Tag Archives: prabhu ke samip baithane kaa adhikaar kewal tin prakaar ke logo ko

प्रभु के समीप बैठने का अधिकार केवल तीन प्रकार के लोगों को

ओउम
प्रभु के समीप बैठने का अधिकार केवल तीन प्रकार के लोगों को
डा अशोक आर्य
संसार का प्रत्येक प्राणी परमपिता परमात्मा की गोदी चाहता है । माता की गोदी से उत्तम स्थान बालक के लिए कोई अन्य हो भी नही सकता । परमा[पिता परमात्मा हम सब की माता है , इस कारण हम सब प्राणी उस की गोदी पाने के अधिकारी हैं । वह प्रभु हम सब का पिता भी है , इस कारण भी हम सब उस की गोदी में बैठने के अधिकारी हैं । अधिकारी होते हुए भी परमात्मा सब प्राणियों को समान रूप से अपनी गोदी में नहीं लेता अपितु कुछ विशेष प्रकार के गुणों से युक्त प्राणियों को ही अपनी समीपता प्रदान करता है । सामवेद के मन्त्र संख्या 18 में इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए बताया गया है कि केवल ती न प्रकार के ही प्राणी हैं, जिन्हें वह प्रभु अपने समीप आसन लगाने की अनुमति देता है , इन तीन प्रकार के प्राणियों को ही वह अपनी गोदी में स्थान देता है यथा : –
और्वभ्रिगुवचछूचिम्प्नवानवदा हुवे ।
अग्निं समुद्रवाससम ।। साम 18 ।।
इस मन्त्र में कहा गया है कि मैं अपने प्रभु को और्व के सदृश , भृगु की भांति तथा अपनावान की तरह शुचि , अग्नि तथा समुद्रवासस उस प्रभु को पुकारता हूँ , आह्वान करता हूँ , स्मरण करता हूँ । यह हमारी वैदिक संस्कृति का एक नियम है कि हम जिसे पुकारते हैं, जिस की उपासना करते हैं, स्तुति करते हैं, प्रार्थना करते हैं , हम उस जैसा बनने का प्रयास करते हैं , यह ही उपासना का ठीक व सही मार्ग है । यदि हम उस के गुणों को ग्रहण ही नहीं करना चाहते तो हम उसकी उपासना ही क्या करेंगे ? यदि हम विष्णु की उपासना करने की इच्चा रखते हैं तो हमें सर्वप्रथम विष्णु के गुणों को समझ कर धारण करना होगा, तब ही हम विष्णु की उपासना के अधिकारी बनते हैं ।
1) प्रभु की उपासना के लिए ह्रदय का निर्मल व विशाल होना आवश्यक : –
इस नियम के आलोक मैं मन्त्र में जिन तीन विषयों की चर्चा की गयी है , उनमें से प्रथम विषय है प्रभु के स्वरूप का । हमारे वह प्रभु निर्मल हैं । यदि हमुस निर्मल प्रभु की उपासना करने के अभिलाषी हैं तो हम स्वयं को भी निर्मल बनावें । हम उस और्व प्रभु की उपासना करना चाहते हैं तो हम स्वयं को भी और्व अर्थात उरु की संतान के सदृश्य विशाल बनावें । उदार हृदय बनावें । विशालता का सम्बन्ध पवित्रता से होता है जबकि संकोच में अपवित्रता आती है । उस शुची अर्थात विशाल प्रभु की उपासना का अधिकारी तो वह प्राणी ही हो सकता है जिसमें विशालता के गुण हों । यूँ भी कह सकते हैं की जो अपकारियों के लिए , हनी करने वालों के लिए भी विशाल ह्रदय रखता हो वह ही उस विशाल व शद्ध स्वरूप प्रभु की उपासना का अधिकारी है ।
मन्त्र के इस प्रथम विषय के आधार पर ही कहा जाता है कि प्रभु भक्त सदा निर्मल व विशाल ह्रदय होता है । प्रभु की उपासना के लिए बैठने से पूर्व इस कारण ही शाब्दिक आर्थ के अनुसार प्राणी स्नानादि करने के पश्चात ही आराधना पर बैठता है किन्तु मन्त्र इस शाब्दिक अर्थ को नहीं लेता । मन्त्र का भाव है कि हम अपने ह्रदय की शुद्ध , पवित्र व निर्मल कर विशालता को ग्रहण कर प्रभु की उपासना करें । प्रभु चिंतन के समय किसी प्रकार की चिंता, शौक हमारे अन्दर न हों , इस लिए जिसने हमारा अपकार भी किया हो , उसे भी अपने ह्रदय में न रखें । हमारा वह प्रभु पवित्र है, हम भी पवित्र हों , हमारा वह प्रभु क्षमाशील है , हम भी क्षमाशील बनें । प्रभु के गुणों को अपनाये बिना उसके समीप जाना तथा उसकी आराधना करने का कोई लाभ नहीं । इस लिए प्रभु की उपासना, आराधना करते समय हम भी उस प्रभु जैसा बनने का यतना करें । यही ही हमारी निर्मलता है , यही है हमारी विशालता है ।
