कुर्बानी कुरान के विरुद्ध?
(इस्लाम के मतावलबी कुर्बानी करने के लिए प्रायः बड़े आग्रही एवं उत्साही बने रहते हैं। इसके लिए उनका दावा रहता है कि पशु की कुर्बानी करना उनका धार्मिक कर्त्तव्य है और इसके लिए उनकी धर्मपुस्तक कुरान शरीफ में आदेश है। हम श्री एस.पी. शुक्ला, विद्वान् मुंसिफ मजिस्ट्रेट लखनऊ द्वारा दिया गया एक फैसला पाठकों के लाभार्थ यहाँ दे रहे हैं, जिसमें यह कहा गया है कि ‘‘गाय, बैल, भैंस आदि जानवरों की कुर्बानी धार्मिक दृष्टि से अनिवार्य नहीं।’’ इस पूरे वाद का विवरण पुस्तिका के रूप में वर्ष 1983 में नगर आर्य समाज, गंगा प्रसाद रोड (रकाबगंज) लखनऊ द्वारा प्रकाशित किया गया था। विद्वान् मुंसिफ मजिस्ट्रेट द्वारा घोषित निर्णय सार्वजनिक महत्त्व का है-एक तर्कपूर्ण मीमांसा, एक विधि विशेषज्ञ द्वारा की गयी विवेचना से सभी को अवगत होना चाहिए-एतदर्थ इस निर्णय का ज्यों का त्यों प्रकाशन बिना किसी टिप्पणी के आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत है। -समपादक)
पिछले अंक का शेष भाग…..
जहाँ तक भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25-26 का प्रश्न है उनमें प्रारमभ में ही ‘‘स्ह्वड्ढद्भद्गष्ह्ल ह्लश श्चह्वड्ढद्यद्बष् शह्म्स्रद्गह्म् द्वशह्म्ड्डद्यद्बह्लब् × द्धद्गड्डद्यह्लद्ध’’ शबद जुड़े हुए हैं, जो इस बात का प्रतीक हैं कि धार्मिक कृत्य कोई भी पबलिक आर्डर, नैतिकता एवं स्वास्थ्य के विपरीत नहीं किया जायेगा। उदाहरण के लिए हिन्दू धर्म भी सती प्रथा अथवा आत्मदाह किसी पाप के प्रायश्चित करने के प्रकार बताये गये हैं, परन्तु चूँकि वह उपरोक्त तीन शबदों के प्रतिकूल होने के कारण न्यायालय उन्हें इजाजत नहीं दे सकती।
इस बात को भी स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है कि दीवानी अधिकार (सिविल राइट) यदि मौलिक अधिकारों के समक्ष चुनौती उत्पन्न करते हैं तो मौलिक अधिकारों को वरीयता दी जायेगी और दीवानी अधिकार उस हद तक संशोधित एवं निरस्त समझे जायेंगे। यदि वादीगण को प्रतिवादीगण के विरुद्ध केवल दीवानी अधिकार ही प्रदत्त हैं, जबकि भैसें की कुर्बानी करना प्रतिवादीगण का मौलिक अधिकार है, तो निश्चय ही वह प्रतिवादीगण का मौलिक अधिकार माना जायेगा और वादीगण के दीवानी अधिकार निरस्त समझे जायेंगे। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने दुर्गा कमेटी अजमेर आदि बनाम सैयद हुसैन अली आदि ए.आइ.आर. 1964 पेज 1402 के अनुच्छेद 33 में यह स्पष्ट किया है कि बड़ी सफलतापूर्वक यह ध्यान देने योग्य है कि प्रचलित धर्म की रीति धर्म का आवश्यक एवं अभिन्न अंग है अथवा वह चली रीति धर्म का अभिन्न एवं आवश्यक अंग नहीं है और इस तथ्य को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 26 के आवरण में दिखाना होगा। उसी प्रकार प्रचलित धर्म रीति केवल अन्धविश्वास है अथवा अनावश्यक एवं स्वयं में धर्म का अंग न हो, जब तक धार्मिक प्रचलित रीति आवश्यक एवं अभिन्न धर्म का अंग न हो। अनुच्छेद 26 के तहत सुरक्षा प्रदान नहीं की जा सकती तो उसका बड़ी सावधानीपूर्वक निरीक्षण करना होगा। दूसरे शबदों में संवैधानिक सुरक्षा उन्हीं धार्मिक रीतियों को देता है जो धर्म का आवश्यक एवं अभिन्न अंग हैं। पाक कुरान शरीफ की सन्दर्भित आयतों को देखकर एवं विद्वान् अधिवक्तागण के द्वारा प्रस्तुत किये गये तर्कों का सिंहावलोकन कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि भैंस-भैसे की कुर्बानी एक अन्ध विश्वास की देन है। पाक कुरान शरीफ अथवा इस्लाम का आदेश न होने के कारण इस्लाम धर्म का आवश्यक व अभिन्न अंग नहीं है। इस्लाम धर्म में बहुतेरे पैगबर, सिद्धहस्त फकीर एवं महान् मुसलमान आत्माओं को जन्म दिया है, जिन्होंने कोई कुर्बानी नहीं दी। इसका यह मतलब नहीं हुआ कि कुर्बानी के बिना बहिस्त प्राप्त नहीं हो सकता। वर्तमान वाद में प्रतिवादीगण भैंसे की कुर्बानी को इस्लाम का आवश्यक अंग सिद्ध करने में सर्वथा असमर्थ रहे हैं।
