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महाभारत के उपाख्यानों में वर्णाश्रम व्यवस्था

 

महाभारत के उपाख्यानों में वर्णाश्रम व्यवस्था

डॉ. महेश चन्द्र ध्यानी…..

प्रकृति के नैसर्गिक गुणों के अनुसार मानव समाज में चार विभाग करके उनके कल्याण के लिए, उनकी रुचि, प्रकृति, योग्यता और अधिकार के अनुसार परमात्मा ने चारों वर्ण और आश्रमों के लिए धर्म एवं जीविकोपार्जन के मार्ग और प्रकार भिन्न-भिन्न तरह के बनाये हैं। इसी ईश्वर निर्मित व्यवस्था को ‘वर्णाश्रम व्यवस्था’ कहते हैं। तदनुसार ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र एवं वर्णेतर जाति के भिन्न-भिन्न तरह के लोगों के कल्याण के लिए उनकी योग्यता के आधार पर धर्म तथा जीविका के उपार्जन के लिए जो-जो शास्त्रीय नियम बनाये गये हैं, उन्हीं का नाम है- वर्णाश्रम-धर्म। अर्थात् वर्ण-धर्म और आश्रम-धर्म।

वर्तमान समय में बेकारी, जनसंख्या की अत्यन्त वृद्धि और व्यवसायवाद संसार के विचारकों के सामने मूह बांये खड़ा है। कोई व्यक्ति जीवन का बड़ा भाग सम्पत्ति के पैदा करने में बीता देते हैं, और कोई व्यक्ति

बेकार घूमते रहते हैं। आश्रम मर्यादा के अनुसार यदि मनुष्य समाज नियतकाल तक ही सम्पत्ति कमायें और

सांसारिक कर्म किया करें। तत्तद् कर्मो का विधान धर्म और जीविका के उपार्जन करने के लिए किया गया है।

वर्णाश्रम-व्यवस्था के अनुसार मनुष्यों के कुछ कर्म तो धर्मोपार्जन के लिए विहित है और कुछ उनके जीविकोपार्जन के लिए।

कुछ ऐसे भी कर्तव्य हैं, जिनसे कि धर्म और जीविका दोनों का ही उपार्जन होता है। जैसे कि ब्राहमण के लिए अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन, और प्रतिग्रह, क्षत्रिय के लिए प्रजापालन,रास्त्र की सुरक्षा और शूद्र के लिए सेवा। इसी कारण ब्राहमण आदि चारों वर्ण तथा वर्णेतर जाति वाले लोग भिन्न-भिन्न प्रकार से धर्म का

संचय करते हैं। अर्थात् लक्ष्य एक होने पर भी अर्थोपार्जन की ही भाति, धर्म के उपार्जन करने का मार्ग भी सबके लिए भिन्न-भिन्न तरह का है। उसी भिन्न ढंग का नाम वर्ण-धर्म है। वर्ण-धर्म के अनुसार अपने कर्तव्य नियमों का अनुसरण करके, अपना-अपना कर्त्तव्य करता हुआ प्रत्येक मनुष्य अनायास ही आत्म-कल्याण सम्पादन कर सकता है।

मनु ने वर्ण और आश्रम की प्रस्थापना विभिन्न रूप से की है और उन्हें वर्णाश्रम-धर्म में रक्खा है गुण,

कर्म और स्वभाव के अनुसार समाज में मनुष्य का क्या स्थान और तदनुसार उसके क्या कर्त्तव्य हैं, ये मनु के अनुसार वर्ण-धर्म है। व्यक्ति को अपने जीवन में किस प्रकार अवस्थानुसार संस्कार एवं विकास करना चाहिए, इसे मनु ने आश्रम-धर्म के अन्तर्गत रखा है।

आपत्तिकाल में मनुष्य किस प्रकार आचरण करे, इसके लिए मनु ने कुछ सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं, और उन्हें आपद धर्म के अन्तर्गत रखा है। कभी-कभी मनुष्य के सामने ऐसी समस्या उत्पन्न हो जाती है, जब

उसका सामान्य और वर्णाश्रम धर्म के पालन से कार्य नहीं चलता, और वह किंकर्त्तव्य विमूढ़ हो जाता है। उन

परिस्थितियों में मनु ने आपद् धर्म पर आचरण करने का निर्देश दिया है, सामान्य परिस्थितियों में नहीं।

मनु ने वर्णाश्रम धर्म के अन्तर्गत क्रमशः वर्ण (ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) और आश्रम (ब्रहमचर्य,

गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास) के विशिष्ट धर्मों का परिगणन कराया है। वर्ण का वर्णन मनु से पूर्व, या कहा

जाय कि सर्वप्रथम ऋगवेद के पुरुष-सूक्त में मिलता है।

मनुस्मृति में चारों वर्णों के कर्त्तव्य का सविस्तार उल्लेख करते हुए बताया गया है कि पढ़ना-पढ़ाना, यज्ञ

करना-कराना, दान लेना, दान देना ये छः विशेष कर्म ब्राहमणों के हैं। प्रजा के रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेदाध्ययन करना, और विषय से विरक्त होना क्षत्रियों के। पशुओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेदाध्ययन करना, वाणिज्य व्यापार तथा खेती करना वैश्यों का कर्त्तव्य है, और शूद्रों को भगवान ने केवल एक ही काम दिया और वह था स्वेच्छा से उपर के तीनों वर्णों की सेवा करना।

ब्रहमचर्य, महान् आश्रम गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और भैक्ष्यचर्य (संन्यास)- ये चार आश्रम हैं। चौथे आश्रम संन्यास का अवलम्बन प्रायः ब्राहमणों द्वारा ही किया गया है। (ब्रहमचर्याश्रम में) चूड़ाकरण संस्कार और उपनयन के अनन्तर द्विजत्व को प्राप्त हो वेदाध्ययन पूर्ण करके (समावर्तन के पश्चात विवाह करके) गार्हस्थ्यआश्रम में अग्निहोत्र आदि कर्म सम्पन्न करके इन्द्रियों कों संयम में रखते हुए मनस्वी पुरुष स्त्री को साथ लेकर अथवा

