मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में वर्णाश्रम धर्म
स्वामी धर्मेश्वरानन्द सरस्वती…..
कहते हैं कि चौरासी लाख योनि में मनुष्य योनि ही सर्वश्रेष्ठ है। मनुष्य का जीवन बुद्धिप्रधान होने से विवेकवान विचारशील होता है। निरुक्तकार ने मुनष्य शब्द का निर्वचन करते हुए कहा है- मत्वा कर्माणि
सीव्यति इति मनुष्यः। अर्थात् जो ऊँच-नीच, अच्छा-बुरा, सोच-विचार कर कार्य कहते हैं, परन्तु आजकल
दुर्भाग्यवश मनुष्य में सोच-विचार करने की ऊँच-नीच सोचने का सामर्थ्य नहीं रहा। भले ही कई बार पशु-पक्षी
अपना तथा अपने पालक या रक्षक का हिताहित सोच लेते हैं, परन्तु मनुष्य के ऊपर जब तमोगुण का पर्दा पड़ जाता है तो उसके सोच-विचार करने की बुद्धि नष्ट हो जाती है। मनुष्य अपने सामर्थ्य को पहचाने तथा मानव जीवन की महत्ता को समझे, इसलिए भगवान् ने अपने पवित्र वाणी वेद में ज्ञान के अनुसार शास्त्रों में चार वर्ण ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र कहे है, वेद भगवान् कहते हैं-
ब्राहमणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरु तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।
अर्थात्- जो (अस्य) पूर्णव्यापक परमात्मा की सृष्टि में मुख के सदृश सब में मुख्य उत्तम हो वह (ब्राहमण)
ब्राहमण (बाहू) ‘‘बाहुर्वै बलं बाहुर्वै वीर्यम्’’ (शतपथ)।बल वीर्य का नाम बाहु है। वह जिसमें अधिक हो सो
(राजन्यः) क्षत्रिय (ऊरु) कटि के अधो और जानु के उपरिस्थ भाग का नाम है जो सब पदार्थों और सब देशों में
उरु के बल से जाने-आवे प्रवेश करें वह (वैश्यः) और (पद्भ्याम्) जो पग के अर्थात् नीच अन्ग सदृश मुर्खतादि
गुणवाला हो वह शूद्र है। अन्यत्र शतपथ ब्राहमणादि में भी इस मन्त्र का ऐसा ही अर्थ किया है जैसे- ‘‘यस्मादेते
मुख्यास्तस्यामुखतोऽसृज्यन्त’’ इत्यादि । जिससे ये मुख्य है इससे मुख से उत्पन्न हुए ऐसा कथन संगत होता है अर्थात् जैसा मुख सब अन्ग में श्रेष्ठ है वैसे पूर्णविद्या और उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव से युक्त होने से मनुष्य जाति में उत्तम ब्राहमण कहाता है। इसलिए जो बुद्धि से काम करते हैं वह ब्राहमण जो शक्ति (भुजा से काम लेते हैं) वे क्षत्रिय। जो धन-सम्पत्ति का अर्जन करते हैं वो वैश्य परन्तु जो ऊपर के तीनों कार्य न कर सके वह शूद्र है।
प्राचीनकाल में जाति का प्रचलन था ही नहीं मनुष्यों के गुण-कर्म के अनुसार वर्ण बदल सकता था।
शूद्रो ब्राहमणतामेति ब्राहमणश्चैति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जातमेवन्तु विद्यावैश्यास्तथैव च।। (मनु0)
जो शुद्रकाल में उत्पन्न होके ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्य के समान गुण, कर्म, स्वभाव वाला हो तो वह शूद्र
ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाये, वैसे ही ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो और उसके गुण, कर्म और स्वभाव शूद्र के सदृश हो तो वह शूद्र हो जाये।
धर्मचर्य्यया जघन्यो वर्णः पूर्वं पूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ।।१।। अधर्मचर्य्यया पूर्वो वर्णो जघन्यं वर्णमापद्यते जाति परिवृत्तौ।।२।।
ये आपस्तम्ब के सूत्र हैं। धर्माचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम-उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है और वह
उसी वर्ण में गिना जावे कि जिस-जिस के योग्य होवें।।१।। वैसे अधर्माचरण से पूर्व अर्थात् उत्तम वर्णवाला मनुष्य अपने से नीचे-नीचे वाले वर्ण को प्राप्त होता और उसी वर्ण में गिना जावें।।२।।
महाभारत के कालतक यही वर्णव्यवस्था देश में चलती रही उस समय किसी भी प्रकार का ऊँच-नीच का भेदभाव मनुष्य जाति में नहीं था। सभी का एक साथ खाना-पीना, उठना-बैठना होता था, परन्तु जब महाभारत के पीछे शनैः-शनैः अज्ञानता फैलने लगी, जाति को जन्म से मानने लगे, ऊँच-नीच का भेदभाव हो गया, जो कोई किसी भी वर्ण का व्यक्ति ज्ञान-अज्ञान वश कुछ भूल कर बैठे तो उसे वर्ण या जाति से अलग कर दिया जाता था। इसी बीच जब विदेशी यवन, शक, हूण, आदि जातियाँ हमारे देश में आ गई, वे अपनी संख्या बढ़ाने के लिए वर्ण गिरे हुए व्यक्तियों को अपने समाज या जाति में मिलाने लगे। इस प्रकार शनैः-शनैः हजारों लोगों को यवन बनाने लगे। उनको धन और भोग-विलास के साधन देने लगे इससे उनकी संख्या बढ़ने लगी। जब सुधारकों ने इन लोगों को जाति में शामिल करने का प्रयत्न किया तो उन सुधारकों का भयंकर विरोध हुआ। कईयों को मार दिया गया। इधर विदेशी धर्मवालों की संख्या बढ़ने लगी वे चिढ़ कर लुटेरों के साथ मिलकर उनका साधन बन गये। यदि किसी से अज्ञानवश कोई भूल हो गई तो उसे धर्म भ्रष्ट कर देते थे। पण्डित कालीचरण के पीछे काला पहाड़ की घटना प्रसिद्ध है। इसने बहुत यत्न किया कि ब्राहमण जाति वाले मुझे क्षमा करके मिला लें, परन्तु उसे बहुत विरोध सहना पड़ा।फलस्वरुप उसके मन में प्रतिक्रीया हुई वह कट्टर मुसलमान हो गया, तब उसने हजारों हिन्दुओं को मार डाला। अनेकों को मुसलमान बनाया। सारे बांग्लादेश के मुसलमान उसी काला पहाड़ की ही देन हैं। इसी प्रकार जब कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने वहाँ के मुसलमानों को हिन्दू बनाना चाहा तो कश्मीर के ब्राहमणों की दुराग्रह का फल भोगना पड़ रहा है। उन्हें दर-दर की ठोकर खाकर भटकना पड़ रहा है।, परन्तु यह जातिवाद का रोग अब तक भी हमारे देश से नहीं छुटा।
देश के हितैषियों से मेरा आग्रह है कि इस जातिवाद के कलंक को देश से शीघ्र मिटायें तथा अपनी सन्तान को विदेशीमति में जाने से रोकें, क्योंकि हमारी भारतीय संस्कृति ही मानवता का सच्चा सन्देश देने वाली है।
-संस्थापक, गुरुकुल आम सेना (उड़ीसा)