यहाँ पर मैं यहा भी कहना उचित समझता हूँ कि विभिन्न धर्मों के लोग महिला मऊ गाँव में रहते हैं, जहाँ अब तक भैंस-भैंसे की कुर्बानी नहीं हुई और यदि वे इसे बुरा मानते हैं और अहिंसा में विश्वास करते हैं, तो उनकी धार्मिक भावनाओं को भैंसे की कुर्बानी की इजाजत देकर ठेस पहुँचाना कहाँ तक उचित होगा, जबकि वे इतने सहिष्णु हो चुके हैं कि बकरे, भेड़, भेड़ा की कुर्बानी करने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं है।
मेरे समक्ष यह तर्क दिया गया है कि एक बड़े जानवर में सात व्यक्ति शरीक हो सकते हैं, इसलिये भैंस-भैंसे की कुर्बानी एक गरीब व्यक्ति के लिये लाजमी है, जबकि वह व्यक्ति इतना गरीब है कि एक बकरी खरीद कर कुर्बानी नहीं दे सकता तो क्या वह पबलिक आर्डर, नैतिकता की सुरक्षा, मलमूत्र, रक्त आदि विसर्जित करके ठीक से निर्वसन कर सकेंगे, इसमें सन्देह है और निश्चय ही गन्दगी को बढ़ावा मिलेगा। सरकार ने इसलिए बड़े जानवर को काटने के लिए बूचड़खानों का प्रबन्ध किया है।
यदि पाक कुरान शरीफ की गहराइयों में झाँका जाए और बारीकियों को परखा जाए तो व्यक्ति को काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह एवं अहं की कुर्बानी करनी चाहिये न कि बेचारे चौपायों की, जिन्हें चाँदी के कुछ सिक्कों में खरीदा जा सकता है। मनुष्य को इन्द्रियजित, मनोवृत्तिजित् होना चाहिये। किसी भी धर्म के आधारभूत सिद्धान्त हिंसा में विश्वास नहीं करते और मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि पाक कुरान शरीफ में भैंस-भैंसे की कुर्बानी का सन्दर्भ कहीं पर नहीं आया है अन्यथा मेरे समक्ष इस प्रकरण एवं तथ्यों पर हुई गवाही में अवश्य आता। इस साक्षी को अपने उलेमाओं से भी मदद लेने का अवसर था, परन्तु फिर भी यह साक्षी मेरे समक्ष इस प्रकार का कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर सका, जिससे अनुमान लगाया जायेगा कि पाक कुरान शरीफ अथवा इस्लाम में कुर्बानी करना फर्ज नहीं है और कुर्बानी भैंस या भैंसे की नहीं हो सकती।
साक्षी सं. 1 हाजी सैयद अली ने और साथ ही साक्षी सं. 5 मो. रफीकुद्दीन ने यह स्वीकार किया है कि कुर्बानी के अलावा भी अन्य तरीकों से भी बहिस्त प्राप्त हो सकती है, गरीब आदमी इबादत के द्वारा बहिस्त प्राप्त कर सकता है। यदि कुर्बानी द्वारा ही एक मात्र बहिस्त प्राप्त किया गया होता तो निश्चय ही इस्लाम धर्म के सभी राजा-महाराजाओं सेठ-साहूकारों ने बहिस्त प्राप्त कर लिया होता और गरीब फकीर उधर लालयित होकर देखते रहते, जबकि सत्यता इसके प्रतिकूल है।
इसके विपरीत वादीगण की ओर से श्रीराम आर्य को परीक्षित किया गया, जिन्होंने करीब 80 किताबें धार्मिक विचारों पर लिखी हैं। उन्होंने स्वीकार किया कि पाक कुरान शरीफ से समबन्धित आठ-दस किताबें उन्होंने लिखी हैं। कुरान शरीफ की छानबीन, कुरान शरीफ का प्रकाश व पुनर्जन्म, कुरान शरीफ में बुद्धि विज्ञान आदि कई किताबें लिखीं। इस साक्षी ने अपने मुखय कथन में स्पष्ट स्वीकार किया है कि केवल एक ही आदेश हज के समय ऊँट की कुर्बानी का है अन्य किसी जानवर की कुर्बानी का नहीं है। किसी दूसरे जानवर यानी भैंसे की कुर्बानी का आदेश पाक कुरान शरीफ में नहीं है। जो व्यक्ति भैंस-भैंसे को काटता है, उसकी कुर्बानी इस्लाम के खिलाफ है। इस साक्षी ने अपने मुखय कथन में यहा भी कहा कि उसने धार्मिक किताबें हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित