प्राणोपासना – 3
– तपेन्द्र विद्यालङ्कार आइ.ए.एस. (सेवा-निवृत्त)
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के उपासना विषय में मुण्डकोपनिषद् के तपः श्रद्धे ये ह्मुपवसन्त्यरण्ये… यत्रामृता स पुरुषो ह्यष्यात्मो।। (मुण्डक.1.2.11) तथा युञ्जन्ति ब्रहनमरुषं….रोचन्ते रोचना दिवि।। (ऋग्वेद 1.1.119) एवं सीरा युञ्जन्ति कवयो…धीरा देवेषु सुनया।। (यजुर्वेद 12.67) का अर्थ एवं व्याखया करते हुए महर्षि दयानन्द जी महाराज ने प्रतिपादित किया है कि प्राण द्वार से प्राण नाड़ियों में ध्यान करके, प्राण को परमात्मा में युक्त करके परमानन्द-मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है।
उपासना विषय में ही महर्षि ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि कण्ठ के नीचे, दोनों स्तनों के बीच में और उदर के ऊपर जो हृदयदेश है, उसके बीच में अवकाश रूप स्थान में खोज करने से परमेश्वर मिल जाता है। महर्षि ने यह भी स्पष्ट लिखा है कि दूसरा उसके मिलने का कोई उत्तम स्थान वा मार्ग नहीं है।
उद्धरणों में आये शबद-प्राण, प्राण-नाडियाँ तथा हृदय के समबन्ध में विचार किया गया था कि प्राण शुद्ध ऊर्जा है, बाह्य प्राण सूर्य रश्मियों से प्राप्त होता है जिसे आधिभौतिक प्राण कहते हैं। दूसरा आध्यात्मिक प्राण जठराग्नि द्वारा जल से उत्पन्न होता है तथा हृदय में बाह्य प्राण से मिल जाता है। हृदय में एक सौ एक प्राण नाडियाँ हैं इनमें से एक नाडी कपाल शीर्ष तक गयी है जिसे संचरणी कहतेहैं। शेष सौ हिसा नाड़ियाँ हैं, इन प्रत्येक से सौ-सौ उप नाडियाँ निकलती हैं तथा उन प्रत्येक से बहत्तर-बहत्तर हजार उप-उप-प्राणनाड़ियाँ निकलती हैं, जिन्हें पुरीतत भी कहा जाता है।
देह में जीवात्मा का मुखयालय हृदय है। यह रक्तप्र्रैषित करने वाला शरीरांग नहीं है, यह स्थूल इन्द्रिय नहीं है। यह प्राण नाड़ियों से बना है। प्राणों में आत्मा प्रतिष्ठित है तथा परमात्मा हृदयाकाश में रहने वाले जीवात्मा के मध्य रहता है। प्राणों में उपासना करके आत्मा परमात्मा का साक्षात्कार किया जा सकता है। प्राण बन्धनं हि सौमय मनइति से यह भी स्पष्ट है कि मन प्राण रूप बन्धन वाला है।
पूर्व में इंगित किया गया था कि जब प्राणी श्वास लेता है तो शरीर की प्राणनाड़ियों में प्राण की गति नीचे की ओर होती है-यह अपानन क्रिया है। जब प्राणी प्रश्वास लेता है तो शरीर की प्राण नाड़ियों में प्राण की उर्ध्व गति होती है-यह प्राणन क्रिया है। प्राण तत्व एक ही है जो शरीर में अपने को पाँच भागों -प्राण अपान, व्यान, समान, उदान-में विभक्त कर पाँच प्रकार के कार्यों को समपादित करता है। परमात्मा प्राण में रहता हुआ भी प्राण से अलग है तथा प्राण का नियमन करता है। उदान प्राण के समबन्ध में विवेचन अभीष्ट है।
शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभिनिसृतैका।
तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विश्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति।।
– कठोपनिषद् 6-16
