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‘हे मनुष्य ! तू ईश्वर के निज नाम ‘ओ३म्’ का स्मरण कर अपने सभी दुःखों को दूर कर’

ओ३म्

हे मनुष्य ! तू ईश्वर के निज नामओ३म् का स्मरण कर अपने सभी दुःखों को दूर कर

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य अपने सारे जीवन में अपने दुःखों की निवृत्ति में लगा रहता है फिर भी यदि जीवन के अन्तिम भाग में किसी समय किसी शिक्षित व सम्पन्न मनुष्य से पूछा जाये कि क्या वह दुःख मुक्त व पूर्णतया सुखी है तो उत्तर प्रायः न में ही मिलता है। इसका कारण केवल एक है कि ईश्वर को भुलाकर केवल भौतिक पदार्थों की प्राप्ति से दुःखों की निवृत्ति नहीं हो सकती। मृत्यु कर क्लेश तो ज्ञान व ईश्वर की उपासना से दूर हाता है। भौतिक पदार्थ मनुष्य को आंशिक व सीमित सुख तो दे सकते हैं परन्तु इन प्राप्त सुखों का परिणाम भी दुःख ही होता है। सुख के भौतिक साधन प्राप्त करने के लिए तप व परिश्रम से धन कमाना होता है जिसमें भी दुःख होता है और इसके खर्च करने पर भी, इस कमाये धन में कमी हेने का दुःख होता है। यदि कोई हमारा धन छीन ले या हमें मूर्ख बनाकर हमासे धन ले ले तो फिर वाद-विवाद व लड़ाई झगड़े से भी दुःख ही मिलता है। सुख भोग का परिणाम भी दुःख ही होता है। इस मनुष्य के जीवन में तपस्या नहीं अपितु केवल सुख भोग ही हों, ऐसा जीवन कालान्तर में अनेक रोगों से ग्रस्त हो जाता है, ऐसा हमें नित्य प्रति अपने निकट व स्वयं में भी देखने को मिल जाता है। अतः केवल धनोपार्जन व सुख के साधनों के संग्रह कर लेने मात्र. से हमारे मनुष्य जीवन की समस्या हल नहीं होती।

 

दुःखों की पूर्ण निवृत्ति कैसे हो सकती है? इसका उपाय है कि हम ऐसी सत्ता की संगति करें जो दुःखों से सर्वथा रहित है। ऐसी मुख्य सत्ता तो केवल और केवल एक ईश्वर ही है। ईश्वर आनन्दस्वरूप होने से दुःखों से सर्वथा रहित है। उसकी संगति से ही सुख व आनन्द की उपलब्धि होती है। इस रहस्य को पूर्णतया जानने के लिए वेद व वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय करना हितकर होता है। स्वाध्याय से हमारा मिथ्या ज्ञान नष्ट हो जाता है। मैं और मेरा का जो मिथ्या ज्ञान व अहंकार है वह भी क्षीण व नष्ट हो सकता है। जब यथार्थ मैं का ज्ञान होता है तब अपनी तुच्छता व न्यूनता तथा ईश्वर की श्रेष्ठता व महानता का ज्ञान होता है। इस महानता के ज्ञान से ईश्वर की संगति जिसे उपासना व योग भी कहते हैं, ईश्वरोपासना व संन्ध्या शब्द भी इसी के पर्याय है और भक्ति तथा ईशपूजा भी इसी को कहते हैं। ईश्वर के निज नाम ओ३म् नाम का जप जिसे प्रणव जप कहते है, यह भी ईश्वर की उपासना व संगतिकरण में हीं आता है। जिस प्रकार शीत व ठण्ड से आतुर मनुष्य का अग्नि के निकट जाने पर शीत निवृत्त हो जाता है, गर्मी से आतुर मनुष्य की उष्णता शीतल जल में स्नान व नदी के जल में डुबकी लगाने से दूर हो जाती है, उसी प्रकार से ईश्वर की उपासना व संगति अथवा निज नाम ओ३म् नाम के जप से समस्त दुःखों की निवृत्ति होकर सुख व आनन्द में स्थिति होती है। हम दशरथनन्द मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी व देवकी-वसुदेव नन्दन योगेश्वर श्री कृष्ण जी का सम्मान व उनके गुणों की पूजा करते हैं। यह भी सत्ग्रन्थों के स्वाध्याय व महात्माओं के सदोपदेशों से ही सिद्ध होती है। श्री रामचन्द्र जी और योगेश्वर श्री कृष्ण जी स्वयं भी सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान, निराकार ईश्वर के उपासक भक्त थे। ईश्वर अजन्मा है और जन्म लेन वाला हर व्यक्ति मनुष्य ही होता है। श्रेष्ठ गुण कर्म स्वभाव से कोई भी मनुष्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र, महान बन सकता है और अच्छे कर्मों का त्याग कर वा बुरे कर्मों को करने से कोई भी मनुष्य अपने वर्ण मनुष्यता से गिर कर अनार्य, अनाड़ी, राक्षस, पिशाच गधे के समान निर्बुद्धि हो सकता है। अतः ईश्वर के नाम का स्मरण, उसके नाम प्रणव का जप, स्तुति, कीर्तन, चिन्तन, मनन, अध्ययन, उपदेश व प्रचार सहित सुख के साधनों का अत्यल्प मात्रा में सेवन व उपयोग ही मनुष्य को मनुष्य बनाता और उसे एक प्रेरक व महान व्यक्ति बनाता है जिसमें दुःखों की मात्रा न्यून से न्यूनतम होती है। ऐसा ही जीवन आदर्श मनुष्य कहलाने योग्य होता है।

