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पितृ-यज्ञ

                  पितृ-यज्ञ

‘पितृयज्ञ’ दो शबदों से मिलकर बना है। एक ‘‘पितृ’’ और दूसरा ‘यज्ञ’।

‘पितृ’ का अर्थ है पिता। माता और पिता दोनों को भी ‘पितृ’ कहते हैं। जैसे ‘‘माता च पिता च पितरौ’’ (द्वन्द्वैकशेष समास)। ‘माता’ और ‘पिता’ दोनों शबदों का जब द्वन्द्व समास बनाते हैं तो ‘पितरौ’ बनता है। अर्थात् ‘पितृ’ का अर्थ है माँ और पिता दोनों।

‘पितृ’ का प्रथम विभक्त में ‘पिता’ हो जाता है। कुछ संस्कृत न पढ़े हुये लोग समझते हैं कि ‘पिता’ जीते हुये बाप को कहते हैं और ‘पितर’ मरे हुये बाप को, परन्तु यह बात नहीं है। असली शबद ‘पितृ’ है। जब उसका कर्त्ताकारक बनाते हैं तो ‘पिता’ हो जाता है। जब कर्मकारक बनते हैं तो ‘पितरम्’ हो जाता है। कर्त्ताकारक बहुवचन में ‘पितरः’ होता है। जैसे ‘मम पिता गच्छति’ का अर्थ है ‘मेरा बाप जाता है’। ‘पितरम् अपश्यम्’ का अर्थ है मैंने बाप को देखा। ‘तेषां पितर आयान्ति’ का अर्थ है ‘उनके बाप आते हैं’।

इस प्रकार ‘पितृ’ या ‘पितर’ शबदों में मौत का कुछ संकेत नहीं है। और यह कहना गलत है कि ‘पितृ’ या ‘पितर’ मरे हुये बाप के लिये आता है, जीते हुए के लिये नहीं।

दादे, परदादे या दादी और परदादी के लिये भी ‘पितृ’ शबद आता है। ‘यज्ञ’ शबद का अर्थ है पूजा, सत्कार। कुछ लोग समझते हैं कि ‘यज्ञ’ शबद और ‘हवन’ शबद का एक अर्थ है। यह भी गलत है। हवन को भी यज्ञ कहते हैं, परन्तु यज्ञ अन्य अर्थों में आता है। ‘यज्’ धातु-जिससे ‘यज्ञ’ शबद बना है-देवपूजा, संगतिकरण और दान, तीन अर्थों में आती है। इसलिये ‘यज्ञ’ का अर्थ केवल हवन नहीं है। उदाहरण के लिये ‘ब्रह्मयज्ञ’ का अर्थ है-स्वाध्याय या ईश्वर का ध्यान। अतिथि-यज्ञ का अर्थ है ‘मेहमान की खातिरदारी करना’। यहाँ न तो होम या हवन से समबन्ध है, न आहुति देने से, न किसी पशु आदि के काटने से। देखिये मनुस्मृति अध्याय 3, श्लोक 70-

अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृ यज्ञश्च तर्पणम्।

होमो दैवो बलिर्भौतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम्।।

अर्थात् पढ़ने-पढ़ाने का नाम ब्रह्मयज्ञ है। तर्पण को पितृ-यज्ञ कहते हैं। होम देवयज्ञ कहलाता है। पशुओं को भोजन देने का नाम भूतयज्ञ है और अतिथि के सत्कार को नृयज्ञ कहते हैं। हमने यहाँ यह श्लोक इसलिये दिया है कि केवल ‘देवयज्ञ’ में ‘यज्ञ’ शबद का अर्थ ‘होम’ है। अन्यत्र यज्ञ का अर्थ पूजा और सत्कार ही है।

