मनुर्भव
– कन्हैयालाल आर्य
जब एक बार कुछ लोगों ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन से संसार में व्याप्त दुःख एवं अशान्ति को दूर करने का उपाय पूछा तो वैज्ञानिक ने उत्तर दिया- ‘‘श्रेष्ठ मनुष्यों का निर्माण करो’’। आइन्स्टीन ने जो उत्तर दिया वही कार्य तो आर्यसमाज अपने जन्मकाल से ही वेदोक्त ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’’का उच्च घोष करके कर रहा है, जिससे आज राष्ट्र ही नहीं, विश्व में भी मानव-निर्माण की लहर दिखाई दे रही है।
आर्यसमाज विश्व का हित चाहता है, इसलिए उसने ‘मनुर्भव’ का वैदिक सन्देश पूरे विश्व को दिया। आजकल पशुओं की भी नस्ल सुधारने की योजना बनाई जाती है, किन्तु मनुष्य समाज के सुधारने की योजनाओं का कहीं नाम तक भी नहीं सुनाई देता।
यूनान देश के एक दार्शनिक के बारे में प्रसिद्ध है कि एक दिन वह चमकते सूर्य के प्रकाश में लालटेन लिये घर से बाहर निकल पड़ा। उसे इस प्रकार दिन में जलती लालटेन हाथ में लिये देखकर लोगों ने पूछा-‘क्या आप की कोई वस्तु खो गई है, आप इतने विद्वान् होकर भी सूर्य के प्रकाश में लालटेन लिये क्यों घूम रहे हो?’ दार्शनिक ने गमभीरता से उत्तर दिया- ‘‘मैं मानव को ढूँढ़ रहा हूँ।’’ इस पर लोगों ने पूछा- ‘‘क्या हम मानव नहीं हैं?’’ दार्शनिक ने उत्तर दिया- ‘‘नहीं, तुम मानव नहीं हो, तुममें से कोई व्यापारी है, कोई ग्राहक है, कोई मालिक है, कोई मजदूर है, कोई किसान है और कोई कर्मचारी। तुम में से मनुष्य कोई नहीं।’’
विश्व में वेद ही ऐेसा सर्वोत्तम शिक्षा-दायक धार्मिक ग्रन्थ है, जिसमें मानव जीवन को सार्थक एवं सफल बनाने के लिए उपदेश दिया गया है। वेद में उपदेश है- ‘मनुर्भव’ अर्थात् मनुष्य बन-
‘‘तन्तु तन्वरन्रजसो भानुमन्विहि ज्योतिष्मतः
पथो रक्ष धिया कृतान्। अनुल्बणं वयत
जोगुवामपो मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्।।’’
(ऋग्वेद मण्डल 10, सूक्त 43, मन्त्र 6) शदार्थ-रजसः (अपनी ज्योति में ज्ञान-प्रकाश के), तन्वन् (तनता हुआ तू), भानुम् (द्युलोक तक) अनु, इहि (अनुसरण करता जा, चला जा), (इस तरह), धिया कृतान् (कलाविदों या ज्ञानियों के बुद्धि कौशल से बनाये गये), ज्योतिष्मतः पथः (ज्ञान प्रकाशमय प्रणालियों की, मार्गों की), रक्ष (तू रक्षा कर), (इस ताने में) जोगुवाम (भक्तों के), अपः (व्यापक कर्मों को), अनुल्वणम् (उलझन रहित), वयत (विस्तृत कर, बुन), (इन उपायों से), मनुःभव (मनुष्य=मननशील बन), दैव्यम् जनम् (इस दैव्यजन रूपी वस्त्र को), जनय (उत्पन्न कर, बना) अर्थात् श्रेष्ठ, गुणवान् सन्तान को उत्पन्न कर।
आचार्य अभयदेव जी ने इस मन्त्र की बहुत सुन्दर व्याखया इस प्रकार की है-
