ओ३म्
‘ईश्वर का साक्षात्कार समाधि अवस्था में ही सम्भव’
–मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
संसार के अधिकांश मत-सम्प्रदाय और लोग ईश्वर के अस्तित्व को मानते हैं और यह भी स्वीकार करते हैं कि इस संसार को उसी ने बनाया है। यह बात अलग है कि सृष्टि रचना के बारे में वेद मत के आचार्यों व अनुयायियों के अतिरिक्त अन्य मत के आचार्यों व अनुयायियों को वैसा यथार्थ ज्ञान नहीं था व है जैसा कि तर्क व युक्ति संगत यथार्थ मत वेदों व वैदिक साहित्य में उपलब्ध है। अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि यदि ईश्वर है तो वह अन्य पदार्थों की भांति हमें आंखों से दिखाई क्यों नहीं देता? इसके अनेक कारण हैं। यह प्रश्न वैदिक मत के अनुयायियों से उत्तर व समाधान की अधिक अपेक्षा रखता है। जो मत व सम्प्रदाय ईश्वर को एकदेशी अर्थात् एक स्थान पर रहने वाला मानते हैं, वह कह सकते हैं कि ईश्वर यहां पृथिवी पर है ही नहीं तो उसके दिखने का प्रश्न ही नहीं होता। वैदिक धर्म ईश्वर को सर्वव्यापक मानता है। अतः ईश्वर हमारे अन्दर व बाहर दोनों स्थानों पर हमारे समीपस्थ है। अब यदि ईश्वर हमारे समीपस्थ है तो वह हमें अवश्य दिखना चाहिये। ईश्वर वैदिक धर्मियों व अन्यों को दिखाई नहीं देता तो इसका एक कारण तो उसका सर्वव्यापक न होना वा एकदेशी होना ही ठीक प्रतीत होता है। यह बात कहने व सुनने में उचित लगती है परन्तु यह सत्य नहीं है। ईश्वर वस्तुतः सर्वव्यापक है जो कि हमारे सम्मुख, पीछे, दायें, बायें, ऊपर व नीचे आदि सभी दशों दिशाओं में होने पर भी इस कारण दिखाई नहीं देता कि वह सर्वातिसूक्ष्म है। हम वायु के कणों वा परमाणुओं को क्यों नहीं देख पाते? इसका कारण होता है कि वह परमाणु इतने सूक्ष्म हैं कि वह आंखों से दिखाई नहीं देते। सभी मनुष्यों के शरीर में एक चेतन जीवात्मा होता है जो हमें अपनी आंखों से दूसरों के शरीर से पृथक दिखाई नहीं देता परन्तु शरीर में प्राणों व अन्य क्रियाओं से ही उसका साक्षात् व प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। ईश्वर जीवात्मा व वायु के परमाणु से भी कहीं अधिक सूक्ष्म होने के कारण दिखाई नहीं देता। यह तर्क व युक्तिसंगत स्वीकार करने योग्य प्रमाण है। इसका दूसरा कारण है कि अति दूर व अति समीपस्थ वस्तुयें भी दिखाई नहीं देती हैं। हम अपने से 1 किमी. दूर की वस्तु भी नहीं देख पाते। इसी प्रकार हम आंखों में पड़े तिनके को भी अपनी ही आंख से नहीं देख पाते जिसका कारण होता कि आंखों का तिनका आंख के अति निकटस्थ है। ईश्वर दूरतम भी है और समीपतम भी है। इस कारण भी वह दिखाई नहीं देता। अन्य कारणों में से एक प्रमुख कारण ईश्वर का अभौतिक होना भी है। हम आंखों से केवल भौतिक पदार्थ जो एक सीमा से आकार में अधिक बड़े होते है, उन्हें ही देख पाते हैं। उससे छोटे पदार्थों को देखने के लिए हमें माइक्रोस्कोप की सहायता की आवश्यकता होती है। ईश्वर इन सूक्ष्मतम भौतिक पदार्थों से भी अत्यन्त सूक्ष्म अभौतिक पदार्थ होने के कारण आंखों से दिखाई नहीं देता। अतः ईश्वर का आंखों से दिखाई न देना आंखों की सीमित दृष्य शक्ति के कारण है। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि ईश्वर नहीं है।
