ओ३म्
– देहरादून।
हमें हमारे माता-पिता इस संसार में लाये। जब हम जन्में तब हमें अपना, परिवार, समाज व संसार का किंचित ज्ञान नहीं था। माता की निकटता और प्रेरणाओं से हम शनैः शनैः ज्ञान से युक्त होने लगे। माता-पिता के हमारे प्रति किए गये प्रयासों से हमें उनको व परिवार के सदस्यों को कुछ-कुछ जानने का ज्ञान व अभ्यास हुआ। आयु वृद्धि के साथ हमारा ज्ञान बढ़ता गया और हम भोजन, वस्त्र, निवास, पारिवारिक व सामाजिक लोगों के ज्ञान तक सीमित हो गये। हमने घर में किए जाने वाले पूजा आदि धार्मिक क्रियाओं को भी देख कर उनको करना आरम्भ कर दिया। हमने अपनी आंखों से पृथिवी, सूर्य, चन्द्र एवं पृथिवीस्थ अग्नि, जल, वायु, आकाश, नदी, पहाड़, वन, खेत आदि को देखा परन्तु इन सबसे हमें ईश्वर के वास्तविक स्वरुप का बोध नहीं हुआ। सभी प्राणियों की उत्पत्ति सहित संसार की रचना की ओर हमारा ध्यान ही नहीं गया। ईश्वर की कृपा से हमें एक मित्र के द्वारा आर्यसमाज का परिचय मिला, उन्होंने समाज के नियम, मान्यताओं और सिद्धान्तों के बारे में बताया और हम खाली समय में उनके साथ समाज मन्दिर जाने लगे। पता ही नहीं कब हमें ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि विषयक अनेक सत्ताओं का तर्क व युक्ति से पूर्ण सन्तोषप्रद व निर्भरान्त ज्ञान हो गया। यह ज्ञान हमें विद्वानों के उपदेश व सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से प्राप्त हुआ। आज भी हम सत्यार्थप्रकाश पढ़ते हैं तो हमें हर बार कुछ नया ज्ञान प्राप्त होता है व अनुभव से हमें महर्षि दयानन्द के ज्ञान की उत्कृष्टता, पराकाष्ठा व उनकी सदाशयता का पता चलता है।
संसार में सभी लोगों को यह तो ज्ञान है कि हमें अच्छा भोजन करना है, स्वस्थ रहना है, धन–सम्पत्ति एकत्र कर सुख भोगने हैं परन्तु ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि विषयक यथार्थ ज्ञान व इनके प्रति हमारे कर्तव्यों का ज्ञान अधिकांश को नहीं है। ईश्वर आदि के प्रति यथार्थ ज्ञान न होने के कारण प्रायः सभी मतों की रूढि़वादी सोच है। वह जितना जानते हैं व जो कुछ उनके मत की पुस्तक में लिखा है, उससे अधिक न सोचते हैं न जानना चाहते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि उनका ज्ञान अति अल्प है जिसमें मिथ्याज्ञान भी सम्मिलित है। महर्षि दयानन्द (1825-1883) इतिहास में एक अनूठे मनुष्य हुए जिन्होंने हर प्रश्न का उत्तर खोजा और अत्यन्त तप व पुरुषार्थ से प्राप्त उस दुर्लभ ज्ञान को संसार के सब मनुष्यों के कल्याणार्थ उपदेशों, लेखों वा पुस्तकों द्वारा प्रस्तुत किया। आज संसार के विरोधी मत वाले भी उनके द्वारा प्रचारित व प्रसारित मान्यताओं व सिद्धान्तों को न मानने पर भी उनमें कोई न्यूनता व त्रुटि दिखाने की स्थिति में नहीं है। वैदिक व आर्य सिद्धान्तों को न मानना उनका मिथ्याचार है। एक प्रकार से सभी मतों ने महर्षि दयानन्द अर्थात् वेदों की सभी मान्यताओं को स्वीकार कर लिया है परन्तु अज्ञान, स्वार्थ, हठ आदि के कारण वह अपने रूढि़गत विचारों से ही जुड़े हुए हैं।
ईश्वर है या नहीं, यदि है तो कहां है, कैसा है, आंखों से दिखता क्यों नहीं, उसको जानने व मानने से हमें क्या लाभ होगा या हो सकता है, आदि अनेक प्रश्न हैं जो पूछे जा सकते हैं। ईश्वर है या नहीं का उत्तर है कि ईश्वर अवश्य है। यह जड़-चेतन संसार व इसके नियम ईश्वर के होने का प्रमाण हैं। यदि ईश्वर न होता तो यह संसार भी न होता और हमारी आत्मा का अस्तित्व होने पर भी हमारा मनुष्यादि योनि में जन्म न हुआ होता। जीवात्माओं को प्राणी योनियों में जन्म देना ईश्वर का ही काम है, और इससे ईश्वर सिद्ध होता है। इसे कारण-कार्य सिद्धान्त कह सकते हैं। संसार का कारण ईश्वर व प्रकृति है। ईश्वर निमित्त कारण है और प्रकृति उपादान कारण है। ईश्वर के होने में अन्य अनेक प्रमाण भी है जिसे सत्यार्थ प्रकाश का स्वाध्याय कर जाना जा सकता है। ईश्वर कहां है? इसका उत्तर है कि सर्वत्र, सब जगह है अर्थात् वह आकाशवत् सर्वव्यापक है। यदि ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वत्र न होता तो भी संसार की रचना, जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार भिन्न-भिन्न प्राणियोनियों में जन्म व उनका पालन सम्भव नहीं था। अतः ईश्वर का निराकार, सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होना तर्क व युक्ति संगत है। ईश्वर कैसा है, प्रश्न भी उत्तर का समाधान चाहता है। इसका उत्तर है कि ईश्वर आकार रहित है, उसका मनुष्य की तरह न शरीर है, न