‘‘हे जीव! तू हमेशा कुछ न कुछ बुनता रहता है, अपने भाग्य को, भविष्य को, अपने जीवन को बुनता रहता है। जीवन इसके अतिरिक्त और क्या है कि मनुष्य अपने ज्ञान (समझ) के अनुसार कुछ दूर तक देखता है और फिर उसके अनुसार कर्म करता है। इस तरह जीव अपने ज्ञान के ताने में कर्म का बाना डालता हुआ निरन्तर अपने जीवन-पट को बनाया करता है, किन्तु हे जीव (जुलाहे)! अब तू अपना यह मामूली रद्दी कपड़ा बुनना छोड़कर दिव्य जीवन का खद्दर बुन, ‘‘दैव्य जन’’ को उत्पन्न कर। इसके लिए तुझे बड़ी सुन्दर और लमबी तानी करनी पड़ेगी। द्युलोक तक विस्तृत प्रकाशमान ताना तान। ऐसे दिव्य वस्त्र बनाने की लुप्त हुई कला की रक्षा इस प्रकार हो सकती है, अतः इस उद्योग में पड़कर तू उन ज्ञान-प्रकाश प्रणालियों की रक्षा कर, जिन्हें कि कलाविदों ने अपनी कुशल बुद्धि द्वारा बड़े यत्न से अविष्कृत किया था। ज्ञान के इस दिव्य ताने को तू फिर भक्ति के कर्म द्वारा बुन। इस ताने में भक्ति-रस से भिगोया हुआ अपने व्यापक कर्म का बाना डालता जा और ध्यान रख, तेरी बुनावट एकसार हो, कभी ऊँची-नीची या गठीली न हो। सावधान रहते हुए सदा उस ज्ञान के अनुसार ही तेरा ठीक-ठीक कर्म चले और वह कर्म सदा भक्ति से प्रेरित हो। इस सावधानी के लिए तुझे पूरा मननशील होना पड़ेगा, सतत विचार-तत्पर होना होगा, तभी यह दिव्य जीवन का सुन्दर पट तैयार हो सकेगा। अतः हे जीव! तू दिव्य जीवन बुनने के लिए उठ और इस लुप्त हो रही अमूल्य दिव्य कला की रक्षा कर।’’
लोक परलोक की सभी समस्याओं का समाधान वेदों में प्रस्तुत है। उन्हें पढ़िए, मनुष्य बनिये ‘मनुर्भव’। यह वेद का, मानवता का अमर सन्देश सारे विश्व के लिए है। अरबों वर्षों तक सारे संसार में यह मानवता का शुभ सन्देश प्रचारित एवं प्रसारित किया जाता रहा। आर्यावर्त्त (भारत) के अनेक ऋषि-मुनियों ने इसे प्रचारित करने के लिए अपने जीवन को आहूत कर दिया।
परमपिता परमात्मा का आदेश है कि हे पुरुष! तू उठ, तुझे दिनों-दिन उन्नत होना है, तू इस सृष्टि में मुरझाया हुआ क्यों रहता है। वेद में कहा है-
उद्यानं ते पुरुष नावयानं जीवातुं ते दक्षतातिं कृणोमि।
आ हि रोहेमममृतं सुखं रथमथ जिर्विविर्दथमावदासि।।
(अथर्ववेद काण्ड 8, सूक्त 1, मन्त्र 6)
हे पुरुष (इस देवपुरी में निवास करने वाले पुरुष) ते उद्यानम् (तेरी उन्नति ही हो), न अवयानम् (कभी तेरी अवनति न हो), ते (तेरे लिए), जीवातुम् दक्षतातिम् कृणोमि (जीवन-औषध, बल की वृद्धि करता हूँ), अर्थात् तेरे लिए नीरोगता तथा शक्ति प्राप्त कराता हूँ। तू अमृतम् (अमर, रोगरहित), सुखम् रथम् आरोह (उत्तम इन्द्रियों वाले रथ पर आरोहण कर), अथ (अब उत्तम जीवन यात्रा के अन्तिम भाग में), जिर्वि (पूर्ण अवस्था को प्राप्त हुआ तू), विदथम् आवदासि (सब ओर) से ज्ञान का प्रचार करने वाला है अपने ज्ञान व अनुभवों से औरों को लाभ पहुँचाने वाला है। अर्थात् हम ऊपर उठें, अवनत न हो। जीवन-शक्ति व बल प्राप्त करें। नीरोग, स्वस्थ इन्द्रियों वाले शरीर-रथ में जीवन यात्रा करते हुए जीवन के अन्तिम भाग में ज्ञान का प्रसार करें।
महर्षि यास्क ने मनुष्य का लक्षण लिखते हुए अपने निरुक्तशास्त्र में कहा है-