बिना स्त्री के ही गृहस्थाश्रम से कृतकृत्य हो वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करे। वहा धर्मज्ञ पुरूष आरण्यक शास्त्रों का

अध्ययन करके वानप्रस्थ-धर्म का पालन करे।तत्पश्चात ब्रहमचर्य-पालन पूर्वक उस आश्रम से निकल जाय और

विधि पूर्वक संन्यास ग्रहण कर ले। इस प्रकार संन्यास लेने वाला पुरूष अविनाशी ब्रहमभाव को प्राप्त हो जाता

है। राजन्! विद्वान् ब्राह्मण को ऊर्ध्वरेता मुनियों द्वारा आचरण में लाये हुये इन्हीं साधनों का सर्वप्रथम आश्रय

लेना चाहिये। प्रजानाथ! जिसने ब्रहमचर्य का पालन किया है, उस ब्रहमचारी ब्राहमण के मन में यदि मोक्ष की

अभिलाषा जाग उठे तो उसे ब्रहमचर्य-आश्रम से ही संन्यास ग्रहण करने का उत्तम अधिकार प्राप्त हो जाता है। संन्यासी को चाहिये कि वह मन और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए मुनिवृत्ति से रहे। किसी वस्तु की कामना न करे। अपने लिये मठ या कुटी न बनवावे। निरन्तर घूमता रहे और जहा सूर्यास्त हो वहीं ठहर जाये।

प्रारब्धवश जो कुछ मिल जाये, उसी से जीवन-निर्वाह करे। आशा-तृष्णा का सर्वथा त्याग करके सबके प्रति समान भाव रक्खे। भोगों से दूर रहे और हृदय में किसी प्रकार का विकार न आने दे। इन्हीं सब धर्मों के

कारण इस आश्रम को ‘क्षेमाश्रम’ (कल्याण प्राप्ति का स्थान) कहते हैं। इस आश्रम में आया हुआ ब्राहमण

अविनाशी ब्रहम के साथ एकता प्राप्त कर लेता है।

जीवन-निर्वाह के उद्देश्य से किये जाने वाले यजन-याजन, अध्ययन-अध्यापन तथा दान और प्रतिग्रह-इन छः कर्मों से अलग रहे और किसी भी असत् कर्म में वह कभी प्रवृत न हो। अपने अधिकार का प्रदर्शन करते हुए व्यवहार न करे, द्वेष रखनेवालों का संग न करे। ब्रहमचारी के लिये यही आश्रम-धर्म अभीष्ट है।

आश्रमजिसमें अत्यन्त परिश्रम करके उत्तम गुण ग्रहण और श्रेष्ठ कर्म किये जाये, उनको आश्रम कहते हैं।

सद्विद्यादि शुभगुणों का ग्रहण तथा जितेन्द्रियता से आत्मा और शरीर के बल को बढ़ाने के लिए ब्रहमचर्य,

सन्तानोत्पत्ति और विद्यादि सब व्यवहारों को सिद्ध करने के लिए गृहस्थाश्रम, सद्विचारों के लिए वानप्रस्थ तथा सर्वोपकार हेतु सन्यासाश्रम होता है। ये चार आश्रम भिन्न-भिन्न युगादि में तत्द्युगीन परिणामानुसार विभाजित होते हैं। मनुष्य की पूर्ण अवस्था के चौथाई भाग का एक आश्रम किया जा सकता है। वर्ण व गुण-कर्मों के योग से ग्रहण किया जाने वाला शब्दार्थ वर्ण का अभिहित करता है। ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रादि वर्ण कहलाते हैं।

जो मनुष्य ब्रहम अर्थात् परमेश्वर और वेद का जानने वाला है। वही ब्राहमण होने के योग्य है, इन्द्रियों को

जीतने वाला पण्डित शूरतादि गुणयुक्त, श्रेष्ठवीर पुरुष क्षत्रधर्म को स्वीकार करने वाला क्षत्रिय होने योग्य है।

ऐसे ब्राहमण और क्षत्रियों के साथ न्यायपालक राजा को अनेक प्रकार से लक्ष्मी प्राप्त होती है और उसके खजाने में कभी कमी नहीं आती।

‘मुखं किमस्यासीत्किं बाहू किमूरू पाद उच्यते’

(मुखं किमस्यासीत्) इस पुरुष के मुख अर्थात् मुख्यगुणों से इस संसार में क्या उत्पन्न हुआ है? (किं बाहू?)

बल, वीर्य, शूरता और युद्धआदि विद्या गुणों से सम्पन्न इस संसार में कौन पदार्थ उत्पन्न हुआ है? (किमूरु)

व्यापारादि मध्यम गुणों से किस गुण की उत्पत्ति होती है। इन सभी। प्रश्नों का उत्तर भी ये हैं कि –

‘‘ब्राहमणो स्य मुखमासीद् बाहूराजन्यः कृतः

ऊरूतदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो जायत।’’

अर्थाद इस पुरुष की आज्ञानुसार जो विद्या, सत्य, भाषणादि उत्तम गुण और श्रेष्ठ कर्मों से ब्राहमण वर्ण

उत्पन्न होता है, वह मुख्य कर्म और गुणों के सहित होने से मनुष्यों में ब्राहमण कहलाता है, और ईश्वर ने बल पराक्रम आदि पूर्वोक्त गुणों से युक्त क्षत्रिय वर्ण को उत्पन्न किया है। ऋषि, व्यापारादि तथा देशाटन, पशुपालन करना वैश्य वर्ण के कर्मों के अन्तर्गत आता है। सेवादि कर्म शूद्रकर्म को वेद पुरुष ने प्रदान किये।

