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जीवन का प्रथम प्रश्न

जीवन का प्रथम प्रश्न

– इन्द्रजित् देव

मनुष्य के जीवन में अनेक प्रश्न समुपस्थित होते हैं। उनमें से कुछ अपने हैं तो कुछ बेगाने हैं, कुछ तन के होते हैं। तो कुछ मन के भी होते हैं। कुछ भौतिक प्रश्न हैं तो कुछ आध्यात्मिक हैं। तात्पर्य यह है कि प्रश्न-दर-प्रश्न हैं। हम एक प्रश्न हल कर भी लेते हैं तो दूसरे प्रश्न उत्तर माँगते हैं। एक लमबा प्रयास करते-करते जीवन व्यतीत हो जाता है। प्रश्नों का बोझ कम नहीं होता।

ऋषियों ने मनुष्य के समक्ष जो प्रश्न रखा है, उसे समझना अनिवार्य है। वह प्रश्न यह है कि मनुष्य प्रथम यह समझ ले कि वह कौन है? किसका है? उसका दर्जा क्या है? उसके जन्म का उद्देश्य क्या है? व उसका सहायक कौन है?

मनुष्य शिशु के रूप में जन्मता है। जन्म लेते ही उसका जातकर्म संस्कार किया जाता है, जिसमें पिता शिशु के कान में कहता है-वेदोसि अर्थात् तू ज्ञानवाला प्राणी है, अज्ञानी नहीं बनना। शिशु की जिह्वा पर सुवर्ण की शलाका से घृत व मधु चटाना तथा जिह्वा पर ‘ओ3म्’ लिखने का कार्य पिता करता है। अर्थात् हे पुत्र/पुत्री! तुमहें मुखय रूप में आध्यात्मिक जीवन अपनाना है। आत्मा की उन्नति, दृढ़ता तथा सुसंस्कारिता के लिए ही प्रयत्नशील रहना है। इसमें आने वाली बाधाओं को हटाना है। यह तभी होगा, जब ईश्वर के दिए ज्ञान अर्थात् वेदानुसार जीवन व्यतीत करेगा। यह उद्देश्य तभी पूर्ण होगा, जब उसे बोध कराया जाए कि वह कौन है, किसका है, आदि। इसलिए आशीर्वाद के रूप में पिता कहता है-

कोऽसि कतमोऽस्येषोऽस्यमृतोऽसि।

अर्थात् तू कौन है? तू कौन-सा है? इसमें पिता कहता है-तू अमृत है। तात्पर्य है कि तू शरीर नहीं है। यह शरीर तुहें ईश ने दिया, वस्तुतः तू आत्मा है, जिसकी मृत्यु कभी नहीं होगी। इसी के विकास हेतु तू जीवन भर प्रयत्नशील रहना। पिता के द्वारा प्रथम प्रश्न समझा देने के विपरीत व्यक्ति स्वयं को भूलकर या गहराई से स्वयं को न समझकर पदार्थों, वस्तुओं अथवा विषयों की तरफ ही दौड़ता है-

जिन्दगी भर तो हुई गुतगू औरों से मगर

आज तक हमारी हमसे ही मुलाकात न हुई।

अन्यान्य विषयों में मस्त-व्यस्त मनुष्य बहुत कुछ जान लेता है, परन्तु स्वयं को जानने का प्रयत्न तो दूर की बात है-

आकाश में ऊँची से ऊँची जिसकी उड़ान है,

सागर-तल में नीचे तक जिसकी पहचान है,

ज्ञान हो कि विज्ञान बहुत जान लिया जिसने

हाय! मगर वह आदमी खुद से अनजान है।

एक बार उपदेश प्राप्त करने के लिए महर्षि सनत के पास मुनि नारद गए तो निवेदन किया-‘‘भगवन्! मुझे कुछ ज्ञान दीजिएगा।’’ महर्षि ने पात्रता जानने के उद्देश्य से पूछा-‘‘अब तक तुम क्या-क्या जान चुके हो, प्रथम मुझे यह बताओ, ताकि मैं आगे की बात बताऊँ।’’

