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जाति बनाम वर्ण व्यवस्था

जाति बनाम वर्ण व्यवस्था

श्री यदुनाथ आर्य…..

वर्तमान हिन्दू समाज अपनी जाति-भेद की प्रथा के कारण बहुत बदनाम है। कोई समय था जब यह प्रथा बुद्धि संगत सिद्धान्तों पर आश्रित थी, और वर्ण व्यवस्था कही जाती थी। इस समय ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। अब तो इसका ढांचा मात्र शेष रह गया है। आज का हिन्दू समाज बहुसंख्यक जातियों और उपजातियों में बंटा हुआ है। जिनको वेदों का तनिक भी समर्थन प्राप्त नहीं है। आज इस प्रकार के मनमाने ढंग से विभाजन का

परिणाम अशान्ति के सिवा और कुछ नहीं हुआ करता।वेद में मनुष्य के चार प्रकार के वर्गीकरण का प्रतिपादन

किया गया है।

यत् पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।

मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते

ब्राहमणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यःकृतः।

ऊरु तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ||

इस वर्गीकरण के अनुसार समाज का मुख ब्राहमण, भुजाएँ क्षत्रिय, जंघाएँ वैश्य और पैर शूद्र माने जाते हैं। वर्ण-व्यवस्था के वर्ण शब्द के अर्थ से बड़ा भ्रम फैला है। साधारणतः वर्ण का अर्थ रंग होता है। इस अर्थ

के आधार पर कुछ लोगों ने वर्ण-व्यवस्था के रूप में समाज के वर्गीकरण को रंगभेद पर आश्रित माना है।

उन्होंने अपनी इस मान्यता के समर्थन में कहा है कि मूलनिवासी श्याम वर्ण के थे इसलिए उन्हें हेय दृष्टि से देखा गया था और दास बना लिए गये थे। यदि इस मान्यता को स्वीकार कर लिया जाये तो समाज के श्याम और गौर ये दो विभाग होने चाहिएँ। मुख भुजाओं, जंघाओं, और पैरों के रूप रंग में शरीर का विभाजन किसी प्रकार भी रंग पर अवलम्बित नहीं हो सकता। तुम सिर से लेकर पैरों तक देख जाओ। शरीर के सब अवयवों का रंग एक जैसी ही दिखाई देगा। इससे स्पष्ट है कि रंग का सिद्धान्त रंग-भेद के पक्षपातियों की झूठी कल्पना है। वर्णों के गुण-कर्म-वर्णन-प्रसंग कई वेद-मन्त्रों द्वारा बताया गया है कि वेद के समस्त मन्त्र गुण और कर्म की योग्यता पर वर्ण निर्णय करते हैं। इन में एक भी शब्द ऐसा नहीं है जो बिना योग्यता के केवल किसी का पुत्र होने के कारण वर्ण की उपाधि देने का संकेत करता हो। आप जन्म से वर्ण मानने वालों की युक्तियों को तौलिये और प्रमाणों पर चिन्तन करिए। सबसे प्रथम परमात्मा के रचनाओं पर चिन्तन कीजिए- वृक्षों में आम, पीपल, अमरुद, अनार आदि पशुओं में गौ, गधा, घोड़ा आदि पक्षियों में तोता, मैना, मयूर आदि इसी प्रकार मनुष्यों में ब्राहमण क्षत्रियादि भेद हैं। ऐसा कहने वाले वर्ण और जाति एक वस्तु मानकर भारी भूल करते हैं अथवा स्वयं वास्तविकता को जानते हुए भी स्वार्थवश साधारण जनता को भ्रम में डालते हैं। जाति का

लक्षण न्यायदर्शनकार गौतम मुनि जी लिखते हैं, ‘‘आकृतिरितिलिाख्या’’ (न्याय.२.२६८) इस पर वात्स्यायन मुनि भाष्य में कहते हैं। ‘यथा जाति जाति लिन्गानि च प्रत्याख्यायन्ते तामाकृतिं विद्यात् जिससे जाति और जाति के चिह्न बताये जाते हैं उसे आकृति कहते हैं। अब स्वभाविक रुप से प्रश्न उठता है कि जाति किसे कहते हैं? तो उत्तर में कहा गया है- समानप्रसवात्मिका जातिः(न्या. २/२/१९) इस पर भी वात्स्यायन मुनि भाष्य में कहते हैं- या समानां बुद्धिम प्रसूते भिन्नेष्वधिकरणेषु,यया बहूनीतरेतरतो न व्यावर्तन्ते, योऽर्थोऽनेकत्र प्रत्ययानुवृत्तिनिमित्तं तत् सामान्यम्। यच्च केषाघिद भेदं कुतश्चिद्भेदं करोति तत् सामान्य विशषा जातिरिति।’’