सबसे उत्तम विद्या और श्रेष्ठ कर्म करनेवालों को ही ब्राहमण वर्ण का अधिकार दिया जाता है ।उससे विद्या का प्रचार-प्रसार कराना और उन लोगों को भी चाहिए कि विद्या के प्रचार में ही सदा तत्पर रहें। तथा सब कार्यों में चतुरता, शूरतापन, धीरज, वीर पुरुषों से युक्त सेना का रखना, दुष्टों को दण्ड देना और श्रेष्ठजनों का पालन करना इत्यादि गुणों को बढ़ानेवाले पुरुषों को क्षत्रिय वर्ण को अधिकार देना चाहिए । वैश्यादिवर्णों को व्यापारादि व्यवहारों में भूगोल के बीच में आने-जाने का प्रबन्ध करना और उनकी अच्छी रीति

से रक्षा करनी, जिससे धनादि पदार्थों की संसार में वृद्धि हो, मनुष्यों को सम्पूर्ण जीवन में सद्गुणों का ही प्रकाश करना चाहिए। उत्तम कर्मों से भूगोल में श्रेष्ठ कीर्ति को बढ़ाना उचित है। मनुस्मृति में भी ब्राहमणादि वर्णों के कर्म निर्धारित किये गये हैं –

‘अध्यापनमध्ययनं याजनं याजनं तथा।

दानं प्रतिग्रह९चैव ब्राहमणानामकल्पयत्।।

वर्ण विभाजन को मनु ने समाज-कल्याण का कारण माना है। डाँ राधाकृष्णन् ने अपनी पुस्तक ‘‘हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ’’ में वर्ण-व्यवस्था के विषय में लिखा है कि ‘‘सामाजिक पक्ष से देखने पर वर्ण-व्यवस्था मानव संगठन

का परिणाम है, किसी दैवी-विधान का रहस्य नहीं । यह वास्तविक विभेद और आदर्श एकता को ध्यान में रखते हुए समाज सुसंगठन का एक प्रयत्न है।

आश्रम-धर्म के अन्तर्गत मनु ने सामान्य मनुष्य के जीवन को चार आश्रमों में बाटा है। ब्रहमचर्य, गृहस्थ,

वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम। वर्णों के समान ही चारों आश्रमों के भी विशिष्ट कर्त्तव्य हैं।

भारतीय दर्शनों में धर्म-अधर्म अथवा सदाचार का विश्लेषणात्मक अध्ययन हुआ हैं प्रायः सभी दर्शनों ने धर्म के अन्तर्गत कुछ नियमों का प्रतिपादन किया है। यथा वैशेषिक दर्शन पर लिखे अपने भाष्य में प्रशस्तपाद ने धर्म को सामान्य और विशेष दो पदार्थो की भाति ही सामान्य और विशेष दो वर्गों में विभाजित किया है।

महाभारत के मतंगोपाख्यान में ब्राहमणत्व प्राप्त करने के उपायों तथा ब्राहमणत्व के परिचयात्मक प्रश्न विषयक भीष्म पितामह जी के उपदेश इस प्रकार हैं।

तपसा वा सुमहता कर्मणा वा श्रुतेन वा।

ब्राहमण्यमथ चेदिच्छेत् तन्मे ब्रूहि पितामह।।

अर्थात् यदि कोई मनुष्य ब्राहमणत्व प्राप्त करने की इच्छा रखता हो तो वह उसे तपस्या, कर्म अथवा वेदों के स्वाध्यायादि किस उपाय से प्राप्त कर सकता है? युधिष्ठिर के इस प्रश्न के उत्तर में भीष्म ने कहा कि क्षत्रिय आदि तीनों वर्णों के लिए ब्राहमणत्व प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है क्योंकि यह समस्त प्राणियों के लिए सर्वोत्तम स्थान है। बहुत सी योनियों में बार-बार जन्म लेते कभी किसी योनि में संसारी जीव ब्राहमण योनि में जन्म लेता है।

मनुष्यत्वं दुर्लभं लोके ब्राहमणत्वं तत्र सुदुर्लभम्।

प्राचीनकाल में किसी ब्राहमण के घर में मतंग नामक पुत्र हुआ, जो अन्य वर्ण के पुरुष से उत्पन्न होने पर भी ब्राहमणोचित संस्कारों के प्रभाव से उनके समान वर्ण का ही समझा जाता था।

एक दिन पिता के भेजने पर मतंग किसी यजमान का यज्ञ कराने के लिए गधों से जुते हुए शीघ्रगामी रथ पर

बैठकर चला, रथ का बोझ ढ़ोते हुए एक छोटी अवस्था के गधे को उसकी माता के निकट ही मतंग ने बार-बार

चाबुक से मारकर उसकी नाक में घाव कर दिया, पर गधी ने अपने पुत्र को सान्त्वना देते हुए कहा, बेटा! शोक

न करो, तुम्हारे ऊपर ब्राहमण नहीं, चाण्डाल सवार है, क्योंकि ब्राहमण सबके प्रति मैत्री भाव रखने वाला समस्त प्राणियों को उपदेश देनेवाला आचार्य होता है, वह कैसे किसी पर प्रहार कर सकता है।

जो स्वभाव से ही पापात्मा हो, दूसरों के पुत्रों पर दया न करता हो, वह अपने इन कुकृत्यों द्वारा अपनी चाण्डाल योनि को ही सम्मान दे रहा, क्योंकि जातिगत स्वभाव ही मनोभाव पर नियन्त्रण रखता है।जो मनुष्य

वरुण, वायु, आदित्य, पर्जन्य, अग्नि, रुद्र, स्वामी कार्तिकेय, लक्ष्मी, विष्णु, ब्रहमा, वृहस्पति, चन्द्रमा, जल,

पृथ्वी और सरस्वती को सदा प्रणाम करते हैं, तपस्या ही जिनका धन है, जो वेदों के ज्ञाता तथा वेदोक्त धर्म का ही अनुसरण करते हैं, जो भोजन से पहले देवताओं की पूजा करते हैं। उन लोगों में ब्राहमणत्व स्वयं आ