हम पुस्तकें पढ़ते हैं तो बहुत सी बातों का ज्ञान हमें हो जाता है जिन्हें हम पहले से जानते नहीं हैं। हमने सन्ध्या व हवन के मन्त्र व उसकी विधि को पुस्तक पढ़कर ही जाना व समझा है। उपदेशों को सुनकर भी हमें नाना विषयों का ज्ञान होता है। ईश्वर विषयक ज्ञान भी हमें वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन करने वा वेदानुकूल अन्य पुस्तकें मुख्यतः सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय तथा महर्षि दयानन्द का वेदभाष्य पढ़कर हो जाता है। वैदिक विद्वानों के उपदेश भी ईश्वर का ज्ञान कराने में सहायक होते हैं। ग्रन्थों को पढ़कर व उपदेशों की बातों पर विचार व चिन्तन कर हम ईश्वर के सत्य स्वरुप से परिचित होते हैं व हुए हैं। हमें यह ज्ञान व अनुभव हुआ है कि ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी है। इस कारण वह हमारी आत्मा में निहित व विद्यमान है। यदि हम उसका ध्यान व चिन्तन करते हैं वा उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते हैं अथवा यज्ञ अग्निहोत्र व अन्य शुभ-अशुभ कर्मों को करते हैं, तो संसार में होने वाले प्रत्येक कार्य का साक्षी ईश्वर हमारी उस क्रिया को अपनी सर्वव्यापकता व सर्वान्तर्यामित्व के गुण से जान लेता है, यह ज्ञान, प्रतीती व अनुभूति हमें ईश्वर के विषय में होती है। यह जानकर, अपने आप से तर्क-वितर्क करने व इस ज्ञान को स्थिर व दृण कर लेने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ईश्वर निराकार है अतः उसकी पूजा, उपासना एवं सत्कार आदि कार्य केवल उस ईश्वर का अपनी जीवात्मा में ध्यान, चिन्तन, स्तुति, प्रार्थना व उपासना आदि के द्वारा ही हो सकता है। अन्य कार्य यथा मूर्तिपूजा, कुछ ग्रन्थों का पाठ व नाना प्रकार के आसन आदि क्रियायें करके हम उसे प्राप्त व प्रसन्न नहीं कर सकते। ईश्वर के गुणों व स्वरूप का ध्यान तथा प्रार्थना आदि करने से हमारे अन्तःकरण के दोष व मल दूर होने आरम्भ हो जाते हैं। यह कार्य मुख्यतः ‘ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रन्तन्न आसुव।।’ द्वारा भली प्रकार किया जा सकता है जिसमें ईश्वर से जीवात्मा के सभी दुर्गुण, दुव्र्यसन व दुःखों को दूर करने तथा जीवात्मा के लिए जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव व पदार्थ हैं, वह प्रदान करने की प्रार्थना की जाती है। जैसे-जैसे व जितने समय तक हम ईश्वर की उपासना आदि कार्यों को करते हैं, उसे विधिपूर्वक करने से उसके प्रभाव से हमारा अन्तःकरण शुद्ध, पवित्र व निर्मल हो जाता है और उसमें ईश्वर का ज्ञान व प्रकाश का आभास होने लगता है। वेदों व ऋषियों के वचनों के सत्य होने के कारण ईश्वरोपासना के हमारे साधनों व उपायों में दृणता व स्थिरता उत्पन्न होती है व उसके सत्य होने से निभ्र्रान्त अनुभव होता है। यह उपासना वा योगाभ्यास नियत समय पर करते रहने से समाधि की अवस्था उत्पन्न होकर ईश्वर साक्षात्कार व ईश्वर का प्रत्यक्ष किया जा सकता है। इसके लिये योगदर्शन के अध्ययन के साथ निष्कपट व निर्लोभी अनुभवी योग गुरू की शरण ली जा सकती है। सच्चा व सिद्ध योगी ही गुरु हो सकता है। ऐसा व्यक्ति मिलना कठिन अवश्य है।