मत्त्वा कर्माणि सीव्यति, मनुष्यमानेन सृष्टाः।
मनस्यतिः पुनर्मनस्वीभावे। मनोरपत्यं वा।।
(3.37)
जो विचार कर कर्म करे, उसे मनुष्य कहा जाता है। कर्म करने से पूर्व जो अच्छे प्रकार से विचार करे कि मेरे इस कर्म का फल क्या होगा? किस-किस पर इस कर्म का प्रभाव पड़ेगा? मेरे इस कर्म से किस का भला और किस का बुरा होगा? साथ ही यह भी सोचना चाहिए कि बुरे कर्म का बुरा फल होगा और अच्छे कर्म का फल अच्छा होगा। अच्छे और बुरे कर्म ही जीवन में सुख-दुःख का कारण होते हैं, जो जीव को अवश्यमेव भोगने पड़ते हैं।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने मनुष्य के लक्षण इस प्रकार बताए हैं-
‘‘मनुष्य उसी को कहना कि मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख-दुःख और हानि-लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से डरता रहे। इतना ही नहीं, किन्तु अपने सर्वसामर्थ्यों से धर्मात्माओं की, चाहे वे महाअनाथ निर्बल और गुणरहित क्यों न हों, उनकी रक्षा, उन्नति तथा प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हों तथापि उनका नाश अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करें। अर्थात् जहाँ तक हो सके, अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करें। इस काम में चाहे कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो। चाहे प्राण भले ही चले जाएँ, परन्तु इस मनुष्यपन रूप धर्म से पृथक् कभी न होवे।’’
महर्षि दयानन्द जी ने कितनी सुन्दर, सुव्यवस्थित, मर्यादापालक, सत एवं अनुशासित व्याखया की है! महर्षि दयानन्द जी का जीवन इस ‘मनुष्यपन’ की व्याखया के अनुसार था। वे महान् मनीषी महर्षि थे, उन्होंने मनुष्यपन धर्म के अनुसार ही जीवन में आये संकटों का भी सामना किया था। महर्षि जी अपनें जीवन में किस प्रकार अकेले ही अंग्रेज साम्राज्य के विरुद्ध लिखते रहे व बोलते रहे। 1957 की क्रान्ति के विफल हो जाने के पश्चात् महारानी विक्टोरिया ने भारतीयों के नाम अपना आदेश जारी करते हुए लिखा था- ‘‘यद्यपि ईसाइयत में हमारा पूर्ण विश्वास है, फिर भी हम अपनी प्रजा पर अपने विश्वासों को थोपना नहीं चाहते। हम किसी भी भारतीय के धार्मिक विश्वासों और पूजा-पद्धति में भी हस्तक्षेप नहीं करेंगे और न किसी के द्वारा किया जायेगा। जो भी ऐसा करेगा, वह हमारे कोप का भाजन होगा।’’
महारानी विक्टोरिया की यह घोषणा भारतीयों को बहकाने के लिए पर्याप्त थी, किन्तु महर्षि दयानन्द जी की दूरदर्शिता ने इसके परिणामों को भाँप लिया था। उन्होंने तुरन्त ही इस घोषणा का प्रतिवाद करते हुए सत्यार्थप्रकाश में लिखा-
‘‘कोई कितना ही करे, परन्तु जो स्वदेशी राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है अथवा मत-मतान्तर के आग्रह-रहित, अपने और पराये का पक्षपात-शून्य प्रजा पर माता-पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ भी विदेशियों का राज्य सुखदायक नहीं है।’’
