ओउम्
हे यज्ञ अग्नि ! हम सदा तुझे आहुति देते रहें
हम परमपिता से प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु ! यह यज्ञ अग्नि हमारे घरों में सदा जलती रहे | हम इसे कभी मंद न होने दें तथा हम सदा इसे बढाने के लिये पुरुषार्थ करते हुए इस यज्ञ में आहुती देते रहें । इस तथ्य पर ऋग्वेद के इस तीसरे मन्त्र में विचार करते हुए इस प्रकार प्रकार प्रकाश डाला है : –
प्रेद्धोअग्नेदीदिहिपुरोनोऽजस्रयासूर्म्यायविष्ठ।
त्वांशश्वन्तउपयन्तिवाजाः॥ ऋ07.1.3
हे अग्नि ! खूब प्रकार से दीप्त होकर , अपनी लपटों को खूब उंचा उठा | इस प्रकार अत्यंत तेज होकर तू हमारे सामने प्रकट हो । हे अग्नि ! तूं सब प्रकार के रोगों को दूर करने वाली है , तूं सब प्रकार के रोगाणुओं को भस्म कर इन सब रोगाणुओं का नाश करने वाली है | तूं ही सब प्रकार की गन्दी वायु को शुद्ध कर वातावरण को शुद्ध करने वाली है , सम्पूर्ण पर्यावरण को तूं ही शुद्ध – पवित्र कराती है | एसी अत्यधिक पवित्र अग्नि ! तूं कभी भी क्षीण होने वाली नहीं है , कभी दुर्बल होने वाली नहीं है , कभी न बुझने वाली तेरी ज्वाला से हम निरन्तर दीप्त होते रहें, निरन्तर तेज होती रह, निरन्तर प्रचण्ड होती रह ।
हे अग्नि ! तुम्हें अनेक प्रकार की भोजन सामग्री मिलती है ( अग्नि का भोजन समिधा के रूप में लकड़ी होती है | इसे प्रचंड करने के लिए इस में घी डाला जाता है | इसे धित बनाने के लिए इस में सुगंदित पदार्थ डालते हैं | शक्ति वर्धन के लिए इस अग्नि में पुष्टिक पदार्थ यथा घी , मेवे आदि डालते हैं | यह रोगों का नाश करे इसलिए इस अग्नि में गुग्गल जैसी औषधियां डालते हैं ) , अनेक प्रकार के अन्न हवि रुप में , आहुति रुप में इस अग्नि को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार हे अग्नि ! तेरे में अनेक प्रकार के , विविध प्रकार के अन्नों की आहुतियां डाली जाती हैं । यह जो अनेक प्रकार की वस्तुओं की आहुतियां तुझ में डाली जाती हैं , इन को ही तूं ने बढाना है , इन सब को बड़ा कर आगे ले जाते हुए इसे हमारे ई पुरे वायु मण्डल में फ़ैलाना है ।
इन शब्दों से एक तथ्य जो सबके सामने आता है , वह यह कि यज्ञ की अग्नि प्रत्येक प्राणी के जीवन की रक्षा रक्षा करने वाली होती है क्योंकि इस अग्नि में वह लकड़ी समिधारूप में प्रयोग की जाती है जिस समिधा में कीटाणुओं का नाश करने की शक्ति होती है, जो समिधा सुगंध वाली होती है, जो शक्ति व पौष्टिकता लाने वाली होती है | हम इतने से ही शांत नहीं होते अपितु हम इस प्रकार के गुणों वाली और
भी वस्तुएं सामग्री स्वरूप इस अग्नि को भेंट करते हैं इस प्रकार की वस्तुओं में :
घी , बादाम ,किशमिश , अखरोट , काजू आदि सूखे मेवे , सेब ,केला आदि एक प्रकार के फल फूल , चन्दन जैसे सुगन्धित पदार्थ तथा अगर – तगर ,गुग्गल, गिलोय जैसे रोगनाशक बूटियाँ | इन सब के प्रयोग से हम सदा इस अग्नि को तीव्र करने का प्रयास करते हैं | इस यज्ञ की अग्नि को कभी मंद नहीं होने देते | जब यह यज्ञ की अग्नि अच्छे से प्रचंड रहती है तो इस का सेवन करने वाले किसी भी प्राणी को कोई कष्ट नहीं होता | इस प्रकार के प्राणी सदा रोगों से मुक्त रहते हैं | इन का शारीर पूर्णतया पौष्टिक तत्वों से भरा रहता है | इन प्राणियों की बुधि तीव्र होती है | पूर्णतया स्वस्थ रहते हुए यह प्राणी समाज के अन्य प्रणियों को भी सुखी, सुशल, पुरुषार्थी व परोपकारी बनाने का प्रयास करते हैं |
यह मन्त्र इस लिए ही उपदेश कर रहा है कि यज्ञ की अग्नि कभी भी बुझाने न पावे | यह अग्नि निरंतर ऊपर उठती रहे , सदा उन्नत रहे , प्रज्वलित रहे | यह जीतनी तीव्र होगी उतना ही अधिक हितकारक होगी | इस लिए हम इस अग्नि की सदा उपासना करते हुए इसे आगे बढाते जावें | इस में ही हम सब का हित है | इस में ही हम सबका कल्याण है |
डा. अशोक आर्य