2) प्रभु को पाने के लिए तप्श्कार्या से परिपाक करो : –
मन्त्र में जो दूसरी बात पर प्रकाश डाला गया है वह है कि प्रभु का जो उपासक है , वह भृगु है , जो अग्नि की उपासना करता है । अग्नि ज्ञान को भी कहते हैं । इस आलोक से स्पष्ट होता है कि हमारा वह पिटा ज्ञानाग्नि का पूंजा है , केंद्र है । उस प्रभु की उपासना किसी आचार्य के समीप रह कर ही की जा सकती है । इतना ही नहीं आचार्य के समीप रहते हुए तपश्चर्या की अग्नि में स्वयं को परिपाक कर कुंदन बनाकर ग्यानी बनाने का यत्न किया जाता है ।
मन्त्र के इस भाग के आलोक में ही हमारे संतों ने गुरुकुल परम्परा का आरम्भ किया था , जहाँ ज्ञान के अभिलाषी प्राणियों को एकत्र कर उन्हें तपश्चर्या पूर्ण जीवन बिताने का ढंग बताया जाता था । कठिन तपस्वी जीवन व्यतीत करते हुए उन्हें ज्ञान का दान दिया जाता था । आज जो ज्ञान हम स्कूलों , कालेजों में ले रहे हैं , उसमें किसी प्रकार की तपश्चर्या न होने से ही विद्यार्थी विकृत हो रहे हैं । हमारा उद्देश्य तो है उस ज्ञानस्वरूप प्रभु को पाने का किन्तु हम वासनाओं को छओड ही नहीं रहे उस ज्ञान स्वरूप प्रभु जैसा बनने का यत्न ही नहीं कर रहे तो ज्ञान कैसे पा सकते है ? अत: पहले हमें तपोमय जीवन बनाकर ही उपासना करनी होगी तब ही ज्ञान के अधिकारी बनेंगे ।
3) जीवन को कर्म के ताने बाने में बुनें : –
मन्त्र में जो तीसरी बात प्रकाशित की गयी है ,वह है उपासक ,प्रभु को पाने का अभिलाषी अप्नवान ।अप्नवान भी एसा,जो समु-द्रवासस को उपास्य बनाता है । अपन से भाव होता है कर्म तथा वान का भाव है जीवन । इससे स्पष्ट होता है जीवन को कर्मों से भरपूर बनाना तथा सदा किसी न किसी कर्म में लिप्त रहना ही इस अर्थ में आता है । अत: जो व्यक्ति सदा अपने जीवन में कर्म करता रहता है वह अप्नवान होने से प्रभु का प्यारा है । जो आलसी है, निठल्ला है , कभी कुछ करता ही नहीं , एसे व्यक्ति को प्रभु कभी पसंद नहीं करता । इस मैं भी वानं शब्द का अर्थ होता है बुनना । जिस प्रकार ताने बाने के बिना वस्त्र नहीं बुना जा साकारता , उस प्रकार ही जीवन भी किसी विशेष ताने बाने से बुने गए व वस्त्र के सामान ही है । कुछ विशेष नियमों के अंतर्गत ही चलता है ।
मन्त्र में एक अन्य बात की और ध्यान दिलाते हुए बताया गया है कि वह प्रभु समुद्रवासस होता है । वह अर्थात वह ही उस प्रभु का उपासक हो सकता है जो समुद्रवासस हो । का भाव है जिसका निवास आनंद के साथ है । प्रभु तो वास्तव में ही आन्दमय होता है । सदा क्रियाशील रहना प्रभु का स्वभाव होने से यही उसकी आनंदमयिता का रहस्य है । क्रियाशीलता के बिना तो आनंद मिल ही नहीं सकता । जो व्यक्ति पूरा दिन निठल्ला रहता है, पूरा दिन सोया ही रहेगा, उसे सांसारिक दू:ख , क्लेश घेर लेते हैं , वह शोक , कष्ट में ही रहता है । उसे कभी आनंद का आभास भी नहीं होता ।
अत; क्रियाशीलता के बिना आनंद मिल ही नहीं सकता । जब हम ग्यानी बनकर कर्म करते हैं , ज्ञानपूर्वक कर्म करते हैं तो हम आनंद प्राप्ति के साधन को अपना रहे होते हैं , परिणाम स्वरूप हमें आनंद मिलता है । यह ही आनंद प्राप्ति का साधन होता है । जब हम इस भावना से कर्म करते हैं तो हमारे सब कर्म पवित्र होते हैं , पवित्र भावना से जो किये जाते हैं । पवित्र व उदार कर्मों में ही शुचिता होती है , इन सब का परिणाम भी आनंद कारक व लाभदायक ही होता है ।
डा अशोक आर्य