इस प्रकार महर्षि जी ने सारा जीवन इस मनुष्यपने के धर्म का पालन करते हुए ही देशधर्म की बलिवेदी पर स्वयं को न्यौछावर कर दिया था। ‘मनुर्भव’ की महर्षि दयानन्दकृत व्याया ही सर्वोत्तम धर्म की मानवीय व्याखया है। महर्षि जी द्वारा प्रतिपादित ‘मनुर्भव’ की व्याखया से प्रेरणा पाकर हजारों भारतीय राष्ट्रवादी युवक स्वतन्त्रता के लिए फाँसी पर चढ़ गये।
वेद की सबसे बड़ी विशेषता यही है और मनुष्य को इसका सर्वप्रथम उपदेश यह है कि वह विचारपूर्वक अपने और संसार के कल्याण के मार्ग पर चले। वह हिन्दू, मुसलमान और ईसाई न बने, मनुष्य बने। आप कहेंगे कि वेद तो आर्य बनने की बात कहता है। ठीक है, किन्तु आर्य का अभिप्राय भी तो श्रेष्ठ मनुष्य है। ‘‘आर्यः ईश्वरपुत्रः’’आर्य ईश्वर पुत्र को कहते है। वह पिता का अनुव्रती होकर प्राणिमात्र के हित का ध्यान रखता है।
वेद कहता है-‘‘अहं भूमिमददाम् आर्याय (ऋग्वेद 4/26/2) मैं यह पृथिवी आर्यों को देता हूँ। वस्तुतः सुख और शान्ति के लिए इस भूमि पर आर्यों का अर्थात् ऐसे लोगों का आधिपत्य होना चाहिए जो जीव के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझकर व्यवहार करें।’’
आर्यों की इस उदार आदर्शवादिता को ध्यान में रखकर ही वेद ने कहा- ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’’-संसार को आर्य बनाओ। प्रश्न है कि आर्य बनाने का उपाय क्या है-इन्द्रं वर्धन्तो अप्तुरः अपघ्नन्तो अराव्णः अर्थात् श्रेष्ठ गुणों से युक्त विशिष्ट व्यक्तियों का संरक्षण करो, इनको बढ़ाओ और कृपण, अनुदार, ईर्ष्यालु और स्वार्थियों का सर्वदा उच्छेद करो। दूसरे शबदों में जो इन्द्र हैं, वे आर्य हैं और जो अदानी आदि दुर्गुण युक्त हैं, वे दस्यु हैं, अनार्य हैं। संसार में शान्ति के साम्राज्य के लिए आर्यों की वृद्धि होनी चाहिए और दस्युओं का विनाश होना चाहिए।
मनुष्य कब बनता है, इसके लिए हमें ऋग्वेद के मण्डल 1 सूक्त 70 मन्त्र 1 की शरण में जाना होगा-
वनेम पूर्वीरर्यो मनीषा अग्निः सुशोको विश्वान्यश्याः।
आ दैव्यानि व्रता चिकित्वाना मानुषस्य जनस्य जन्म।।
जिस प्रकार, दैव्यानि (देवत्व प्राप्त कराने वाले), व्रतानि (समपूर्ण सत्य व्यवहार आदि श्रेष्ठ व्रतों को), अचिकित्वान् (भली भाँति जानने वाला), अग्नि (सर्वज्ञ), सुशोकः (उत्तम प्रकाशमय), अर्यः (जगदीश्वर), विश्वानि अश्याः (सबको प्राप्त है), उसी प्रकार हम भी (मनीषा, पूर्वीः) (मननशक्ति से बुद्धियों का) आ वनेम (उत्तमता से आदरपूर्वक सेवन करें) यही मनुष्यस्य, जनस्य, जन्म (मनुष्य जाति के प्राणी का उत्पन्न होना है)।
मन्त्र में दो बातें मुखय रूप से कही गई हैं कि संसार के व्यवस्थापक प्रभु के दिव्य गुणों को मनुष्य समझें। दूसरी यह कि उन गुणों को समझकर अपने जीवन में धारण करें, तभी इस शरीर में मनुष्यता का जन्म होता है, केवल मानव आकृति धारण करने से नहीं।