अर्थात् भिन्न-भिन्न वस्तुओं में समानता उत्पन्न करने वाली जाति है। इस जाति के आधार पर अनेक वस्तुएँ आपस में पृथक् पृथक’ नहीं होतीं अर्थात्-एक ही नाम से बोली जाती हैं। जैसे गौएँ पृथक् कितनी भी हो तो भी सबको गौ कहते हैं। यह एकता जाति के कारण ही उत्पन्न हुई जाति भी दो प्रकार की होती है-एक सामान्य दूसरी सामान्य-विशेष जो अनेक वस्तुओं में एक आकार की प्रतीत होती है वह सामान्य जाति है, जैसे पशु जाति सामान्य है।

यह पशुत्व गौ, भैंस, घोड़े आदि में सामान्य (एक जैसा) है। जो किसी से भेद और किसी से अभेद कराती है वह सामान्य विशेष जाति है जैसे गौ। गौ की प्रतीति सब गौओं में एक-जैसी होती है, यह तो हुआ अभेद पर घोड़े को गौ नहीं समझ सकते यह हुआ भेद, तो इसका नाम सामान्य विशेष जाति है। उक्त दोनों जातियों

में से मनुष्य सामान्य जाति है। मनुष्यत्व की दृष्टि से सभी वर्ण मनुष्य हैं, न उनमें कोई ज्येष्ठ है और न कनिष्ठ। ज्येष्ठता और कनिष्ठता वाले तो गुण होते हैं। मनुष्य योनि क्योंकि कर्म और भोग दोनों योनि हैं, अतः इसमें गुणों के साथ कर्म पर भी ध्यान देना अनिवार्य है। अतः ब्राहमणादि वर्णों का निर्णय गुणों और कर्मों के आधार पर होने के कारण ही वर्णों का नाम वर्ण पड़ा, क्योंकि वर्ण शब्द का अर्थ गुण और कर्म हैं-

वरणीया वरितुमर्हा गुणकर्माणि च दृष्ट्वा यथायोग्यं व्रियन्ते ये ते वर्णाः। गुण और कर्म देखकर जो किसी

समुदाय-विशेष के स्वीकार किये जावें, वे वर्ण कहलाते हैं। निरुक्त को वर्ण का अर्थ कर्म भी कहा गया है-वृतमिति कर्मनाम वृणोतीति सतःयहाँ ‘‘वृज’’ धातु से बनने वाले वृत् शब्द का अर्थ स्पष्ट ही कर्म लिया है, और साथ ही हेतु दिया है– वृणोतीति सतः – क्योंकि शुभकर्म मनुष्य को ढक लेते हैं, अतः व्रत का अर्थ कर्म है। इसी प्रकार इसी धातु से निष्पन्न हुए वर्ण शब्द का अर्थ‘‘वर्णो वृणोते….’’ के आधार पर गुण और कर्म है। अतः सामान्य जाति का सामान्य विशेष जाति के साथ मिलान करना भारी भूल है। हाँ, जिस प्रकार आम्र में खट्टे-मीठे आदि गुणों का भेद होता है, वैसे तोते तोते में पढ़ने या न पढ़ने के गुण का भेद होता है। गौ-गौ में न्यून और अधिक दूध आदि देने के गुण का भेद होता है। इसी प्रकार मनुष्यों में अच्छे और बुरे गुणों और कर्मों के आधार पर भेद है। इसी को शास्त्र ने वर्ण कहा है। यदि सामान्य विशेष जाति पशु, वृक्ष, पक्षियों का-सा मनुष्य में भी भेद होता तो जिस प्रकार भिन्न-भिन्न पशुओं के झुण्ड में से गौ, भैंस आदि को पृथक्-पृथक् पहचान लेते हैं, वृक्षों और पक्षियों को पृथक्-पृथक् जानते हैं, इसी प्रकार मनुष्यों के समूह में से ब्राहमण, क्षत्रियादि को अलग से पहचान लेते, किन्तु कोई भी नहीं पहचान सकता। चार वर्ण हैं- ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।आजकल समाज में लोग जहाँ जन्म के अनुसार वर्ण मानते हैं वहाँ आर्यों का मत है गुण-कर्म-स्वभाव और जीविका के साधन के अनुसार वर्ण को स्वीकार करता है।जन्मपरक वर्ण व्यवस्था के नाम पर अतीतकाल में हिन्दू समाज में शूद्रों पर जो अत्याचार किये गए, उनकी कथा अत्यन्त हृदय-द्रावक है।शूद्रों को छूने तक में पाप समझा जाता था, फिर उनके साथ समानता के व्यवहार की आशा ही क्या की जाती?शूद्रों को विद्या और वेद पढ़ने के अधिकार से वंचित रखा गया और पराय के जैसा उनसे व्यवहार करते थे, तथा जबर्दस्ती उनसे सेवा वसूल करना अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझते थे।किन्तु आर्य समाज का दृष्टिकोण इसके विपरीत

