राज भाषा दिवस या मास मनाने का औचित्य-अनौचित्य
-सत्येन्द्र सिंह आर्य
विश्व में शायद भारत ही एक मात्र ऐसा राष्ट्र है, जिसे अपने देश की सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा को राजभाषा (officical language ) के रूप में प्रचलित / प्रसारित करने के लिए राजभाषा दिवस / सप्ताह / पखवाड़ा / मास मनाना पड़ता हो। जापान, जर्मनी, फ्राँस, रूस, इंग्लैण्ड आदि देश सब अपने-अपने देश की भाषा में काम करते हैं। उसके लिए वे कोई योजना नहीं बनाते। राष्ट्र का काम है, स्वतः स्वाभाविक ढंग से होता है, परन्तु भारत में स्वाधीनता प्राप्त हुए लगभग सात दशक हो गए और हिन्दी को राजभाषा के रूप में काम में लाने के मामले में वही ढाक के तीन पात।
सन् 1946 ईसवी में जब अंग्रेजों ने भारतीय नेताओं को कह दिया कि अगले वर्ष (सन् 1947) में भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त कर दिया जाएगा, तो दिसमबर 1946 में संविधान सभा की पहली बैठक बैरिस्टर श्री सच्चिदानन्द सिन्हा की अध्यक्षता में हुई। बैठक की कार्रवाई अंग्रेजी में ही आरमभ हुई। इस पर झाँसी से संविधान सभा के सदस्य श्री रघुनाथ विनायक धूलेकर ने आपत्ति की और कहा कि संविधान देश की भाषा हिन्दी में बनना चाहिए तथा सारी चर्चा भी हिन्दी में ही होनी चाहिए। इस पर हिन्दी के विरोधी और मैकाले के (अंग्रेजी भक्त) मानस-पुत्र इतने मुखर हुए कि पं. नेहरु को दखल देना पड़ा और जो काम हिन्दी में होना चाहिए था, वह हिन्दी में न होकर अंग्रेजी में हुआ। अगस्त 1947 में भारत स्वतंत्र हो गया। संविधान सभा अपना संविधान निर्माण का काम करती रही। 14 सितबर 1949 को संविधान सभा में तीन गैर-हिन्दी भाषी सदस्यों (सर्व श्री अमबेडकर, आयंगर एवं के.एम. मुंशी) द्वारा यह प्रस्ताव रखा गया कि भारत में संघ की (केन्द्र सरकार की) राजभाषा हिन्दी होगी, उसकी लिपि देवनागरी होगी तथा अंक भारतीय मूल के एवं अन्तरराष्ट्रीय स्वरूप वाले (क्, ख्, फ्, ब्, भ्) होंगे, परन्तु पं. नेहरु ने इस राजभाषा विषयक प्रस्ताव के साथ यह शर्त जोड़ दी कि संविधान लागू होने के दिन से 15 वर्ष की अवधि में हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी का प्रयोग भी यथावत् होता रहेगा। तभी से 14 सितमबर को राजभाषा दिवस के रूप में मनाया जाता है। उस दिन की बैठक में राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन उपस्थित नहीं थे। शाम के समय सेठ गोविन्द दास बड़े उत्साह में टण्डन जी को यह बताने के लिए कि हिन्दी को सर्व सममति से भारत संघ की राजभाषा स्वीकार कर लिया है, गए। जब टण्डन जी ने पूरी बात सुन ली तो वे बोले कि गोविन्द दास यह 15 वर्ष तक अंग्रेजी के प्रयोग को विधि-समत बनाये रखने की शर्त बहुत बुरी है।कोई गारण्टी नहीं कि पं. नेहरु इस अवधि को नहीं बढायेंगे। वही हुआ। सन् 1963 में राजभाषा अधिनियम पास करके यह शर्त लगा दी कि जब तक भारत संघ का एक भी राज्य यह चाहेगा कि उसके साथ पत्र-व्यवहार अंग्रेजी में किया जाए तब तक अंग्रेजी का प्रयोग विधि-समत रहेगा। इस प्रकार अंग्रेजी को सदा के लिए भारत पर लाद दिया गया।
