मध्यकालीन समाज में और साहित्य में हम देखते हैं कि पुरुष पात्र संस्कृत में बात करते हैं, स्त्री या दास प्राकृत भाषा का उपयोग करते हैं। हजारों वर्षों तक वेदाध्ययन के अधिकार से समाज के बहुसंख्यक वर्ग को दूर करके हमने अपनी भाषा व वैचारिक सम्पत्ति  का अपने ही हाथों विनाश किया है।

वर्तमान इतिहास अंग्रेज शासकों द्वारा विकृत किया गया और इस्लामी पराधीनता में संस्कृत पठन-पाठन समाप्त कर दिया गया। संस्कृत भाषा को शिक्षा के माध्यम के रूप में समाप्त करने में अंग्रेजों के सहयोगी राजा राममोहन राय की महती भूमिका रही है। कोलकाता के विक्टोरिया संग्रहालय में राजा राममोहन राय के चित्र के नीचे लिखा गया– आपने बारह वर्ष तक संघर्ष करके अंग्रेज सरकार को शिक्षा का माध्यम संस्कृत से हटा कर अंग्रेजी करने में सहमत किया। वर्तमान  कांग्रेस और सोनिया सरकार तक संस्कृत को समाप्त करने का योजनाबद्ध प्रयास किया गया। विद्यालयों, महाविद्यालयों से संस्कृत पठन-पाठन की व्यवस्था समाप्त की गई। केन्द्रीय और प्रान्तीय शिक्षा परिषदों ने भी अपने पाठ्यक्रम को समाप्त कर दिया। पंजाब सरकार ने सदा ही हिन्दी-संस्कृत को अपने शिक्षा और प्रशासन व्यवस्था से बहिष्कृत करना उचित समझा। ईसाई और मुस्लिम विद्यालयों में इसे समाप्त कर दिया गया। राजनीति द्वारा इसे साम्प्रदायिक और सवर्णों की भाषा बताकर व्यवस्था से निकाल दिया गया। इस प्रकार पिछले पाँच हजार वर्षों से संस्कृत और वेद को नष्ट करने का प्रयास स्वयं द्वारा, देश के शत्रुओं द्वारा निरन्तर किया जा रहा है। जब भाषा आजीविका और प्रतिष्ठा से दूर हो गई तो उसका अध्ययन-अध्यापन समाज में स्वाभाविक रूप से न्यून हो जायेगा।

एक बार किसी संगोष्ठी में एक महाविद्यालय के प्राचार्य ने अपने भाषण में कहा- संस्कृत कठिन है, इसलिए लोग इसे नहीं पढ़ते। उन्होंने अपने बहुत सारे पाश्चात्य विचारों को प्रस्तुत करते हुए अपने उदार सुझाव भी दे दिये। संस्कृत में दो वचन होने चाहिए, सन्धि-समास कम कर देने चाहिए। व्याकरण की जटिलता समाप्त करनी चाहिए। जब वे नीचे आकर बैठे तो मैंने उनसे पूछा- क्या आपने अंग्रेजी इसलिए पढ़ी है कि यह एक सरल भाषा है? तो उनके पास कोई उत्तर  नहीं था। उसका उत्तर  है- भाषा सरलता या कठिनता के कारण नहीं पढ़ी जाती, भाषा पढ़ी जाती है आजीविका प्राप्ति या सम्मान के लिए। जिस भाषा से आजीविका और सम्मान न जुड़ा हो उस भाषा को कौन पढ़ेगा, वह चाहे कितनी सरल या कठिन हो।

आज मोदी सरकार के आने से सोच और व्यवस्था में परिवर्तन की आशा जगी है। प्रधानमन्त्री और भारत सरकार के मानव संसाधन मन्त्रालय ने संस्कृत की उन्नति का बीड़ा उठाया है, तो सरकार के लिए कुछ सुझाव हैं, जिनको ध्यान में रखने से संस्कृत  भाषा के प्रचार-प्रसार एवं उन्नयन में सहायता मिल सकती हैः-

