ओउम
प्रभु स्मरण से हम शक्तिशाली हो प्रभु से रक्षित होते हैं
डा. अशोक आर्य
प्रभु का नाम स्मरण करने से हम वासनाओं से बचते हैं , वासनाओंसे ऊपर उठते हैं । इस प्रकार हम शरीर में सोंम को व्यापक करते हैं तथा जब हम इस अवस्था में आकर युद्धों में होते हैं तो प्रभु हमारी रक्षा करते हैं । इस पर ही यह मन्त्र प्रकाश डाल रहा है : –
अस्य पीतवा शतक्रतो घनो व्रत्राणामभव: ।
प्रावो वाजेषु वाजिनम ॥ ऋग्वेद १.४.८ ॥
इस मन्त्र में दो बातों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि
१. सोम वृत्रों के नाश का कारण
हे अनन्त कर्मों तथा प्रज्ञानों वाले प्रभु ! हमारे अन्दर स्थित काम ,क्रोध आदि जो शत्रु हैं , वह हमारे ज्ञान पर आवरण स्वरुप कार्य करते है । यह काम क्रोधादि हमारे ज्ञान के नाशक होने के कारण हमारे भयंकर शत्रु होते हैं । जब हमारे यह शत्रु हम पर हावी होते हैं तो यह हमारे ज्ञान को ढक लेते हैं , इसके आवरण स्वरुप कार्य करते हैं । हमारे ज्ञान का प्रकाश निकलने ही नहीं देते । इन शत्रुओं से घिरे होने के कारण हम ज्ञान की गंगा में गोते लगा ही नहीं सकते । हमारे अन्दर अज्ञान का अन्धेरा बढने लगता है तथा हम धीरे धीरे विनाश की ओर बढते चले जाते हैं ।
इस सब को ध्यान में रखते हुए हे प्रभु ! हमारे शरीर मे इस सोम की रक्षा करके हमारे ज्ञान पर जो काम , क्रोध आदि का आवरण चढा है तथा यह हमारे शत्रु रुप कार्य कर रहे हैं , हमें नष्ट करने मे लगे हैं , आप हमें इतनी शक्ति दो कि आप की दया से हम हमारे शरीर में सोम की रक्षा करने में सफ़ल हों । इस प्रकार हम काम , क्रोधादि शत्रुओं को मारने में सक्षम हों , इसे मारने वाले बनें ।
उत्तम मानव सदा ही प्रभु के नाम स्मरण में रहता है । नाम स्मरण काम , क्रोधादि बुराईयों का शत्रु होता है । जो सदा प्रभु नाम का स्मरण करता रहता है , उस पर हमारे अन्दर के यह शत्रु कभी प्रभावी नहीं हो सकते तथा इन शत्रुओं के विनाश में वह सक्षम होता है । इस प्रकार नाम स्मरण मात्र से ही वासनाओं रुपि शत्रु नष्ट हो जाते हैं क्योंकि प्रभु नाम स्मरण वह ही कर सकता है , जिसके शरीर मे सर्वत्र सोम व्याप्त हो तथा सोम
के मालिक को कभी इस प्रकार के शत्रु हानि नहीं दे सकते । अत: प्रभु भक्त के शत्रुओं का विनाश निश्चय ही होता है ।
वह पिता सोमपान करने वाले तथा इस सोम की रक्षा करने वाले होते हैं। जब सोम की रक्षा एक मानव में हो जाती है तो यह मानव किसी भी अवस्था में काम , क्रोधादि बुराईयों का दास नहीं होता अपितु इन बुराईयों का वह विजेता होता है । इस प्रकार यह सोम वृत्रों के नाश का ,विनाश का साधन बनता है , कारण बनता है ।
२. हे प्रभो ! आप इन वसनाओं के संग्राम मे विजयी उसे ही करते हैं जो प्रशस्त अन्न वाले हों , जो प्रकर्षेण रक्षित हों । आप रक्षा करने वाले तो हैं किन्तु रक्षा उस की ही करते हैं जो अपनी रक्षा स्वयं करता है । जो
पूरा दिन व्यभिचार व बुरे कामों में लगावे, आप उसकी सहायता नहीं करते क्योंकि वह अपना विनाश स्वयं कर रहा होता है , शत्रु उसके दरवाजे पर आहट दे रहा होता है किन्तु तो भी वह निश्चिन्त हो आनन्द भोगों मे लगा रहता है , शत्रु का सामना नहीं करता , एसे को आप विजयी भी नहीं बनाते ।
सात्विक अन्न का सेवन करने वाले व्यक्ति के बुद्धि व मन भी सात्विक हो जाते हैं , स्वच्छ हो जाते हैं । जब उसने सेवन ही सात्विक अन्न का किया है तो शरीर में दुर्बलता या विलासिता आने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता । एसे व्यक्ति में सोम कणॊं की वृद्धि होती है , शक्ति का इस में संचार होता है । इस कारण एसे सात्विक अन्न को ग्रहण करने वाले को ” वाजिन ” कहा जाता है । यह जो वाजिन नामक व्यक्ति होता है , इस प्रकार के व्यक्ति की प्रत्येक प्रकार के संग्राम में विजय निश्चित होती है । इस वाजिनम का अर्थ बलवान् के रुप में भी लिया जाता है । सोमपान से जो वृत्र विनाश होता है , इस से ही वाजी बनना कहा गया है । वाजी का संग्राम में विजयी होना तय है । यह क्रम ही इस मन्त्र के माध्यम से निरन्तर चलता रहता है । यह क्रम ही इससे प्रतिपादित होता है । जो भी बलवान है , जिसने भी सोम की रक्षा की है तथा जो भी वाजी बन गया है , उसकी युद्ध में विजय निश्चित होती है । एसे व्यक्ति के रक्षक होने के कारण वह पिता इस की रक्षा करते हैं , इसे विजयी करते हैं ।
डा. अशोक आर्य