भारत विभाजन के समय जो लोग उर्दु के पक्षधर थे, वे पाकिस्तान चले गए, परन्तु भारत के राजनेता वोट के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हैं। वर्ष 1979 में 14 सितमबर के दिन उत्तरप्रदेश की विधान सभा में तत्कालीन मुखयमन्त्री नारायण दत्त तिवारी ने स्वयं उर्दु को द्वितीय राजभाषा बनाने का बिल प्रस्तुत किया और पारित कराया। उर्दु को द्वितीय राजभाषा बनाने के लिए कहीं से किसी ने कोई माँग नहीं की थी, परन्तु वोटों के लालच में हिन्दी को पीछे धकेल दिया गया। सरकारी कार्यालयों के लिए नियम यह है कि उनके बोर्ड द्विभाषी हों। ऊपर हिन्दी हो, नीचे अंग्रेजी हो। जहाँ स्थानीय भाषा हिन्दी न हो, वहाँ बोर्ड त्रिभाषी हों जिनमें स्थानीय (उस प्रान्त की)भाषा को प्रधानता दी जाए। सरकार की सूची में दिल्ली हिन्दी भाषी राज्य है, वहाँ पर सरकारी बोर्ड द्विभाषी ही थे, परन्तु एक बार जैसे ही चुनाव आने वाले थे, दिल्ली की तत्कालीन मुखयमन्त्री शीला दीक्षित ने रातों-रात सरकारी कार्यालयों के बोर्ड पुतवा कर चार भाषाओं में करवा दिए-हिन्दी, अंग्रेजी, पंजाबी और उर्दु में। ऐसा करने के लिए कहीं से कोई माँग नहीं उठी थी और चार भाषाओं में बोर्ड बनवाने की कोई विधिक बाध्यता भी नहीं है, परन्तु सिखों के एवं मुस्लिमों के वोट हथियाने के लिए राजनीति की कुशल खिलाड़ी श्रीमती दीक्षित ने यह दाँव खेला था।
राजनेताओं की इस प्रकार की कलाबाजियों से राजभाषा का अहित होता है, सरकारी कामकाज में हिन्दी के प्रयोग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, परन्तु राजनेता को अपना तथा अपनी राजनीतिक पार्टी का हित सर्वोपरि होता है, राष्ट्रहित गौण होता है। ऐसे में हिन्दी कैसे पनप सकती है।
केन्द्र सरकार में राजभाषा विभाग होता है, उस विभाग के अध्यक्ष (प्रमुख) भारत के गृहमन्त्री होते हैं। श्री पी. चिदबरम् भारत के गृह-मन्त्री, वित्त मन्त्री पद पर रहे हैं। उनके सरकारी निवास पर जो नाम पट्टिका टंगी थी उस पर उनका नाम, पद आदि केवल तमिल और अंग्रेजी में था जबकि दिल्ली जैसे हिन्दी भाषी राज्य में यह केवल हिन्दी, अंग्रेजी में होना चाहिए था। जिस देश में केन्द्र सरकार के राजभाषा विभाग के प्रमुख का रवैया राजभाषा के प्रति ऐसी उपेक्षा एवं बेहयाई का हो, वहाँ तो राजभाषा मास, पखवाड़ा, सप्ताह या दिवस मनाकर ही सन्तोष करना पड़ता है। यह तो ऐसा ही लगता है जैसे ये दिवस मनाकर हिन्दी का श्राद्ध कर रहे हों।
सौभाग्य से भारत के वर्तमान प्रधानमन्त्री एक प्रखर राष्ट्र भक्त हैं और गृहमन्त्री राजनाथ सिंह जी भी स्वयं हिन्दी भाषी एवं असाधारण राष्ट्रवादी हैं। हम आशा करते हैं कि हिन्दी को राजभाषा का स्थान अब प्राप्त हो सकेगा। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की कुछ पक्तियां कविता के रूप में दी जा रही हैं जो आज भी बहुत सामयिक हैं।
नागरी लिपि और आर्य भाषा
– स्व. मैथिलीशरण गुप्त
जैसा लिखो वैसा पढ़ो, कुछ भूल हो सकती नहीं।
है अर्थ का न अनर्थ, इसमें एक बार हुआ कहीं।।
इस भांति होकर शुद्ध यह अति सरल और सुबोध है।
क्या उचित फिर इसका कभी अवरोध और विरोध है।।
समपूर्ण प्रान्तिक बोलियाँ सर्वत्र ज्यों की त्यों रहें।
सब प्रान्तवासी प्रेम से उनके प्रवाहों में बहें।।
पर एक ऐसी मुखय भाषा चाहिए होनी यहाँ।
सब देशवासी जन जिसे समझें समान जहाँ-तहाँ।।
हो जाए जब तक एक भाषा देश में प्रचलित नहीं।
होगा हजारों यत्न से भी कुछ हमारा हित नहीं।।
जब तक न भाषण ही परस्पर कर सकेंगे हम सभी।
क्या काम कोई कर सकेंगे! हाय हम मिलकर कभी।।
– सौजन्य – भारत-भारती
भाषा
– स्व. मैथिलीशरण गुप्त
भाषा का है प्रश्न नहीं केवल भाषा का,
केन्द्र बिन्दु है यह आजादी की आशा का।
इससे ही है जुड़ी हुई हर राह प्रगति की,
नैतिकता की, स्वाभिमान की और सुमति की।
अंग्रेजी को हटा स्वदेशी भाषा लाओ,
राष्ट्रीयता के पथ का व्यवधान हटाओ।।