आश्वालयन गृहसूत्र में भी ऐसा ही है।

अर्थात् पंचयज्ञो देवयज्ञो भूतयज्ञः पितृयज्ञो ब्रह्मयज्ञो मनुष्ययज्ञ इति तद् यदग्नौ जुहोति स देवयज्ञो यद् बलिं करोति स भूतयज्ञो यत् पितृयो ददाति सः पितृयज्ञो यत् स्वाध्यायमधीते स ब्रह्मयज्ञो यन् मनुष्येयो ददाति स मनुष्य यज्ञ इति तानेतान् यज्ञानहरहः कुर्वीत। (अश्वालयन गृह्यसूत्र तृतीय अध्याय)

हम ऊपर कह आये हैं कि पितृ का अर्थ है माता, पिता या अन्य पूर्वज। और यज्ञ का अर्थ है सत्कार। इसलिये ‘पितृयज्ञ’ का अर्थ हुआ माता-पिता आदि की सेवा सुश्रुषा।

इसमें वेद का भी प्रमाण हैः-

अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः

अर्थात् लड़के को चाहिये कि पिता के व्रतों का अनुसरण करने वाला और माता को प्रसन्न करने वाला हो। अर्थात् सन्तान को माता-पिता आदि गुरुजनों की सेवा करनी चाहिये।

अब एक प्रश्न उठता है कि पितृयज्ञ मरे हुये माता-पिता का होता है या जीते हुओं का। इसमें लोगों का मतभेद है। हम कुँआर के महीनों में लोगों को अपने मरे हुये पितरों का श्राद्ध-तर्पण करते हुए देखते हैं, कुँआर के कृष्ण-पक्ष को लोग ‘पितृपक्ष’ कहते हैं, क्योंकि इसमें मरे हुये पुरखों का श्राद्ध-तर्पण किया जाता है।

हम अभी कह चुके हैं कि ‘पितृ’ शबद में कोई ऐसी बात नहीं, जो मरे हुये माँ-बाप की ओर संकेत करे। अब हम यहाँ यह देखना चाहते हैं कि क्या मरा हुआ भी किसी का बाप या माँ हो सकता है।

मनुष्य नाम है विशेष शरीरधारी जीव का। न तो केवल शरीर को ही मनुष्य कहते हैं। न केवल जीव को। जब शरीर से जीव निकल जाता है तो उसे मनुष्य नहीं कहते किन्तु ‘मनुष्य की लाश’ कहते हैं। वह जीव भी मनुष्य नहीं है, क्योंकि वह जीव मनुष्य के अतिरिक्त अन्य शरीर भी धारण कर सकता है। जो आज आदमी के शरीर में है, वह कल मरकर चींटी के शरीर को धारण कर सकता है और परसों कुत्ता, बिल्ली इत्यादि का। समभव है कि फिर किसी जन्म में वह मनुष्य का शरीर धारण करे।

इसी प्रकार न तो शरीर को ही माँ या बाप कहते हैं न जीव को। जब तक हमारे माता, पिता, दादी, बाबा जीवित हैं, तब तक वह हमारे माता, पिता, दादी या बाबा हैं। जब मर गये तो उनकी लाश रह जायगी, जिसको जला देंगे। न्याय-दर्शन में कहा है कि-

‘‘शरीरदाहे पातकाभावात्।’’

– (न्याय-दर्शन अध्याय 3)

अर्थात् लाश के जलाने से पाप नहीं होता। जब हमारे माता-पिता आदि मर जाते हैं और हम उनकी लाश को जला आते हैं, तो कोई हमसे यह नहीं कहता कि तुमने पितृ-हत्या की, तुम पापी हो। क्योंकि जिस चीज को हमने जलाया वह माँ-बाप न थे, किन्तु माँ-बाप की लाशें थीं।