नारद मुनि ने कुछ ग्रन्थों के नाम बताए-चारों वेद, इतिहास, पुराण, व्याकरण, गणित, खगोल, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, क्षत्र विद्या, भूत विद्या, ब्रह्म विद्या, वेदांग, नक्षत्र विद्या, शिल्प विद्या, ज्योतिष, वाद्य, नृत्य, गान, धनुर्वेद,उत्पात ज्ञान, निरुक्त आदि।

‘‘इतने अधिक ग्रन्थ पढ़ चुकने के पश्चात् मेरे पास क्यों आए हो?’’

‘‘भगवन्! अहं शोचामि। मैं शोकग्रस्त हूँ, क्योंकि मैं मन्त्रवित् तो हो गया हूँ, परन्तु आत्मवित् नहीं हुआ। मैंने बहुत-सी बातें अन्यान्य विषयों में तो जान ली हैं, परन्तु मैं क्या हूँ, कौन हूँ, इससे तो अभी तक मैं सर्वथा अनभिज्ञ ही हूँ। मैंने सुना है- आत्मवित् तरति शोकम्। बिना स्वयं को जाने कोई मनुष्य शोक से मुक्त नहीं हो सकता, अतः मुझे आत्मज्ञान कराइएगा।’’- छान्दोग्योपनिषद्

महर्षि सनत कुमार ने विस्तृत ज्ञान नारद को दिया। संक्षेप में- जो जीव आत्मज्ञानी व सर्वसिद्धयुक्त हो जाता है, वह आत्मदर्शी न तो मृत्यु से डरता है, न दुःखी होता है। वह सब यथार्थ व वास्तविक ही देखता है। सर्वत्र आत्मतत्त्व ही देखते हुए वह शोकग्रस्त नहीं होता। कहा भी है- ‘आत्मवित् न शोचति।’ यजुर्वेद में भी कहा है-‘तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः’ अर्थात् इस एक आत्मा का साक्षात्कार कर लेने पर न तो मनुष्य को मोह होता है तथा न किसी भी प्रकार का शोक होता है। शोक तब तक रहता है, जब तक अविद्या से ग्रस्त व वशीभूत होकर मनुष्य सोचता है।

आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्योमैत्रेयात्मनी व अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेन सर्वमिदं विदितम्।

-वृहदारण्यकोपनिषद् 2-4-5

अर्थात् आत्मा ही तो देखने योग्य है, जानने योग्य है, सुनने योग्य है, मनन करने योग्य है। निदिध्यासन अर्थात् निरन्तर ध्यान करने योग्य है। इसी आत्मा को ही दर्शन से, श्रवण से, मनन से और निरन्तर ध्यान-समाधि द्वारा साक्षात् अनुभव करने से ही यह सब कुछ विदित हो जाता है।

आत्मा की सिद्धि के लिए यह जानना आवश्यक है कि शरीर में आत्मा के लक्षण (लिंग) कितने हैं। न्याय दर्शनानुसार लक्षण छः हैं-इच्छाद्वेषप्रयत्न सुखदुःखज्ञानात्मनो लिङ्गमिति-अर्थात् इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख तथा ज्ञान। इनसे आत्मा के अस्तित्व का बोध होता है। जहाँ ये लक्षण नहीं होते, वहाँ आत्मा नहीं है। सुख देने वाले पदार्थ या व्यक्ति को प्राप्त करने की इच्छा तथा दुःख देने वाले पदार्थ अथवा व्यक्ति से दूर रहने या न प्राप्त होने की भावना को द्वेष कहते हैं तथा प्राप्त करने या दूर रहने के लिए जो प्रयास किया जाता है, उसे प्रयत्न कहते हैं। मन के अनुकूल प्राप्त फल व परिणाम को सुख तथा प्रतिकूल या रुकावट अथवा बाधा को दुःख कहा जाता है। अनुकूलता तथा प्रतिकूलता की भिन्नता को समझना ज्ञान कहलाता है। आत्मा जब शरीर में रहता है, तब ये छः गुण शरीर में दिखाई देते हैं पर शरीर में इच्छा-द्वेष तथा प्रयत्नादि गुण, लक्षण दिखाई नहीं देते।

