खण्डन क्यों, खण्डन कैसे? ऋषि के शबदों में
-राम निवास गुणग्राहक
किसी भी पदार्थ के सच्चे स्वरूप को जानने-समझने के लिए धरती तल के प्रत्येक बुद्धिमान् विवेकशील व्यक्ति व समाज की जो भी सर्वमान्य कसौटी होगी, उसमें खण्डन एक अनिवार्य घटक अवश्य होगा। खण्डन का सहारा लिये बिना संसार के इतिहास के किसी काल-खण्ड में कोई भी मान्य महानुभाव किसी भी सत्य को स्थापित करने में सफल हुआ होता, तो खण्डन की अनिवार्यता कभी की समाप्त हो चुकी होती। माना, अगर कोई व्यक्ति अज्ञानतावश, हठ वा दुराग्रह पूर्वक गाय को हाथी या घोड़ा कहने, मानने और मनवाने का प्रयास करने लगे तो गाय और घोड़े के अन्तर को, उनके सच्चे स्वरूप को जानने वाले बुद्धिमान् पुरुष गाय को गाय और घोड़े को घोड़ा सिद्ध करने के लिए खण्डन का सहारा लिये बिना काम चला लेंगे? यह कहना कि यह घोड़ा नहीं है, स्पष्ट खण्डन है और यह कहना कि यह गाय है, ये मण्डन है। किसी भूल, भ्रान्ति व हठवादिता को दूर करके सत्य की स्थापना का पहला कदम खण्डन के रूप में ही उठाना पड़ेगा। खण्डन से डरने, चिढने वा दूर भागने वाले व्यक्ति वा समाज सामाजिक अन्धविश्वासों व अन्धपरमपराओं के सुरक्षित गढ़ बनकर रह जाते हैं। खण्डन से डरने व चिढ़ने वाले व्यक्ति बुद्धि व हृदय दोनों की दृष्टि से कमजोर (दुर्बल) होते हैं। ऐसे लोग अपने आस-पास के परिवेश में चली आ रही परमपराओं व मान्यताओं से हटकर कुछ भी सोचने-विचारने व करने-कराने को तैयार ही नहीं होते। ये अपने पाखण्डपूर्ण परिवेश बदलने में तो संकोच नहीं करते, चाहे गायत्री परिवार वालों की गप्पबाजी हो या साईं का षड़यन्त्र, आसाराम की अमानवीय-अनैतिकताएँ हों या भविष्य में खड़े हो जाने वाले किसी नये कथित अवतारी के अवाञ्छित-असंगत उपदेश, खण्डन से डरने व चिढने वालों को ये सब तो सहज स्वीकार्य हैं, लेकिन सत्य-धर्म व ज्ञान की एक छोटी-सी किरण देखकर भी इनके हृदय में कौरवी-क्रोध की आग भड़क उठती है। रोगी बालक कड़वी दवा खाने या इंजैक्शन लगवाने से डरे वा बचना चाहे तो क्या उसके हितैषी परिजन या चिकित्सक अपना काम छोड़ देंगे? यदि नहीं, तो कुछ मत-वाले मतवादियों के चिढ़ने-क्रोध करने पर सत्य को निखारने में अत्यन्त उपयोगी घटक खण्डन की भी अनदेखी करना समभव नहीं।
महर्षि दयानन्द खण्डन की उपयोगिता बताते हुए लिखते हैं-‘विद्वानों का यही काम है कि सत्य-असत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण, असत्य का त्याग करके परम आनन्दित होते हैं।’ महर्षि की अटल मान्यता है-‘सत्योपदेश के बिना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है।’ इसलिए सत्य का सच्चा स्वरूप जनता के सामने रखना और उसका अधिकाधिक प्रचार करना वे मानव का सर्वोपरि कर्त्तव्य मानते थे। इसी कर्त्तव्य के पालनार्थ धार्मिक जगत् में व्याप्त अन्धविश्वासों को दूर करके सत्य-धर्म और ईश्वर के सच्चे स्वरूप को विश्वसनीय बनाकर प्रचारित करने के लिए ही ऋषिवर ने खण्डन का उपयोग किया था। वे लिखते हैं-‘यह लेख (खण्डन) केवल सत्य की वृद्धि और असत्य के ह्रास होने के लिए है न कि किसी को दुःख देने वा हानि करने अथवा मिथ्या दोष लगाने के अर्थ है।’ वे आगे लिखते हैं-‘सब मनुष्यों को उचित है कि सबके मत-विषयक पुस्तकों को देख-समझकर कुछ समति वा असमति देवें, नहीं तो सुना करें।’ खण्डन का उद्देश्य ‘सत्य की वृद्धि और असत्य का ह्रास’ ही होना चाहिए। किसी को दुःख पहुँचाने, हानि करने या किसी पर झूँठे दोष लगाने के लिए नहीं। महर्षि तो सब मनुष्यों को प्रेरणा करते हैं कि उन सब मतों, जिन्हें आज भूलवश हम धर्म कहते हैं-की पुस्तकों को देखें, समझें और उन पर अपने विचार प्रकट करें। जो ऐसा न कर सकें, तो ऐसी चर्चा या विचारों को सुनें। निश्चित रूप से ऐसी घोषणा सत्य-धर्म व न्याय के ठोस धरातल पर खड़ा ऋषि दयानन्द ही कर सकता है। ऋषि दयानन्द खण्डन करने वालों के लिए भी एक उपयोगी शिक्षा देते हुए लिखते हैं-‘प्रथम अपने दोष देख-निकालकर पश्चात् दूसरों के दोषों में दृष्टि देके निकालें।’ अपने दोष निकाले बिना दूसरों के दोष दूर करने की योजना या अभिमान कभी किसी के सफल नहीं हो सकते। आज आर्यसमाज के विद्वानों, कर्णधारों को ऋषि के इन शबदों पर सच्चे हृदय से विचार और व्यवहार करना चाहिए। मैं मेरे असत्य पर, दोषों पर पर्दा डालने का प्रयास करुँ, दूसरों के दोष-असत्य दूर करने में शक्ति लगाऊँ, यह खोखलापन खतरे से खाली नहीं है। हमें हृदय-पटल पर स्वर्ण-अक्षरों में ऋषि के शबद अंकित करने होंगे-‘सत्य के जय और असत्य के क्षय के अर्थ मित्रता से वाद वा लेख करना हमारी मनुष्य जाति का मुखय काम है। यदि ऐसा न हो तो मनुष्यों की उन्नति कभी न हो।’ मुझे लगता है कि ऋषि के इन शबदों पर लेखक के लिखने से कहीं अधिक पाठकों के विचारने व चिन्तन करने की आवश्यकता है। मैं तो महर्षि के ‘खण्डन क्यों?’ पर एक-दो वाक्य देकर आगे बढ़ना चाहता हूँ। खण्डन का औचित्य बताते हुए ऋषि लिखते हैं-‘न कोई किसी पर झूँठ चला सके और न सत्य को रोक सके और सत्यासत्य विषय प्रकाशित किये पर भी जिसकी इच्छा हो वह न माने वा माने, किसी पर बलात्कार नहीं किया जाता।’
खण्डन कैसे?-महर्षि दयानन्द की विलक्षण विशेषता ये थी कि वे लेखन से लेकर परस्पर के शास्त्रार्थ, संवाद तक में हार-जीत जैसी मानव-सुलभ भावनाओं से नितान्त निर्लिप्त रहकर केवल सत्य-असत्य के निर्णयार्थ तथा सत्य की स्थापना के लिए ही प्रवृत्त होते थे। चाहे चाँदापुर मेले के अवसर पर उनके सामने मिलकर मुस्लिम-ईसाइयों को हराने का प्रस्ताव हो, या काशी-शास्त्रार्थ में विरोधियों द्वारा छल-प्रपञ्च हो-हल्ला पूर्वक उन्हें पराजित् घोषित करने के बाद भी अपनी स्वाभाविक शान्ति व सहृदयता को बनाये रखा। उनकी लेखनी वा वाणी से कभी हल्के या कठोर शबदों का प्रयोग हुआ हो अथवा कभी किसी की व्यक्तिगत आलोचना या आस्था पर कटुप्रहार का कोई प्रसंग कहीं नहीं मिलता। सीधे शबदों में कहें तो उन्होंने विशुद्ध रूप से असत्य का ही खण्डन किया और असत्य के खण्डन में वे कितने आक्रामक और असहनशील हो सकते हैं, इसके वे स्वयं ही अपने उदाहरण थे। उनके पास एक माँ का वात्सल्यपूर्ण हृदय था और पिता का विवेकपूर्ण मस्तिष्क। संसार के पूर्ण उपकार को जीवन का लक्ष्य बनाने और उसी के लिए प्रतिपल जीने वाले निर्लिप्त ऋषि के हृदय में किसी के प्रति राग-द्वेष की कल्पना नहीं की जा सकती। उनका स्वयं का जीवन पूर्णतः निर्दोष होने के साथ-साथ सत्य के प्रति पूर्ण समर्पित था। सद्भावों से समुज्जवल, सद्गुणों से समुन्नत, सदाचार से सुशोभित और सत्य के लिए समर्पित हुए बिना अगर कोई भी पुरुष खण्डन में प्रवृत्त होता है तो उसके सुपरिणामों की सभावनाओं में आशंकाओं का ग्रहण लग ही जाता है। सत्य का मण्डन और असत्य का खण्डन कोई मानवीय क्षमताओं से समपन्न होने वाला कार्य नहीं लगता, इसके लिए मन-मस्तिष्क में दैवीय तत्त्वों की प्रधानता होनी चाहिए। जिन महामानवों के मन-मस्तिष्क दैवीय गुणों को जितनी मात्रा में पा-पचा लेते हैं, वे सत्य के मण्डन व असत्य के खण्डन में उतने ही दूरगामी सुपरिणाम पैदा कर सकते हैं।
