मन का व्यापक कार्यक्षेत्र
.. ऋग्वेद १०.१६४.१ अथर्ववेद २०.९६.२४
मन्त्र पाठ : –
अपेहि मंसस्पते$म काम परश्चर |
पारो निर्रित्या आचक्ष्व बहुधा जीवतो मन: ||
ऋग्वेद १०.१६४.१ अथर्ववेद २०.९६.२४
इस मन्त्र में मन के व्यापक कार्यक्षेत्र की चर्चा कि गयी है | मन जागृत अवस्था में नहीं , अपितु स्वप्न आवस्था में भी क्रियाशील रहता है | मन्त्र में दुस्वप्न के नाशन का विधान है |
स्वप्न के भेद : –
स्वप्न के दो भेद हैं — एक- सुखद और दूसरा – दू:खद | दू:खाद स्वप्नों को दू:स्वप्न कहते हैं | दू:स्वप्न के कारण पाप, दुर्विचार, कम, क्रोध आदि हैं | जागृत अवस्था मैं मनोनिग्रह के द्वारा पाप आदि का निरोध होता है , परन्तु स्वप्न अवस्था में बुरे स्वप्न मनुष्य को दू:खित और चिंतित करते हैं | अत: मन्त्र में बुरे स्वप्नों को दूर करने के लिए पाप के देवता को भगाने का उल्लेख है |
पाप का देवता कौन है : –
पाप का देवता भी मन है , अत: उसे मंसस्पति कहा गया है | दुर्विचार, दुर्भाव ,अनिष्ट – चिंतन , कम क्रोध आदि के भावों के निग्रह का कम भी मन करता है , अत: उसके पवित्रीकरण पर बल दिया गया है |
मन्त्र के अंतिम पद में यही बात स्पष्ट की गयी है कि मनुष्य का मन अनेक प्रकार का है | वह कभी बुराई की ओर जाता है , कभी अच्छाई कि ओर | दुर्गुणों के कारण बुरे स्वप्न आ कर मनुष्य को दू:खित करते हैं | उनकी चिकित्सा है कि सद्गुणों को अपना कर सुखी हों और स्वप्न में भी सुख की अनुभूति करें |
आभार अशोक आर्य