उक्त की व्याखया करते हुए डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार (एकादशोपनिषद्) लिखते हैं कि हृदय की एक सौ एक नाड़ियाँ हैं, उन में से एक मूर्धा-सिर की ओर निकल गई है। मृत्यु के समय उस नाडी से जो ऊपर को उत्क्रमण करता है वह अमृतत्व को प्राप्त करता है, बाकी अन्य नाडियाँ साधारण व्यक्तियों के उत्क्रमण के समय काम आती हैं। ब्रह्मनिष्ठ व्यक्ति के प्राण मूर्धा से निकलते हैं, दूसरों के अन्य मार्गों से।
शाङ्कर भाष्य के अनुसार पुरुष के हृदय से सौ अन्य और सुषुम्ना नाम की एक-इस प्रकार (एक सौ एक) नाडियाँ-शिराएँ निकलती हैं उनमें सुषुम्ना नाम्नी नाड़ी मस्तक का भेदन करके बाहर निकल गयी है। अन्तकाल में उसके द्वारा आत्मा को अपने हृदयदेश में वशीभूत करके समाहित करे। उस नाडी के द्वारा उर्ध्व-ऊपर की ओर जाने वाला जीव सूर्यमार्ग से अमृतत्व-आपेक्षिक अमरणधर्मत्व को प्राप्त हो जाता है।
‘उपनिषद् रहस्य’ में महात्मा नारायण स्वामी जी महाराज व्याखया करते हुए लिखते हैं-हृदय से निकलकर जो 101 नाड़ियाँ समस्त शरीर में फैलती हैं उनमें से एक सुषुमणा नाम वाली नाड़ी जो शरीर में इडा और पिंगला के मध्य रहती है-मूर्धामें जा निकलती है। मुक्त जीव का आत्मा इसी नाड़ी के द्वारा शरीर से निकल कर देवयान (मोक्षमार्ग) का पथिक बन जाता है।
‘उपनिषद्समुच्यय’ में पण्डित भीमसेन जी शर्मा उक्त का भाष्य करते हुए लिखते हैं-अपने मरण का समय योगी पूर्व से ही जान लेता है। शरीर से निकलने का समय आने से पूर्व ही योगी अपने आत्मा को वश में करके सुषुम्ना नाड़ी के साथ युक्त करे। उस नाड़ी द्वारा शरीर से निकला हुआ जीवात्मा मुक्ति को प्राप्त होता है। जीव नाड़ियों के द्वारा ही निकलते हैं।
अकृत योगायासः पुरुषः प्रयाणकाले यथेष्ठं निस्सर्त्तुं नार्हति।
अतः प्रमाणकालात्पूर्वमेव योगायासः कार्यः।
अथैकयोर्ध्वं उदानः पुण्येन पुण्यलोकं नयति।
पापेन पापमुभायामेव मनुष्यलोकम्।।
– प्रश्नोपनिषद् 3-7
का अर्थ करते हुए डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार लिखते हैं कि हृदय की एक नाड़ी उर्ध्वदेश को, मस्तिष्क को जाती है उसमें-उद्+आन-ऊपर या नीचे की तरफ जीवन रहता है। पुण्य कर्म करने से हृदय में बैठे हुए आत्मा को ‘उदान’ पुण्यलोक में ले जाता है, पापकर्म करने से आत्मा को उदान ‘पापलोक’ में ले जाता है, दोनों प्रकार के कर्म करने से आत्मा को ‘मनुष्य लोक’ में ले जाता है।
शांकर भाष्य अनुसार-उन एक सौ एक नाड़ियों में से जो सुषुम्ना नाम्नी एक उर्ध्वगामिनी नाड़ी है उस एक के द्वारा ही ऊपर की ओर जाने वाला तथा चरण से मस्तक पर्यन्त संचार करने वाला उदान वायु (जीवात्मा को) पुण्य कर्म यानी शास्त्रोक्त कर्म से देवादि-स्थान रूप पुण्यलोक को प्राप्त करा देता है तथा उससे विपरीत पापकर्म द्वारा पापलोक यानी तिर्यग्योनि आदि नरक को ले जाता है और समान रूप से प्रधान हुए पुण्य-पापरूप दोनों प्रकार के कर्मों द्वारा वह उसे मनुष्य लोक को प्राप्त कराता है।