‘खण्डन कैसे’ को महर्षि के शबदों में ही समझने का प्रयास करें तो उनके पूर्वोक्त वचनों में भी इसकी पर्याप्त झलक मिल जाती है। जैसे-‘सत्य के जय और असत्य के क्षय के अर्थ मित्रता से वाद वा लेख करना।’ खण्डन में ‘सत्य का जय व असत्य का क्षय’ ही मुखय ध्येय होना चाहिए, न कि स्वमत का पक्ष-पोषण। दूसरी बात- यह कार्य मित्रतापूर्वक सर्वहित की दृष्टि से होना ही उत्तम है। ऋषि लिखते हैं-‘यदि हम सब मनुष्य और विशेष विद्वज्जन ईर्ष्या-द्वेष छोड़, सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना चाहें तो हमारे लिये यह बात असाध्य नहीं है।’ ईर्ष्या-द्वेष व जय-पराजय की भावना से ग्रस्त विद्वान् न तो सत्य-असत्य का निर्णय ही कर सकते हैं और न उनके अन्दर सत्य को ग्रहण करने व असत्य को त्यागने का सामर्थ्य आ पाता है। ईर्ष्या-द्वेष से ग्रस्त मत-वाले, पक्षपात आदि में प्रवृत्त-पुरुष खण्डन-मण्डन जैसे सत्य शोधक अनुष्ठान के लिए सर्वथा अयोग्य हैं, अपात्र हैं। महर्षि स्वयं इस दृष्टि से कितने उदारमना व गुणग्राहक थे, यह उन्हीं के शबदों में समझिये-‘जैसा मैं पुराण, जैनियों के ग्रन्थ, बाइबिल और कुरान को प्रथम ही बुरी दृष्टि से न देखकर उनमें से गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग तथा अन्य मनुष्य जाति की उन्नति के लिए प्रयत्न करता हूँ, वैसा सबको करना योग्य है।’ महर्षि की सद्भावना और गुणग्राहकता देखिये कि वे जिन पुराण-कुरान आदि का खण्डन करने लगे हैं, उनको भी प्रथम ही बुरी दृष्टि से न देखकर उनसे भी गुणों का ग्रहण करते हैं। हमारे यहाँ प्रसिद्ध है-‘शत्रोरपि गुणा वाचा दोषा वाचा गुरोरपि’-अर्थात् सद्गुण शत्रु में हों व दोष गुरु में भी हों तो उन्हें प्रकट करने में संकोच न करो। मेरे ऋषि की दृष्टि में तो कोई शत्रु था ही नहीं, उनका कोई शत्रु था तो असत्य था। जैसे ऋषि दयानन्द पुराण-कुरान आदि से भी गुण-ग्रहण की बात कहते हैं, वैसी भावना रखने वाला विद्वान् वैसी ही गुणग्राहक दृष्टि लेकर खण्डन-मण्डन में प्रवृत्त हो तो निश्चित रूप से सत्य का प्रचार-प्रसार असाध्य नहीं रहेगा।
महर्षि के कुछ मूल्यवान् वचन देकर लेख पूर्ण करेंगे। ‘अपने वा पराये दोषों को दोष और गुणों को गुण जानकर गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग करें, हठियों का हठ-दुराग्रह न्यून करें करावें।’….‘इस अनिश्चित क्षणभंगुर जीवन में पराई हानि करके लाभ से स्वयं रिक्त रहना और अन्य को रखना मनुष्यपन से बहिः है।’ ‘सब मत मतान्तरों की गुप्त वा प्रकट बुरी बातों का प्रकाश कर विद्वान्-अविद्वान् सब साधारण मनुष्यों के सामने रखा है, जिससे सबसे सबका विचार होकर परस्पर प्रेमी होके सब सत्य मतस्थ होवें।’
‘‘जो-जो आर्यावर्त्त वा अन्य देशों में अधर्म-युक्त चाल-चलन है, उसका स्वीकार और जो धर्मयुक्त बातें हैं, उनका त्याग नहीं करता, न कराना चाहता हूँ क्योंकि ऐसा करना मनुष्य-धर्म से बहिः है।’’ विवेकी पाठक! इन ऋषि वचनों के मर्म-धर्म को आत्मसात करें-करावें, इसी भावना से यह लेख लिखा है। शुभमस्तु!!