आत्मा न पुरुष है, न स्त्री है तथा न ही नपुंसक है। जिस देह में प्रवेश करता है, तद्रूप हो जाता  है। कहा जाता है, जैसे एक ही अग्नि पदार्थ किसी पदार्थ में प्रविष्ट हो तद्रूप हो जाता है, वैसे ही आत्मा जिस शरीर में प्रवेश करता है, उसके रूप एवं आकृति को धारण कर लेता है। आत्मा को ना भूख लगती है, न ही प्यास सताती है। ये पार्थिव शरीर के गुण हैं। शरीर से सबद्ध होने पर ही आत्मा नेत्रों के माध्यम से देखता है, कानों के माध्यम से सुनता है, जिह्वा के माध्यम से आवृत हुआ आत्मा ही चखता है। आँख, कान व जिह्वा आदि इन्द्रियाँ तो आत्मा के साधन हैं, परन्तु इसके विपरीत यह भी सत्य है कि अशरीरी अवस्था में आत्मा को न दुःख होता है, न ही सुख अनुभव होता है। न कोई इच्छा सताती है तथा न किसी प्रकार का द्वेष होता है, न ये आत्मा को स्पर्श करते हैं-

…….अशरीरं वाचं सन्ति न प्रियाप्रिये स्पृशतः।

-छान्दोग्योपनिषद् 8/12/1

आत्मा का महत्त्व यह भी है कि यही तो (ज्ञान चक्षुओं से) देखने योग्य है, जानने योग्य है, सुनने योग्य है, मनन करने योग्य है, निदिध्यासन अर्थात् निरन्तर ध्यान करने योग्य है। इसके दर्शन करने अर्थात् जानने से अनुभव करने से, श्रवण करने से, मनन करने से निरन्तर ध्यान-समाधि द्वारा साक्षात् अनुभव करने से ही सब कुछ विदित हो जाता है। इसी के परिणाम स्वरूप सब प्रकार के रहस्य खुल जाते हैं-

याज्ञवल्क्य ऋषि यहाँ जो ‘‘आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः….’’ आदि इसलिए कह रहे हैं कि जो यह पिण्ड में विद्यमान आत्मा तृप्ति सुख वा आनन्द की प्राप्ति के लिए निकला है, वह पहले अपने-आपको पहचाने, अपने वास्तविक उद्देश्य तथा साधनों को समझे। फिर वह इस आत्मा कीभी आत्मा अर्थात् सर्वव्यापक एवं अन्तर्यामी सर्वज्ञ ब्रह्माण्ड की आत्मा अर्थात् परमात्मा की ओर अग्रसर होगा, तभी वास्तविक सुख, वास्तविक आनन्द तथा वास्तविक तृप्ति मिलेगी। बिना आत्मज्ञान के संसार भटक रहा है-

बिन आत्म-ज्ञान के दुनिया में इन्सान भटकते देखे हैं

आम बशर की तो बात ही क्या सुल्तान भटकते देखे हैं।।

जो चैन व शान्ति की दौलत है, मिलती है आत्म-ज्ञानी को।

धनहीन को तो भटकना है, धनवान् भटकते देखे हैं।।

सब ज्ञानतो उसने पा ही लिया, पर आत्मज्ञान ही पाया न।

यही कारण है कि पण्डित भी अनजान भटकते देखे हैं।।

जो भटकाते हैं दुनिया को, वे आप ही भटकते देखे हैं।

गुणहीन भटकते देखे हैं, गुणवान भटकते देखे हैं।।

जो आत्म ज्ञानी होता है, बलवान् है सारी दुनिया में।

बिन इसके ‘पथिक’ इस दुनिया में बलवान् भटकते देखे हैं।।

बालक के नामकरण-संस्कार के अवसर पर पिता पुत्र के नासिका द्वार से बाहर निकलते हुए वायु का स्पर्श करके फिर कहता है-