. विद्यालय के पाठ्यक्रम में पहले संस्कृत थी, परन्तु संस्कृत विरोधी नीति के कारण संस्कृत को हटा दिया गया है। इस भूल को सुधार कर समस्त विद्यालयों के पाठ्यक्रम में कम से कम माध्यमिक (हाई स्कूल) से स्नातक तक संस्कृत भाषा के अध्ययन को अनिवार्य बनाया जाये।

. संस्कृत के पुराने पाठ्यक्रम परिवर्तित कर उसमें जीवन उपयोगी बातों का समावेश किया जाये।

. आगे के पाठ्यक्रम में संस्कृत को ऐच्छिक विषय के रूप में स्थान दिया जाये तथा संस्कृत विषय लेने वाले छात्रों के लिए विद्यालयों में अध्यापन की व्यवस्था की जाये।

. संस्कृत साहित्य में विज्ञान, वाणिज्य आदि जिन विषयों का विस्तार से प्रचुर उल्लेख मिलता है, उस सामग्री का स्नातक और स्नातको   ार पाठ्यक्रम में समावेश किया जाये।

मुझे एक बार महाराष्ट्र के एक महाविद्यालय में जाने का अवसर मिला। वहाँ विज्ञान के छात्रों को शुल्ब सूत्रों का अध्ययन करते देखा था। छात्रों ने बतलाया था कि ये सूत्र ग्रन्थ उनके पाठ्यक्रम में लगाये गये हैं और ये बहुत उपयोगी हैं।

. कला संकाय के महाविद्यालयों में संस्कृत विभाग खोले जाने चाहिए। जहाँ विभाग हैं, उनमें अधिकांश प्राध्यापकों के पद या तो रिक्त हैं या समाप्त कर दिये गये हैं। उनकी यथोचित पूर्ति की जानी चाहिए।

. भारत के सभी विश्वविद्यालयों में संस्कृत विभाग खोले जाने चाहिए। इन विभागों में अध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ शोध कार्यों को भी प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

. संस्कृत भाषा के माध्यम से ज्ञान-विज्ञान एवं मानविकी के विषयों के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था की जानी चाहिए।

. संस्कृत भाषा में जिन विषयों का विस्तार से उल्लेख एवं विवेचन हुआ है, जैसे- राजनीति, धर्म, समाज, न्याय, अर्थशास्त्र, आयुर्विज्ञान आदि ऐसे विषयों का अध्ययन-अध्यापन, अनुसन्धान-विवेचन संस्कृत माध्यम से किया जा सकता है।

. संस्कृत साहित्य की उपेक्षा के कारण ज्ञान-विज्ञान की बहुत सारी सम्पदा नष्ट हो चुकी है, जो शेष है वह विश्व साहित्य में अतुलनीय है। उसके संरक्षण, सम्पादन, प्रकाशन की ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। ऐसे कार्य करने वाले संस्थानों और व्यक्तियों को विशेष सहयोग दिये जाने की आवश्यकता है।

१०. संस्कृत के नाम पर रूढ़िगत कर्मकाण्ड के रूप में पौरोहित्य, जीवन में अकर्मण्यता, निराशा और भय उत्पन्न करने वाला फलित ज्योतिष और अवतारवाद, जड़ पूजा जैसे कार्यों को ही संस्कृत मानकर संस्कृत का ह्रास न किया जाये।