है।आर्य समाज चारों वर्णों को समाज का अवश्य अंग मानता है और जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की प्राप्ति की दृष्टि से सबको समानता के स्तर पर रखता है, अर्थात् जहाँ तक रोटी-कपड़ा और मकान का सम्बन्ध है, वे ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी के लिए समान रूप से आवश्यक हैं और इनकी प्राप्ति में किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए।परन्तु जहाँ तक सामाजिक प्रतिष्ठा का सम्बन्ध है, वह सबसे अधिक मात्रा में उनलोगों को उपलब्ध होगी जो अपना सारा जीवन ज्ञान की उपसना में लगाएँगे, जितने भी कलाकार लेखक, अध्यापक, वैज्ञानिक और सरस्वती के साधक हैं और जो समाज के अज्ञान का निराकरण करते हैं वे सबके सब ब्राहमण कहलाएँगे, फिर चाहे उनका जन्म किसी कुल में क्यों न हो।सामाजिक प्रतिष्ठा में दूसरा स्थान होगा उन क्षत्रियों का जो बल की उपासना करते हैं और अन्याय का प्रतीकार अपने जीवन

का लक्ष्य बनाते हैं। सैनिक, योद्धा और राजकीय प्रशासनिक सेवाओं के कर्मचारी इस कोटि में आते हैं। सामाजिक प्रतिष्ठा में तीसरा स्थान होगा धन की उपासना करने वाले और उसी में रत रहने वाले वैश्यों का। व्यापारी उद्योगपति, दुकानदार और अधिकांश नौकरी पेशा लोग भी इसी कोटि में आएँगे।वे सब समाज के भौतिक अभावों की पूर्ति का प्रयत्न करते हैं।ज्ञान, बल और धन की उपासना करने वाले उक्त तीनों वर्णों में भी मूल प्रेरणा स्वार्थ की नहीं प्रत्युत परार्थ की ही है।सार रूप में यों कहा जा सकता है कि जो व्यक्ति राष्ट की अविद्या को दूर करने का प्रयत्न करेंगे वे ‘‘ब्राहमण’’ जो अन्याय को दूर करने का प्रयत्न करेंगे वे ‘‘क्षत्रिय’’ और जो व्यक्ति राष्ट में प्रसृत अभाव की समस्या को हल करने का व्रत लेंगे वे ‘‘वैश्य’’ कहलाएँगें। जो व्यक्ति राष्ट में अविद्यादि अभाव की समस्या को हल करने में विशिष्ट योगदान नहीं दे सकता है वह शूद्र कहलायेगा। समाज के लिए ये चारों समान रूप से उपयोगी है, एक भी अंग अलग हो जाने पर समाज-व्यवस्था अस्त व्यस्त हो जाएगी।

जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते।

प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है, उसके पश्चात् संस्कारों के आधान से प्राप्त गुण-कर्म के द्वारा वह द्विजत्व को प्राप्त होता है। जिस तरह वकील का बेटा जन्म से वकील नहीं और डॉक्टर का बेटा जन्म से डॉक्टर नहीं होता उन्हें क्रमशः वकालात और डॉक्टरी पास करने पर ही वकील और डॉक्टर कहा जा सकता है, उसी प्रकार ब्राहमणत्व के गुण-कर्म से ही न ब्राहमण का बेटा भी ब्राहमण नहीं हो सकता। उसे विद्याध्ययन, तपस्या और सदाचार के द्वारा ब्राहमणत्व अर्जित करना होगा। जन्म परक जाति की मान्यता सामाजिक विकास का जितना उत्तम उपास है, उतना और कोई उपाय नहीं हो सकता।

-स्नातक,

गुरुकुल पौन्धा, देहरादून