इस विचित्र संसार के उत्पादक, धारक, संहारक प्रभु के असीम बुद्धि कौशल, नियम-निष्ठा तथा परम ज्ञानैश्वर्य को मनुष्य ज्यों-ज्यों समझता है, त्यों-त्यों उसके ज्ञान की भूख उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। यदि वह इन दिव्य गुणों के आंशिक भाग को भी अपने आचरण में ले आता है, तो भी उसमें दिव्यता आ जाती है और उसका पशुता से पिण्ड छूटता जाता है। ज्ञान का लाभ तभी है, जब वह अपने आचरण का अंग बन जावे। जो ज्ञान कर्म के साथ नहीं जुड़ता, वह निरर्थक है, वाहक के ऊपर लदे बोझ के समान है।
आज संसार को सुख और शान्ति का धाम बनाने का प्रयत्न तो हो रहा है, किन्तु मानवता की प्रगति के लिए जिस संयम और वशित्व की आवश्यकता है, उस ओर लोगों को ध्यान ही नहीं है, इसलिए संसार को सुख और शान्ति का धाम बनाने के लिए सर्वप्रथम मनुष्य को मनुष्य बनाना आवश्यक है।
एक बार किसी पत्रिका में एक शिक्षाप्रद चुटकुला पढ़ा था। एक बाबू अपने कार्यालय से बचे हुए काम को पूरा करने के लिए कुछ फाइलें रविवार को अपने घर ले आता था। एक दिन घर में अवकाश पाकर जब वह फाइल लेकर बैठा तो चौथी-पाँचवी कक्षा में पढ़ने वाला उसका पुत्र कमरे में आकर शरारतें करने लगा। बाबू ने एक-दो बार टोका, किन्तु बच्चे भला कहाँ मानते हैं? इतने में बाबू को एक बात सूझी। कमरे की दीवार पर संसार का एक मानचित्र टँगा हुआ था, उसने उसको फाड़कर टुकड़े कर दिये और बच्चे के सामने फेंकते हुए कहा- ‘‘तेरी योग्यता हम तब जानेंगे, जब इन टुकड़ों को ठीक स्थान पर जोड़कर इसे पूरा बना देगा।’’ बच्चा इन टुकड़ों को जोड़ने में लग गया। घण्टों हो गये, टुकड़े जुड़ने में नहीं आ रहे थे। कभी नीचे का टुकड़ा ऊपर और कभी ऊपर का नीचे चला जाता था। कई बार यही उलझनें दाएँ और बाएँ टुकड़ों में भी थीं। बाबू प्रसन्न था कि उसे निर्बाध काम करने का समय मिल गया। इतने में वायु के झोकों से नक्शे का एक टुकड़ा उड़कर उलट गया। बच्चे ने देखा कि उस टुकड़े के पृष्ठ भाग में मनुष्य के हाथ का पंजा बना हुआ था। उसने यह देखकर सारे टुकड़े पलट डाले तो उन सभी पर मनुष्य के चित्र का कोई-न-कोई भाग था। बच्चे ने संसार के नक्शे को जोड़ने की चिन्ता छोड़कर मनुष्य का चित्र जोड़ना प्रारमभ किया तो पाँच मिनट में चित्र के सब अंग यथा स्थान जोड़ दिये और मनुष्य के बनने के साथ विश्व का पूरा नक्शा भी बन चुका था। विश्व को बनाने का रहस्य भी इसी में है। संसार को सुखद बनाने के लिए प्रथम मनुष्य का निर्माण आवश्यक है।
मनुष्य जीवन के निर्माण एवं उन्नति में वैदिक सोलह संस्कारों का विशेष स्थान है, विशेष महत्त्व है। मनुष्य की शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक उन्नति के लिए जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त भिन्न- भिन्न अवसरों पर संस्कारों की व्यवस्था प्राचीन ऋषि-मुनियों ने समाज सुधार के लिए सुन्दर ढंग से की है। ‘संस्कारों’ के अनुष्ठान से मनुष्य को सुसंस्कारों की प्राप्ति हो जाती है। महर्षि मनु ने इस विषय में सत्य लिखा है-