 

मनुष्यों के हित के लिए यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के मन्त्र संख्या 15 में मनुष्य को क्रतो अर्थात् कर्मों को करने वाला जीव कहकर उसे ईश्वर के निज नाम ‘‘ओ३म्’’ नाम का स्मरण करने का उपदेश किया गया है। पूरा मन्त्र है वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम्। ओ३म् क्रतो स्मर क्लिबे स्मर कृतं स्मर।। इसका संक्षिप्त अर्थ है कि हे कर्म करने वाले जीव ! तू अपनी मृत्यु के समय होने वाली स्थिति का अनुमान कर अपने जीवन में सदा ईश्वर के निज नाम ओ३म् का स्मरण कर। ईश्वर प्रदत्त अपनी सामर्थ्य, ईश्वर और अपनी आत्मा के स्वरूप का स्मरण कर और अपने जीवन में किये हुए कर्मों का स्मरण कर। ईश्वर का स्मरण करने का अर्थ ईश्वर का ध्यान व चिन्तन भी लिया जा सकता है और कर्मों का स्मरण करने का तात्पर्य अपने कर्मों के सत्य व असत्य स्वरूप की परीक्षा कर असत्य पर आधारित कर्मों को छोड़ने और अच्छे कृत कर्मों को जारी रखने सहित अन्य नये शुभ कर्मों को करने पर विचार करने का उद्देश्य प्रतीत होता है। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में ओ३म् का जप मन से करने के उपदेश के साथ गायत्री मन्त्र में ईश्वर के लिए प्रयुक्त तीन महाव्याहृतियों में से दूसरी व्याहृति भुवः का निर्वचन करते हुए लिखा है कि भुवरित्यपानःयः सर्व दुःखमपानयति सोऽपानः अर्थात् जो ईश्वर सब दुःखों से रहित है तथा जिसके संग (उपासना, ध्यान व भक्ति आदि) से जीव सब दुःखों से छूट जाते हैं इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘‘भुवः’’ है। ईश्वर की भुवः नाम की महाव्याहृति संकेत कर रही है कि ईश्वर के नाम का स्मरण करने, उसका गुण-कीर्तन-स्तुति करने व उसके स्वरूप आदि का विचार कर अपने कर्म सुधारने से मनुष्य वा ईश्वर नाम स्मरण करने वाले मनुष्य के दुःख दूर हो जाते हैं। हमें इस समय एक भजन भी याद आ रहा है जिसके बोल हैं आ३म् बोल मेरी रसना घड़ी घड़ी, सकल काम तज ओ३म् नाम भज, मुख मण्डल में पड़ी पड़ी। यह सुन्दर व आत्मा को आह्लादित करने वाला भजन यूट्यूब पर लिंक https://www.youtube.com/watch?v=fH2SAy0vk8M पर भी उपलब्ध है जिसे सुना जा सकता है।

 

हमने ओ३म् नाम को स्मरण करने व जप करने पर कुछ संक्षेप में विचार प्रस्तुत किये हैं। आशा है कि पाठक इसे उपयोगी पायेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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