आकृति है, न रंग व रूप है। वह स्वयंभू है और उसकी सत्ता स्वयंसिद्ध है तथा वह सच्चिदानन्द (सत्य+चित्त+आनन्द) स्वरूप है। अत्यन्त सूक्ष्म अर्थात् सूक्ष्मतम् होने के कारण वह आंखों से भी दिखाई नहीं देता। इसको इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि आंखे जितने सूक्ष्म आकार को देख सकती हैं, ईश्वर उससे भी कहीं अधिक सूक्ष्म है, इसलिये वह दिखाई नहीं देता। हमारी आत्मा ईश्वर की तुलना में कम सूक्ष्म है अर्थात् ईश्वर जीवात्मा से भी अधिक सूक्ष्म है। जब हम अपनी व दूसरे प्राणियों की जीवात्माओं को ही नहीं देख सकते, तो ईश्वर का सर्वातिसूक्ष्म होने के कारण हमारी भौतिक आंखों से दिखाई देना सम्भव नहीं है। हां, उसे बुद्धि व ज्ञान से देखा, समझा व अनुभव किया जा सकता है। महर्षि दयानन्द कृत सत्यार्थप्रकाश पढ़ने से भी सभी प्रश्नों व शंकाओं का समाधान हो जाता है। ईश्वर को जानने से हमें उसके स्वरुप, गुण, कर्म व स्वभाव का ज्ञान होता है। जिस प्रकार वैज्ञानिकों ने पृथिवीस्थ पदार्थों के गुण-कर्म-स्वभाव को जानकर आज कम्प्यूटर, मोबाइल, जहाज, रेल आदि सभी वस्तुयें तथा चिकित्सा पद्धति सहित शल्य क्रिया आदि का ज्ञान उन्नत किया है, इसी प्रकार से ईश्वर को जानकर सभी दुःखों से निवृत्ति, सुखों व आनन्द की प्राप्ति और जन्म-मरण से अवकाश अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है। अतः वैदिक धर्म व स्वामी दयानन्द प्रदत्त वैदिक साहित्य में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति विषयक मनुष्यों के लिए जानने योग्य सभी प्रश्नों का समाधान हो जाता है।
अब हमें मनुष्यों के ईश्वर के प्रति कर्तव्य को जानना है। ईश्वर ने जीवात्माओं को उनके पूर्व कर्मानुसार सुख व दुःख रूपी भोग प्रदान करने के लिए इस सृष्टि की उत्पत्ति की है व विगत 1.96 अरब वर्षों से वह इसका सफलतापूर्वक संचालन करने के साथ सृष्टि में जन्म लेने वाले सभी प्राणियों का पालन करता चला आ रहा है। हमें जन्म भी ईश्वर ने हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर ही दिया है। हमारा पहला कर्तव्य तो ईश्वर सहित जीवात्मा और प्रकृति के सत्यस्वरुप को जानने के लिए प्रयत्न करना है। इन्हें जानकर ईश्वर के प्रति हमारा क्या कर्तव्य है यह जानना है। इसके लिए हमारे वेद और वैदिक साहित्य से सहायता ली जा सकती है। महर्षि दयानन्द ने यह कर्तव्य बताया है और कहा कि मनुष्य को ईश्वर की प्रतिदिन प्रातः व सायं सन्ध्या अर्थात् योग पद्धति से सम्यक् ध्यान व उपासना करनी चाहिये। सन्ध्या में ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना की जाती है। देवयज्ञ व अग्निहोत्र में भी इसे किया जाता है। सभी शुभ-अशुभ अवसरों पर भी स्तुति-प्रार्थना-उपासना सहित यज्ञ करने का विधान किया गया है। इससे दुःखों की निवृति व सुखों की उपलब्धि होती है। सन्ध्या वा स्तुति–प्रार्थना–उपासना इसलिये की जाती है कि हम ईश्वर के जन्म–जन्मान्तरों के असंख्य व अगणित उपकारों के लिए कृतज्ञता व्यक्त कर उसका धन्यवाद कर सकें। इसके साथ स्तुति करने से ईश्वर से प्रीति, प्रार्थना से निरभिमानता तथा उपासना से दुर्गुण, दुव्र्यस्नों व दुखों की निवृति सहित कल्याणकारक गुण-कर्म-स्वभाव व पदार्थों की उपलब्धि वा प्राप्ति होती है। प्राचीन काल से हमारे सभी पूर्वज, ऋषि, मुनि, विद्वान, ज्ञानी, विज्ञ, विप्र ईश्वर की उपासना करते आये हैं और उनमें से महर्षि दयानन्द सहित अनेकों ने समाधि को सिद्धकर धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति की थी। हम भी यदि सन्ध्या-उपासना व यज्ञ आदि कर्मों को करेंगे तो हमें भी यह फल प्राप्त होंगे और यदि नहीं करेंगे तो हम इनसे वंचित रहेंगे। सन्ध्या व यज्ञ की विधि के लिए महर्षि दयानन्द जी की पुस्तक मंचमहायज्ञविधि तथा संस्कारविधि का अध्ययन किया जाना चाहिये।
आज नये आंग्ल वर्ष 2016 का प्रथम दिवस है। यदि हम इसे मनाते हैं तो आज हमें स्वयं को व ईश्वर को जानने तथा इनके प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करने का संकल्प वा व्रत लेना चाहिये। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हमें बाद में पछताना होगा। आईये, वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय तथा ईश्वर के प्रति मनुष्य के मुख्य कर्तव्य सन्ध्या व यज्ञ सहित ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना की प्रतिज्ञा करें, संकल्प व व्रत लें।
–मनमोहन कुमार आर्य
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