जाता है, और वे सभी भद्रजन नमस्कार के योग्य हैं।

जो ब्राहमण वेद-शास्त्रों के ज्ञान से सम्पन्न, धर्म, अर्थ और काम का सेवन करने वाले, लोलुपता से रहित और स्वभावतः पुण्यात्मा हैं।जो ब्रहमचर्य का पालन करते हैं, अग्निहोत्र स्वीकार कर वेदों को धारण करते हैं। संतप्त प्राणियों में आत्मस्वरूप परमात्मा को ही सबका कारण मानने वाले हैं वे सभी ब्राहमण वन्दनीय, पूजनीय

और श्लाघनीय हैं।

प्राचीन भारतीय ऋषि-मुनियों ने मनुष्य-जीवन को सुख और शान्तिपूर्वक व्यतीत करने के लिए एक योजना का निर्माण किया था और जिस योजना को उन्होंने शाश्वत माना है। उस योजना का उद्देश्य मनुष्य समाज के प्रत्येक व्यक्ति का एवं उस समाज का अत्यन्तिक विकास एवं उत्थान था। मनुष्य जीवन की उस योजना

को वर्णाश्रम धर्म अथवा वर्णाश्रम व्यवस्था के नाम से अभिहित किया जाने लगा। उस व्यवस्था को अक्षुण्य

रूप में स्थिर रखना राजा का परम कर्तव्य होता है। राज्य में व्यक्ति या व्यक्ति समूहों के निर्धारित जो-जो विशेष कर्तव्य अथवा आचरण उस योजना के अनुसार निर्धारित किये गए थे उनको उनका पालन उसी विधि से करना चाहिए। इस व्यवस्था में अस्त-व्यस्तता का होना वर्ण संकर तथा धर्म संकर कहलाता था। वर्ण संकर या धर्म संकर का रोकना राजा का परम-धर्म माना जाता है।

वर्णाश्रम धर्म की रक्षा करना राजा का प्रधान कर्त्तव्य था इस विषय में कौटिल्य ने भी व्यवस्था दी है। इस विषय पर वह अर्थशास्त्र में इस प्रकार लिखते हैं- अपने-अपने धर्म (कर्त्तव्यों) का पालन स्वर्ग और मोक्ष

के लिए होता है। यदि कर्मो का लोप किया गया तो वर्ण संकरता होकर संसार में उथल-पुथल मच जायेगी।

प्रत्येक मनुष्य को अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए। इसलिए राजा को चाहिए कि वह अपने राज्य के प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्त्तव्य पालन के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता की स्थापना करे। राजा को अपने राज्य में

वर्ण संकरता कभी भी नहीं होने देनी चाहिए। जो मनुष्य अपने कर्तव्यों का पालन करते रहता है, वह इस लोक

और परलोक दोनों में सुख प्राप्त करता है।

राजा द्वारा जब वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था कर दी जाती है तो इस प्रकार सुरक्षित हो कर जगत प्रसन्न रहता है, कभी पीड़ित नहीं होता है। दण्ड द्वारा राजा से सुरक्षित हुए चारों वर्ण और आश्रम अपने-अपने धर्म और कर्म में संलग्न रहते हैं और अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर रह सज्जीवन व्यतीत कर अन्त में परमपद को

प्राप्त करते हैं।

मनु ने भी राजा के लिए यह एक महान् कर्तव्य निर्धारित किया है कि उसको अपने राज्य में वर्णाश्रम धर्म

की व्यवस्था को विधिवत् स्थापित करे। उन्होंने राजा को वर्णाश्रम धर्म का रक्षक माना है। इस विषय में उन्होंने मानवधर्मशास्त्र में अपना मत इस प्रकार प्रकट किया है- अपने-अपने धर्म में चलने वाले आनुपूर्व से सब वर्णों और आश्रमों की रक्षा करने वाले राजा का निर्माण ईश्वर ने किया है।

वर्णाश्रम धर्म की समुचित व्यवस्था तब तक नहीं हो सकती जब तक कि राज्य में ब्राह्य और आन्तरिक

विघ्न वाधाओं का भय बना रहता है। अतः भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं कि राजा को अपने राज्य में प्राणिमात्र की रक्षा करनी चाहिए। जो राजा अपने राज्य पर दीर्घकाल तक राज्य करने की अभिलाषा रखता हो उसके लिए प्रजा की वास्तविक रक्षा के अतिरिक्त अन्य मार्ग नहीं है, क्योंकि प्रजा की रक्षा ही प्रजा को प्रसन्न करने का मूलमन्त्र है। आन्तरिक और ब्राह्य आपत्तियों से प्रजा को निर्भय रखना राजा का प्रधान कर्तव्य समझा जाता है। इसीलिए भीष्म उस राजा को श्रेष्ठ मानते हैं जिसके राज्य में समस्तजन (मानव) निर्भय होकर इस प्रकार विचरण करते हैं, जिस प्रकार पुत्र अपने पिता के घर में निर्भयतापूर्वक विचरते हैं।

अपने राज्य की प्रजा के रक्षण सम्बन्धी राजा के कर्तव्य की ओर संकेत करते हुए भीष्म पितामह जी

कहते हैं कि प्राणिमात्र की रक्षा करना ही परम धर्म और परम दया बतलाया गया है तो राजा को अपनी समस्त प्रजा की रक्षा करनी चाहिए यही उसका सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य (धर्म) है। ऋषि, गोरक्षा और वाणिज्य से इस लोक में प्राणियों की जीविका चलती है, त्रयी विद्या से प्राणियों को ऊर्ध्व गति प्राप्त होती है, इसीलिए इस संसार में जो परिपंथी उसका विरोध करते हैं उनके नाश के निमित्त ब्रहमा ने क्षात्र की रचना की। इसलिए हे कुरुनन्दन! शत्रुओं को विजय कीजिए, प्रजापालन, अनेक दक्षिणा वाले यज्ञ और युद्ध कीजिए। जो प्रतिपालन योग्य प्राणियों का सदैव परिपालन करते है वह राजा उत्तम है और जो राजा उनकी रक्षा नहीं करते है उनसे कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता ।लोक रक्षा हेतु राजा को सदैव युद्ध करते रहना चाहिए।