इस देश में पठन-पाठन की एक सुदृढ़ परम्परा रही है जो गुरुकुलों, संस्कृत पाठशालाओं, मन्दिरों, मठों तथा पण्डितों के घरों पर चलती रही है, जिसे अंग्रेजों ने योजना पूर्वक नष्ट किया है। यह परम्परा किसी भी सरकारी प्रयास से अधिक शक्तिशाली और व्यापक थी और अब भी हो सकती है। इस परम्परा के संरक्षण और इसको बल देने की आवश्यकता है। गत सरकार में कपिल सिब्बल  द्वारा जब शिक्षा के अनिवार्य करने का बिल पास हुआ था, उस समय संस्कृत पाठशालाओं, विद्यालयों के लिए बहुत बड़ा संकट खड़ा हो गया था। जब अध्यापकों की संख्या, विद्यालय का भवन क्षेत्रफल, धन राशि के प्रतिबन्ध लगाये गये, तब संस्कृत विद्यालय के प्रबन्धकों द्वारा मिलकर माँग की गई तो सरकारी आदेश से मदरसों व संस्कृत पाठशालाओं से इस अनिवार्यता को हटा लिया गया था।

११. आज इन गुरुकुलों, संस्कृत पाठशालाओं और अनौपचारिक शिक्षा केन्द्रों को जीवित रखने व उन्नत करने के लिए इन संस्थाओं को संस्कृत आयोग, संस्कृत विश्वविद्यालय या केन्द्रीय संस्कृत शिक्षा बोर्ड के गठन करने की आवश्यकता है।

१२. इन संस्थानों में अध्यापन करने वाले अध्यापकों को समान वेतन व सुविधायें दी जानी चाहिये।

१३. संस्कृत पाठशाला, गुरुकुल आदि के लिये व्यापक और समस्त वेद एवं संस्कृत साहित्य के विषयों को अपने में  समेटने वाला पाठ्यक्रम बनाया जाना चाहिए तथा परीक्षा उपाधि की व्यवस्था सरकार द्वारा की जानी चाहिए।

१४. ऐसा करने से पठन-पाठन की परम्परा और संस्कृत साहित्य सम्पदा की रक्षा की जा सकती है। इन पाठशालाओं और गुरुकुलों के पाठ्यक्रम में संस्कृत माध्यम से नवीन विषयों का समावेश भी किया जाना चाहिए, जिससे वहाँ के पढ़े छात्रों का ज्ञान अन्य विद्यालयों में पढ़े छात्रों से किसी भी प्रकार कम न हो।

१५. भारत सरकार का संस्थान है सिडको। यदि इसके माध्यम से संस्कृत के विद्वानों को प्रकल्प या योजना का प्रारूप बनाकर दिया जाये तो संस्कृत का संगणक (कम्प्यूटर) प्रयोग करना आने से संस्कृत आजीविका और व्यवहार की भाषा बनाने में सहायता मिल सकती है।

सरकार ने संस्कृत के विकास के लिए सुझाव देने के लिए आयोग बनाया है। संस्कृत प्रेमियों को चाहिए कि वे अपने सुझाव आयोग को भेजे, आपकी सुविधा के लिए ये कुछ सुझाव हैं इनको अधिक विस्तृत और उपयोगी बनाया जा सकता है। इस अवसर का संस्कृत प्रेमियों को उपयोग करना चाहिए।