की हैं। पृच्छा में इस साक्षी ने यह भी स्वीकार किया कि पाक कुरान शरीफ में कुर्बानी का जिक्र सूरे हज्ज में है, सूरे वक्र में नहीं। सूरे हज्ज में ही केवल कुर्बानी का आदेश है, अन्य कहीं नहीं। पारा बिना किताब देखे नहीं बता सकता। इस साक्षी ने यहा भी स्पष्ट इन्कार किया कि उसने कुरान शरीफ अथवा मुस्लिम कल्चर का पूर्ण अध्ययन नहीं किया है। इस साक्षी ने स्पष्ट स्वीकार किया कि कुरान शरीफ अरबी में उसने नहीं पढ़ा है, परन्तु कुरान शरीफ उसने कई बार पढ़ा। उसका ट्रान्सलेशन अहमद वसीर, काबिल तवीर, काबिल मौलवी लखनऊ, शाह अबदुल कादिर के तर्जुमें पढ़े हैं। इस साक्षी ने भी स्वीकार किया कि ये लोग आलिम हैं या नहीं, परन्तु इनका अनुवाद मान्य है। मैं इस स्वतन्त्र साक्षी के साक्ष्य को ग्राह्य करने का कोई औचित्य नहीं समझता, जबकि इस साक्षी की साक्ष्य का संपुष्टन सफाई साक्षी नं. 5 मो. रफीकुद्दीन ने भी किया है और कुरान शरीफ में कुर्बानी फर्ज है, नहीं ढूँढ सका और अन्त में उसने विवश होकर यह स्वीकार किया कि हिंसा करना कुरान शरीफ में पाप है और सभी वस्तुएँ अल्लाह की बनाई हुई हैं, किसी को चोट पहुँचाना पाप है। ऐसी दशा में निःसंकोच कहा जा सकता है कि जब प्रतिवादीगण भैंस-भैंसे की बलि इस्लाम में सिद्ध नहीं कर पाये हैं तो उन्हें अनुच्छेद 25 व 26 भारतीय संविधान का लाभ नहीं मिल सकता और वे किस हद तक प्रतिवाद पत्र की धारा 10में वर्णित आधार पर लाभ पा सकते हैं, उत्तर नकारात्मक होगा।
उपरोक्त व्याखया के अनुसार विवाद्यक नं. 2,3 व 5 वादीगण के अनुकूल एवं प्रतिवादी गण के प्रतिकूल निर्णीत किये गये।
विवाद्यक सं. 7
इस विवाद्यक को सिद्ध करने का भार वादीगण पर है। इस समबन्ध में वादी साक्षी नं. 2 महन्त विद्याधर दास ने अपने मुखय कथन में अभिकथित किया कि कुर्बानी का प्रभाव जनता पर पड़ेगा। भैसों की कुर्बानी से हिन्दुओं में उत्तेजना फैलेगी, सामप्रदायिकता बढ़ेगी। इस गाँव में कोई पशुवधशाला नहीं है और न ही पशुवधशाला का अलग स्थान है। इस गाँव में कोई नाली आदि नहीं है जिससे भैंसों का खून आदि रास्ते में बहेगा। इस साक्षी से पृच्छा में जन स्वास्थ्य के बारे में एक भी शबद नहीं पूछा गया, केवल अन्तिम सुझाव दिया गया कि घर के अन्दर कुर्बानी करने से खुन आदि बहने का प्रश्न नहीं उठता, जिसे इस साक्षी ने इन्कार किया। इसके अतिरिक्त प्रतिवादी साक्षी नं. 6 डाक्टर मेहरोत्रा ने प्रथम प्रदर्शक-6 सिद्ध किया और बताया कि मेरे पूर्व डाक्टर श्री शर्मा ने यह प्रपत्र जारी किया था। पृच्छा में इस साक्षी ने स्वीकार किया कि जानवरों की बलि देने से बावत प्रमाणपत्र जारी करने के लिए पशु चिकित्सक अधिकृत नहीं है और न ही पशु चिकित्सक पशुबलि के लिए कोई आदेश अथवा स्वीकृति देना भी निश्चित नियमों के तहत है, जिसमें पशुओं का वध बूचड़खाना में ही हो सकता है, खुले स्थान में नहीं। खुले स्थान में पशुवध करना प्रतिबन्धित है। विवादित गाँव सहिलामऊ में कोई बूचड़खाना नहीं है। बड़े जानवरों को बूचड़खाने के अतिरिक्त अन्य किसी जगह पर काटना प्रतिबन्धित है। ऐसी दशा में यदि खुले स्थान में जानवर काटा जाता है तो निश्चय ही सामप्रदायिकता भड़केगी एवं समाज में घृणा फैलेगी, उनके खून के बहाव एवं हाड़ आदि की दुर्गंध से बीमारियाँ भी फैलने का अंदेशा रहेगा। यही नहीं, इस तथ्य को ध्यान में रखकर ही समभवतः प्रदर्श क-1 आदेश परगनाधिकारी कुमारी लोरेशन, दिगोजा एवं क्षेत्राधिकारी सुभाष जोशी ने जारी किया है।
उपरोक्त व्याखया के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि विवाद्यक नं.-7 वादीगण के अनुकूल एवं प्रतिवादीगण के प्रतिकूल निर्णीत किया जाता है।
शेष भाग अगले अंक में……