अब प्रश्न होता है कि मरने के बाद हमारे माँ-बाप कहाँ हैं? क्या वह जीव माँ-बाप हैं? कदापि नहीं। उन जीवों की पितृ संज्ञा नहीं। क्योंकि मरने के पश्चात् न जाने उन्होंने कहाँ जन्म लिया। वही जीव समभव है कि हमारे ही घरों में नाती पोतों या पुत्र के रूप में जन्म लें। या अपने कर्मानुसार ऊँच या नीच योनियों को प्राप्त हों या यदि परमयोगी हों तो उनकी मुक्ति भी हो जाए। यदि हमारे माता या पिता हमारे पुत्र या पुत्री के रूप में जन्म लेंगे तो हम उनके ‘पितृ’ होंगे न कि वह हमारे। वस्तुतः माता-पिता आदि समबन्ध उसी समय तक है जब तक कि शरीर और जीव संयुक्त हैं? मृत्यु होते ही यह समबन्ध छूट जाते हैं।

जब माता-पिता मर जाते हैं तो हम कहते हैं कि हमारे माता-पिता मर गये, परन्तु वह मरते नहीं। जीव तो सदा अमर है। इसीलिये मरे हुये माता-पिता की पितृ संज्ञा केवल भूतकाल की अपेक्षा से होती है, वर्तमान काल की अपेक्षा से नहीं। क्योंकि वह समबन्ध केवल भूतकाल में था, अब नहीं। इसीलिये यह कहते हैं कि हमारे पिता धनाढ्य थे, या निर्धन थे, विद्वान् थे या अविद्वान् थे, परन्तु यह कोई नहीं कहता कि आज हमारे माता कुत्ता या घोड़ा हैं या हाथी हैं, क्योंकि हमारा पितृत्व का समबन्ध उसी दिन समाप्त हो गया, जिस दिन वे मर गये। इसीलिये पितृयज्ञ केवल जीवित माता-पिता का हो सकता है न कि मरे हुओं का। इसी को चाहे श्राद्ध कह लीजिये चाहे तर्पण। साधारणतया श्राद्ध का मरे हुओं के साथ जो समबन्ध है, वह गलत है और वह एक प्रकार की कुप्रथा है। कुँआर को पितृपक्ष कहना गलत है। अगर हमारे माँ-बाप या दादी बाबा जीवित हैं तो हमारे लिये सौभाग्यवश समस्त वर्ष ही पितृपक्ष है, क्योंकि हमको नित्य उनकी सेवा, सत्कार करना चाहिये, परन्तु यदि वह मर गये हैं तो कुँआर में ही कहाँ से आयेंगे। इसलिये श्राद्ध-तर्पण जीते हुओं का होना चाहिये।

यह बात मनुस्मृति के नीचे के श्लोकों से प्रकट होती हैः-

देवतातिथिभृत्यानां पितृणामात्मनश्च यः।

न निर्वपति पञ्चानामुच्छ्रवसन्न स जीवति।।

– (मनु. 3/72)

इस पर मन्वर्थ मुक्तावली में कुल्लूकभट्ट की टीका इस प्रकार हैः-

देवतेति।। देवता शदेन भूतानामपि ग्रहणम्।

तेषामपि बलिहरणे देवतारूपत्वात्। भृतयः वृद्ध माता

पित्रोदयोऽवश्यं सवर्धनीयाः। सर्वत एवात्मानं गोपायेत् इति श्रुत्या आत्मपोषणमप्यवश्यं कर्त्तव्यम्।

देवतादीनां पञ्चानां योऽन्नं न ददाति स उच्छ्रवसन्नपि जीवित कार्याकरणान्नजीवतीति निन्दयावश्यकर्त्तव्यता बोध्यते।

यहाँ ‘पितृ’ का अर्थ ‘‘वृद्ध मातापित्रादयो’’ अर्थात् ‘‘बूढ़े माँ-बाप’’ स्पष्ट दिया है। यह श्लोक भी उसी प्रसंग का है जिसमें पाँच यज्ञों का वर्णन है। इसलिये हमारी यह धारणा ठीक है कि पितृयज्ञ बूढ़े माता-पिता का हेाता है न कि मरों का। इसमें कुल्लूक भट्ट ने ‘अन्न देने’ का भी वर्णन किया है। अर्थात् देवता, अतिथि, भृत्य, पितृ और आत्मा को अन्न देना चाहिये। इनमें जब मरे हुये अतिथि, मरे हुये भृत्य, मरे हुये आत्मा का वर्णन नहीं, तो ‘पितरों’ को ही मरा हुआ क्यों माना जाए? जिस प्रकार अतिथियज्ञ जीवित अतिथियों का है, इसी प्रकार पितृयज्ञ भी जीवित पितरों का होना चाहिये।