आयोग का पताः

डॉ. सत्यव्रत, द्वितीय संस्कृत आयोग,

राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय नामित, ५६-५७,

इन्स्टीट्यूशनल एरिया, पंखा रोड, जनकपुरी,

नई दिल्ली-११००५८

आज के लिए यह उक्ति सटीक बैठती है-

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति,

न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः।।

– धर्मवीर

विद्यालयी शिक्षा में संस्कृत शिवदेव आर्य, देहरादून

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संस्कृत भाषा का नाम सुनकर प्रगतिशील विद्वान्, नेता राजनेता भड़क जाते हैं। शिक्षा मे संस्कृत की बात आती है तो इन्हें सेक्युलर ढांचा खतरे में दिखाई देने लगता है। विडम्बना देखिए त्रिभाषा फार्मूले पर असंवैधानिक कदम का विरोध नहीं हुआ। लेकिन जब गलती को सुधारा गया, तो आरोप लगाया गया कि सरकार शिक्षा का भगवाकरण चाहती है। जबकि केन्द्र सरकार ने स्पष्ट रूप से बता दिया था कि संस्कृत को अनिवार्य नहीं किया जा रहा है। न वैकल्पिक विषय के रूप में किसी भाषा पर प्रतिबन्ध लगाया गया है। विद्यार्थियों के सामने विकल्प रहेंगे। केवल पिछली सरकार की एक बड़ी गलती को सुधारा गया है परन्तु आश्चर्य की बात है कि लगातार तीन वर्ष तक असंवैधानिक व्यवस्था चलती रही। उस समय के विद्वान् शिक्षा मंत्रियों ने जाने-अनजाने  में इस पर ध्यान नहीं दिया।

वर्तमान काल में मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने इस ओर ध्यान दिया। उन्होंने अपनी सतर्कता से इस मसले को गंभीरता से समझा। यह माना कि पिछली सरकार ने बहुत बड़ी गलती की थी। इसे दुरुस्त करके पुनः त्रिभाषा फार्मूले को पटरी पर लाया जाय। स्मृति ईरानी के इस कदम की दलगत सीमा से ऊपर उठकर प्रशंसा करनी चाहिए थी। यह इसलिए भी जरूरी थी कि यह प्रसंग जर्मन सरकार तक पहुंच चुका था। आस्ट्रेलिया में जी-20 शिखर सम्मेलन में अनौपचारिक तौर पर जर्मन की चालंसर एन जेला मर्केल ने दबी  जबान से यह मामला उठाया था। जवाब में भारत की ओर से कहा गया कि वैकल्पिक विषय के रूप में जर्मन पढ़ाई जाती रहेगी। इधर भारत में जर्मन के राजदूत भी इस मसले पर बहुत सक्रिय हो गये थे। वह इसे भारत और जर्मनी के रिश्तों से जोड़ कर देख रहे थे। उन्होंने सरकार के फैसले की आलोचना की। मानव संसाधन मंत्री ने इस पर आपत्ति दर्ज की। उन्होंने राजदूत के विरोध को अनावश्यक और गलत बताया। पिछली  सरकार की अदूरदर्शिता के कारण ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई। 2011 में सीबीएससी के नियम को आकस्मिक रूप से बदल दिया गया। त्रिभाषा फार्मूले से संस्कृत को हटाकर जर्मन को रख दिया गया। यह विचित्र निर्णय था। किसी के पास इस बात का जवाब नहीं था कि त्रिभाषा फार्मूले से स्वदेशी भाषा संस्कृत को क्यों हटाया गया? उसकी जगह जर्मन को क्यों रखा गया? यह फैसला तो किया ही नहीं जा सकता। संविधान के अनुसार ऐसा करने की अनुमति ही नहीं थी। संविधान की आठवीं अनुसूची में जिन भाषाओं का उल्लेख है, उन्हीं को त्रिभाषा फार्मूले में रखा जा सकता है। इसमें जर्मन तो किसी भी दशा में शामिल ही नहीं हो सकती। जिसने भी संस्कृत को हटाकर जर्मन को रखा, उसने सरासर संविधान की व्यवस्था का उल्लंघन किया।

यह संवैधानिक ही नहीं अव्यवहारिक निर्णय भी था। संस्कृत पढ़ाने वाले शिक्षक सभी जगह उपलब्ध हो सकते थे। हिन्दी के शिक्षक भी प्रारम्भिक संस्कृत पढ़ा सकते हैं लेकिन जर्मनी के शिक्षक इतनी संख्या में उपलब्ध ही नहीं हो सकते। दिल्ली तथा कुछ अन्य महानगरों में जर्मन शिक्षक आ सकते हैं। लेकिन दूर-दराज के इलाकों में जर्मन पढ़ाने की व्यवस्था संभव ही नहीं थी। ऐसा भी नहीं कि जर्मन यहां की लोकप्रिय भाषा हो। सीमित संख्या में विद्यार्थी जर्मन पढ़ना चाहते हैं। इनके लिये पहले भी व्यवस्था थी और आगे भी रहेगी।