राजा जो प्राणियों पर दया करके उनकी रक्षा में नित्य उद्यत रहता है, धर्म जानने वाले पण्डित लोग उस

राजा (स्वामी) का परम धर्म कहते हैं। जो राजा, भय के कारण प्रजा की रक्षा न करता हुआ एक दिन में पाप

का संचय करता है, उसका भोग सहस्रो वर्षो तक भोगने पर भी बड़ी कठिनाई से पूर्ण हो पाता है। परन्तु जो राजा धर्म पूर्वक प्रजा पालन करने से एक दिन में धर्म का संचय करता है अर्थात् प्रजापालन से जो एक दिन में धर्म की धर्म की प्राप्ति होती है, उसका फल राजा स्वर्ग में दस सहस्र वर्ष तक भोगता रहता है। उत्तम प्रकार से यज्ञ करने वाला, विधिवत् वेदाध्ययन करनेवाला और उत्तम तपस्वी मनुष्य जिन उत्तम लोकों को प्राप्त करता है उन लोकों को धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करनेवाला राजा क्षण में प्राप्त कर लेता है। हे कौन्तेय! इस प्रकार समझ कर तुमको धर्म के साथ प्रयत्नपूर्वक प्रजा की रक्षा करनी चाहिए। इस कार्य के करने में बड़े पुण्य की प्राप्ति होती है।

दूसरे प्रसंग में इसी विषय में इस प्रकार कहते हुए अपना मत प्रकट करते हैं- राजा के प्रजापालन से विमुख होते ही सारे अन्याय टूट पड़ते हैं, वर्ण संकरता फैल जाती है और सारे राष्ट पर दुर्भिक्ष का प्रकोप होने लगता है। भीष्म के मतानुसार राष्ट का योग-क्षेम राजा के अधीन होता है। राजा को यमराज की शंती शत्रुओं के विरुद्ध सदैव दण्ड ग्रहण करके सन्नद्ध रहना चाहिए और हर प्रकार से दस्युओं का नाश करना चाहिए । जिस राज्य में पुरोहित ब्रहमतेज से प्रजा के अदृष्ट और राजा बाहुबल से दृष्ट भय निवारण करता है उसी राज्य में सुख की प्राप्ति होती है। हे भरतनन्दन! यदि राजा प्रजा की रक्षा नहीं करता है तो राज्य में जो अधर्म उपस्थित हो जाता है, राजा उस पाप में पी चतुर्थांश का भोगी होता है।

जो मानव प्रजा रक्षण सम्बन्धी अपने कर्तव्य से च्युत होता है उसकी निन्दा करते हुए भीष्म राजा युधिष्ठिर से कहते हैं- जो बैल परिवहन में असमर्थ, जो गाय दूध नहीं देती है, जो स्त्री सन्तानोत्पत्ति में समर्थ नहीं

हो सकती, इन सबकी रक्षा करना व्यर्थ होता है, इसी प्रकार जो राजा प्रजा पालन कार्य में असमर्थ होता है,

उससे कोई अर्थ सिद्धि नहीं हो सकती है। जैसे काठ का हाथी, चमड़े का मृग, षण्डपुरुष और ऊसर क्षेत्र निष्फल

समझने चाहिए।

गीता में भी जाति और वर्ण के जो उल्लेख हैं, उनमें जन्मानुसार एवं वंशानुक्रमिक वर्ण भेद एवं जातिभेद ही देखा जाता है। गुण एवं कर्मानुसार जाति वर्ण भेद का और कोई भी प्रमाण नहीं मिलता। संकर एवं अस्पृश्य

जाति का भी उल्लेख है ही।

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राहमणे गवि हस्तिनि।

शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।

इस लोक में समाज के उच्चस्तर में स्थित ब्राहमण एवं निम्नस्तर के चाण्डाल और विभिन्न जाति के पशु-सबके प्रति ही ब्रहमविद् समदृष्टि होते हैं, यह कहा गया है।

मां हि पार्थ व्यापाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।

स्त्रियो वैश्यास्तथा र्शुद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।

किं पुनर्बाहमणः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।।

यहा पर श्री भगवान् ने ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, पापयोनि (अन्त्यज)- सभी का उल्लेख किया है। पापयोनि शब्द से जन्मगत अस्पृश्यता ज्ञात होती है, इस पर लक्ष्य करना चाहिए। ‘चातुर्वर्ण्यम्’ के अर्थ चार वर्ण नहीं, चार वर्णों से विशिष्ट वर्णाश्रमी समाज है। इस श्लोक के बाद ही-

ब्राहमणक्षत्रियविशां र्शुद्राणां च परन्तम्।

कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।

एवं उसके बाद सात लोकों को पढ़ जाने पर तो इस विषय में कुछ भी सन्देह नहीं रहना चाहिये। चारों

वर्णो में प्रत्येक वर्ण (लक्ष्य करना चाहिये कि किसी एक व्यक्ति विशेष की बात नहीं हो रही है) स्वभाव (पूर्वजन्म संस्कार) –

तत्र तं बुह्सिंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।

पूर्वाभ्यासेन तैनैव हियते ह्यवशोऽपि सः।।

-जात गुण के अनुसार एक-एक कर्मनिर्दिष्ट है। श्रीभगवान् के गीता प्रवचन का उपदेश्य ही था- उनके प्रतिरूप (नर-अवतार) नरोत्तम अर्जुन को ब्राहमण के कर्मभैक्ष्य (श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके) ग्रहण करने की इच्छा से निवृतकर क्षत्रिय के कर्म धर्मयुद्ध में प्रवृत्त कराना एवं इस उपदेशच्छल से जगत् को निष्काम कर्म योग

की महान शिक्षा देना।

श्रेयान् स्वधर्मों विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।

श्रेयान् स्वधर्मों विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।

क्षत्रिय-कुलतिलक अर्जुन का स्वधर्म क्या था? युद्ध।

‘न योत्स्य इति मन्यसे ’, ‘स्वभावजेन

(स्वभावः  क्षत्रियत्वे हेतुःपूर्वकर्मसंस्कारस्तस्मात् जातेन)