महात्मा नारायण स्वामी जी के अनुसार उन एक सौ एक नाडियों में से एक के द्वारा ऊपर जाने वाले प्राण का नाम उदान है जो मृत्यु के समय शरीर से निकलने वाले सूक्ष्म शरीर सहित जीव को कर्मानुसार भिन्न-भिन्न स्थानों को पहुँचाया करता है।
पण्डित भीमसेन जी शर्मा के अनुसार-हृदय में एक सौ एक नाड़ियाँ हैं, उनमें से एक नाड़ी सीधी मस्तक मूर्धा को चली गई है, इसी सुषुम्ना नाडी में उदान वायु विचरता है। यह नाड़ी मस्तक से लेकर पग के तलवा तक सीधी विस्तृत है, इसी हृदयस्थ नाड़ी के एक प्रदेश में जीवात्मा रहता है। इस नाड़ी के साथ मन को युक्त करते हुए समाधिनिष्ठ योगीजन आत्मज्ञान को प्राप्त होते हैं। उदान नामक प्राण ही लिंग शरीर के सहित जीवात्मा को शरीर से निकालता है और कर्मों के अनुसार योनि व भोग प्राप्त कराता है।
तेजो ह वा उदानस्तस्मादुपशान्त तेजाः।
पुनर्भवमिन्द्रियैर्मनसि सपद्यमानैः।।
– प्रश्नोपनिषद् 3.9
उक्त की व्याखया करते हुए डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार लिखते हैं…. ऋषि कहते हैं कि उदान द्वारा आत्मा शरीर से निकलता है। जब तक शरीर में तेज रहता है, तब तक आत्मा उदान की सहायता से शरीर में ही रहता है। जब शरीर का तेज शान्त हो जाता है तब इन्द्रियाँ बाहर फिरना छोड़कर मन में जा टिकती हैं और मनुष्य पुनर्जन्म की तैयारी करने लगता है।
आचार्य शंकर के अनुसार-जो (आदित्य संज्ञक) प्रसिद्ध बाह्य सामान्य तेज है वही शरीर में उदान है, तात्पर्य यह है क्योंकि उत्क्रमण करने वाला (उदान वायु) तेजः स्वरूप है- बाह्य तेज से अनुगृहीत होने वाला है इसलिए जिस समय लौकिक पुरुष उपशान्त तेजा होता है अर्थात् जिसका स्वाभाविक तेज शान्त हो गया है ऐसा होता है उस समय उसे क्षीणायु-मरणासन्न समझना चाहिये। वह पुनर्भव यानी देहान्तर को प्राप्त होता है। किस प्रकार प्राप्त होता है (इस पर कहते हैं) मन में लीन-प्रविष्ट होती हुई वागादि इन्द्रियों के सहित (वह देहान्तर को प्राप्त होता है।)
महात्मा नारायण स्वामी जी महाराज लिखते हैं-तेज ही उदान है। इसीलिए कहा जाता है कि जिनका तेज शान्त हो चुका है, ऐसे प्राणी मन में लीन हुई इन्द्रियों के साथ पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं।
पण्डित भीमसेन जी शर्मा के भाषार्थ अनुसार-सामान्य कर सर्वव्यापी तेज ही उदान प्राण का सहायक है। जिस कारण जीवात्मा को शरीर से निकालना इसलिए इस का नाम उदान है। जिससे स्वाभाविक तेज जिसका शान्त हो गया, वह पुरुष मर जाता है अर्थात् मानस शक्ति में प्रवेश किये नेत्र आदि इन्द्रियों के साथ जन्मान्तर में होने वाले शरीरान्तर को प्राप्त होता है।
यच्चित्तस्तेनेष प्राणमायाति, प्राणस्तेजसा युक्त
सहात्मना यथा संकल्पितं लोकं नयति।।
– प्रश्न.3-10
डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार के अनुसार मृत्यु के समय जिस प्रकार का चित्त होता है, उसी प्रकार का चित्त प्राण के पास पहुँचता है। प्राण अपने तेज के साथ आत्मा के पास पहुँचता है। प्राण ही तेज चित्त और आत्मा को अपने संकल्पो के अनुसार के लोक में ले जाता है।