वैदिकैः कर्मभिः पुण्यैर्निषेकादिर्द्विजन्मनाम्।
कार्यः शरीरसंस्कारः पावनः प्रेत्य चेह च।।
(मनुस्मृति 2-26)
डॉ. सुरेन्द्र कुमार जी (मनुस्मृति विशेषज्ञ) ने इस श्लोक का अर्थ और अनुशीलन इस प्रकार किया है-
सब मनुष्यों को उचित है कि वैदिकैः, पुण्यैः, कर्मभिः (वेदोक्त, पुण्यरूप कर्मों से), द्विजन्मनाम् (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अपने सन्तानों का) निषेकादिः शरीरसंस्कारः कार्यः (निषेकादि=गर्भाधान आदि संस्कार करें जो), इह च प्रेत्य पावनः (इस जन्म वा परजन्म में पवित्र करने वाला है)।
संस्कारों के उद्देश्य और लाभ पर प्रकाश डालते हुए संस्कार विधि की भूमिका में महर्षि दयानन्द लिखते हैं-‘‘जिस करके शरीर और आत्मा सुसंस्कृत होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त हो सकता है और सन्तान अत्यन्त योग्य होते हैं। अतः संस्कारों का करना मनुष्यों को उचित है। अर्थात् इस लोक और परलोक में पवित्र करने वाले संस्कार हैं।’’
महर्षि दयानन्द जी ने संस्कारों को परमोपयोगी समझकर ही प्राचीन ऋषि-मुनियों की पद्धति का अनुसरण करके संस्कार-विधि की रचना की थी। माता-पिता के शुद्ध आहार एवं शुद्ध विचारों का बालक पर बहुत प्रभाव होता है। संस्कारों में प्रथम तीन संस्कार गर्भाधान, पुंसवन तथा सीमन्तोनयन संस्कार तो बच्चे के जन्म से पूर्व ही किये जाते हैं, जिनका पूर्ण उत्तरदायित्व माता-पिता पर ही होता है। यदि बच्चे के पूर्व जन्म के संस्कार उत्तम हों, गर्भावस्था में माता-पिता के उत्तम संस्कार पड़े हों और जन्म के बाद भी उत्तम वातावरण प्राप्त हो जाये, तो ऐसे बच्चे महाभाग्यशाली होते हैं। महर्षि दयानन्द जी ने इनके विषय में लिखा है-
‘‘वह सन्तान बड़ा भाग्यवान् है, जिनके माता-पिता विद्वान् और धार्मिक हों’’ (सत्यार्थप्रकाश द्वितीय समुल्लास) ऐसे उत्तम एवं श्रेष्ठ दिव्य सन्तान को ही जन्म देने का वेद आदेश देते हैं- ‘‘जनया दैव्यं जनम्’’।
चरक ऋषि ने संस्कार का लक्षण लिखते हुए क हा है-‘‘संस्कारो हि गुणान्तराधानमुच्यते’’ अर्थात् पहले से विद्यमान दुर्गुणों को हटाकर उनकी जगह सद्गुणों का आधान-धारण कराने को ‘संस्कार’ कहते हैं।
संस्कारों द्वारा मनुष्य निर्माण की योजना ही सर्वोत्तम योजना है, जिसके द्वारा श्रेष्ठ एवं दिव्य सन्तान की प्राप्ति होती है, इसलिए वेद ने संस्कारों की महत्ता एवं दिव्य जन की उत्पत्ति का आदेश दिया है। वेद के अनुसार ही तो वैदिक संस्कृति ने मानव-निर्माण की योजना को तैयार किया था। इस योजना को सफल बनाने के लिए ही संस्कारों की पद्धति को प्रचलित किया था। संस्कारों से ही ‘‘मनुर्भव जनया दैव्य जनम्’’ का सुन्दर आयोजन जीवन में सफल हो सकता है। वैदिक संस्कृति की विचारधारा सब संस्कारों द्वारा जीवात्मा को पवित्र बनाने का कार्यक्रम है, जीवन निर्माण की पद्धति है, प्रक्रिया है, मानव-मर्यादा है।