पुस्तक – समीक्षा
पुस्तक का नाम – भारतीय पारंपरिक समाज तन्त्र
लेखक – आचार्य रवीन्द्र
प्रकाशक – विश्व नव निर्माण न्यास (पं.),
सोनीपत-हरियाणा
मूल्य – 30.00 पृष्ठ संया – 80
प्राचीन काल में हमारा गौरव उच्चादर्शों का था। लेखक का चिन्तन यही है, पर हमारे समाज में अतीत को लेकर कुछ विचित्र स्थिति दृष्टिगत होती है। इसका मूल कारण क्या है? रामायण एवं महाभारत काल के सामाजिक एवं राजनैतिक मूल्य आज हमारी परमपराओं के शत्रु बने हुए हैं, क्योंकि हमें उन परमपराओं पर विश्वास नहीं है। चन्द्रगुप्त के समय चाणक्य जैसे बुद्धिजीवी भी अपरिग्रही माने जाते थे। चक्रवर्ती सम्राट् चन्द्रगुप्त ने अपने शासन को त्यागकर वानप्रस्थ का जीवन बिताया। लेखक की पीड़ा है कि आखिर ऐसा क्या है हमारे अतीत में? क्या एक ही संस्कृति में एक ही व्यक्ति विपरीत कार्य कर सकता है? रामराज्य का क्या स्वरूप था? प्राचीन संस्कृति गलत रूप से प्रचारित हुई। वेद केवल रटने के विषय रह गये। महर्षि दयानन्द के आगमन से हम जगे और जगाने लगे। आडमबरों, छुआछूत, पर्दाप्रथा, विधवा विवाह, नारी अपमान के विरुद्ध बिगुल बजा। पुनः अतीत का गौरव झलकने लगा है, फिर भी हमें कटिबद्ध होकर इस आह्वान में खरे उतरना है।
लेखक ने जाति प्रथा एवं वर्णाश्रम व्यवस्था, गृहस्थधर्म, वानप्रस्थ, संन्यास, वेदशास्त्र एवं यज्ञ, समाज की स्थिरता, वर्णपरिवर्तन आर्य, अनार्या आदि बिन्दुओं की सहज सरल शबदों में व्याखया कर अतीत का स्मरण कराया है। हमारे लिये समाज तन्त्र को समझना आवश्यक है। इस ओर सभी का ध्यानाकर्षण हो। लेखक के विचारों से अवगत होने के लिए इसका पठन आवश्यक है। लेखक की पीड़ा जनमानस की पीड़ा है, जिसे हम समझने का प्रयास करें। लेखक के हृदय से आभारी हैं जिसने हमारा ध्यान आकृष्ट किया है।
हम क्या थे? क्या होंगे? क्या होना शेष है? इस पर विचार आवश्यक है।
– देवमुनि, ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।