आगे के श्लोक से और भी स्पष्टता होती हैः-

ऋषयः पितरो देवा भूतान्यतिथयस्तथा।

आशासहे कुटुबियस्तेयः कार्य विजानता।

– (मनु. 3/80)

इस पर कुल्लूकाट्ट की टीका हैः-

एते गृहस्थेयः सकाशात्प्रार्थयन्ते। अर्थात् ऋषि, पितर, देव, भूत और अतिथि लोग गृहस्थियों से ही अन्न आदि की आशा रखते हैं। इससे भी स्पष्ट है कि ऋषि, देव, पितर और अतिथि सब जीवित ही हैं। मरे हुए नहीं।

अगले श्लोक से तो कोई सन्देह ही नहीं रहताः-

कुर्यादहरहः श्राद्धमन्नाद्ये नोदकेन वा।

पयोमूलफलैर्वापि पितृयः प्रीतिमावहन्।

– (मनु. 3/82)

अर्थात् (अहरहः) प्रतिदिन श्राद्ध करे। किस प्रकार? अन्न, जल, दूध, मूल, फल से। किसका श्राद्ध करे? पितृयः-पितरों का। किस प्रकार? प्रीतिमावहन् अर्थात् प्रेम से बुलाकर।

यहाँ तीन बातें कहीं हैं। (1) हर दिन श्राद्ध करे। (2) अन्न, जल, दूध, फल आदि से। (3) प्रीतिपूर्वक बुलाकर। यह तीनों बातें जीते हुओं में घट सकती हैं, मृतकों में नहीं। इसमें न तो कुंआर के पितृपक्ष का वर्णन है, न गया के पिण्डदान का, न कौओं को खिलाने का। जीते पिता-माता के लिये, जो बुड्डे हो गये हैं रोज-रोज श्राद्ध करने का विधान है।

फिर यदि मरे हुये पितरों का तात्पर्य होता तो उनको प्रीतिपूर्वक कैसे बुला सकते? क्या वे अपनी-अपनी योनि को छोड़कर आ सकते थे? कदापि नहीं। हम तो कभी नहीं देखते कि कोई जीव कुँआर के कृष्णपक्ष में अपने शरीर को छोड़कर श्राद्ध लेने के लिये जाता हो या जा सकता हो। मरे हुओं का श्राद्ध करना असमभव और असमबद्ध कार्य करने की कोशिश करने के समान है।

यहाँ एक प्रश्न उठता है कि संस्कृत शास्त्र में मृतक-श्राद्ध का वर्णन नहीं है। हम मानते हैं। स्वयं मनुस्मृति मृतक-श्राद्ध का बहुत से श्लोकों में वर्णन है। उनके लिये कहीं मांस के पिण्डों का वर्णन है, कहीं अन्य अण्ड-बण्ड बातों का। जैसे

द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन्मासान् हारिणेन तु।

औरन्भ्रेणाथ चतुरः शाकुनेनाथ पञ्च वै।।

षण्मासांच्छागमांसेन पार्षतेन च सप्त वै।

अष्टावेणस्य मांसेन रारवैण नवैव तु।।

दशमासांस्तु तृप्यन्ति बराहमहिषामिषैः।

शश कूर्मयोस्तु मांसेन मासानेकादशैव तु।।

– (मनु. 31, 268, 169, 270)

अर्थात् मछली से दो मास के लिये, हिरण के मांस से तीन मास के लिये, भेड़ के मांस से चार मास के लिये, पक्षियों के मासं से पाँच मास के लिये, बकरी के मांस से 6 महीनों के लिये, चित्र मृग के मांस से सात मास के लिये, एण के मास से आठ, हरु के मास से नौ, सुअर और भैंसे के मांस से दस और खरगोश और कछुवे के मांस से 11 महीनों के लिये पितरों की तृप्ति होती है।