ईश्वर साक्षात्कार को विस्तार से जानने व समझने के लिए महर्षि पतंजलि रचित योगदर्शन का अध्ययन आवश्यक है। इसके लिए महात्मा नारायण स्वामी व दर्शनाचार्य पं. उदयवीर शास्त्री जी के योगदर्शन पर हिन्दी में भाष्य उपलब्ध हैं, उन्हें देखा जा सकता है। इसके साथ ही आर्यजगत के विख्यात संन्यासी व दर्शनों के विद्वान स्वामी सत्यपति जी के प्रवचनों पर तीन खण्डों में आचार्य श्री सुमेरू प्रसाद, सम्प्रति स्वामी ब्रह्मविदानन्द, द्वारा सम्पादित ‘वृहती ब्रह्म मेधा’ ग्रन्थ भी उपयोगी है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए सिद्ध योगी थे। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के उपासना प्रकरण में उन्होंने ईश्वर साक्षात्कार का वर्णन करते हुए लिखा है कि ‘जिस समय इन (योग, ध्यान व उपासना के) सब साधनों से परमेश्वर की उपासना करके उस (ईश्वर) में प्रवेश किया चाहें, उस समय इस रीति से करें कि कण्ठ के नीचे, दोनों स्तनों के बीच में और उदर से ऊपर जो हृदय देश है, जिसको ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उसके बीच में जो गर्त है, उसमें कमल के आकार का वेश्म अर्थात् अवकाशरूप एक स्थान है और उसके बीच में जो सर्वशक्तिमान् परमात्मा बाहर भीतर एकरस होकर भर रहा है, वह आनन्दस्वरूप परमेश्वर उसी प्रकाशित स्थान के बीच में खोज करने (ध्यान, चिन्तन, धारणा, स्तुति, प्रार्थना आदि करने) से मिल जाता है। दूसरा उसके मिलने का कोई उत्तम स्थान वा मार्ग नहीं है।’ यहां आनन्दस्वरूप परमेश्वर मिल जाता है से महर्षि दयानन्द का अभिप्राय समाधि अवस्था में योगी व उपासक को ईश्वर का साक्षात्कार हो जाता है, से ही है।
आजकल ईश्वर वा सृष्टिकर्त्ता को प्राप्त करने के लिए भिन्न-भिन्न मतों में जो कर्मकाण्ड व उपासना पद्धतियां हैं, वह योगदर्शन की वैदिक उपासना प़द्धति के अनुरूप न होने के कारण उनसे ईश्वर की प्राप्ति व साक्षात्कार होने की संभावना नहीं है। यम व नियमों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान ये युक्त जिस आचरण की अपेक्षा योगी से की गई है, वह भी अन्य मत-मतान्तरों के अनुयायी व आचार्य पूरी नहीं करते। अतः वह ईश्वर साक्षात्कार व ईश्वर का प्रत्यक्ष होने का अनुभव प्राप्त नहीं कर सकते। यदि किसी को ईश्वर का साक्षात्कार करना है और इससे जीवन का लक्ष्य ‘ईश्वर साक्षात्कार सहित मोक्ष’ प्राप्त करना है तो वेद व वैदिक साहित्य के ज्ञान सहित योग व वैदिक उपासना पद्धति को अपनाना ही होगा। वैदिक उपासना पद्धति ही ईश्वर साक्षात्कार की एकमात्र वह प़्रद्धति है जो ईश्वर का साक्षात्कार कराने के साथ मनुष्य जीवन के लक्ष्य ‘‘मोक्ष” को प्राप्त कराती है। इन्हीं शब्दों के साथ इस लेख को विराम देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
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