निबह्ः स्वेन कर्मणा।

मोह नष्ट होने पर अर्जुन बोले-

‘स्थितःअस्मि (युद्धाय उत्थितः अस्मि)।

करिष्ये वचनं तव।

‘सहज’ (सज्-जन्+ड) शब्द को भी लक्ष्य करना चाहिए।

भगवान् ने गीता में सांकर्य की निन्दा की है-

संकरस्य (वर्ण एवं कर्मसंकर का) च कर्ता स्याम्

उपहन्यामिमाः प्रजाः। (३/२४)

अर्जुन ने पूर्व में कहा था-

संकरो नरकायैव कुलध्नानां कुलस्य च।

उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।।

यदि वर्ण और जातिभेद जन्मगत एवं वंशानुक्रमिक नहीं था तो कुल के धर्म अथवा जाति धर्म की बात कहा

से आती है? एक ही पिता के विभिन्न वर्ण के पुत्र-कन्या होने पर कौन उसे पिण्डआदि देगा? फिर तो समाज , जाति , वंश , संस्कार, विवाह, अशौच, श्राद्धआदि सभी असम्भव हो जायेगा।

संक्षिप्त आलोचना से यह निःसंदेह प्रमाणिता किया गया कि भारत में सदा से वर्ण और जाति जन्मगत थी,

कभी भी कर्मगत नहीं थी। असवर्ण विवाह (विशेषतः प्रतिलोम) निन्दित था। इसका ऐतिहासिक प्रमाण है।

प्रागैतिहासिक एवं प्राचीनतम काल से ही जन्मगत वर्णभेद प्रथा चली आ रही है। वेदों में भी जातिभेद की बहुत

प्रमाण मिलते हैं। गुण-कर्म-भेद से जाति एवं इच्छानुसार वर्ण-परिवर्तन के उदाहरण नहीं हैं, ऐस कहना अनुचित नहीं होगा।

जो पुरुष सदैव साधुओं की रक्षा करते हैं और दुष्टों का दमन करते हैं उनको राजा बनना उचित है, क्योंकि ऐसे पुरुष ही इस सम्पूर्ण पृथ्वी को धारण करने में समर्थ होते हैं।

सेना का संघटन कर उसकी उचित व्यवस्था करना राजा का प्रथम कर्त्तव्य हो जाता है। भीष्म ने सेना के आठ अंग बतलाते हुए इस प्रकार राजा युधिष्ठिर से कथन किया है कि रथ, हाथी, अश्व, पैदल, भारवाहक,

नौका, चर और शिक्षक (देशिका) यह सेना के आठ भेद प्रकाश-दण्ड के भेद है। इसलिए इस आठ अंग

वाली सेना का संगठन उचित रीति से होना चाहिए। इस प्रकार उचित दण्ड विधान के द्वारा राज्य की रक्षा राजा को करनी चाहिए।  जिससे शत्रु राज्य पर आक्रमण करने का साहस न कर सके और आन्तरिक विघ्न-

बाधाए उपस्थित न हो सके।

नकुलोपाख्यान में चारों वर्णों के कर्म और उनके फलों का वर्णन तथा धर्म की वृद्धि और पापक्षय होने के उपाय बतलाते हुए वैशम्पायन कहते हैं- कि जो ब्राहमण शिखा और यज्ञोपवीत धारण करते हैं, सन्ध्योपासना करते

हैं, पूर्णाहुति देते हैं, विधिवत् अग्निहोत्र करते हैं, बलिवैश्वदेव और अतिथियों का पूजन करते हैं, नित्य स्वाध्याय करते हैं, तथा जप-यश के परायण होते हैं, जो प्रातः-काल और सांय-काल होम करने के बाद ही अन्न ग्रहण करते है, शूद्र का अन्न नहीं खाते हैं, दम्भ और मिथ्या भाषण से दूर रहते हैं, अपनी ही स्त्री से प्रेम रखते हैं तथा पणचयज्ञ और अग्निहोत्र करते रहते हैं, जिनके सब पापों को हवन की जानेवाली तीनों अग्नि या भस्म कर देती हैं। वे ब्राहमण पापरहित होकर ब्रहमलोक को प्राप्त करते हैं।

क्षत्रियोऽपि स्थितो राज्ये स्वधर्मपरिपालकः।

सम्यक् प्रजापालयिता षड्भागनिरतः सदा।।

यज्ञदानरतो धीरः स्वदारनिरतः सदा।

शास्त्रानुसारो तत्त्वज्ञः प्रजाकार्यपरायणः।

विप्रेभ्यः कामदो नित्यं भृत्यानां भरणे रतः।

सत्यसन्धः शुचिर्नित्यं लोभदम्भविवर्जितः।

क्षत्रियोऽप्युत्तमां याति गतिं देवनिषेविताम्।।

जो वैश्य कृषि और गोपालन में लगा रहता है, धर्म का अनुसंधान करता है, दान, धर्म और ब्राहमणों की सेवा में संलग्न रहता है, तथा सत्यप्रतिज्ञ, नित्य पवित्र, लोभ और दम्भ से रहित, सरल, अपनी ही स्त्री से प्रेम

रखने वाला और हिंसा-द्रोह से दूर रहनेवाला है, जो कभी भी वैश्य-धर्म का त्याग नहीं करता और देवता तथा ब्राहमणों की पूजा में लगा रहता है, वह अप्सराओं से सम्मानित होकर स्वर्गलोक के धाम को जाता है।

कृषिगोपालनिरतो धर्मान्वेषणतत्परः।

दानधर्मेऽपि निरतो विप्रशुश्रूषकस्तथा।

सत्यसंधः शुचिर्नित्यं लोभदम्भविवर्जितः।

ऋजुः स्वदारनिरतो हिंसाद्राहविवर्जितः।

वणिग्धर्माक्क मुञचन् वै देवब्राहमणपूजकः।

वैश्यः स्वर्गतिमाप्नोति पूज्यमानोऽप्सरोगणैः।।

शुद्रों में से जो सदा तीनों वर्णों की सेवा करता और विशेषतः ब्राहमणों की सेवा में दास की भाति खड़ा रहता है, जो बिना मागे ही दान देता है, सत्य और शौच का पालन करता है। गुरु और देवताओं की पूजा में प्रेम