ऐसी अण्ड-बण्ड और हिंसायुक्त बातों को आज कोई पण्डित नहीं मानता। और न कहीं इस प्रकार के श्राद्ध किये ही जाते हैं। बात यह है कि मनुस्मृति में पीछे से स्वार्थी लोगों ने समय-समय पर अपने स्वार्थ की बातें मिलाकर उसको दूषित कर दिया है। इसी प्रकार अन्य शास्त्रों में भी बहुत मिलावट हुई है। बुद्धिमान् लोगों को थोड़े से विचार करने से ही पता चल सकता है।

हम कह चुके हैं कि मृतक-श्राद्ध न केवल अनुचित ही है, किन्तु असमभव भी है। हमारे पास कोई साधन नहीं है कि यदि हम घोर प्रयत्न करें तो भी उन जीवों को जो अपनी जीवित दशा में हमारे माता-पिता कहलाते थे कुछ खाना पानी पहुँचा सकें। मरकर प्राणी की दो ही दशा हो सकती हैं। या तो मुक्त हो गये या जन्म-मरण के फेर में हैं। यदि मुक्त हो गये हों तो मुक्त जीवों को खाना-पानी या श्राद्ध-तर्पण से क्या प्रयोजन? वह तो परमगति को पहुँच चुके। प्राकृतिक पदार्थों से उनका कुछ समबन्ध नहीं रहा। यदि वे जन्म ले रहे हैं और पशु, पक्षी या मनुष्य की योनि में हैं तो उन तक हम उनके शरीरों द्वारा ही पहुँच सकते हैं। केवल नदी में जलदान करने या ब्राह्मणों को खिलाने, या कौओं को खिलाने से उन तक कुछ भी नहीं पहुँच सकता। अतः यह सब व्यर्थ और भ्रममूलक है।

कुछ लोग कहते हैं कि हमारे कर्मों का उनको फल मिलता है, परन्तु यह तो महा अनर्थ है। वैदिक-सिद्धान्त में जो करता है, वही भोगता है। एक के कर्म का फल दूसरे को मिला करे तो बड़ा अन्याय हो जाए। ईश्वर जन्म तो मरते समय ही देता है। फिर हमारे कर्मों का फल हमारे मरे हुये पितरों को कदापि नहीं पहुँच सकता।

कुछ लोग श्राद्ध इसलिये करते हैं कि इस बहाने से ब्राह्मणों को भोजन देने का पुण्य मिल जाता है, परन्तु वह ठीक बात का विचार नहीं करते। हम ब्राह्मणों को भोजन खिलाने के विरुद्ध नहीं हैं, न कौओं या मछलियों को भोजन खिलाने के। क्योंकि विद्वान्, ऋषि, मुनि अथवा अतिथि ब्राह्मणों को खिलाना अतिथियज्ञ है और कौओं, चीटियों, मछलियों को खिलाना भूतयज्ञ है, परन्तु हमारा विरोध इस अज्ञान और धोखे से है। तुम यदि अतिथि यज्ञ करते हो तो अतिथियज्ञ के नाम से करो। भूतयज्ञ करते हो तो भूतयज्ञ के नाम से करो। करते तो हो भूतयज्ञ या अतिथियज्ञ और नाम रखते हो पितृयज्ञ का इससे खाने वाले और खिलाने वाले दोनों को भ्रम होता है। ब्राह्मणों को यज्ञ कहकर खिलाओ कि हम तुमको खिलाते हैं। कौओं को यह कह कर खिलाओ कि हम पक्षियों को खाना देते हैं। पितरों का बहाना क्यों करते हो! जो काम झूठ और अज्ञान के मिलाकर किया जाता है उससे पुण्य के स्थान में पाप होता है।