कोऽसि कतमोऽसि कस्यासि को नामासि।

यस्य ते नामामन्महि यं त्वा सोमेनातीतृपाम्।।

अर्थात् आज हमने तेरा नामकरण किया है, जिस तुझको दूध से तृप्त किया है, वह तू कौन है? किसका है? क्या नाम है तेरा?

कोऽयिकतमोऽस्येषोऽस्यमृतोऽसि।

नासिका के आगे हाथ रखने का अर्थ यह है कि हे बालक! जब तक श्वास चलेंगे, तब तक तुम यह स्मरण रखना कि मृत्यु तुहें मार नहीं सकती। तू और प्रश्न हल कर पाए अथवा न कर पाए, ये कार्य अवश्य करना कि तू जीवन भर स्वयं को खोजते रहना, देखते रहना कि तू स्वयं क्या है? कहीं ऐसा न हो कि-

खुद की न की तलाश बड़ी चूक हो गई,

यूँ तो बरसों लगाए हमने सुख की तलाश में।

आत्मा जिस शरीर में रहती है, कई वर्षों तक उसमें रह चुकने के बाद भी उसे यह पूर्ण ज्ञान नहीं हो पाता कि इसमें कितनी अस्थियाँ, कितनी नाड़ियाँ, कितनी नसें, कितना भार विद्यमान है तथा न ही हमें यह जानकारी हो पाती है कि आत्मा कैसी है, वह कार्य कैसे करती है, उसका रंग-रूप, कार्य तथा भार है अथवा नहीं-

आत्मा व शरीर का रिश्ता भी अजीब रिश्ता है,

उम्र भर साथ रहे फिर भी परिचय न हुआ।

लोग शरीर के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, क्योंकि शरीर साकार वस्तु है, परन्तु आत्मा के अस्तित्व से सहमत नहीं होते। आत्मा शरीर से भिन्न कोई वस्तु है, इसका वर्णन वेद व दर्शनों में उपलध है, परन्तु इनका अध्ययन न करने से बड़े-बड़े आचार्य, संन्यासी, विश्वविद्यालयों के कुलपति, उपकुलपति, प्रोफेसर, उपदेशक व लेखक आदि भी केवल शरीर व भौतिक पदार्थों को ही मानते हैं। ऐसे लोगों के लिए निवेदन है-

शरीर दाहे पातकाभावात्

– न्यायदर्शन 3-1-4

अर्थात् शरीर को आत्मा माना जाए या पृथक् चेतनात्मा को न माना जाए तो जीवित व्यक्ति को जलाने पर मनुष्य को हिंसा का पाप लगता है, व दण्ड को प्राप्त करता है। वैसे ही मृत शरीर पर जलाने को भी पाप लगना चाहिए, दण्ड भी मिलना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता अर्थात् दण्ड नहीं मिलता। इससे स्पष्ट है कि आत्मा जो है, वह शरीर से भिन्न है।

सव्य दृष्टस्येतरेण प्रत्यभिज्ञानात

– योगदर्शन 3-1-7

अर्थात् बाईं आँख से देखे हुए पदार्थ का दाहिनी आँख से भी ज्ञान होता है। इससे स्पष्ट है कि आत्मा इन्द्रियों से पृथक् है। एक व्यक्ति ने यज्ञदत्त को चण्डीगढ़ में देखा। कुछ दिनों के पश्चात् दिल्ली में फिर देखा। तब कहता है-यह वही यज्ञदत्त है, जिसे मैंने एक वर्ष पूर्व चण्डीगढ़ में देखा था। दोनों स्थानों पर देखने वाला व्यक्ति एक ही है। उसे ही यह अनुभव हुआ। उसके इस अनुभव को ही ‘प्रत्यभिज्ञान’ कहा जाता है। किसी भी व्यक्ति की बाईं-दाईं आँखों में स्मरण-शक्ति नहीं। आँख के माध्यम से देखने वाला तथा स्मरण रखने वाला पृथक् चेतन आत्मा है।