रखता है। पर स्त्री के संसर्ग से दूर रहता है, दूसरों को कष्ट न पहुचाकर अपने कुटुम्ब का पालन-पोषण करता

है और सब जीवों को अभय-दान कर देता है, उस शूद्र को भी स्वर्ग की प्राप्ति हो जाती है।

जिस प्रकार थोड़े से शीत जल को बहुत गर्म जल में मिला दिया जाता है तो वह तत्क्षण गरम हो जाता है और उसका ठण्ड़ापन दूर हो जाता है। जब थोड़ा सा गरम जल बहुत शीतल जल में डाला जाता है तो तब वह

सबका सब तत्क्षण शैत्य को प्राप्त कर लेता है। ठीक उसी प्रकार जो पुण्य और पाप दोनों समान होते हैं, वह

थोड़े पाप-पुण्य को शीघ्र नष्ट कर देते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है। जब ये दोनों समान होते हैं, तब जिसको

गुप्त रखा जाता है, उसकी वृद्धि होती है और जिसका वर्णन किया जाता है, उसका क्षय हो जाता है। पाप को

दूसरों से कहने और उसके लिए पश्चाताप करने से प्रायः उसका नाश हो जाता है। उसी प्रकार धर्म भी अपने मुह से दूसरों के सम्मुख प्रकट करने पर नष्ट हो जाता है। छिपाने पर निःसंदेह ये दोनों ही अधिक बढ़ते हैं। इसलिए समझदार मनुष्य को चाहिए कि सर्वथा उद्योग करके अपने पाप के प्रकट कर दे, उसे छिपाने की कोशिश न करे। पाप का कीर्तन पाप के नाश का कारण होता है, इसलिए हमेशा पाप को प्रकट करना और धर्म को गुप्त रखना चाहिए। नकुलोपाख्यान में ही वैशम्पायन ब्राहमण धर्म का वर्णन करते हुए कहते हैं कि सारे प्राणियों के धर्म रूपी खजाने की रक्षा करने के लिए साधारण ब्राहमण भी समर्थ हैं, फिर जो नित्य सन्ध्योपासना करते हैं, उनके विषय में तो कहना ही क्या? जिसके मुख से स्वर्गवासी देवगण हविष्य का और पितर कव्य का भक्षण करते हैं, उससे बढ़कर कौन प्राणी हो सकता है? ब्राहमण जन्म से ही धर्म की सनातन मूर्ति होती है। वह धर्म के ही लिए उत्पन्न होता है और ब्रहम भाव को प्राप्त होने में समर्थ है। ब्राहमण अपना ही खाता, अपना ही पहनता और अपना ही देता है। दूसरे मनुष्य ब्राहमण की दया से ही भोजन पाते हैं, अतः ब्राहमणों का कभी अपमान नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे सदा ही मुझमें भक्ति रखते हैं। जो ब्राहमण बृहदारण्यक उपनिषद् में वर्णित मेरे गूढ़ और निष्कल स्वरूप का ज्ञान रखते हैं, उनका यत्न पूर्वक पूजन करना चाहिए। घर पर या विदेश में, दिन में या रात में मेरे भक्त ब्राहमणों की निरन्तर श्रद्धाभाव के साथ पूजा करनी चाहिए। क्योंकि ब्राहमण के समान कोई देवता नहीं है। ब्राहमण के समान कोई गुरु नहीं है, ब्राहमण से बढ़कर बन्धु नहीं है और ब्राहमण से बढ़कर कोई खजाना नहीं है। कोई तीर्थ और पुण्य भी ब्राहमण से श्रेष्ठ नहीं है। ब्राहमण से बढ़कर पवित्र कोई नहीं है, और ब्राहमण से बढ़कर पवित्र करने वाला भी कोई नहीं है। ब्राहमण से श्रेष्ठ कोई धर्म नहीं और ब्राहमण से उत्तम कोई गति नहीं है।

पापकर्म के कारण नरक में गिरते हुए मनुष्य का एक सुपात्र ब्राहमण भी उत्तर कर सकता है। सुपात्र ब्राहमणों में भी जो बाल्यकाल से ही अग्निहोत्र करने वाले, शूद्र के अन्न का त्याग करने वाले तथा शान्त और ईश्वर भक्त हैं और सदा भगवन् भक्ति में ही संलग्न रहते हैं तो उनको दिया हुआ दान अक्षय रहता है। मेरे भक्त

ब्राहमण को दान देकर उसकी पूजा करने, सिर झुकाने, सत्कार करने, बातचीत करने अथवा दर्शन करने से वह

मनुष्य दिव्यलोक को पहुच जाता है।

मनुष्य ब्रहमचर्य के पालन से आयु, तेज, बल, वीर्य, बुद्धि, लक्ष्मी, महान् यश, पुण्य और प्रेम को प्राप्त करता

है। जो गृहस्थ आश्रम में स्थित होकर अखण्ड ब्रहमचर्य का पालन करते हुए पनचयज्ञों के अनुष्ठान में

तत्पर रहते हैं, वे पृथ्वीतल पर धर्म की स्थापना करते हैं। जो मनुष्य प्रतिदिन सवेरे और शाम को विधिवत्