शांकर भाष्य के अनुसार-इसका जैसा चित्त होता है उस चित्त संकल्प के सहित ही यह जीव इन्द्रियों के सहित प्राण अर्थात् मुखय प्राणवृत्ति को प्राप्त होता है।…..वह प्राण ही तेज अर्थात् उदानवृत्ति से सपन्न हो आत्मा-भोक्ता स्वामी के साथ (समिलित होता है) तथा उदान वृत्ति से संयुक्त हुआ वह प्राण ही उस भोक्ता जीव को उसके पाप-पुण्यमय कर्मों के अनुसार यथासंकल्पित अर्थात् उसके अभिप्रायनुसारी लोकों को ले जाता-प्राप्त करा देता है।
महात्मा नारायण स्वामी जी के अनुसार जो चित्त में वासना है, उसी से यह जीव प्राण को प्राप्त होता है। प्राण तेज से मिलकर आत्मा के साथ उसको जैसा या जो संकल्प किये हुए लोक हैं उनको पहुँचाता है।
पण्डित भीमसेन जी शर्मा के अनुसार शरीर की वर्तमान दशा में मनुष्य जैसे शुभ या अशुभ कर्म प्रायः करता है वैसा ही उसके अन्तःकरण में प्रबल संस्कार होता है। ये संस्कार वासना रूप से सञ्चित होते हैं। वही सञ्चित पाप वा पुण्य कहा जाता है, उन्ही वासनाओं के अनुकूल मरते समय उसका चित्त होता है। मरते समय जीवात्मा का इन्द्रियों के साथ पहले सबन्ध टूटता और केवल प्राण के आश्रय से जीवात्मा रह जाता है…..पश्चात् उदान से युक्त प्राण लिङ्ग शरीर के सहित जीवात्मा को शरीर से निकालके कर्मानुकूल स्थान योनि और भोग को प्राप्त कराता है।
अथ यदास्य वाङ्मनसि संपद्यते मनः प्राणे प्राणस्तेजसि
तेजः परस्यां देवतायामथ न जानाति।।
– छांन्दोग्य 6-15-2
सोय पुरुषस्य प्रयतो वाङ्मनसि संपद्यते मनः प्राणे प्राणस् तेजसि तेजः परस्यां देवतायाम्।।
– छान्दोग्य 6-8-6
जब तक पुरुष की वाणी मन में, मन प्राण में, प्राण तेज में और तेज पर देवता में लीन नहीं होता, तब तक वह जानता है, पहचानता है। इसके बाद जब इसकी वाणी मन में, मन प्राण में, प्राण तेज में और तेज पर देवता में लीन हो जाता है, तब नहीं पहचानता। हे सोय! मरने वाले पुरुष की वाणी मन में, मन प्राण में, प्राण तेज में और तेज परम देवता में लीन हो जाते हैं।
स्वामी सत्यबोध सरस्वती जी के अनुसार शरीर जब जरावस्था को प्राप्त होकर जीव के रहने योग्य नहीं रह जाता है तब जीव शरीर में अपने मुखयालय हृदय में आ जाता है। वहाँ समस्त प्राणोन्द्रियाँ जीव के समीप इकट्ठी हो जाती है और जीव वाग् चक्षु आदि समस्त इन्द्रियों से एक-एक करके अपना व्यापार समेटता जाता है। वे वागादि समस्त इन्द्रियाँ एक -एक करके मन में समाहित होती जाती है। मन मुखय प्राण में, प्राण तेज में और तेज परमात्मा में समाहित हो जाता है। अन्त में जीव जब हृदय के उर्ध्व भाग से शरीर की प्राणनाडियों द्वारा नवहारों में से किसी एक से उत्क्रमण करने लगता है, तब अन्तर्यामी परमात्मा द्वारा नियंत्रित तेज से युक्त प्राण अर्थात् उदान शरीर के समस्त अंगों से प्राणों केा समेट कर जीव के साथ ही निकल जाता है। जीव सूर्य की किरणों के माध्यम से (जो बाह्य प्राण का स्रोत है) सूर्य लोक को पहुँचा दिया जाता है। लेकिन साधारण जीव जो मोक्ष विद्या को नहीं जानते, वे पुनः सूर्य की किरणों के द्वारा ही वापस पृथिवी लोकों को अपने