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प्रभु को जानने की कामना से सोम रक्षण करें

ओउम
प्रभु को जानने की कामना से सोम रक्षण करें
डा अशोक आर्य
विषयों में उलझा मानव साधारण रुप में प्रभु को स्मरण नहीं करता । हम सदा प्रभु को जानने की इच्छा करते हुए इस उद्देश्य को पाने के लिए अपने शरीर में सदा सोम की रक्षा करें । इस तथ्य को ऋग्वेद के अष्टम मंडल की ऋचा संख्या 91 के मन्त्र संख्या तीन में इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
आ चन त्वा चिकित्सामो$धि चन त्वा नेमसी ।
शनैरिव शनकैरिवेन्द्रायेन्दो परी स्रव।। ऋ ग्वेद .91.3 ।।
मन्त्र प्रकाश डालते हुए बता रहा है कि हे प्रभो ! हम सदा आपको ही जानने की इच्छा करते हैं , आप को ही जानने की कामना करते हैं , आपको ही जानने की अभिलाषा राखते हैं । साधारणतया मानव इस संसार में आकर विषयों में एसा उलझता है कि वह आपको भुल जाता है । उसे स्मरण ही नहीं रहता की वह संसार में किस लिए आया था । इस कारण सांसारिक विषयों में फ़ंसा यह मानव आपको स्मरण नहीं करता, याद नहीं करता । यह सत्य भी है कि जब विषयों का पर्दा पड जाता है तो कुछ भी अच्छा दिखायी नहीं देता । जब कुछ भी अच्छा दिखायी नहीं देता तो सर्व श्रेष्ठ होने के कारण विषयों के इस परदे के कारण आप भी दिखायी नहीं देते । आप भी हमारी द्रष्टि से ओझल हो जाते हैं ।
मन्त्र के दूसरे भाग को स्पष्ट करते हुए मन्त्र प्रकाश डालते हुए बता रहा है कि हे सोम ! तू उस परमपिता को प्राप्त कराने का मुख्य साधन है तथा हम प्रभु को पाने के अभिलाषी हैं । इसलिए तुम हमारे शरीर में धीरे धीरे रमण करो , आवो । अत: प्रभु की प्राप्ति के लिए धीरे धीरे ही हमारे शरीर में अपना स्थान बना कर स्थित होवो । इस प्रकार धीरे धीरे विस्तारित होते हुए हमारे सब अंग प्रत्यंगों में व्याप्त हो जावो । जब आप धीरे धीरे शान्ति पूर्वक हमारे शरीर में व्यापत होते हैं तो हमारा जीवन प्रकाश से भर जाता है , सब और प्रकाश ही प्रकाश दिखाई देता है , यह शरीर प्रकाशमय बन जाता है, प्रकाश पुञ्ज बन जाता है । तब ही हम उस पिता के दर्शन करने में समर्थ होते हैं ।
इन्द्रियों को विषयों से विमुख करें
जब मानव सोमरस की रक्षा कर लेता है तो उस की शक्ति बढ जाती है । जब मानव सोम का पान करता है तो उसकी वासनायें भी नष्ट हो जाती हीं , वासनाओं को उसके पास आने का साहस ही नहीं होता । इससे उसे प्रशस्त वसुओ की प्राप्ति होती है । मानव को चाहिए की वह विषयों की और आमुख इन्द्रियों को इन्द्रियों से विमुख कर इन्हें प्रभुप्रवण करने का , प्रभु की और लगाने का यत्न करें ।इस तथ्य को इस ऋका के चोथे मन्त्र में बडे सुन्दर धंग से इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
कुविच्छकत्कुवित्करत्कुविन्नो वस्यसस्करत ।
कुवित्पतिद्विषो यतिरिन्द्रेण संगमामहै ।।ऋग्वेद 8.91. 4 ।।
मन्त्र कहता है कि जब हम अपने शरीर में सोम की रक्षा कर लेते हैं , सोम का रक्षण कर लेते हम तो वे प्रभु हमें शक्तिशाली बना देते हैं , शक्ति का भंडार हम में भर देते हैं । इस प्रकार हमें शक्तिशाली बना कर हमारे शत्रुओं को खूब वोषिप्त काटे हैं , परेशान करते हैं तथा इस प्रकार हमारी ख्याति खूब बढाते हैं , हमारी प्रशस्तीकराते हैं व हमें प्रशस्त कर हमें वसुओ से युक्त करते हैं , वसुओ वाला बनात हैं ।
मन्त्र आगे बता रहा है कि हमारी यह जो इन्द्रियां हैं , वह उस पिता की एसी पत्नी के सामान हैं , जो अपने पति के वश में नहीं होती । यह विषयों के अंतर्गत, विषयों के अभिभूत हो इधर उधर भटकती रह्ती हैं । हम अपने शरीर में व्याप्त इस सोम की सहायता से इन से जब युद्ध करते हैं तो यह निश्चय ही पराजित होती हैं । इस प्रकार पराजित हुई इन इन्द्रियों को हम प्रभु की प्रार्थना में लगा दें , प्रार्थना में अर्पित कर दें , प्रभु की संगत में लगा दें । मानव जीवन की यह ही सब से उत्कृष्ट साधना है कि वह अपनी इन्द्रियों को अपने वश में करे , इन्हें विषयों से विमुक्त कर परमपिता प्रभु की और प्रेरित करे , प्रभु के चरणो में लगाने का यत्न करे , प्रभु प्रवण बनाए ।

डा अशोक आर्य