सच पूछिये तो मृतक-श्राद्ध का सिद्धान्त वैदिक नहीं है। या तो इसका आरमभ बौद्धों से हुआ है, जो मृतकों के आत्माओं की पूजा करते थे। या ईसाई-मुसलमानों से लिया है, जो पुनर्जन्म को नहीं मानते। पुराने मिश्र देश वालों को इस बात का ज्ञान न था कि मृत्यु के पीछे जीव का क्या होता है। इसलिये जब कोई मर जाता था तो उसकी लाश के साथ भोजन आदि भी कब्रों में गाड़ देते थे। वह समझते थे कि लाश को खाने की जरूरत होगी। जब कोई राजा मरता था तो उसकी रानियाँ भी साथ में गाड़ी जाती थीं। आजकल भी ईसाई और मुसलमानों को यह पता नहीं कि मृत्यु के पीछे जीवात्मा का क्या होता है। वह समझते हैं कि कब्र में जीवात्मा रहता है, इसीलिये वह कब्र पर फातिहा पढ़ते हैं, चद्दर चढ़ाते हैं और मन्नत माँगते हैं। वह समझते हैं कि जीव वहाँ मौजूद है। कुछ लोग समझते हैं कि क़यामत के दिन मुर्दे उठेंगे। यह सब ‘आत्मा’ के तत्व को न समझने और पुनर्जन्म न मानने का फल है। यदि ईसाई, मुसलमान मरे हुओं का श्राद्ध करते तो आश्चर्य न होता, क्योंकि उनको पुनर्जन्म और कर्म-व्यवस्था का पता नहीं, परन्तु बड़े आश्चर्य की बात है कि वैदिक-धर्म के मानने वाले हिन्दू भी ऐसे भ्रममूलक काम करते हैं, जबकि उनको आवागमन और कर्मफल-व्यवस्था का ज्ञान है।

वस्तुतः पितृयज्ञ यह है कि हम जीते हुये माता-पिता, आदि की सेवा करें। क्योंकि वह बुड्ढे हो गये हैं। अब वह धन कमाने के योग्य नहीं रहे। उन्होंने हमारे ऊपर उपकार किया है। हमको पाल-पोस कर बड़ा किया। उनका हमारे ऊपर कर्जा है, जिसको पितृऋण कहते हैं। पितृऋण के चुकाने का एकमात्र उपाय पितृयज्ञ है। माता-पिता की सेवा करने से हम अपने ऋण से उऋण होंगे। वह हमको आशीर्वाद देंगे और हमारा कल्याण होगा।

सच पूछिये तो मृतक-श्राद्ध पितृयज्ञ का बाधक है, साधक नहीं। हम नित्यप्रति आँख से देखते हैं कि बूढ़े माँ-बाप को कोई पूछता तक नहीं। वह अनेक प्रकार के कष्ट उठाते हैं। मरने पर उनका बहुत धन लगाकर श्राद्ध किया जाता है।

जियत पिता से दंगमदंगा।

मरे पिता पहुचाये गंगा।।

बहुत से बूढ़े लोग भी भ्रम में पड़े हैं। वे जीते जी खाते नहीं। एक-एक कौड़ी जोड़कर अपने श्राद्ध के लिये छोड़ मरते हैं। इस प्रकार वह अपने कर्त्तव्य की हानि करते हैं। यदि उनको दान ही करना था तो अपने जीते जी दान कर जाते, परन्तु वह दान नहीं करना चाहते, मानों दान को भी स्वार्थ के साथ मिलाकर दूषित कर रहे हैं।

जब तक लोग यह न समझेंगे कि पितृयज्ञ का मृतकों से समबन्ध नहीं, उस समय तक लोगों में सच्चे पितृयज्ञ के लिये श्रद्धा न होगी। और माता-पिता की उपेक्षा ही होती रहेगी।

बहाने मत खोजो। जो करना है उसको उद्देश्य समझकर और ज्ञानपूर्वक करो, तभी कल्याण है। गपोड़ों पर विश्वास मत करो।