कर्मानुसार योनियों में पहुँचा दिये जाते हैं। उपरोक्त से यह स्पष्ट होता है कि हृदय की एक सौ एक नाड़ियों में से जो एक नाडी मूर्धा सिर तक गयी है तथा भेदन करके उसके भी बाहर निकल गयी है, उस प्राण नाड़ी से जो उत्क्रमण करता है वह सूर्य मार्ग से अमृतत्व को प्राप्त करता है। इस प्राण नाड़ी में चरण से मस्तक पर्यन्त ऊपर की ओर जाने वाला-संचार करने वाला उदान प्राण जीवात्मा को पुण्यः लोक को प्राप्त करा देता है। इसी एक प्राण नाड़ी के द्वारा ऊपर की ओर जाने वाला उदान प्राण सूक्ष्म शरीर सहित जीव को कर्मानुसार भिन्न-भिन्न स्थानों को पहुँचाता है। यह एक नाड़ी जो ऊपर की ओर सीधी मस्तक मूर्धा तक गयी है, जिसमें उदान प्राण विचरण करता है, इसी नाड़ी में जीवात्मा का निवास है तथा इस नाड़ी के साथ यानि उदान प्राण से मन को युक्त करते हुए योगीजन आत्मज्ञान को प्राप्त होते हैं। प्राण ही तेज अर्थात् उदानवृत्ति से समपन्न हो-जीव को उसके पाप-पुण्य कर्मों के अनुसार यथा संकल्पित लोकों को प्राप्त कराता है। उत्क्रमण करने वाला उदान प्राण तेजः स्वरूप है। ऊपर जाने वाली इस प्राण नाड़ी द्वारा ऊपर की ओर जाने वाला तथा चरण से मस्तक पर्यन्त संचार करने वाला उदान प्राण है तथा उदानवृत्ति से संयुक्त प्राण अर्थात् उदान प्राण ही मस्तक से पग के तलवे पर्यन्त विचरता है तथा ऊर्ध्वगामिनी इस हृदयस्थ नाड़ी के एक प्रदेश में आत्मा रहता है।
….मनो ह वाव यजमान इष्टफलमेनोदानः
स एनं यजमानमहरह ब्रह्म गमयति।।
– प्रश्न 4.4.
जिस प्रकार यज्ञ में यजमान यज्ञ करता है इसी प्रकार शरीर में मन यजमान है। इष्टफल शरीर में मानो उदान है। यह उदान मन रूपी यजमान को दिन-दिन ब्रह्म की तरफ ले जाता है। (डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार)। शांकर भाष्य के अनुसार मन ही निश्चय यजमान है और इष्टफल ही उदान है, वह उदान इस मनरूप यजमान को नित्यप्रति ब्रह्म के पास पहुँचा देता है। इष्टफलंयागफलमेवादोनो……. अतो यागफलस्थानीय उदानः। अर्थात् उदान वायु ही इष्टफल यानि यज्ञ का फल है, क्योंकि इष्ट फल की प्राप्ति उदान वायु के निमित्त से ही होती है। वह उदान वायु इस मन वाले यजमान को स्वप्नप्रवृत्ति से भी गिराकर नित्यप्रति सुषुप्ति काल में स्वर्ग के समान अक्षर ब्रह्म को प्राप्त करा देता है। अतः उदान यागफल स्थानीय है। एक अन्य टीकाकार ने ब्रह्म का अर्थ सुख किया है, जो प्रकरणोचित नहीं होने से ब्रह्म अर्थ ही उपयुक्त है।
स्वामी सत्यबोध सरस्वती जी के अनुसार प्राणायाम विद्या का इष्टफल उदान प्राण की पिण्ड (धड़) में स्थिरता का होना है। यह उदान प्राण ही मन रूपी यजमान को नित्य प्रति ब्रह्म से सबन्ध करा देता है। उदान प्राण स्थिर होने पर ही आत्मदर्शन उपलध होते हैं। ब्रह्म विज्ञान अत्यन्त सूक्ष्म होने से तथा केवल प्राण विद्या द्वारा उपलध होने से परमात्मा के प्रकाशस्वरूप का साक्षात् दर्शन उदान प्राण के द्वारा धर्माचरण तथा अष्टाङ्ग योग के अनुष्ठान पूर्वक पवित्रात्मा ही परमात्मा को प्राप्त करने में समर्थ होता है।