कुछ लोगों का कहना है  कि यह वैश्वीकरण का दौर है। विदेशी भाषा सीखने से आर्थिक-व्यापारिक संबंधों में सहायता मिलेगी। यदि ऐसा है तो जर्मनी ही क्यों ऐसे कई देश हैं जिनके साथ भारत का व्यापार जर्मनी के मुकाबले बहुत अधिक है। इसके अलावा वैश्वकीरण के लिये किसी स्वदेशी भाषा को हटाकर विदेशी भाषा रखने का तर्क अनैतिक है। व्यापार निवेष बढ़ाने के अनेक कारक तत्त्व होते हैं।

संस्कृत को हटाकर जर्मन रखने का फैसला असंवैधानिक, अव्यवहारिक, अनैतिक और अज्ञानता से भरा था। यह संभव ही नहीं कि मानव संसाधन विभाग में इतना बड़ा फैसला हो जाए, उसे लागू कर दिया जाये और मंत्रियों को इसकी जानकारी ही न हो। तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री आज जिम्मेदारी से बचना चाहते हैं। पल्लम राजू का कहना है कि यह मसला उनके सामने नहीं आया था। इसे एक अन्य समझौते के तहत लागू किया गया था। जबकि मंत्रालय की कार्यप्रणाली जानने वालों का कहना है कि यह संभव नहीं कि मंत्री के सामने यह मामला पहुंचा न हो। यह तभी संभव है जब मंत्री रबर स्टम्प की तरह हो, उसकी जगह कोई अन्य निर्णय लेता हो। दोनों ही स्थितियों में जवाबदेही विभागीय मंत्री की ही मानी जायेगी। साफ है कि इस निर्णय के पीछे नेक नीयत नहीं थी। संप्रग सरकार में कोई तो ऐसा प्रभावशली व्यक्ति अवश्य होगा, जो संस्कृत की जगह विदेशी भाषा को महत्त्व देना चाहता था।

 

क्या यह कहना गलत होगा कि संस्कृत को हटाने का फैसला कथित सेक्यूलर छवि को चमकाने के लक्शलिये किया गया था। यह भी ध्यान नहीं रखा गया कि संस्कृत भारतीय भाषाओं की जननी है। कई भाषाओं में आज भी आधे से अधिक प्रचलित शब्द संस्कृत के हैं। इसका व्याकरण विश्व में बेजोड़ है। यह विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा है। कम्प्यूटर युग के लिये सर्वाधिक उपयुक्त भाषा है। विश्व का सबसे समृध्द साहित्य संस्कृत में है। कोई इसे न पढ़े, यह उसकी मर्जी। लेकिन इसे पढ़ना भगवाकरण नहीं है।

त्रिभाषा फार्मूले में तीन भाषाआंे का प्रावधान किया गया था। पहली भाषा के रूप में मातृभाषा, दूसरी में हिन्दी या अंग्रेजी, तीसरी कोई आधुनिक भारतीय भाषा। मातृभाषा के साथ ही संस्कृत को भी शामिल किया गया था। संप्रग सरकार ने चुपचाप तीसरी भाषा में जर्मनी को रख दिया था।

आज हम सब के लिए अत्यन्त हर्ष का विषय है कि भारत सरकार की शिक्षा मन्त्री माननीय स्मृति ईरानी के उचित समय में लिये गया  उचित  फैसले से तृतीय भाषा के रूप में संस्कृत भाषा वैकल्पिक विषयों में स्थान दिया गया है।  देश में संस्कृत के लिए सुनहरे अवसरों की शुरुआत हो चुकी है। अब हम सबको संस्कृत के लिए कृतसंकल्प होने की आवश्यकता है

मो.-08810005096

-गुरुकुल पौन्धा, देहरादून