आज मनुष्य अधिकांशतः दुःखी है। आत्मा की उपेक्षा तथा शरीर को ही अपना-आप समझकर इसी को खिलाने, पिलाने, रिझाने, दिखाने व मनाने के लिए हम प्रयत्नशील हैं। परिणाम आपके समक्ष है। शारीरिक ही नहीं, आत्मिक क्लेशों से भी ग्रस्त मनुष्य इसी दिशा में अग्रसर है।

बारह यात्री एक नगर से दूसरे नगर को जा रहे थे। मार्ग में नदी आ गई। नदी पार करने के लिए न तो पुल था, न ही नाव थी। एक बुद्धिमान् यात्री ने समाधान करते हुए कहा-‘‘हम सभी एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर मिल कर पार कर लेंगे।’’ सबने ऐसा ही किया तथा कुशलतापूर्वक नदी पार कर गए। पार जाकर बुद्धिमान् व्यक्ति ने कहा-‘‘अब गिनती कर लेनी चाहिए, ताकि पता चले कि हमारा कोई साथी छूट तो नहीं गया।’’ उसके साथियों ने कहा- ‘‘तुम बुद्धिमान् हो। यह काम तुमहीं करो।’’ उसने गिना तो ग्यारह ही व्यक्ति थे, क्योंकि उसने स्वयं को गिना नहीं था। दूसरे, तीसरे व अन्य सबने भी गिना तो भी कुल ग्यारह व्यक्ति ही पूर्वोक्त भूल के कारण गिने जाते रहे। तभी एक अन्य यात्री आ निकला तो उसने पूछा-‘‘तुम दुःखी क्यों हो रहे हो?’’

‘‘हमारा एक सहयात्री खो गया है।’’ पूरी घटना सुनने के बाद उस व्यक्ति ने देखा कि वस्तुतः वे लोग बारह ही हैं। उसने कहा-‘‘मैं यदि खोए हुए तुमहारे साथी को प्रस्तुत कर दूँ तो?’’

‘‘तब हम तुहें अपना भगवान् स्वीकार कर लेंगे।’’

‘‘ठीक है। मैं बारी-बारी तुम सब के मुँह पर चपत लगाऊँगा। पहला व्यक्ति तब एक बोले। फिर दूसरे व्यक्ति के मुँह पर लगाऊँगा तो बोलना दो। इसी प्रकार…..।’’ तद्नुसार व्यक्ति ने कार्य किया तो बारी-बारी से एक, दो…..बोलते हुए वे बारह तक बोल गए तो वे प्रसन्नता से उछलने लगे। उन्हें ‘खोया साथी’ मिल गया था।

‘‘आप तो हमारे भगवान् हो। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद है कि आपने हमारे खोये सहयात्री को ढूँढ़ दिया है।’’

हम सब यही कर रहे हैं। जीवन-यात्रा में हम बारह यात्री चले थे, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, एक मन व एक आत्मा। हमने आत्मा को भुला दिया। ग्यारह से आगे बारहवीं आत्मा का न ज्ञान है, न ही चिन्ता है। वह खो गई है। इसी कारण अशान्त हैं हम। आत्मा का प्रश्न जीवन का प्रथम प्रश्न है। इसे हल करने के लिए भगवान् की शरण में पूर्वोक्त यात्रियों की भाँति हमें भी जाना होगा। अन्य मार्ग नहीं है- नान्यः पन्थाविद्यतेऽयनाय।

चूना भट्टियाँ, सिटी सेन्टर के निकट, यमुना नगर-135002, हरियाणा