सन्ध्योपासना करते हैं, व वेदमयी नौका का सहारा लेकर इस संसार समुद्र से स्वयं भीतर जाते हैं और दूसरों को भी सहारा देते हैं। जो ब्राहमण सबको पवित्र बनाने वाली वेदमाता गायत्री देवी का जपकरता है, वह समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का दान लेने पर भी प्रतिग्रह के दोष से दुःखी नहीं होता, तथा सूर्यआदि ग्रहों में से जो उसके लिए अशुभ स्थान में रहकर अनिष्टकारक होते हैं, वे भी गायत्री जप के प्रभाव से शान्त, शुभ और कल्याणकारी फल देने वाले हो जाते हैं। जहा कहीं भी क्रुर कर्म करने वाले भयंकर विशालकाय पिशाच रहते हैं, वहा जाने पर भी वे उस ब्राहमण का अनिष्ट नहीं कर सकते हैं। वैदिक व्रतों का आचरण करने वाले पुरुष पृथ्वी पर दूसरों को पवित्र करने वाले होते हैं। राजन्! चारों वेदों में वह गायत्री श्रेष्ठ है। जो ब्राहमण न तो ब्रहमचर्य का पालन करते हैं, और न ही वेदाध्ययन करते हैं, जो बुरे फलवाले कर्मों का आश्रय लेते हैं, वे नाम मात्र के ब्राहमण भी गायत्री के जप से पूज्य हो जाते हैं। फिर जो ब्राहमण प्रातः-सांय दोनों समय सन्ध्या वन्दन करते हैं, उनके लिए तो कहना ही क्या है? प्रजापति मनु का कहना है कि-

शीलमध्ययनं दानं शौचं मार्दवमार्जवम्।

तस्माद् वेदाद् विशिष्टानि मनुराह प्रजापतिः।।

अर्थात् शील, स्वाध्याय, दान, शौच, कोमलता और सरलता – ये सद्गुण ब्राहमण के लिए वेद से भी बढ़कर हैं। वर्णाश्रम धर्म का वर्णन एवं राजधर्म की श्रेष्ठता बतलाने वाले राजधर्मानुशासनपर्व में भीष्म के वचन इस प्रकार हैं-

हे राजन्! धनुष की डोरी खींचना, शत्रुओं को उजाड़ फेंकना, खेती, व्यापार और पशुपालन करना अथवा उद्देश्य से दूसरों की सेवा करना- ये ब्राहमण के लिए अत्यन्त निषिद्ध कर्म हैं। मनीषी ब्राहमण यदि गृहस्थ हो तो उसके लिए वेदों का अभ्यास और यजन-याजन आदि छः कर्म ही सेवन करने के योग्य हैं। गृहस्थ आश्रम का

उद्देश्य पूर्ण कर लेने पर ब्राहमण के लिए (वानप्रस्थी होकर) वन में निवास उत्तम माना गया है। गृहस्थ ब्राहमण दुश्चरित्र, धर्महीन, शूद्र जातीय कुलटा स्त्री से सम्बन्ध रखनेवाला, चुगलखोर, नाचनेवाला, राजसेवक तथा दूसरे-दूसरे विपरीत कर्म करने वाला होता है, वह ब्राहमणत्व से गिर कर शूद्र हो जाता है।ंउपर्युक्त दुर्गुणों से युक्त ब्राहमण वेदों का स्वाध्याय करता हो या नहीं करता हो तो शूद्रों के समान ही होता है। उसे दास की भाति पंक्ति से बाहर भोजन कराना चाहिए। ये राजसेवक आदि सभी अधम ब्राहमण शूद्र के समान ही हैं। जो ब्राहमण मर्यादा शून्य, अपवित्र, क्रूर स्वभाववाला, हिंसापरायण तथा अपने धर्म और सदाचार का परित्याग करने वाला है, उसे हव्य-कव्य तथा दूसरे दान देना न देने के बराबर ही है। जों मन और इन्द्रियों को संयम में रखने वाला, सोमयाग करके सोमरस पीने वाला, सदाचारी, दयालु सब कुछ सहन करने वाला, निष्काम, सरल, मृदु, क्रूरता रहित और क्षमा शील होता है, वहीं ब्राहमण कहलाने के योग्य है। धर्मपालन की इच्छा रखने वाले सभी लोग सहायता के लिए शूद्र, वैश्य तथा क्षत्रिय की शरण लेते हैं। वैश्य के लिए ब्याज लेने की वृत्ति, खेती और वाणिज्य के समान तथा क्षत्रिय के प्रजापालन रूपकर्म के समान ब्राहमणों के लिए वेदाभ्यासरूपी कर्म है। जो शूद्र तीनों वर्णों की सेवा करके कृतार्थ हो गया हो, जिसने पुत्र उत्पन्न कर लिया हो, शौच और सदाचार की दृष्टि से जिसमें अन्य त्रैवर्णिकों की अपेक्षा बहुत कम अन्तर रह गया हो, अथवा जो मनुप्रोक्त दस धर्मों के पालन में तत्पर रहता हो, वह शूद्र यदि राजा की अनुमति प्राप्त कर ले तो उसके लिए संन्यास को छोड़कर शेष सभी आश्रम विहित हैं। पूर्वोक्त धर्मों का आचरण करने वाले शूद्र के लिए तथा वैश्य और क्षत्रिय के लिए भी भिक्षा मांगकर जीवन निर्वाह करने का भी विधान है।

गृहस्थधर्मों का त्याग कर देने पर भी क्षत्रिय को ऋषिभाव से वेदान्तश्रवण आदि संन्यास धर्मकापालन करते

हुए जीवन रक्षा के लिए ही भिक्षा का आश्रय लेना चाहिए, सेवा कराने के लिए नहीं। राजधर्म बाहुबल के

अधीन होता है। वह क्षत्रिय के लिए जगत् का श्रेष्ठतम धर्म है, उसका सेवन करनेवाले क्षत्रिय मानव मात्र की

रक्षा करते हैं। अतः तीनों वर्णों के उप-धर्मों सहित जो अन्यान्य समस्त धर्म हैं। वह राजधर्म से ही सुरक्षित रह सकते हैं। जैसे हाथी के पदचिह्नों में सभी प्राणियों के पदचिह्न विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार सब धर्मों को सभी अवस्थाओं में राजधर्म के भीतर ही समाविष्ट किया जा सकता है।

 

-शोध अधिकारी

उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय,

हरिद्वार (उ.ख.)